Sunday, December 25, 2011

क्रिसमस की वह मुबारक़बाद

रविवासरीय हिन्दुस्तान (25 - 12 - 2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम



क्रिसमस की वह मुबारक़बाद

त्योहारों के बारे में एक धारणा यह है कि वे अपनों और परायों का भेद खत्म कर देते हैं। सिर्फ अपने-पराये ही नहीं, ऐसे मौकों पर अक्सर दुश्मन भी गले मिल जाते हैं। ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद का क्रिसमस के मौके पर बधाई संदेश देना ऐसा ही एक मौका था। किसने सोचा था कि एक कट्टर इस्लामी माने जाने वाले ईरान जैसे देश का नेता ईसाई बंधुओं को उनके पावन पर्व पर शुभकामनाएं देगा? लेकिन यह तब मुमकिन हुआ, जब ब्रिटेन के चैनल फोर ने उनसे क्रिसमस संदेश देने का आग्रह किया और वह मान गए। उस समय यह बहुत बड़ी खबर थी, क्योंकि वह महज तीन साल पहले ही ईरान के राष्ट्रपति बने थे और अपने कई विवादास्पद बयानों की वजह से चर्चा में थे।

अगर क्रिसमस की भावना आपके दिल में नहीं है तो वह क्रिसमस ट्री के नीचे भी नहीं मिलेगी. क्रिसमस का सन्देश ही है कि आप अकेले नहीं है और कोई भी शख्स पराया नहीं है. इसीलिये लोग आपसी बैर भुलाकर भाईचारे की बात करने लगते हैं. क्रिसमस आते ही फिजाओं में प्रेम का सन्देश फैलने लगता है और हर चीज़ कोमल, अपनत्व से भरी और सुन्दर नज़र आने लगती है. ब्रिटेन के चैनल फोर पर ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद का यह भाषण इसी बात की तरफ इशारा करता है कि क्रिसमस सभी धर्मों का है और सभी प्रेम चाहते हैं. ये वही अहमदीनेजाद हैं जिन्होंने कभी कहा था कि जो भी देश इस्राईल को मान्यता देगा, उसे जलाकर खाक कर दिया जाएगा.दुनिया के नक्शे से ईस्राईल का नामो निशान मिटा दिया जाएगा. ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद का यह भाषण एक ऐतिहासिक धरोहर बन चुका है. ईरान के छठवें और वर्तमान राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने कभी यह भी कहा था कि परमाणु शक्ति अल्लाहताला का आशीर्वाद है और हम उसे पूरे इस्लामी जगत में फैलाना चाहते हैं. वे परिवार को नियोजित करने के कट्टर विरोधी रहे हैं और सात करोड़ के ईरान की आबादी १२ करोड़ जल्दी देखना चाहते हैं. इसके लिए लड़कियों की विवाह की आयु घटाकर १६ साल करने के पक्षधर हैं. उनके क्रिसमस सन्देश के भाषण का अंश :

हम ईश्वर की रचना

अहमदीनेजाद ने अपने संदेश की शुरुआत परंपरागत ढंग से की,"ईसा मसीह के जन्म के मौके पर मैं उनके अनुयायियों को मुबारकबाद देता हूँ. उस सर्वशक्तिमान ने इंसानों के लिए ब्रह्माण्ड की रचना की और इंसान बनाये. उन्होंने इंसान को ऐसा बनाया कि वह परिपूर्णता की हद तक काबिल बनाया. इंसान की ज़र्रे से शुरू होनेवाले सफ़र में रास्ता दिखाने के लिए पैगम्बर भेजे जिन्होंने मोहब्बत और भाईचारे का पैगाम दिया और इंसानों के मिलजुलकर प्रेम से रहने की शिक्षा दी. माता मरियम के बेटे यीशु ने लोगों को अन्याय और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा दी. पैगम्बरों के बताये रास्ते से भटकने के कारण इंसान की रह में मुश्किलात आये. ईश्वर के दूतों की बातों को भूलना इंसानियत को भारी पड़ा, खासकर यीशु की शिक्षा को. इसी कारण हमारे समाज, घर-परिवार, नैतिकता, राजनीति, सुरक्षा और अर्थ व्यवस्था पर दबाव आने लगे क्योंकि हमने देवदूतों के संदेशों की अनदेखी की.''

अगर आज यीशु होते

इसके बाद अहमदीनेजाद आज की दुनिया की दूसरी गड़बड़ियों की ओर ले जाते हैं, जो हमें दुनिया की राजनीति तक ले जाती है, "अगर आज यीशु धरती पर होते तो वे जोर-ज़बरदस्ती करनेवाले बददिमागी विस्तार्वादियों के खिलाफ जनता के साथ खड़े होते.
अगर आज यीशु धरती पर होते तो वे न्याय, मानवता और प्रेम की झंडाबरदारी कर रहे होते और दुनिया भर युद्धोत्तेजना फैलानेवाले विस्तार्वादियों की जबरदस्ती के खिलाफ संघर्ष कर रहे होते.अगर आज यीशु धरती पर होते तो दुनिया में फ़ैल रही आर्थिक और राजनैतिक दमनकारी नीतियों के खिलाफ जूझ रहे होते, वैसे ही, जैसे कि वे आजीवन जूझते रहे थे.आज के दौर की तमाम समस्याओं का समाधान केवल ईश्वर के दूतों के सहयोग से ही संभव है. उनके नक्श ए कदम पर चलकर ही हम इन परेशानियों से निजात पा सकते हैं, जिन्हें अल्लाह ताला ने इंसानियत के भले के लिए धरती पर भेजा था.''

''आज, दुनिया के तमाम मुल्कों में बुनियादी बदलाव की मांग जोर पकड़ती जा रही है. अब इसका रुख साफ़ हो रहा है. बदलाव की मांग, कायापलट की मांग, मानवीय मूल्यों पर वापस लौटने की मांग, और अब यह मांग है दुनिया में सबसे अव्वल रहने की. इन तमाम मांगों का जवाब सच्चा और असली होना चाहिए. इनमें सबसे पहली ज़रुरत है इन उद्देश्यों में मकसदों, इरादों और दिशाओं में बदलाव की. अगर निरंकुश इरादों पर लगाम न कसी गयी और इन्हें मुल्कों के सामने चुनौती के रूप में यों ही खड़े रहने दिया गया तो ये बातें उन मुल्कों के ही परेशानी का सबब बन जायेगी.''

एक किरण भी चमत्कारी

"दुर्योग से आज के संकट और भेदभाव बहुस्तरीय हैं. आशा की एक किरण भी ऐसे में चमत्कार कर सकती है. अच्छे भविष्य की आशा और न्याय की उम्मीद, सच्ची शांति और सदभाव के माहौल का भरोसा, सदचरित्र और धर्मपरायण शासकों की चाह जो अपनी प्रजा से प्रेम करते हों और उनकी सेवा करने की इच्छा रखते हों, वैसा ही, जैसा कि उस सर्वशक्तिमान ने वादा किया था. हमें यकीन है कि यीशु फिर लौटेंगे, इस्लाम के उस परम सम्मानित संदेसा वाहक के बच्चे के साथ और नेतृत्व करेंगे दुनिया को मोहब्बत, भाईचारे और न्याय दिलाने के लिए.''

''अब यह जवाबदारी है ईसाई और अब्राहमिक आस्था के अनुयायियों की, कि वे उस पवित्र वचन के पालन करनेवालों के पथ को तैयार करें और भविष्य में आनेवाले उस आनंदकारी, चमकीले और अनोखे काल का आगमन आसान और संभव हो सके. मुझे उम्मीद है कि हम सब मुल्कों की मिलीजुली एकसूत्र में होनेवाली कोशिशों से वह सर्वशक्तिशाली विधाता अपने शासन से धरती को रोशन करेगा और धरती पर उसका नूर नज़र आएगा. सभी को यीशु के जन्म की वर्ष गाँठ पर मुबारकबाद. दुआ है कि आनेवाला नया साल खुशिया, सम्पन्नता, शांति, भाईचारा और मानवता लाये. आप सब कि कामयाबी और खुशियों के लिए मेरी शुभकामनाएं."

निस्संदेह, इस संदेश में अहमदीनेजाद का अपना एजेंडा छिपा था। लेकिन इसमें कहीं कोई दुर्भावना नहीं थी, कोई कट्टरता नहीं थी। और सबसे बड़ी बात है कि सीधे किसी के खिलाफ कुछ नहीं कहा गया था। ऐसे संदेश से हम यह उम्मीद करते हैं कि वह दूरियां पाटेगा। लेकिन कुछ हद तक हुआ इसका उल्टा ही। राष्ट्रपति अहमदीनेजाद के इस भाषण पर दुनिया भर में तूफान-सा उठ खड़ा हुआ। ब्रिटेन के तमाम अखबारों ने इस पर प्रतिक्रियाएं प्रकाशित कीं। पक्ष और विपक्ष में।

टाइम्स, मिरर, बिजनेस पोस्ट, इंटरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून, डेली मेल आदि ने या तो इस भाषण की सराहना की या फिर कुछ शब्दों/वाक्यांशों के लिए आलोचना की। पर इससे पश्चिमी देशों को इस बात का आभास तो हो ही गया कि शांति और सद्भाव के लिए हर कोई अपने-अपने ढंग से सोच रहा है। तारीफ और आलोचना करने वाले सिर्फ पश्चिमी देशों में ही नहीं थे, अहमदीनेजाद के अपने देश ईरान और दूसरे इस्लामिक में भी यही हाल था। यह संदेश ईसाइयों के लिए था, लेकिन इसने असर सब पर दिखाया।

प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान (25 - 12 - 2011) को प्रकाशित

Monday, December 19, 2011

क्रिकेट ने हमारी ज़िंदगी बदल दी है

रविवासरीय हिन्दुस्तान (18 - 12 - 2011) के एडिट पेज पर प्रकाशित मेरा कॉलम



क्रिकेट ने हमारी ज़िंदगी बदल दी है

राहुल द्रविड़ को लोग भारत की दीवार कहते हैं. कई लोग उन्हें 'मिस्टर रिलायबल' भी कहते हैं. उनके नाम पर क्रिकेट में कई रेकार्ड्स हैं. ताज़ा रिकार्ड है टेस्ट क्रिकेट में तेरह हज़ार रन बनाने का. केवल सचिन ही हैं जिन्होंने टेस्ट क्रिकेट में उनसे ज्यादा रन बनाये हैं. सर डोनाल्ड (डॉन) ब्रेडमैन के बाद राहुल द्रविड़ अकेले ऐसे क्रिकेटर हैं, जिनके खाते में इंग्लैण्ड के खिलाफ तीन या उससे ज्यादा शतक हैं. सुनील गावस्कर ने राहुल के बारे में कहा है --''राहुल भारतीय टीम के लौह कवच हैं. उनका हरेक कदम उनके चरित्र का बखान करता है.'' सुरेश रैना उन्हें अपना आदर्श मानते हैं. पंद्रह साल पहले उन्हें सिंगर कप के लिए विनोद काम्बली की जगह श्रीलंका के खिलाफ वन डे मैच में मैदान में उतारा गया था और फिर बाद में हटा लिया गया. लेकिन अपनी खेल प्रतिभा से राहुल द्रविड़ क्रिकेट के चमकीले सितारे बने. लेकिन उन्हें 14 दिसंबर को कैनबरा के वार मेमोरियल में सर डॉन ब्रेडमैन स्मृति भाषण के लिए आमंत्रित किया गया था. वे पहले क्रिकेटर हैं जो गैर आस्ट्रेलियन होते हुए भी इस महत्वपूर्ण कार्यक्रम में बुलाये गए थे. इस भाषण में राहुल द्रविड़ ने जो बातें कहीं, वे अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण इसलिए हैं कि उसमें राहुल द्रविड़ का एक नया ही रूप सामने आया. यहाँ राहुल द्रविड़ ने किसी बेहद अनुभवी कूटनीतिक की तरह बातें कहीं और भारत और आस्ट्रेलिया के रिश्तों को नया आयाम देने की कोशिश की.
क्रिकेट और युद्ध
भारत और आस्ट्रेलिया के बारे में जब भी बात होती है तब कहा जाता है कि दोनों ही देशों को क्रिकेट और नज़दीक लेकर आ गया है. आज़ाद भारत ने अपना पहला क्रिकेट मैच अगर किसी देश के साथ खेला था तो वह आस्ट्रेलिया के साथ. आज़ादी के तीन महीने बाद नवम्बर १९४७ में वह मैच खेला गया. जो एक तरह का युद्ध कहा जा सकता है. लेकिन इतिहास बताता है कि हम उससे भी कहीं पहले एक साथ जुड़ चुके थे और हम एक दूसरे के खिलाफ नहीं, साथ साथ युद्ध भी लड़ चुके हैं. असली युद्ध. गल्लिपोली (तत्कालीन ओट्टोमन साम्राज्य, वर्तमान में तुर्की) में भारत और आस्ट्रेलिया प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान (25 अप्रैल 1915 से 9 जनवरी 1916 ) साथ साथ लड़े थे. इसमें भारत के १३०० से ज्यादा जांबाज़ सैनिक शहीद हुए थे और आस्ट्रेलिया के भी हजारों जवानों ने प्राणों की आहुति दी थी. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भी भारत और आस्ट्रेलिया के फौजी साथ साथ अल अलामीन, उत्तरी अफ्रीका, सीरिया-लेबनान और बर्मा में कंधे से कन्धा मिलाकर सिंगापुर पर कब्जे के लिए साथ साथ लड़े थे.

राहुल द्रविड़ ने अपने भाषण में कहा कि हम यहाँ क्रिकेट की चर्चा कर रहे हैं और युद्ध में दोनों देशों के शहीदों को याद कर रहे हैं. प्रतिस्पर्धी होने के पहले हम भारतीय और आस्ट्रेलियाई साथी थे. आपने मुझे इस भाषण के लिए बुलाया, आभारी हूँ. लॉर्ड्स में क्रिकेट के मैदान में सर डॉन ने लंच के पहले ही सेंचुरी मार ली थी, जबकि मुझे इसमें लगभग पूरा दिन लग गया था. बड़ी बात यह है कि सर डॉन ने भारत के विरुद्ध केवल पांच टेस्ट खेले थे 1947-48 में. यह उनका अपने होम ग्राउंड पर अंतिम सीजन था. और सर डॉन ने भारत में खेला ही नहीं था. भारत भूमि पर सर डॉन के कदम मई 1953 में पड़े थे, जब वे इंग्लैण्ड जा रहे थे और उनका विमान कोलकाता में रुका था. वहां करीब एक हज़ार लोग उनका अभिवादन करने को खड़े थे, लेकिन वे सेना की जीप में बैठकर सुरक्षित ईमारत में चले गए थे. भारतीयों ने उन्हें पहली बार तभी देखा. मेरे देश में क्रिकेट प्रेमियों की एक पीढी उन्हें एक ऐसे विलक्षण क्रिकेटर के रूप में जानती है जो इंग्लैण्ड के बाहर का था.
रेकार्ड टूटने का विरोध
कुछ दिलचस्प बातें : 28 जून 1930 को ब्राडमैन ने लोर्ड्स में इंग्लैण्ड के खिलाफ 254 रन बनाये थे, और यही वह दिन था जब जवाहरलाल नेहरू को ब्रिटिश पुलिस ने गिरफ्तार किया था. नेहरू आजादी की लड़ाई के प्रमुख सिपाही थे और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बने. एक और किस्सा. 1933 में जब ब्रेडमैन का 334 रनों का रिकार्ड टूटा, तब उनके कुछ क्रिकेट फेंस ने काली पत्तियां बाँधकर इसका विरोध जताया था, क्योकि वे ब्रेडमैन का रिकार्ड टूटने से खफा थे. ब्रेडमैन का मानना था कि क्रिकेट खिलाड़ी इस महान खेल के ट्रस्टी हैं. मुझे यह कहते हुए ख़ुशी है कि मैं कुछ बड़ी दिलचस्प बातें सर डॉन से शेयर करता हूँ. वे भी, मूलत; मेरी तरह ही तीसरे क्रम के बल्लेबाज़ थे. यह एक कठिन कार्य है. हमने यह कार्य किया लेकिन उन्होंने इसे और भी सफलता और स्टाइल से किया. वे गेंदबाजों पर छा जाते थे और फिर अपनी तशरीफ़ ले जाते थे. ..वे अस्सी के दशक में सार्वजानिक जीवन से रिटायर हो गए. मुझे ज्ञात हुआ कि वे सुनील गावस्कर की पीढ़ी के खिलाड़ियों को आस्ट्रेलिया में खेलते हुए देख चुके है...मैं उनका कायल हूँ, जिस कुशलता के साथ वे खेले, और जिस गरिमा, सत्यनिष्ठा, साहस और विनम्रता से उन्होंने ज़िन्दगी को जीया. उन्होंने आजीवन विश्वास किया स्वाभिमान, महत्वाकांक्षा, प्रतिबध्धता और प्रतियोगितात्मकता पर. ये वे शब्द हैं जिन्हें पूरी दुनिया में क्रिकेट के ड्रेसिंग रूम में चस्पा कर देना चाहिए. .. वे हमारे बीच से 25 फरवरी 2001 को चले गए, मुंबई में भारत आस्ट्रेलिया सीरिज शुरू होने के दो दिन पहले.
क्रिकेट की शिक्षाएं
आई पी एल को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि आज भारतीय और आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी एक ड्रेसिंग रूम शेयर करते हैं. शेन वाटसन की राजस्थान रॉयल्स में सहभागिता, माइक हँसी का चेन्नई में रोल और शेन वार्न की भारतीय टीम में रूचि महत्वपूर्ण है. क्रिकेटर के रूप में हम अपने अपने देश के राजदूत हैं....यहाँ मैं यह कहना चाहता हूँ कि हम वास्तव में एक दूसरे को समझना, स्वीकारना, सम्मान करना सीख रहे हैं. जब मैंने अंडर 19 मैच न्यूजीलैंड के खिलाफ खेला था तब हमारी टीम में दो गेंदबाज़ थे, जिनमें से एक हिन्दीभाषी उत्तर भारत का था और दूसरा केरल का मलयालम भाषी. दोनों एक दूसरे से बात करने में असमर्थ थे. लेकिन जब मैच हुआ तब दोनों ने सौ रनों की भागीदारी की थी. यह सब क्रिकेट में संभव है. क्रिकेट ने भारत का ताना बाना ही बदल डाला है.
जैसे सर डॉन आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स के बारह हज़ार आबादी के कस्बे से आये थे, वैसे ही हमारे देश के क्रिकेटरों की भी कहानियां है. रणजी ट्रॉफ़ी के लिए 27 तीमें खेलती हैं. पिछली बार जीती राजस्थान की टीम. झारखण्ड की टीम ने पहली बार वन डे जीता. जहीर खान महाराष्ट्र के जिस कस्बे से आते हैं, वहां सलीके का एक मैदान तक नहीं. गुजरात का एक 17 साल का युवक भारत का सबसे तेज़ गेंदबाज़ बना है. मुनाफ पटेल के टीम में आने के बाद उनके गाँव और रेलवे स्टेशन के बीच का रोड सुधर गया क्योंकि सैकड़ों पत्रकार उनसे मिलने जा रहे थे. क्रिकेट के कारण उमेश यादव ने अपना पुलिस में भर्ती होने का सपना छोड़ा. वीरेंद्र सहवाग प्रैक्टिस के लिए रोजाना 84 किलोमीटर का सफ़र बस से करते थे. भारत के हर क्रिकेटर की एक कहानी है. भारतीय क्रिकेट की आत्मा और ह्रदय की कहानी.
क्रिकेट के नए रूप
क्रिकेट ने हमारी ज़िन्दगी बदल दी है. हम जीतें या ना जीत पायें, जनता हमारे लिए दुआ मांगती है, हमें देखकर मुसकराती है, हाथ हिलाती है. क्रिकेट हमारे लिए रोजी रोटी नहीं, एक वरदान है. इसके बिना हम केवल मामूली इंसान हैं. हमें इस मौके पर पुनरवलोकन भी करना चाहिए. मैंने पिछले महीनों में एक भारतीय मैच में स्टैंड में कई सीटें खाली पायी. यह एक चेतावनी भी है. 1981 से अब तक भारत 227 वन डे इंटरनेशनल खेल चुका है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि आखिर हम हैं तो परफार्मर, इंटरटेनर, क्रिकेटर. और हमें अपने दर्शकों से प्यार है. आस्ट्रेलिया या इंग्लैण्ड की तरह हमारे यहाँ और कोई खेल नहीं है जो इतना रेवेन्यु अर्जित कर पाए. अब टेस्ट मैच, वन डे और 20 -20 में तालमेल बैठकर खेल को आगे बढ़ाना चाहिए. हमें मूल क्रिकेट को और उसकी भावना को बचाकर रखने की कोशिश करनी चाहिए. क्रिकेट की तीनों विधाओं के लिए अलग अलग कौशल की ज़रुरत पड़ती है.टेस्ट क्रिकेट वह पद्धति है जिसे क्रिकेटर खेलना चाहते हैं. वन डे तीन दशकों से रेवेन्यू का एक अच्छा माध्यम है और अब 20 - 20 नए रूप में आ चुका है, इस रूप को दर्शक देखना चाहते हैं.
प्रकाश हिन्दुस्तानी


(दैनिक हिन्दुस्तान (18 - 12 - 2011) के एडिट पेज पर प्रकाशित)

Sunday, December 11, 2011

सिखाती तो नाकामी ही है

रविवासरीय हिन्दुस्तान (11 - 12- 2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम






सिखाती तो नाकामी ही है

इन्फोसिस के जनक एन आर नारायण मूर्ति अब रिटायर हो गए हैं, लेकिन शैक्षणिक और सामाजिक गतिविधियों के कारण वे लगातार चर्चा में हैं. उन्होंने तीस साल पहले, 1981 में दस हज़ार रुपये की पूंजी से इन्फोसिस शुरू की थी, जिसका टर्नओवर आज तीस हज़ार करोड़ रुपये से भी अधिक है. किंवदंती बन चुके नारायण मूर्ति हमेशा ही कुछ नया करने, अपने जीवन में मूल्यों को महत्व देने, गांधीवाद को अपनाने और सही वक़्त पर पद छोड़ने के पैरोकार रहे हैं. उन्हें शीर्ष शिक्षा संस्थान विद्यार्थियों को मार्गदर्शन देने के लिए बुलाते हैं, जहाँ वे अपने अनुभवों को बाँटते हैं.

नारायण मूर्ति के प्रमुख भाषणों में से यह भाषण भी है जिसमें उन्होंने युवाओं से कहा था -- अपने कर्म से प्रेम करो, कंपनी से नहीं; क्योंकि आप यह नहीं जानते कि कंपनी कब आपसे प्रेम करना बंद कर देगी!

आराम भी ज़रूरी है, काम की तरह

''मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ, जो सप्ताह में छह दिन रोजाना 12 घंटे या उससे भी ज्यादा कार्य करते हैं, क्योंकि इमर्जेन्सी में उन्हें यह करना पड़ता है. यह कुछ ही दिनों के लिए होता है. ऐसे लोग भी होते हैं जो इतने या इससे भी ज्यादा समय कार्यालय में बिताते हैं...यह कोई अच्छी बात नहीं है. जब कार्यालयों में लोग लम्बे समय तक रहते है, वे ज्यादा गलतियाँ करते हैं और फिर उन्हें सुधारने में ही काफी वक़्त लग जाता है. वे लोग आपस में शिकायतें करते हैं, जिसका कोई अच्छा नतीजा नहीं निकलता.

मेरी सलाह है कि हमें अपने जीवन में संतुलन बनाये रखना चाहिए. मेरी राय में यह दिनचर्या लाभदायक हो सकती है : (1 ) सुबह उठो, तैयार होओ, अच्छा नाश्ता करो और ड्यूटी पर जाओ. (2 ) ड्यूटी पर आठ या नौ घंटे जमकर, स्मार्ट तरीके से कार्य करो. (3 ). घर वक़्त पर पहुँचो. (4 ). परिवार को समय डॉ, बच्चों से खोलो, किताबें पढ़ो. टीवी देखो वगैरह वगैरह. (5 ). अच्छी तरह भोजन करो और बढ़िया नींद लो.

याद रखो -- जो लोग ऊपर लिखे पहले, तीसरे, चौथे या पांचवे कार्य को ठीक से नहीं कर पाते, वे दूसरे कार्य यानी ड्यूटी ठीक से नहीं कर पाते.

जो लोग देरी से घर पहुंचाते हैं, उनका परिवार इसकी कीमत अदा करता है.

कई लोगों को लगता है कि अगर वे ऑफिस में ना रहें तो कुछ अनहोनी हो जाएगी. ...और उन्हें यह लगता ही रहता है, ऐसी अनहोनी कभी नहीं होती.
बेहतर है कि आप आराम के वक़्त आराम और काम के वक़्त काम करें. आपका आराम भी ज़रूरी है. आप आराम करेंगे, तभी बेहतर कार्य कर सकेंगे. इसीलिये मैं यह कहता हूँ कि अपने कर्म से प्रेम करो,कंपनी से नहीं; क्योंकि आप यह नहीं जानते कि कंपनी कब आपसे प्रेम करना बंद कर देगी!
खुद के अनुभव से सीखें
नारायण मूर्ति ने अपने खुद के अनुभव से सीखने को बेहद महत्वपूर्ण करार दिया है. न्यू यॉर्क विश्वविद्यालय में दिए गए एक भाषण में उन्होंने कहा था --''आप कैसे और क्या सीखते हैं यह महत्वपूर्ण है, यह नहीं कि आपने कहाँ सीखा? अगर सीखने की क्षमता और गुणवत्ता अच्छी है तो यह बात ज्यादा फायदे की है.'' इसी भाषण में उन्होंने कहा --''सफलताओं से सीखना ज्यादा कठिन है, बनिस्बत असफलताओं के. क्योंकि जब भी हम नाकाम होते हैं, हम उसके बारे में गहनता से सोचते हैं. कामयाबी मिलने पर प्राय: ऐसा नहीं होता.'' असफलता हमारे विचारों को उद्वेलित कर देती है और सफलता हमारे सभी पुराने फैसलों को सही ठहराते हुए आगे बढ़ने को प्रेरित करती है.

दरअसल हमारा दिमाग इस तरह से विकसित होता है कि अगर हमारे सामने कोई चुनौती आये तो हम उसे टालने का यत्न करेंगे. हम हमेशा उपयोगी लेकिन नकारात्मक सलाहों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं. जो लोग चुनौतियों और अपनी आलोचनाओं से सीखना जानते हैं वे ही कामयाबी की सीढ़ियाँ चढ़ पाते हैं. याद रखिये, हमारे जीवन कि सबसे बड़ी, महत्वपूर्ण और निर्णायक घटना यही होती है कि हम संकट के पलों में प्रतिक्रिया कैसे व्यक्त करते है? हमारी यही भूमिका सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण है.
भारतीय परंपरा का महत्व
नारायण मूर्ति भारतीय परंपरा को बहुत महत्व देते हैं. हमारी परंपरा आत्म ज्ञान की है. यही ज्ञान का सबसे बड़ा प्रकार है. आत्म ज्ञान है क्या? यह है अपने बारे में जानना है. यह अपने आप को भीतर तक जाकर समझना है. आप अपने आप में कितना यकीन करते हैं? आपमें हौसला है क्या? और इस सबसे ऊपर यह कि मानवता का कितना अंश आपमें जीवित है? अगर आपमें मानवता का अंश नहीं बचा है तो आप कभी भी अपनी सफलता को गरिमामाय तरीके से प्राप्त नहीं कर पाएंगे. मैं अपने अनुभवों के आधार पर कह सकता हूँ कि अनुभवों से सीखना इस बात पर निर्भर है कि आप अपने दिमाग को किस दिशा में लेकर जा रहे हैं? आप में अपने आप को बदलने की कितनी इच्छा और कूवत है? घटनाओं पर आप के दिमाग में कब, कौन सी और कितनी तेज़ प्रतिक्रियाओं की बिजली कौंधती है?

कुछ साल पहले मैं शून्य था. आज मैं कामयाब हूँ.. मेरे जीवन में आनेवाले हर रोड़े ने, रास्ते के हर पत्थर ने मुझे सफलता की राह सुझाई है. यही रुकावटें थीं कि मैं आज सफल हो सका. मैं यह मानने को कतई तैयार नहीं कि हमारा भवितव्य पहले से तय होता है. हम क्या करेंगे, क्या बनेंगे यह हम ही तय करते हैं. क्या आप यह मानते हैं कि आपका भविष्य लिखा जा चुका है या आप यह मानते हैं कि उसे अभी लिखा जाना है और भविष्य क्या होगा यह तय करेंगे कुछ हालात? क्या आप यह मानते हैं कि वे हालात आपके जीवन में निर्णायक घडी होंगे? क्या आपको लगता है कि आप अपनी कामयाबी की किताब खुद, स्वर्णाक्षरों में लिख सकते हैं? आप उस किताब को और भी सुन्दर, यादगार और महान बना सकते हैं? मैं यह मानता हूँ कि आप यह समझते हैं कि आपका भविष्य अनेक निर्णायक मोड़ों और शिक्षाप्रद संभावनाओं के मध्य से गुजरेगा. मैं इसी रास्ते से होकर गुजरा हूँ. यह बड़ा ही सुखकर रास्ता है, बड़ा ही दिलचस्प और उम्मीदों से भरा.
आपके निशां होंगे ज़माने पर

नारायण मूर्ति युवाओं के लिए आश्वस्त हैं उन्हें भरोसा है कि युवा वक़्त की रेत पर अपने निशां ज़रूर छोड़ेंगे. आप सब यह बात ज़रूर याद रखिये कि हम सब अपनी आनेवाली पीढ़ी के लिए अभिरक्षक या रखवाली करनेवाले हैं. हम चाहे कुछ भी उपलब्धि प्राप्त कर लें, कोई भी संपत्ति बना लें या साम्राज्य ही क्यों न खड़ा कर लें, चाहे वह आर्थिक, बौद्धिक, भावनात्मक उपलब्धि ही क्यों न हो, हम होंगे तो उसके कस्टोडियन या अभिरक्षक ही. आपके पास जो भी सम्पदा हो, उसका सर्वोत्तम उपयोग यही है कि आप उसे उन लोगों के साथ बाँटें जो कम सौभाग्यशाली हैं. मैं यकीन करता हूँ कि आप इस बात से वाकिफ हैं कि हम जो फल आज खा रहे हैं, उसे देने वाले पेड़ हमने नहीं लगाये. उनके पौधे हमने नहीं रोपे. उनके बीजों को हमने अंकुरित नहीं किया. अब यह हमारी बारी है कि हम उन पेड़ों को लगाने की तैयारी करें, जिनके फल शायद हम जीते जी नहीं खा पाएंगे, लेकिन व्यापक रूप में हमारी आनेवाली नस्लें उसका फायदा ले पाएगी. ऐसे पेड़ों को अंकुरित करना, रोपना और बड़ा करना हमारी पद्मपावन जवाबदारी है.

नारायण मूर्ति हमेशा यही कहते हैं कि मैं एक साधारण इंसान हूँ और मैंने भी कई गलतियाँ की हैं, मैं भी नाकाम हुआ हूँ, लेकिन मैं हर बार संभाला हूँ और कुछ नया, बेहतर और उपयोगी करने की कोशिश करता रहा हूँ.

प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान 11- 12- 2011 के अंक में प्रकाशित

Sunday, December 04, 2011

धन से बड़े हैं मन के मकसद

रविवासरीय हिन्दुस्तान (04 - 12 - 2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम


केवल धन के लिए काम ना करें

स्टीव 'वोज' (स्टीफन गेरी वोज्निआक) कॉलेज ड्रॉपआउट हैं, लेकिन उनके पास अमेरिका के नौ विश्वविद्यालयों की मानद पीएच डी की उपाधियाँ हैं.
उन्होंने स्टीव जॉब्स के साथ एप्पल की स्थापना की थी और बहुत कम लोगों को पता होगा कि एप्पल का डिजाइन वास्तव में वोज की देन है, न कि स्टीव जॉब्स की. वास्तव में स्टीव जॉब्स ने एप्पल का कोई भी पुर्जा डिजाइन ही नहीं किया है, सब कुछ किया है वोज ने. वह भी वोज के ही घर पर. एप्पल कंप्यूटर लांच करने के लिए जॉब्स ने अपना केलकुलेटर और वोज ने अपनी पुरानी गाड़ी बेचकर १३५० डॉलर इकट्ठे किये थे. उन्होंने ही किशोरावस्था में स्टीव जॉब्स और रोनाल्ड वायने के साथ मिलकर कंपनी बनाई थी.

वोज १८ साल की उम्र में वे पहली बार स्टीव जॉब्स से मिले थे, तब जॉब्स केवल १३ साल के थे. दोनों की दिलचस्पी कम्प्यूटर्स में थी और दोनों ही कुछ ख़ास करना चाहते थे. कुछ मुलाकातों के बाद दोनों ने २५ डॉलर में एक माइक्रोप्रोसेसर खरीदा और पर्सनल कंप्यूटर बनाने की कोशिशें शुरू कीं. इस कोशिश में उन्होंने एक 'ब्यू बॉक्स' बना डाला जिसके जरिये वे 'टोल फ्री' टेलीफोन काल्स करने लगे थे. वोज कहते है --''यह थी एप्पल कंपनी की शुरुआत. अगर यह ब्यू बॉक्स नहीं होता तो आज एप्पल कंप्यूटर भी नहीं होता.

लक्ष्य केवल धन कमाना नहीं
वोज इन दिनों भारत यात्रा पर हैं. कंप्यूटर गेम बनाना असंभव था अगर वोज ने हाई रेज़ कलर, ग्राफिक्स और साउंड की खोज नहीं की होती. वोज ने ही कंप्यूटर के असेम्बली कोड लिखे थे और उन्हें बिनारी में विश्लेषित किये थे. ये कोड उन्होंने एक नोटबुक में अपने हाथ से पेन से लिखे थे, जो आज भी सुरक्षित रखे गए हैं. वीडियो डिस्प्ले में प्रयुक्त माइक्रोकंप्यूटर, रिकार्डर का मेग्नेटिक डिस्क कंट्रोलर जैसे कई अन्वेषण उनके नाम पर पेटेंट किये गए हैं. विद्यार्थी जीवन में ही वे अपनी इन खोजों के बारे में ग्राहक खोजते रहते थे. लेकिन लाख टेक बात वे जानते थे --'' मेरा लक्ष्य कभी भी ढेर सारा धन कमाना नहीं, बल्कि ये रहा कि मैं एक बहुत अच्छा कंप्यूटर बना सकूं.''

''हमें अपने कार्य में लोगों और समाज की मान्यता और सम्मान चाहिए था. इसके लिए ज़रूरी था कि लोग हमारे बनाये गए उत्पाद खरीदें, यह हमारे काम को मान्यता देने और सम्मान करने का एक तरीका मात्र था. हमें अपने काम में एक बड़ा फायदा यह मिला कि उन दिनों कम्यूटर के बारे में कोअनूं नहीं बने थे.''


याददाश्त खो चुके थे वोज
अपनी किशोरावस्था में ही वोज ने पहला वीडियो गेम बना डाला था. २० साल की उम्र में उन्होंने ह्यूलेट पेकार्ड में नौकरी शुरू कर दी थी और २६ की उम्र में स्टीव जॉब्स के साथ एप्पल कंप्यूटर कंपनी बना ली थी.वे कहते थे कि अगर हम सफल नहीं भी पाए तो कोई बात नहीं, कम से कम हम अपने बच्चों को यह तो कहा ही सकेंगे कि हम जवानी के दिनों में ही कंपनी के मालिक बन गए थे. फरवरी १९८१ में वोज का प्राइवेट विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था, जिसमें उनकी जान तो बच गयी पर वे अपनी याददाश्त खो बैठे थे. उस दुर्घटना के हफ़्तों बाद तक उन्हें याद नहीं था कि उनका विमान दुर्घटना का शिकार हो गया था. उन्हें रोज़मर्रा की बातें याद नहीं रहतीं थीं, वे शारीरिक तौर पर ठीक होने के बाद भी कई हफ़्तों तक अपने काम पर नहीं गए. कोई पूछता तो कहते कि यह वीकेंड है. वे लोगों से ही पूछते कि उन्हें काया हो गया था, लोग उन्हें दुर्घटना के बारे में बताते तो वे आश्चर्य व्यक्त करते. कुछ माह बाद उनकी याददाश्त धीरे धीरे वापस लौटी, पर कई बातें वे अब भी भूल जाते हैं. इस दुर्घटना के कारण उन्हें कुछ साल मिल गए एप्पल से अलग रहने के लिए और इसी दौरान उन्होंने अपनी कॉलेज की पढ़ाई फिर से शुरू की और पाँच साल बाद वे ग्रेजुएट हुए. इसी दौरान उन्होंने शादी कर डाली. जब वे वापस लौटे तब वे केवल एक इंजीनियर नहीं, अपनी कंपनी के लिए एक टीम लीडर भी थे.
एकरस ना रहें
स्टीव वोज ने अपने जीवन में एकरसता नहीं आने दी. उन्होंने माइक्रोसाफ्ट जैसी कंपनी के सामने अपने लक्ष्य को पाने के लिए तो काम किया ही, लेकिन अपने जीवन में भी विविधता के रंग भरे. उनके खिलंदड़ स्वभाव के कारण जीवन की कई परेशानियों से वे निजात पा सके. वोज पोलो के खिलाड़ी तो हैं ही, एक टीवी रीयल्टी शो 'डांसिंग विथ द स्टार' में भी वे भाग ले चुके हैं. मज़ेदार बात यह रही कि वे दस टीमों में उनकी टीम को सबसे कम अंक मिले, यानी वे दसवें क्रम पर रहे , लेकिन उन्होंने अपना उत्साह कम नहीं होने दिया. उन्हें बच्चों को पढ़ाने का शौक है और वे पांचवी कक्षा के बच्चों को भी पढ़ाते रहे हैं. १९८७ में उन्होंने एप्पल से अंशकालिक रूप से ही जुड़े हैं और अंशकालिक कर्मचारी के रूप में ही वेतन लेते रहे. कंपनी के प्रमुख शेयर होल्डर होने के नाते उनका सम्बन्ध एप्पल से रहा लेकिन उन्होंने अपने आप को कई दूसरे कामों से भी जोड़ा.

वोज ने टीवी कॉमेडी शो 'कोड मंकी' में भी भाग लिया और और वे एमी अवार्ड कार्यक्रम में भी देखे गए. कई छोटे- बड़े स्थानों पर वे भाषण देने भी जाते हैं और उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी है, जिसका शीर्षक है --'' आई वोज : फ्रॉम कंप्यूटर गीक तो कल्ट आयकोन.'' वे एक ऐसे शख्स के रूप में याद किये जाते हैं जिसने जिंदगी में बहुतेरे काम किये और उसका आनंद लिया. धन तो कमाया ही, लेकिन उसके पीछे पागल नहीं हुआ. उन्होंने अपनी जीवनी को ऑनलाइन भी कर रखा है और कोई भी उसे पढ़ सकता है. उन्होंने लिखा है ''आय एम मेंबर ऑफ़ चैरिटी लॉज कैम्पबेल, बुत नोट एक्टिव''
उन्होंने अपनी आत्म कथा में दिलचस्प तरीके से लिखा है कि उनके पिता किस तरह के गुप्त मिशन पर कार्य करते थे और बचपन से ही वोज ने नए नए उपकरण बनने में कैसे दिलचस्पी ली. इसमें उन्होंने स्टीव जॉब्स से अपनी दोस्ती का भी खूब विश्लेषण किया है. दोनों की उम्र में पांच साल का अंतर रहा है, लेकिन समान रुचियों ने उन्हें एक साथ ला दिया.

सम्मानों से मगरूर न हों
वोज को दुनिया भर के अनेक सम्मान मिल चुके हैं, विश्विद्यालयों की उपाधियाँ, वैज्ञानिक शोध के सम्मान, 'नेशनल इन्वेन्टर हाल ऑफ़ फेम', और 'नेशनल मैडल ऑफ़ टेक्नोलाजी' आदि. वोज का मानना है कि सम्मान पाकर जो मगरूर हो जाता है वह उसका हक खो देता है. ''सम्मान से विनम्रता आणि चाहिए और धन से भी. ये दोनों ही हमें लोगों से दूर करने के लिए काफी है.'' स्टीव जॉब्स से उनका नाता कई दशक तक रह, लेकिन जब उन्हें लगा कि अब मान नहीं मिल रहे तो वे पांच साल तक उनसे दूर रहे. स्टीव जॉब्स की मौत से वे थोड़े टूट से गए. इसी साल उन्हें यूएसए के राष्ट्रपति की तरफ से 'आउटस्टेंडिंग कंट्रीब्युशन टु ह्यूमैनिटी थ्रू आई टी ' से नवाजा गया है.

नी


दैनिक हिन्दुस्तान में 04 - 12 - 2011 को प्रकाशित

Saturday, November 26, 2011

भय के आगे जीत है

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज (27/11/2011) पर मेरा कॉलम


भय के आगे जीत है / आंग सान सू की
----------------------------------------------------------------------------------------------
देश, समयकाल और नेता ज़रूर अलग हैं लेकिन हालात वैसे ही होते जा रहे हैं जैसे म्यांमार में थे. आंग सान सु ची का यह भाषण इस सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत में भी व्यापक आन्दोलन चल रहा है और लोगों के मन में आक्रोश भी उसी तरह बढ़ रहा है.
------------------------------------------------------------------------------------------------
जेल और नजरबंदी में पूरे 15 साल गुजारने वाली म्यांमार की आंग सान सू की ने भय के हर रूप का मुकाबला किया है। उन्हें उनके परिवार से अलग किया गया। उन पर बर्बर हमले हुए। एक वक्त वह भी था, जब अपने घर में नजरबंद थीं और म्यांमार में आए तूफान में उनके घर की छत उड़ गई, बिजली की सप्लाई कट गई। उन्होंने कई हफ्ते बिना छत के इस घर में सिर्फ जलती-बुझती मोमबत्तियों के सहारे गुजारे। उनका एक मशहूर भाषण ‘भय से मुक्ति’ बताता है कि डर को अपने मन से कैसे निकाला जाए और यह क्यों जरूरी है।
सू की का कहना है, ‘कुछ लोगों की निडरता कुदरत की देन हो सकती है, लेकिन सबसे बेशकीमती है वह साहस, जिसे हम अपनी कोशिशों से हासिल करते हैं। यह साहस अपने भीतर उस आदत को रोपने से आता है, जिसका संकल्प होता है कि डर हमारे जीवन का रास्ता तय नहीं करेगा। इस साहस की व्याख्या कुछ इस तरह की जा सकती है- दबाव में भी अडिग बने रहना। कठिन और निरंतर दबाव के बीच अडिग बने रहने की कोशिशों को लगातार बढ़ाते रहना पड़ता है।’
डर और साहस
‘एक ऐसी व्यवस्था में, जो आपको मूलभूत मानवाधिकार देने से भी इनकार करती हो, वहां भय दिनचर्या का हिस्सा बन जाते हैं। बंदी बनाए जाने का डर, प्रताड़ना का डर, मृत्यु का डर। अपने दोस्तों, परिजनों, अपनी संपत्ति, अपने रोजगार को खो देने का डर। गरीबी का डर, अलग कर दिए जाने का डर, नाकामी का डर। सबसे बड़ा धोखेबाज होता है वह डर, जो एक आमफहम सोच या बुद्धिमानी का नकाब ओढ़कर आता है और जो साहस की किसी भी कोशिश को बेकार, व्यर्थ करार देता है। लेकिन साहस इंसान के आत्मसम्मान और उसके भीतर की मानवता की रक्षा करता है। बहरहाल, सत्ता-व्यवस्था चाहे जितनी भी अत्याचारी क्यों न हो, साहस बार-बार उठ खड़ा होता है, क्योंकि डर मानव सभ्यता की फितरत नहीं है।’
भ्रष्टाचार की जड़
भय के इस फलसफे में सू की इस भय को ही म्यांमार में फैले भ्रष्टाचार का कारण मानती हैं। वह कहती हैं, ‘हमें सत्ता भ्रष्ट नहीं करती, बल्कि हमें भ्रष्ट करता है भय। सत्ता खोने का भय उन्हें भ्रष्ट करता है, जो सत्ता छोड़ना नहीं चाहते। हमारे देश में चार तरह के भ्रष्टाचार हैं। निजी आर्थिक लाभ के लिए किया जाने वाला गलत आचरण, अपने चहेते लोगों को फायदा दिलाने के लिए किया गया भ्रष्टाचार, कार्य के प्रति लापरवाही से उपजा अनुचित व्यवहार और इन सबसे बुरा होता है, भय के कारण सही और गलत की पहचान ही खो देना। यह भ्रष्टाचार दूसरी तमाम बुराइयों की जड़ में होता है। ..डर और भ्रष्टाचार में जब इतना गहरा रिश्ता है, तो कोई हैरत की बात नहीं कि जहां डर का राज हो, वहां हर तरह का भ्रष्टाचार बहुत गहराई तक अपनी जड़ें जमा ले।’
हर कोई नायक बने
म्यांमार की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की महासचिव सू की ने साहस का यह जज्बा अपने पिता आंग सान से हासिल किया है। वह आधुनिक म्यांमार के संस्थापक कहे जाते हैं, जो म्यामांर (तब बर्मा) को आजादी की दहलीज तक ले आए थे। लेकिन उनकी हत्या कर दी गई। आंग सान का यह कथन सू की के लिए हमेशा प्रेरणादायक रहा, ‘दूसरों के साहस और कोशिशों पर कभी निर्भर नहीं रहो। हर किसी को बलिदान करना पड़ेगा और नायक बनना होगा। हर किसी को साहस दिखाना होगा और कोशिश करनी होगी। तभी हम सब सच्ची आजादी का आनंद ले सकेंगे।’ अपने पिता के अलावा सू की महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से भी प्रेरणा लेती हैं। नेहरू का यह कथन उन्हें काफी प्रभावित करता है, ‘किसी देश या व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा वरदान है उसका अभय होना, सिर्फ शारीरिक साहस के मामले में ही नहीं, बल्कि मन के भयमुक्त होने के मामले में भी।’
कहां से आता है साहस
लेकिन यह साहस आता कहां से है? सू की मानती हैं कि यह बहादुरी हमारे जज्बे से आती है, ‘किसी दुष्ट सत्ता के सामने साहस और अडिग रहने की ताकत आमतौर पर नैतिक सिद्धांतों में आस्था से आती है, इसके साथ ही इस इतिहास बोध से भी कि सारी मुश्किलों के बावजूद इंसान का आध्यात्मिक और भौतिक विकास भय से मुक्ति की ओर ही हो रहा है। खुद को सुधारने और आत्म-अवलोकन करने की इंसान की क्षमता ही उसे बर्बर बनने से रोकती है। इंसानी जिम्मेदारी के मूल में आदर्श बनने की अवधारणा है, इसे हासिल करने का आग्रह है, इसकी राह खोजने की बुद्धिमानी है, इसकी राह पर चलने की इच्छाशक्ति है। इस राह का अंत भले ही कितनी भी दूर क्यों न हो, लेकिन मनुष्य अपनी सीमाओं और वातावरण की बाधाओं से ऊपर उठकर इसकी ओर बढ़ता है। एक आदर्श और सभ्य मानवता कायम करने की यह सोच ही है, जो हमें ऐसा समाज बनाने का साहस देती है, जो भय से मुक्त हो। सत्य, न्याय और दया की अवधारणाओं को आप घिसा-पिटा कहकर खारिज नहीं कर सकते। खासतौर पर तब, जब सत्ता-व्यवस्था की निरंकुशता इनका रास्ता रोककर खड़ी होती हो।’ निडरता के इस फलसफे को आप आंग सान सू की के जीवन में हर कदम पर देख सकते हैं।

प्रकाश हिन्दुस्तानी

( दैनिक हिन्दुस्तान में 27/11/2011 को प्रकाशित )

Sunday, November 20, 2011

'अग्नि' की बेटी, 'तेजस' की माँ

रविवासरीय हिन्दुस्तान (20/11/2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम




'अग्नि' की बेटी, 'तेजस' की माँ

डॉ. टेसी थॉमस को कुछ लोग मिसाइल वूमन कहते हैं तो कई लोग उन्हें 'अग्नि - पुत्री' का खिताब देते हैं. वे देश के मिसाइल प्रोजेक्ट (डी आर डी ओ) की प्रमुख हैं और उन्हीं के नेतृत्व में 15 नवम्बर को उड़ीसा के व्हीलर द्वीप से तीन हज़ार किलोमीटर तक सतह से सतह पर मार करने वार करने की क्षमता वाली मिसाइल अग्नि-4 का सफल प्रक्षेपण किया. यह मिसाइल अपने साथ एक हज़ार किलो तक के परमाणु हथियार लेकर जा सकती है और दुश्मन के इलाके में तबाही मचा सकती है. टेसी पहली भारतीय महिला हैं, जो मिसाइल प्रॉजेक्ट का नेतृत्व कर रही हैं. अब पाँच हज़ार किलोमीटर तक मार कर सकने वाली अग्नि-5 बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण करने की भी योजना है.जिसकी प्रमुख भी टेसी ही हैं. डॉक्टर ए पी जे कलाम की शिष्या टेसी ऐसे क्षेत्र में कार्य कर रही हैं जहाँ पुरुषों का वर्चस्व माना जाता है. भारतीय सुरक्षा की एक प्रमुख आधार टेसी की कामयाबी के कुछ सूत्र :
एकाधिकार को तोड़ें
आमतौर पर रणनीतिक हथियारों और परमाणु क्षमता वाले मिसाइल के क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व रहा है. इस अवधारणा को तोड़कर टेसी थॉमस ने सच कर दिखाया कि हर उड़ान पंखों से नहीं, हौसलों से होती है. 1988 में वे अग्नि परियोजना से जुड़ीं और तभी से लगातार इस परियोजना में काम कर रही हैं. उनकी प्रेरणा से डी आर डी ओ में करीब दो सौ से ज़्यादा महिलाएँ कार्यरत हैं जिनमे से करीब बीस तो सीधे तौर पर उनसे जुड़ी हैं. शुरू में लोग उनसे यह भी कहते कि आप किस दुनिया में काम कर रहीं है, यहाँ तो केवल पुरुषों का वर्चस्व है, तब वे मुस्करा देतीं. उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि आज कोई यह नहीं कह सकता कि परमाणु मिसाइल बनाने का क्षेत्र पुरुषों का ही है. अगर वे तब पीछे हट जातीं तो आज उन्हें यह गौरव प्राप्त नहीं होता.
असफलताओं से पस्त ना हों
टेसी तीन साल पहले ही अग्नि परियोजना की प्रमुख बनी थी और उन्हें पहला आघात तब लगा जब अग्नि-3 मिसाइल का परीक्षण सफल नहीं हो सका. अरबों रुपये की परियोजना का हिस्सा अग्नि -3 का परीक्षण उड़ीसा के बालासौर के पास द्वीप पर हो रहा था और अग्नि-3 मिसाइल के प्रक्षेपण होने के तीस सेकंड के भीतर ही वह मिसाइल समुद्र में जेया गिरी. लेकिन तमाम आलोचनाओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और कहा की यह विफलता ज़रूर थी, लेकिन ऐसी नहीं की हमारे हौसलों को तोड़ सके. उन्होंने मामूली सी तकनीकी त्रुटि की भी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली और कहा कि हम विफल नहीं हुए हैं, फिर कोशिश करेंगे और कामयाब होंगे. ऐसी परियोजना, जिस पर पूरी दुनिया की निगाहें हों, की विफलता का अर्थ भी वे जानती थीं और उसकी कामयाबी का भी. मेहनत, लगन, निष्ठा और मेघा से उन्होंने अपने लक्ष्य को पाया.
नेतृत्व के लिए आगे बढ़ें
टेसी ने कभी भी अपने जहाँ में यह ख़याल नहीं आने दिया की वे ऐसे क्षेत्र में हैं, जहाँ पुरुषों का बोलबाला है, इससे आगे बढ़कर उन्होंने अपने वैज्ञानिकों की टीम का नेतृत्व भी किया और टीम के मनोबल को भी बनाए रखा. उनका पूरा रास्ता कंटकाकीर्ण था. बेहद गोपनीय प्रोजेक्ट होने के कारण कामयाबी का श्रेय तो लगभग नहीं ही था, और नाकामी का ठीकरा फोड़ने के लिए देशी ही नहीं, विदेशी मीडिया भी तैयार खड़ा था कि कब टेसी के बहाने ही सही, भारत की रक्षा नीति पर हमला करे. मिसाइल की नाकामी भारत को उलाहना देने के लिए पर्याप्त कारण थी. टेसी ने कभी भी किसी की परवाह नहीं की, उन्हें सदा अपने लक्ष्य को पाने की चिंता थी और अपनी टीम के मनोबल को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी. महिलाओं के मिसाइल क्षेत्र में आने पर वे कहतीं हैं कि साइंस हेज़ नो ज़ेंडर. उनकी एक महत्वपूर्ण खूबी यह है की वे अपनी टीम को कामयाबी की क्रेडिट देने में कभी कोई कोताही नहीं करतीं. हाल की कामयाबी के लिए उन्होंने कहा है कि यह तो उनकी टीम की उपलब्धि है.
अपने लक्ष्य को जानें
टेसी को बचपन से ही साइंस और गणित में दिलचस्पी थी. रॉकेट और मिसाइल से उनका लगाव तब बढ़ा, जब यूएस का अपोलो चंद्रमा मिशन सफल हुआ. उन्होंने छुटपन में ही तय कर लिया था कि उन्हें आगे जाकर इंजीनियर बनना है. कोझीकोड के त्रिसूर इंजीनियरिंग कॉलेज से उन्होंने बीटेक की डिग्री ली और फिर उनका चयन पुणे के डिफेंस इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस्ड टेक्नॉलोजी से एमटेक के लिए हो गया. डीआरडीओ के 'गाइडेड वेपन कोर्स' के लिए उनका चयन होते ही मिसाइल वुमन के तौर पर सफर शुरू हुआ। उन्होंने 'सॉलिड सिस्टम प्रोपेलेंटस' में विशेष दक्षता प्राप्त की, यही वह तत्व है, जो अग्नि मिसाइल में ईंधन का काम करता है. टेसी ने इग्नू से पी एचडी की उपाधि ली. टेसी को इस बात की खुशी है कि लोग उनकी पहचान हमेशा ही वैज्ञानिक के रोपोप में करते हैं न कि किसी महिला के रूप में. वे अपनी यही पहचान बचपन से चाहती थी.
काम महत्वपूर्ण है, प्रसिद्धि नहीं
टेसी जानती हैं कि वे जो काम कर रही हैं वह महत्वपूर्ण है, लेकिन इसमें ग्लैमर या प्रसिद्धि अपेक्षाकृत कम है. गोपनीयता के कारण वे सार्वनजिक जीवन में बहुत से लोगों से मिलती-जुलती नहीं, मिल-जुल भी नहीं सकतीं. वे अपना ज़्यादातर समय अपने काम में ही बिताती हैं. उनके जैसी बेहद महत्वपूर्ण शख्सियत मीडिया से गिनी चुनी बार ही मुखातिब हुई है. उनकी ताज़ा उपलब्धि पर भी मीडिया को जानकारी उन्होंने नहीं दी. जब अग्नि -3परियोजना विफल हुई थी, तब भी उन्होंने मीडिया से बात नहीं की थी. उनका फार्मूला साफ है कि काम खुद बोले तो बेहतर. महत्वपूर्ण केवल काम है.
परिवार पर भी दें ध्यान
टेसी जानती हैं की सबसे बड़ा शॉक एब्जार्वर अगर कोई है तो वह परिवार ही है. डॉ कलाम की शिष्या वे ज़रूर हैं, लेकिन उन्होंने शादी की है और उनका एक बेटा है, जिसका नाम मिसाइल के नाम पर 'तेजस' रखा है. उनके पति भारतीय नौसेना में कमोडोर हैं. वास्तव में उनके पति भी बेहद व्यस्त जीवन जीते हैं और दोनों को अपने निजी जीवन के लिए बहुत ही कम वक़्त मिल पता है. इस समस्या का हाल उन्होंने यह निकाला है कि जो भी वक़्त मिले उसे क्वालिटी टाइम के रूप में बिताया जाए. वे खुद मध्यवर्गीय परिवार की हैं और परिवार के मूल्यों को खूब जानती पहचानती हैं.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान 20/11/2011 के एडिट पेज पर प्रकाशित मेरा कॉलम.

Tuesday, November 15, 2011

देह और दिमाग़ के योग से शीर्ष पर

रविवासरीय हिन्दुस्तान (13/11/2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम


देह और दिमाग़ के योग से शीर्ष पर
शकीरा भारत आ रही हैं. वे आल इन वन हैं -- बिजनेस वूमन, गायिका, डांसर, गीत लेखिका, संगीतकार, लाइव परफार्मर, रेकॉर्ड निर्माता, मॉडल, समाजसेवी, यूनिसेफ की प्रतिनिधि, अमेरिकी राष्ट्रपति की सलाहकार आदि. वे सुन्दर हैं, युवा हैं, धनवान हैं, शोहरतमंद हैं, लेकिन वे विनम्र हैं, मेहनती, दयालु, गरिमामय भी हैं. इससे बढ़कर वे बुद्धिमान हैं और सच बोलने की आदी. उनके आगे आइटम जैसा शब्द शायद छोटा है. नोबेल साहित्य विजेता गेब्रियल गेर्सिया मार्केज़ का दावा है कि शकीरा के शो में आप किसी और के बारे में सोच ही नहीं सकते. ग्रेमी, गोल्डन ग्लोब जैसे कई सम्मान वे पा चुकी हैं. शकीरा कोई ऐसे ही शकीरा नहीं बनीं; उनकी सफलता के कुछ सूत्र :
लोक से जुड़ाव ज़रूरी
लोक नर्तकी और बेली डांसर के रूप में शकीरा ने नाम और नामा कमाया है और अपने संगीत में मादक-सौन्दर्य का ऐसा बघार लगाया है कि वह सुनने से ज्यादा देखते ही बनता है. वे नंगे पैर नाचना पसंद करती हैं और आने साथ लोगों को नाचने के लिए प्रेरित करने में उन्हें मज़ा आता है. वे स्टेज शो के दौरान अपने से ज्यादा रोशनी दर्शकों पर देखना चाहती हैं और उनके मान के भाव को समझ कर अपनी प्रस्तुति को हर पल नया रूप देती रहती हैं. फूहड़ता के आरोपों के बावजूद उनके दीवानों की संख्या लाखों में हैं. उनकी लोकप्रियता का चार्ट तथाकथित शीला और मुन्नी की तरह टेम्परेरी नहीं है. उनकी पहुँच ग्लोबल है. वे जब भी मंच पर होती हैं, तब संगीत से नफ़रत करनेवाला भी थिरकने के मूड में आ जाता है. वे जब परफ़ॉर्म करने मंच पर जाती हैं, तब अपनी जुबान और दिमाग ही नहीं, पूरी देह की भाषा का इस्तेमाल करती हैं.
देह को एक मंदिर समझें
शकीरा की पूरी दिनचर्या का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण समय अपनी देह की तरफ ध्यान रखने और उसकी चाकरी में बीतता है. बात किस्म किस्म के एक्सरसाइज़ की हो या कड़ाई से पालन किये जाने वाले डायट प्लान को लागू करने की, शकीरा उसमें रत्तीभर भी हेरफेर नहीं होने देती.कभी भी कोई भी दिन ऐसा नहीं होता, जब शकीरा ने अपने डेली वर्क आउट को मिस किया हो. वे भरपूर सलाद खाती हैं, हरी पत्तेदार सब्जियां, वसामुक्त भोजन करती हैं. धूम्रपान, मिठाई-चोकलेट और मांसाहार से दूर रहती हैं. शाकाहार उनकी प्राथमिकता है. वे शराब नहीं पीतीं, यहाँ तक कि कैफीनयुक्त काफी से भी परहेज़ रखती हैं. हमेशा वक्त पर सोना (कार्यक्रमों के अलावा) उनकी आदत है. उनके वर्कआउट में शरीर के हर हिस्से की कसरत शामिल है.
काम के प्रति पूर्ण समर्पण
शकीरा अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहती हैं. इतना ही नहीं, वे अपनी कला के हर क्षण को जीती भी हैं. बात चाहे गीत लिखने की हो या गाने की, उसके वीडियो के डायरेक्शन की हो, या संपादन की, नृत्य संयोजन हो या पोस्ट प्रोडक्शन वे उसमें डूबकर काम करती हैं. उन्हें क्या पहनना है, क्या नहीं पहनना और कैसा मेकअप करना है, कब, कितनी, किस किस के साथ रिहर्सल करना है, जैसी हर बात में दखल और ध्यान रखती हैं. हर हर उनके बारे में मीडिया में अनेक सच्ची- झूठी कहानियां छपती हैं, लेकिन वे उनके प्रति अलग व्यवहार रखती है और कभी भी अपना आपा नहीं खोती.
पूर्णता में यकीन
34 साल की शकीरा 26 साल से गाना गा और डांस कर रही हैं. ईश्वर ने उन्हें फुरसत में बनाया होगा, पर अपने काम को अंजाम देने के लिए उन्हें वक़्त की कमी रहती है, वे जो भी काम करती हैं, पूरे मनोयोग और बिंदास तरीके से. आमिर खान की तरह वे भी परफैक्शन की दीवानी हैं. इसके लिए उन्हें डायरेक्टर के काम में हस्तक्षेप करना पड़े, तो भी करती है. खुद गाना लिखना हो, दूसरी भाषा सीखना हो, संगीतकार की मदद करनी हो, हर काम कर डालती हैं और पूरी मनोयोग से. उन्हें दिलजोई के लिए गाना गवारा नहीं, वे मासेस के लिए गाती और संगीत में ही जीती हैं. चाहे वे फोक डांस कर रही हों या बेली डांस, दुनिया के किसी भी कोने में गा रही हों, उनका परफेक्शन का प्रयास एक समान रहता है. कुछ साल पहले शकीरा को लगा कि वे कुछ मोटी हो गई हैं तो उन्होंने कड़ी मेहनत करके अपना वज़न काम करके ही दम लिया.
बेबाकी से अपनी राय रखें
दुनिया में बहुत से लोग हैं जो बातों को चाशनी में लपेटकर कहते हैं, लेकिन शकीरा ने जो भी कहा, बेबाकी से कहा. जो कुछ भी किया, बेख़ौफ़ किया. उन्होंने खुले आम कहा कि मैं बगैर मेकअप के कहीं भी नहीं निकलती, क्योंकि मैं एक औरत हूँ. उन्होंने कभी भी खुद को अमेरिकी बताने की कोशिश नहीं की, क्योंकि वे कोलंबियाई हैं. अपने स्पैनिश और अंग्रेज़ी के लहजे पर उन्होंने कभी कोई झिझक महसूस नहीं की. उनका कहना है कि सुन्दर झूठ की जगह कुरूप सच्चाई ज्यादा महत्वपूर्ण है. अपनी निजी ज़िन्दगी के बारे में भी उन्होंने कभी भी कुछ छिपाने की कोशिश नहीं की. वे कहती हैं कि मेरी ज़िन्दगी पानी से भरे कांच के गिलास जैसी है, पूरी तरह से पारदर्शी. एंटोनियो डे ला रुआ के साथ उनके संबंधों के बारे में भी उन्होंने नहीं छुपाया और जब वे उनसे अलग हुई, तब भी नहीं.
सिर्फ़ धन ही महत्वपूर्ण नहीं
शकीरा की आय के स्रोतों में लाइव शो, फ़िल्म, रेकोर्ड-अलबम की बिक्री और डाउन लोड, अपने नाम के उत्पादनों के कारोबार, विज्ञापन आदि तो हैं ही, वे निजी समारोहों में भी धन लेकर नाचती है. वे इससे कितना कमाती है, इसका अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि एक शादी में शो के लिए उन्होंने एक करोड़ यूरो फीस ली थी( तव एक यूरो 63 रुपये का था, यही भारतीय मुद्रा में 63 करोड़ रुपये के बराबर).इसके विपरीत वे अपने देश में लाखों लोगों के लिए होनेवाले शो में टिकिट नहीं लगाने देतीं, हर साल लाखों डॉलर का दान देती हैं कहीं स्कूल के लिए, तो कहीं स्वास्थ्य सेवा के लिए. शकीरा ने अपनी बुद्धि का भी लोहा मनवा रखा है. वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अतिथि वक्ता के रूप में भी भाषण दे चुकी हैं जहाँ मदर टेरेसा और दलाई लामा भाषण दे चुके हैं. भाषण के दौरान शकीरा ने कहा, "मैं चाहती हूं कि 2060 के युवा हमें किस प्रकार देखें: विश्व शांति स्थापित करने के हमारे मिशन में अफगानिस्तान में 30,000 सैनिकों के बदले 30,000 शिक्षकों को भेजा जाना निहित है ''.

प्रकाश हिन्दुस्तानी


(दैनिक हिन्दुस्तान 13/11/2011 को प्रकाशित)

Sunday, November 06, 2011

बिरले को मिलती है ऐसी कामयाबी

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज (6नवंबर 2011) पर मेरा कॉलम



अर्जुन की आँखोंवाले अभिनव बिंद्रा
लेफ्टिनेंट कर्नल के मानद पद से सम्मानित अभिनव बिंद्रा प्रथम भारतीय हैं जिन्होंने 112 साल के ओलिम्पिक इतिहास में व्यक्तिगत श्रेणी में पहला स्वर्ण पदक जीता. वे अब तक तीन ओलिम्पिक में निशानेबाजी आजमा चुके हैं और अब लन्दन में होनेवाले ओलिम्पिक की तैयारी में जुटे हैं. उन्हें अपनी 'तथाकथित प्रतिभा' का दंभ नहीं है और वे सहजता से कह देते हैं हैं कि मैं साधारण खिलाड़ी हूँ, लेकिन मैंने अपनी लगन, मेहनत, निष्ठा और योजनाबद्ध प्रयासों से लक्ष्य को पा लिया है. अगर मैं यह कर सकता हूँ तो आप भी अपने लक्ष्य पा सकते हैं. वे 18 की उम्र में अर्जुन अवार्ड पा चुके हैं, १९ की उम्र में राजीव गाँधी खेल रत्न पा चुके हैं. वे 29 के हैं और उन्हें पद्मभूषण मिल चुका है, उनकी आत्मकथा बाज़ार में छपकर आ चुकी है और वे लाखों युवकों के लिए प्रेरणा के केंद्र हैं. बचपन में 11 साल की उम्र तक खेलों से नफ़रत करनेवाले और फिर निशानेबाजी में स्वर्पदक पानेवाले अभिनव बिंद्रा की सफलता के कुछ सूत्र :
खेल से नफ़रत मत करो
अभिनव ने 11 साल की उम्र तक कोई खेल नहीं खेला. यहाँ तक कि उन्हें खेलों से नफ़रत थी, लेकिन दून स्कूल के होस्टल में उन्हें हर दूसरे दिन पिता मंजीत सिंह की चिट्ठी मिलती, जिसमें लिखा होता कि बेटा, अगर पढ़ाई में मन न लगे तो कोई बात नहीं, लेकिन खेलों की अनदेखी मत करना. अभिनव ने टेनिस में आजमाइश की, पर जमा नहीं, गोल्फ पर भी हाथ आजमाया, लेकिन वहां भी मज़ा नहीं आया. अभिनव के पिता की घर के पिछवाड़े में इंडोर शूटिंग रेंज थी, जहाँ उनके पिता के दोस्त लेफ्टिनेंट कर्नल जेएस ढिल्लों ने उनकी संभावनाओं को खोजा. वे ही उनके पहले कोच बने और फिर उनकी प्रतिभा को संवारा डॉ अमित भट्टाचार्य ने, वे आज भी अभिनव के साथ पूरी दुनिया में जाते हैं. केवल 16 साल से भी कम की उम्र में वे कामनवेल्थ गेम्स में अपना निशाना आजमा चुके थे. 2000 के ओलिम्पिक में उन्हें 590 अंक मिले थे और वे ग्यारहवे नंबर पर थे. वे क्वालिफाय नहीं कर पाए क्योंकि शुरू के आठ में नहीं थे, लेकिन बाद में उन्होंने जो कुछ पाया, वह इतिहास है.
उतार-चढ़ाव में रखें हिम्मत
ओलिम्पिक में क्वालिफाय न कर पाना दिल तोड़ने वाली घड़ी थी, लेकिन अभिनव ने अगले ही साल विभिन्न अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में छह स्वर्ण पदक बटोरे. उन्हें इसी साल देश का सबसे बड़ा खेल सम्मान राजीव गाँधी खेल रत्न मिला. 2002 के कामनवेल्थ खेलों में युगल श्रेणी में स्वर्ण और सिंगल्स में रजत पदक जीता. 2004 के एथेंस ओलिम्पिक के लिए उन्होंने जी-जान लगा दी थी, और क्वालिफाइंग राउंड में 597 का स्कोर लाकर वे तीसरे स्थान पर पहुंचे थे, लेकिन फायनल में वे पिछड़कर सातवें पायदान पर जा पहुंचे. एथेंस ओलंपिक के फाइनल में पहुंचने के बाद पदक नहीं मिलने पर वे टूट गए थे। निराशा में उन्होंने यहां तक कहा कि वह कभी टेलेंटेड शूटर नहीं रहे। लेकिन फिर अपने आप को सहेजा और हिम्मत के साथ जुट गए. उनके अभिभावक, मित्र, कोच सभी उनके साथ थे ही.
कड़ी मेहनत भी प्रतिभा है
अभिनव बिंद्रा का विचार है कि कड़ी मेहनत करना भी प्रतिभाशाली होने का लक्षण है. कड़ी मेहनत कोई भी कर सकता है और कामयाबी पा सकता है. सफल होने का सबसे सरल फार्मूला है कड़ी मेहनत करना. लेकिन योजना बनाकर कड़ी मेहनत करने के और भी अच्छे परिणाम हो सकते हैं. अभिनव बिंद्रा ने अपनी कामयाबी का ब्ल्यू प्रिंट बनाया, उसमें निशाना था बीजिंग में होनेवाले ओलिम्पिक खेल. लक्ष्य आसान नहीं था, और इसी बीच वे चोटग्रस्त हो गए. लेकिन हिम्मत नहीं हारी. लक्ष्य पर निगाहें ऐसे ही थीं जैसी अर्जुन की रही होंगी. उन्होंने फिजीकल और मेंटल ट्रेनिंग सहित सभी पहलुओं को चुनौती के रूप में लिया। कभी वे खुद सोचते कि खेल में आप हमेशा नहीं जीत सकते, लेकिन अगले ही पल मन में संकल्प करते कि हर खेल जीतने के लिए ही होता है, हर स्वर्ण पदक पर किसी न किसी का नाम लिखा ही होता है, तो मेरा नाम क्यों नहीं? उन्हें यह बात कचोटती कि ओलिम्पिक खेलों में भारत को कोई भी स्वर्ण पदक क्यों नहीं मिला? उन्होंने खेल और जीवन में संतुलन बनाये रखा और वह हर तरीका अपनाया जिससे उनकी जीत की संभावना प्रबल होती.
पराजय से नफ़रत
अभिनव बिंद्रा को पराजय से नफ़रत हो गयी थी और इसने उन्हें स्वर्ण पदक दिलाने में प्रमुख भूमिका निभायी थी. बीजिंग ओलिम्पिक में भाग लेते वक़्त यह बात उन्हें बिलकुल नहीं जम रही थी कि हमें खेलने में विश्वास करना है, जीत-हार तो लगी रहती है. जीतें या हारें, खेलना लक्ष्य रहे, यह तर्क उन्हें बेमानी लग रहा था, खेल में सर्वोच्च शिखर को छूना ही लक्ष्य होना चाहिए. ओलिम्पिक में दस मीटर एयर रायफल शूटिंग में क्वालिफाइंग राउंड में चौथे स्थान पर थे, लेकिन अंतिम राउंड के बाद वे सबसे आगे थे. 1980 में मास्को ओलिम्पिक के बाद भारत ने यह पहला गोल्ड मैडल जीता था और ओलिम्पिक इतिहास में यह किसी एक भारतीय खिलाड़ी का जीता पहला स्वर्ण पदक. उन्हें पुरस्कार के रूप में तीन करोड़ से भी ज्यादा नकद मिले थे.
सही मार्गदर्शन का महत्व
बिना उचित मार्गदर्शन के सफलता आसान नहीं होती. हालाँकि अभिनव संपन्न परिवार के हैं और पंजाब में उनके अपने घर में ही निजी शूटिंग रेंज भी है, लेकिन उनके पहले कोच लेफ्टिनेंट कर्नल ढिल्लों और डॉ अमित भट्टाचार्य के सहयोग के बिना वे आज यह मुकाम नहीं पा सकते थे. वे हमेशा अपने कोच और परिवार का आभार मानते हैं और उनके लिए दुआएं करते हैं. डॉ भट्टाचार्य साए की तरह उनके साथ हर टूर्नामेंट में जाते हैं चाहे सिडनी हो या एथेंस, बीजिंग हो या मोंट्रियल. वास्तव में भट्टाचार्य उनके मेंटल ट्रेनर हैं और जब अभिनव 13 साल के थे, तब से ही वे हर वक्त उनके साथ जाते हैं और उन्हें समझाइश देते रहते हैं कि वे अपने मनोबल को कैसे बनाये रखें. अभिनव बिंद्रा की वर्तमान कोच स्विट्ज़रलैंड की गेब्रियला बुह्लमन हैं जो 1988 से 2004 के पाँच ओलिम्पिक खेलों में शूटिंग स्पर्धाओं में जा चुकी हैं.
प्रतिस्पर्धी का सम्मान करें
श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कहा था कि विजयी को विनयी रहना चाहिए. इसे अभिनव नारंग ने पूरी तरह आत्मसात कर लिया है. वे शूटिंग रेंज में भी अपने स्पर्धी को पूरा सम्मान देते हैं और उसका मनोबल बनाये रखने का प्रयास करते हैं. यहाँ तक कि ओलिम्पिक खेलों में भी वे अपने प्रतिस्पर्धियों का हौसला बढ़ते नज़र आये. उनका मानना है कि हर खिलाड़ी हमेशा ही जीते, यह संभव नहीं, लेकिन अगर उसका हौसला बरकरार रहे हो उसके लिए अगली जीत का मार्ग आसान हो सकता है.
समाज को वापस लौटाएं
आप इस समाज के अंग हैं और अगर आप इससे केवल लेते ही रहेंगे तो कम कैसे चलेगा? अभिनव बिंद्रा की कोशिश रहती है कि इस समाज से उन्हें जो कुछ भी मिल रहा हैं, वह वापस लौटाते जाएँ. वे नए खिलाड़ियों को सिखाते हैं कि अभ्यास, निरंतर अभ्यास और कड़ा अभ्यास ही सबसे बड़ी प्रतिभा है. इसके लिए वे युवा खिलाड़ियों को संसाधन मुहैया करा रहे हैं. वे खुद अगले साल होनेवाले लन्दन ओलिम्पिक की तैयारी में जुटे हैं और अपने से युवा खिलाड़ियों को मार्गदर्शन भी दे रहे हैं. खेल संगठनों के कामकाज को वे सुधारना चाहते हैं और इस बारे में निडर होकर अपनी बात भी कहते हैं. मैंने व्यक्तिगत रूप से पहला स्वर्ण पदक जीता है, लेकिन और भी स्वर्ण पदक हमें जीतने हैं.
प्रकाश हिन्दुस्तानी


दैनिक हिन्दुस्तान (6 नवंबर 2011) के अंक में प्रकाशित

Sunday, October 30, 2011

गुदड़ी के लाल की बेमिसाल कामयाबी

रविवासरीय हिन्दुस्तान (30 अक्तूबर 2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम


(

जज्बे से बने पंचकोटि महामनी विजेता

खुश रहने के लिए 'मालदार और मशहूर' (रिच एंड फेमस) होना ज़रूरी नहीं है, वास्तव में खुश रहने के लिए केवल मालदार होना ही काफी है. बिहार के पूर्वी चंपारण के सुशील कुमार केबीसी की बदौलत अब फेमस भी है और रिच भी. उनके घर में टीवी सेट नहीं होने से वे केबीसी देखने पड़ोसी के घर जाया करते थे. उन्हें लगता था कि वे केबीसी में गए तो साढ़े बारह लाख या पच्चीस लाख रुपये तक ज़रूर जीत सकते हैं. लेकिन वे जीत गए पूरे पंचकोटि महामनी यानी पांच करोड़ रुपये. जीवन में उन्होंने कभी हवाई जहाज में यात्रा नहीं की थी लेकिन केबीसी की बदौलत वे अपनी पत्नी के साथ विमान में बैठ मुंबई पहुंचे. इस शो के कारण ही उन्होंने जीवन में दूसरी बार जूते पहने. (पहली मर्तबा अपनी शादी में पहने थे). अभी इस कार्यक्रम का प्रसारण अभी बाकी है इसलिए सुशील कुमार को प्रोग्राम के समझौते के अनुसार मुंबई में ही हैं. आखिर क्या खूबी है सुशील कुमार में कि उन्होंने पांच करोड़ रुपये का सवाल एक झटके में ही लॉक कर दिया? सुशील कुमार की सफलता के कुछ सूत्र :
खतरों से डरें नहीं
सबके सामने दो ही विकल्प होते हैं -- सुरक्षित और शांत बने रहें या खतरा उठाकर कामयाब बनें. सुशील के सामने भी यही सवाल था. उन्होंने दूसरे विकल्प को चुना. इसके पहले केबीसी-4 में प्रशांत नामक एक युवक बारह सवालों का सही जवाब देकर पांच करोड़ रुपये के तेरहवें सवाल तक पहुंचा था लेकिन वह डबल डिप में मात खाकर एक करोड़ के पायदान से नीचे गिरकर केवल केवल तीन लाख बीस हज़ार ही ले जा सका था. केबीसी के सीजन फोर में बिहार की ही राहत तस्लीम ने बारह सवालों का सही जवाब देकर एक करोड़ रुपये जीते और पांच करोड़ के सवाल को खेले बिना ही एक करोड़ लेकर खेल छोड़ चली गयीं थी. बारहवें सवाल का सही जवाब देने और एक करोड़ रुपये जीतने के बाद सुशील कुमार को भी ऐसा ही लगा कि कहीं वे चक्रव्यूह में फंस तो नहीं जायेंगे, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और चक्रव्यूह तोड़ने का फैसला किया.
हर जवाब बुद्धिमानी से
बिना खतरे के जीत यानी बिना सम्मान का ताज! हर सवाल का जवाब उन्होंने बुद्धिमानी से दिया. बारहवें सवाल का जवाब देकर जब सुशील ने एक करोड़ रुपये जीते तो ख़ुशी से चीख पड़े. उन्होंने अमिताभ बच्चन के पैर भी छुए और उनसे लिपट गए. जब तेरहवां सवाल सामने आया तब वे मन ही मन मुस्करा उठे. उन्हें उसका सटीक जवाब नहीं मालूम था लेकिन उनके पास दो दो लाइफ लाइन थी. उन्होंने एक लाइफ लाइन फोन ए फ्रेंड का उपयोग किया लेकिन कामयाब नहीं हो पाए. तब उन्होंने अपनी दूसरी लाइफ लाइन डबल डिप का उपयोग किया जिसमें उन्हें चार जवाबों के विकल्प में से दो जवाब देने थे. यहाँ उन्हें यूपीएससी की तैयारी में अर्जित अपना सामान्य ज्ञान बहुत काम आया. उन्होंने अपने ज्ञान का उपयोग सावधानी और बुद्धिमत्ता से किया और विजेता बने.
जॅकपॉट सवाल व जवाब
1868 में अंग्रेजों को निकोबार द्वीप समूह बेच कर किस देश ने अपना आधिपत्य छोड़ा था? यह था जैकपॉट सवाल। और इस सवाल के जवाब के विकल्प थे


ए. बेल्जियम

बी. इटली

सी. डेनमार्क और

डी. फ्रांस

फोन ए फ्रेंड में सही जवाब ना पाकर भी सुशील आशावादी थे क्योंकि अपने सामान्य ज्ञान के खजाने के आधार पर वह दो जवाबों के बारे में निश्चिन्त थे –

फ्रांस ने भारत छोड़ा नहीं था और इटली ने कभी निकोबार पर कब्ज़ा नहीं किया था। इसका साफ़ साफ़ अर्थ था कि फ्रांस तो गया ही नहीं था और इटली आया ही नहीं था तो जाने का सवाल ही कहां था? इस तरह चार में से दो जवाब अपने आप ही कट गए थे। बचे थे दो जवाब और उन्हें दो जवाब देने की पात्रता डबल डिप में थी ही। इस तरह या तो डेनमार्क हो सकता था या फिर फ्रांस। सुशील का डेनमार्क जवाब सही निकला और वह जीत गए पांच करोड़ रुपए।
साधनहीनता बाधा नहीं
नाकाम लोग कामयाब होने की केवल चाह रखते हैं, जबकि कामयाब लोग अपनी कामयाबी के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं. सुशील कुमार ने अपनी प्रतिबद्धता से बता दिया कि साधनहीनता कहीं भी सफलता में बढ़ा नहीं बन सकती. टूटी छत के तीन कमरे के कच्चे मकान में वे अपने माता-पिता, चार भाइयों, दो भाभियों और चार भतीजे-भतीजियों के साथ रहकर पढ़ाई करते थे. बीते मई में ही उनकी शादी सीमा कुमारी से हुई और वे मोतीहारी के नाका नंबर दो के नकछेद टोले के अपने घर से दूर पश्चिम चंपारण के बेतिया इलाके में चनपेटिया इलाके में नौकरी के कारण किराये का घर लेकर रहने लगे. नौकरी भी अस्थायी, महात्मा गाँधी नरेगा में कंप्यूटर डाटा एंट्री ऑपरेटर. वेतन से गुजरा होता नहीं था, इसलिए ट्यूशन पढ़ना मजबूरी थी. उन्होंने किसी भी साधनहीनता को बाधा नहीं बनने दिया, यहाँ तक कि घर में टीवी न होना भी उन्हें लक्ष्य पाने से नहीं रोक पाया.
सपने देखने में कैसा डर?
रूपया छठी इन्द्रीय की तरह है, उसके बिना आप बाकी पांच का आनंद नहीं ले सकते. शायद इसीलिये जब केबीसी के होस्ट अमिताभ बच्चन ने 'कौन बनेगा करोड़पति' के पंचकोटि महामनी विजेता युवक सुशील कुमार से पूछा था कि अब आपके सपने क्या हैं ? सुशील का जवाब था -- ''मैंने बहुत सपने देखे हैं, लेकिन जीवन की कड़वी सच्चाइयों ने मुझे बीच में ही रोक दिया था. मेरे ऊपर परिवार की ज़िम्मेदारी थी और छह हज़ार रुपये महीने की तनख्वाह! अब मैं अपने सपनों के बारे में, उन्हें अमली जामा पहनने के बारे में काम कर सकता हूँ.'' सुशील कुमार ने केबीसी-5 में पांच करोड़ रुपये का जीते हैं, इससे उनकी तात्कालिक आर्थिक तकलीफें दूर हो गयी हैं.
सफलता मंजिल नहीं, सफ़र
सुशील कुमार जानते हैं कि किसी भी क्षेत्र में सफलता कोई मंजिल नहीं, सफ़र है. पाँच करोड़ जीतने के बाद अब वे दिल्ली जाकर यूपीएससी की अपनी तैयारी करना चाहते हैं, क्योंकि अब उनके पास बेहतर संसाधन होंगे. उन्हें लगता है कि इससे उनकी नौकरशाह बनने की कोशिश आसान होगी और वे भारतीय प्रशासनिक या पुलिस सेवा में जा सकेंगे. वे अपने पढ़ने के शौक को भी पूरा करना चाहते हैं और अपनी लाइब्रेरी बनाना चाहते हैं. वे जानते हैं कि वे केवल पढ़ने के शौक के कारण ही यहाँ तक पहुंचे हैं.
सुशील कुमार इस इनामी धनराशि से अपने खुद के लिए और अपने माता-पिता और भाइयों के लिए मकान बनवाना चाहते हैं. साथ ही वे अपने भाई के कारोबार में भी धन लगायेंगे जो अभी केवल 1500 रुपये महीने में नौकरी कर रहे हैं. वे अपने इलाके में भी वाचनालय खोलना चाहते हैं. इसी दिसम्बर में वे अपने जीवन के अट्ठाईस साल पूरे कर लेंगे, तब तक पाँच करोड़ का चेक नकदी में आ चुका होगा और टैक्स देने के बाद भी वे करोड़पति ही रहेंगे.
प्रकाश हिन्दुस्तानी


हिन्दुस्तान 30 अक्तूबर 2011 को एडिट पेज पर प्रकाशित)

Sunday, October 23, 2011

रविवासरीय हिन्दुस्तान (23/10/2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम




बल्ले से लिखा वन डे का इतिहास

विराट कोहली कभी भारतीय क्रिकेट टीम में सचिन और युवराज सिंह की बेहतरीन स्टेपनी हुआ करते थे. जब कभी वरिष्ठ खिलाड़ी अनफिट होते, विराट वहां फिट हो जाते थे. 2010 में उन्होंने अपनी भूमिका निश्चित कर ली थी जब आस्ट्रेलिया के खिलाफ उन्होंने 121 गेंदों पर 118 रनों का पहाड़ खड़ा कर भारत की जीत को पक्का कर लिया था. यह ऐसी जीत थी जिस पर विराट के बगैर चर्चा नहीं हो सकती थी. हाल ही फिरोजशाह कोटला में उन्होंने 98 गेंदों पर 16 चौकों की मदद से 112 रन बनाकर इंग्लैण्ड की टीम को ऐसा हराया कि उसने वन डे नहीं, सीरिज का ही फैसला कर दिया. विराट कोहली की वाहवाही जीतनी शतक बनाने से हुई, उससे कहीं ज्यादा शतक बनाने के अंदाज़ से हुई. सीरिज का तीसरा वन डे जीतते ही भारत की आईसीसी वन डे रेंकिंग पांचवे से तीसरे पायदान पर पहुँच गयी और विराट कोहली की वन डे बल्लेबाजी की रेंकिंग धोनी से एक पायदान ऊपर चौथे नंबर पर आ गयी. 'स्टेपनी' से सिकन्दर बनने तक के विराट कोहली की सफलता के कुछ सूत्र :
लक्ष्य के लिए न्योछावर
आज लोग विराट कोहली में सचिन जैसे सुपरस्टार होने की संभावनाएं देख रहे हैं तो उसके पीछे खेल के लिए उनका समर्पण और कड़ी मेहनत है. कोटला स्टेडियम से कोहली का पुराना नाता है. वे यहाँ कई बार खेल चुके हैं, लेकिन दिसंबर २००६ में वे इसी जगह दिल्ली की तरफ से रणजी ट्राफी के लिए कर्णाटक के खिलाफ खेलने आये थे और उन्हें बुरी खबर मिली थी कि उनके पिता प्रेम कोहली का 54 साल की उम्र में हार्ट अटैक आने से निधन हो गया था. यह विराट के जीवन की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा थी. पूरी टीम शोकाकुल थी और जांबाज़ विराट अड़े थे कि बेटिंग मैं ही करूंगा. उस नौजवान ने बेटिंग की और 90 रन बनाकर दिल्ली को जिताया.
झटकों से न घबराएँ
ज़िंदगी के ग्राफ में उतार - चढ़ाव केवल शेयर बाज़ार में ही नहीं, आम ज़िंदगी में भी आते हैं. विराट कोहली ने अंडर 17 , अंडर १९ और इमर्जिंग प्लेयर्स टूर्नामेंट्स में तो शानदार प्रदर्शन किया था लेकिन वन डे में उनका ग्राफ ऊपर नीचे डोलता रहा है. आईपीएल फर्स्ट सीजन फ्लॉप, सेकण्ड सीजन भी फ्लॉप, आइडिया वन डे में ओपनिंग मिली तो केवल बारह रन पर आउट. दूसरे मैच में केवल 37 रन ही बने. चौथे मैच तक आते आते निर्णायक ५४ रन बना लिए. यह थी वन डे मैचों में श्री लंका में श्रीलंका के खिलाफ भारत की पहली जीत ! लेकिन जब भारत में श्रीलंका के खिलाफ मैच हुआ तब वे खेल ही नहीं सके क्योंकि वे सचिन और सहवाग की स्टेपनी थे, और ये दोनों खिलाड़ी फिट हो चुके थे.
अंध विश्वासों से दूरी
कोटला के बारे में कहा जाता है कि वहां दिल्ली के खिलाड़ियों को नहीं फलता, लेकिन विराट कोहली और गौतम गंभीर दोनों ने ही इसे झूठ साबित किया. गत सोमवार को उन्होंने कोटला में सेंचुरी बनाने के पहले गेंद्बाज़ी भी की थी और पांच ओवर में बिना कोई विकेट लिए केवल अठारह रन ही खर्च किये थे. खेल के मैदान में विराट ने यह बात गलत साबित कर दी थी कि कोई भी मैदान लकी या अनलकी होता है.
दिमाग ठंडा रखना आवश्यक
खेल कहीं भी हो रहा हो, किसी के भी विरुद्ध हो रहा हो, दिमाग को ठंडा रखना ज़रूरी है, वरना गड़बड़ हो सकती है. विराट कोहली का खेल और केवल खेल आक्रामक होता है, उनकी भाव भंगिमाए. सामान्य होती हैं और वे जुबां से आक्रामक कम ही होते हैं. उनका फार्मूला यह है कि दिमाग को ठंडा रखकर ही खेला जा सकता है. उनका मानना है कि क्रिकेट शुद्ध रूप से दिमाग से खेला जानेवाला खेल है.
नेतृत्व की बात मानो
विराट कोहली ने जैसा प्रदर्शन किया है उससे यह साफ़ है कि उनमें आलराउंडर होने की सारी संभावनाएं है. यकीन कप्तान महेंद्रसिंह धोनी नहीं चाहते कि विराट कोहली आलराउंडर बनने की कोशिश भी करे. विराट ने कोटला में शतक बनने के पहले अच्छी गेंदबाजी की थी, लेकिन धोनी का मानना है कि विराट की गेंदबाजी थोड़ी जटिल किस्म की है और उससे चोटिल होने का खतरा बना रहता है. ऐसे में विराट को मैदान में रखना खतरनाक हो सकता है. अच्छा है कि विराट वही काम करे, जिसके लिए उन्हें तैनात किया गया है. जरूरत पड़ने पर उनसे तीन से पांच ओवर तक की गेंदबाजी करवाई जा सकती है. विराट ने धोनी बात को पूरी तवज्जो दी है.
नए नियमों का ज्ञान रखें
क्रिकेट के नए नियमों से विराट कतई इत्तेफाक नहीं रखते. खासकर रन आउट के नियमों से. उन्हें इन नियमों की पूरे जानकारी है, लेकिन इसके व्यावहारिक पहलू भी हैं. नए नियमो के अनुसार अगर अम्पायर को लगे कि बल्लेबाज़ बिना किसी कारण के रन लेते समय अपनी विकेट बचने के लिए विकेट के बीच में ही यदि अपनी दौड़ाने की दिशा बदलता है तो उसे आउट करार डे दिया जाता है. नए नियम से दोनों छोर से नयी गेंद का उपयोग किया जा सकता है और सोलहवें और चालीसवे ओवर में पावर प्ले लेना अनिवार्य है.
होनहार विराट कोहली के बारे में अब अगर दक्षिण अफ्रीका के खिलाड़ी जोंटी रोड्स कह रहे हैं कि विराट में सचिन जैसे सुपरस्टार होने के तमाम गुण हैं तो वे गलत कुछ भी नहीं कह रहे है,
---- प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिंदुस्तान (23/10/2011) को एडिट पेज पर प्रकाशित

Sunday, October 16, 2011

रफ़्तार और संतुलन का महारथी

रविवासरीय हिन्दुस्तान (16 अक्तूबर 2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम





रफ़्तार और संतुलन का महारथी

प्लेब्वॉय की छवि वाले और फार्मूला वन के जानेमाने ड्राइवर मार्क ऐलन वेबर की दिली इच्छा भारत में आकर आस्ट्रेलिया और भारत के बीच क्रिकेट मैच देखने की है, लेकिन भारत के लाखों फार्मूला वन रेस के दीवाने उन्हें फार्मूला वन रेस में उनका वाहन दौड़ते हुए देखना चाहते हैं. अपने खेल के कैरियर की शुरूआत बॉल ब्वाय के रूप में करनेवाले मार्क वेबर की गिनती दुनिया के सबसे अच्छे फार्मूला वन ड्राइवरों में की जाती है. वे फार्मूला वन कार को सबसे कम समय में सबसे तेज़ गति पर दौड़ाने में भी माहिर हैं. फार्मूला वन के दीवानों का कहना है कि यह कोई खेल नहीं, 'एनर्जी मैनेजमेंट' है, जहाँ अनेक बातों का ध्यान रखना पड़ता है. लाखों लोगों को दीवाना बनानेवाले मार्क वेबर की सफलता के कुछ सूत्र :
जो आगे, वही सिकंदर
खेल कोई भी हो, जीत के लिए पहले ही दौर में सबसे आगे रहना हमेशा फायदेमंद होता है. उसमें गति का भी अपना बहुत महत्व होता है. गति के बिना खेल में न तो मज़ा है और न ही जीत. इस पर भी बात अगर फार्मूला वन की हो तो कहना ही क्या? हाल ही में लन्दन की सिल्वरस्टोन रेड बुल टीम के सदस्य मार्क वेबर ने एक मिनट 30.399 सेकेंड 5.14 किलोमीटर लम्बी सिल्वरस्टोन सर्किट का एक चक्कर लगाया। यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ समय है. उनका रेस का अपना नियम यह है कि हमेशा पहले ही क्रम में पहली पोजीशन पकड़ लो. अगर किसी को सालाना इम्तहान में अव्वल आना है तो उसे हर टेस्ट में अच्छे नंबर लाना चाहिए.
शक्ति का संचय और गति
खेल हो या जीवन के कोई भी क्षेत्र, आगे रहने के लिए सदैव अपनी शक्ति का संचय करें और उसे रंचमात्र भी व्यर्थ न जाने दें. विजेता बनना हो तो अपनी पूरी ताकत, पूरा मनोयोग उस लक्ष्य को पाने में लगा दें. यही फार्मूला है फार्मूला वन के चैम्पियन का. मार्क वेबर जो भी काम शुरू करते हैं, उसमें अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं. मज़ेदार बात यह है कि जब उन्होंने फार्मूला वन में हिस्सा लेना शुरू भी नहीं किया था, तब से वे इसी सूत्र को अपनाये हुए हैं और इसी के सहारे हर जगह अव्वल रहने की कोशिश में लगे रहते हैं.
विविधता भरा हो जीवन
मार्क वेबर खेल की दुनिया में दुनिया में सबसे ज्यादा दौलत कमानेवालों में से हैं. 2010 में ही उन्होंने करीब 65 करोड़ रुपये कमाए. उनकी छवि कभी एक प्लेब्वॉय की रही है, लेकिन वे शराब के शौक़ीन नहीं हैं. वे अपनी जीवनसाथी से बहुत प्यार करते हैं और हर रोज़ उन्हें कहते हैं कि आज वे अपना जन्मदिन मना रहे हैं क्योंकि वे अकेले नहीं हैं. वे १३ वर्षों से ऐन नील के साथ रह रहे हैं जो उनका पूरा ध्यान रखती हैं. मार्क वेबर कई खेल खेलते हैं, जिनमे रग्बी और टेनिस शामिल है. वे एफ वन प्रो-एएम टेनिस के तीन बार के विजेता भी है.
निडर और जीवटता
फार्मूला वन के ड्राइवर होने के नाते उनका जीवन खतरों से भरा है और वे इसे जानते हैं. फार्मूला वन में करीब २५० किलोमीटर की गति से उनकी गाड़ी की टक्कर होने के बाद उनकी जान जाते-जाते बची थी और वे अपनी टांग भी तुड़वा चुके हैं. इसके अलावा वे साइक्लिंग के दौरान भी एक दुर्घटना के कारण कई दिनों तक अस्पताल में रहे. इस दौरान उनके मन में कई बार अच्छे -बुरे ख्याल आये. कई बार उन्हें लगा कि अब वे शायद कभी भी फार्मूला वन रेस में हिस्सा नहीं ले पायेंगे. अपनी जीवटता के करना ही वे बुरे हालात से बाहर आ सके.
असंभव कुछ नहीं
जो लोग समझते हैं कि यह दुनिया में बहुत से काम असंभव हैं उन्हें यह मन लेना चाहिए कि असंभव कुछ भी नहीं. कुछ कम कठिन हो सकते हैं, पर असंभव नहीं हैं. वे आस्ट्रेलिया में जन्मे और बचपन में उन्होंने रग्बी खेल के मैदान में बॉल ब्वॉय का काम किया.
रेसिंग उन्हें पसंद थी और उन्होंने 14 साल की उम्र में रेसिंग शुरू की. फॉर्मूला वन वर्ल्ड चैपियन एलेन प्रॉस्ट उनके बचपन के हीरो थे। मार्क वेबर ने शुरूआत कार्ट रेसिंग से की। 1993 में वे न्यूसाउथ वेल्स स्टेट चैम्पियनशिप के विजेता बने। 1995 एडीलेड में ऑस्ट्रेलियन ग्रां प्री के दौरान हुई सपोर्ट रेस जीती। 1995 में 21 वर्ष की उम्र में मार्क यूके चले गए। मार्क वेबर का एफ वन कैरियर 2002 में ऑस्ट्रेलियन ग्रां प्री से शुरू हुआ। एफ वन की पहली जीत मार्क वेबर को सात वर्ष बाद 2009 में रेडबुल टीम के ओर से जर्मन ग्रा.प्री. में मिली। वेबर पिछले सात वर्ष से रेडबुल टीम के ड्राइवर हैं और अब अगले वर्ष वे संन्यास लेने की सोच रहे हैं.
दान का महत्व न भूलें
इसमें दो मत नहीं कि वेबर ने बहुत कमाई की है लेकिन वे चैरिटी के महत्व को समझते हैं. वे कभी कैसर पीड़ित बच्चों के लिए तो कभी गरीब बच्चों के लिए कोई न कोई खेल का आयोजन करते रहते हैं. ये आयोजन रेस के या साइक्लिंग के होते हैं. करोड़ों रुपये वे ऐसे आयोजनों से हर साल इकठ्ठा करते हैं, और उसे भलाई के काम में लगा देता हैं. उनका अहंकार से दूर सामान्य रूप से जीने का अंदाज़ भी लोगों को पसंद आता है.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

(दैनिक हिन्दुस्तान में संस्करणों में 16 अक्तूबर 2011 को प्रकाशित)

Sunday, October 09, 2011

धैर्य और साहस ने दिलाया नोबेल

रविवासरीय हिन्दुस्तान(09 अक्तूबर 2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम







धैर्य और साहस ने दिलाया नोबेल

'अफ्रीकी आयरन लेडी' कहलानेवालीं लाइबेरिया की राष्ट्रपति एलेन जॉन्सन सरलीफ़ और दो अन्य महिलाओं को इस वर्ष का नोबेल शांति पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है. यह लोकतंत्र और शान्ति की स्थापना में उनके प्रयासों का सम्मान है. एलेन जॉन्सन सरलीफ़ लाइबेरिया में लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी पहली महिला राष्ट्रपति हैं. नोबेल पुरस्कार समिति की वेबसाइट के अनुसार उन्होंने लाइबेरिया में सांति की स्थापना के साथ ही आर्थिक और सामाजिक विकास पर भी ध्यान दिया और महिलाओं की सुरक्षा और विकास में भागीदारी सुनिश्चित करने में अहम् भूमिका निभाई. निर्धन माता पिता की बेटी एलेन ने संघर्षों के बाद अपनी पढ़ाई पूरी की और अपने करीयर में ऊंचाइयां छूते हुए देश के सर्वोच्च पद तक पहुँची और वैश्विक सम्मान पाया. एलेन जॉन्सन सरलीफ़ की सफलता के कुछ सूत्र:
पढ़ाई के कोई विकल्प नहीं
कोई कहीं भी पैदा हो, किसी भी परिवार का हो, माता पिता कितने भी असहाय हों, लेकिन अगर पढ़ाई ठीक से की हो तो वह न केवल अपने हालात बदल सकता है, बल्कि दुनिया को भी बदलने की ताकत रखता है. गरीब माता- पिता की संतान होने के बावजूद एलेन जॉन्सन सरलीफ़ ने पढ़ाई पर पूरा ध्यान दिया. केवल सत्रह साल की उम्र में शादी कर दी गई लेकिन उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी. उन्होंने शादी के बाद पति के साथ यूएस जाकर पढ़ाई जारी रखी और अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन में डिग्री प्राप्त की. पांच संतानों को जन्म और पति से तनाव के बाद भी पढ़ाई ने ही उनका साथ दिया और वे सिटी बैक में नौकरी पा सकीं. पढ़ाई के कारण ही वे विश्व बैंक के डायरेक्टर तक की कुर्सी तक पहुंची, जिसने उन्हें न केवल आर्थिक रूप से सबल बने बल्कि आर्थिक जगत को देखने-समझने की शक्ति भी दी.इसी पढ़ाई की शक्ति को उन्होंने अपने देश की महिलाओं और बच्चों तक पहुंचाया और शिक्षा को विकास का हथियार बनाया.
हिम्मत रखें
जब एलेन जॉन्सन सरलीफ़ ने राष्ट्रपति की कुर्सी संभाली थी, तब लाइबेरिया के हालात बदतर थे. लखनऊ, पटना और कानपुर से भी कम आबादीवाले देश लाइबेरिया में 80 फीसदी (जी हाँ, अस्सी प्रतिशत) बेरोज़गारी थी, आधी से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा के नीचे बसर कर रही थी, शहरों, कस्बों की बात तो छोड़िये राजधानी मोनरोविया में भी बिजली गुल थी और पीने के पानी का तितरण बंद था. भ्रष्टाचार, महिलाओं-बच्चों पर ज्यादतियां आम बात थी और चौदह साल के गृह-युद्ध में 41 लाख की आबादीवाले में से ढाई लाख लोग मारे जा चुके थे. बदतर हालातों में भी उन्होंने हौसला नहीं खोया और नयी रहें कहे जाने में जुटी रहीं. काल्पन कीजिये राष्ट्रपति बनाने के बाद उनका पहला बड़ा काम क्या था? राजधानी में जलप्रदाय शुरू कराना. उनके पास करने के लिए काम ही काम थे, वे एक एक कर ये काम करती गयी.
आर्थिक आज़ादी का महत्व
एलेन जॉन्सन सरलीफ़ ने राष्ट्रपति बनते ही आर्थिक आज़ादी की दिशा में बढ़ने की शुरुआत की. उन्हें लाइबेरिया का पुनर्निर्माण करना था. अर्थव्यवस्था में सुधार करना था. क़र्ज़ से मुक्ति उनका पहला लक्ष्य था. छह साल के कार्यकाल में उन्होंने सबसे पहले अपने देश पर चढ़े चार डॉलर के क़र्ज़ को मुक्त करने के लिए प्रयत्न किये और यूएस,जर्मनी और विश्व बैंक के क़र्ज़ माफ़ कराये. सोलह अरब डॉलर का निवेश अपने देश में आकर्षित कराया. विकास की दर को पांच से बढ़कर साढ़े नौ प्रतिशत तक पहुंचाया. हीरा, लौह अयस्क, रबर, लकड़ी, कॉफ़ी, कोको आदि के निर्यात को बढाया देकर विदेशी मुद्रा कमाने और नए रोजगार पैदा करने के प्रयास किये. सरकरी बजट पर होनेवाला खर्च चार साल में बढ़ाकर करीब चार गुना से ज्यादा करने में सफलता पायी. लाईबेरिया हजारों स्कूल, अस्पताल और व्यापारिक केंद्र बनाये गए और नए लाइबेरिया के निर्माण में जनसहयोग का अभियान चलाया गया.
आरोपों से डरें नहीं
एलेन जॉन्सन सरलीफ़ पर विदेशी दबाव में काम करने, विद्रोहियों को लाभ पहुँचाने, अमेरिका की सरपरस्ती, भ्रष्टाचार को बढ़ाने, देश के हित को गिरवी रखने, लाइबेरिया की सम्पदा को लुटाने जैसे कई आरोप लगे लेकिन उन्होंने साफ साफ़ कहा कि राष्ट्रपति के रूप में आप क्या करेंगे अगर आप आरोपों से डरने लग जाएँ. असली बात तो यह है कि लाइबेरिया के आर्थिक हालात में सुधार हो और लोगों का जीवन स्तर सुधरे. मेरा राष्ट्रपति बनना बेकार होगा अगर मेरे देश वासियों की बदहाली ऐसी ही रही. उनके विरोधियों ने उन पर लगातार राजनैतिक हमले जारी रखे , लेकिन वे विचलित हुए बिना अपने काम में जुटीं रही.
समस्या की जड़ तक जाएँ
राष्ट्रपति अगर आप कोई भी समस्या हाल करना चाहते हैं तो उसको जड़ों से ख़त्म कीजिये वरना वह फिर पैदा हो जायेगी. राजनैतिक मोर्चे पर उन्होंने अपने विरोधी दलों और छोटी छोटी पार्टियों को विश्वास में लेने की कोशिश की जिससे कि वे भी सुधार और बदलाव में हिस्सेदारी निभा सकें. उन्होंने लाइबेरिया में 'ट्रुथ एंड रीकन्सिलिएशन कमीशन' ( सत्य और सामंजस्य आयोग) गठित किया जिससे राष्ट्रीय स्तर पर शांति, सामंजस्य, भाईचारा और एकता को बढ़ावा दिया जा सके. इस आयोग की रिपोर्ट को लेकर कई बार बहस हुई और सुप्रीम कोर्ट तक भी मामले गए. राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कोशिश की कि न्याय व्यवस्था में सुधार हो, प्रशासकीय ढांचा सुधरे और वे लोकोपयोगी अल्प और दीर्घकालीन कार्य करें.
समझौता न करें
अगर आपने बात बात पर समझौते कर लिए तो लक्ष्य तक जाना आसान न होगा. एलेन जॉन्सन सरलीफ़ ने अपने एक नज़दीकी रिश्तेदार को भ्रष्ट आचरण के मामले में हटा दिया. गत वर्ष उन्होंने अपने १९ में से सात मंत्रियों को बदल दिया था. यहाँ तक कि के व्यवहार से क्षुब्ध होकर तलाक का रास्ता भी उन्हें अपनाना पड़ा. उन्होंने महिलाओं पर उनके पति के अत्चारों के खिलाफ भी मोर्चा खोला. गृह युद्ध के दौरान वे जेल में रहीं, तब एक सैनिक ने उनसे बलात दुष्कर्म की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहा. कैद में उन्होंने कष्ट सहे और निर्वासित जीवन भी जिया. ''लोगों को यह बात याद रखनी चाहिए कि मैंने क्या क्या काम किये है और कैसे कैसे हालात में लड़ाइयाँ लड़ी है. संघर्ष में मैंने भी बहुत कुछ खोया है.'' २०१० में 'न्यूजवीक' ने उन्हें विश्व के दस शीर्ष नेताओं में माना था, 'टाइम' ने उन्हें दुनिया की दस सबसे प्रमुख नेताओं में गिना था और 'इकानामिस्ट' ने उन्हें लाइबेरिया की सबसे योग्यतम राष्ट्रपति बताया था.
--प्रकाश हिन्दुस्तानी

(दैनिक हिन्दुस्तान 09 अक्तूबर 2011 के संस्करणों में प्रकाशित)

Sunday, October 02, 2011

नफ़रतों को जीतने की कामयाबी

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज 2 अक्तूबर 2011 को प्रकाशित मेरा कॉलम





नफ़रतों को जीतने की कामयाबी


गांधी जी और गांधीवाद कितना महत्वपूर्ण और शाश्वत है, इसका अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि गांधीवादी नेल्सन मंडेला आज भी दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित और विश्वसनीय सेलेब्रिटी हैं. दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बननेवाले, नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित नेल्सन मंडेला 93 साल के होने पर भी सार्वजानिक जीवन में सक्रिय हैं. उनकी मृत्यु की अफवाहों के बीच वे दक्षिण अफ्रीका के बीमार होते कपड़ा उद्योग की दशा सुधारने के लिए अप्पेरल की नयी रेंज ला रहे हैं, वे अपने परपोते के साथ खेलते भी हैं, वे ट्विटर पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और बार बार यह बात साबित कराते हैं कि गाँधी का रास्ता कितना सहज, जन हितैषी और सर्वोदय का है. दुनिया में शायद ही कोई होगा जो उनकी कार्यक्षमता का लोहा नहीं मानता हो. आखिर वे कौन से सूत्र हैं, जिन्हें अपनाने के बाद उनकी इतनी दुरूह राहें भी उन्हें मंजिल तक ले गयी. नेल्सन मंडेला की सफलता के कुछ सूत्र :
एक नहीं, अनेक मंजिलें
''किसी भी पहाड़ की चोटी पर पहुंचें तो आपको पता चलेगा कि वहां और भी पर्वत शिखर हैं.'' आप केवल एक शिखर को छूकर भी संतुष्ट हो सकते हैं या फिर से किसी और नए शिखर पर पहुँचने का संकल्प कर सकते हैं. अगर आप एक पर चढ़कर ही संतुष्ट हो जाएँ तो इसमें उन शिखरों का क्या दोष? हो सकता है कि नए शिखर पर नयी बातें देखने को मिलें, नयी संतुष्टि का अहसास हो. दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद ख़त्म हुआ यह एक ही मंजिल थी, तरक्की करना, सामाजिक विभेद मिटाना दूसरी मंजिलें हैं. पर्वतों पर चढाने का यह क्रम सदा चलता रहना चाहिए.
दुश्मनों से दोस्ती कारण सीखें
''अगर आप अपने दुश्मनों के साथ शांति चाहते हैं तो उनसे दोस्ती करना सीखें. दोस्ती के बाद वह आपका सहभागी होगा.'' आपका मन बार बार यही कहेगा कि आप सही हैं और आपका दुश्मन गलत है. याद रखिये कि किसी के भी बारे में कोई भी राय बदलना आसान नहीं होता, लेकिन यह कोई असंभव भी नहीं होता. इससे जूझने का मन्त्र यही है आप अपने विचारों और भावनाओं को बहुत ज्यादा गंभीरता से लेना बंद कर दें. सोचें कि आपका दुश्मन भी किसी मुद्दे पर सही हो सकता है. इसी से बातचीत का रास्ता खुलता है. इसके बाद आपका काम आसान हो जाता है.
गिर जाओ तो जल्द संभलो
''गिरना हार नहीं है, हार तब है जब कोई गिरकर उठे ही नहीं''. जब भी आप पर्वतारोहन करते हैं तब बार बार लगता है कि आप अब गिरे, तब गिरे और खेल ख़त्म! सभी जानते हैं कि यह खेल तब तक चलता है जब तक कि कोई भी गिरकर उठे ही नहीं. गिरने लगो तो तत्काल संभाल जाओ; कैसे भी हालात हो, गिरे हुए ही मत पड़े रहे. जब भी कोई पहाड़ पर चढाने का मन बनाता है, तब यह थोड़े ही तय होता है कि उसने शिखर को छू लिया. याद रखो, दूर से तो पहाड़ बड़ा नज़र आता है और चढ़ाई भी बड़ी नज़र आती है, लेकिन छोटे छोटे कदमों से ही हम धीरे धीरे बड़ी दूरी तय कर लेते हैं. इसीलिये गिरने से न डरो, इस डर से सफ़र करने में कोई भलाई नहीं है.
मंजिल पर नज़र हो
''अगर पानी को उबालना हो तो लगातार आंच जलाये रखनी पड़ती है.'' ऐसा होता है क्या कि पानी गुनगुना हो और आप आच बंद कर दें, फिर भी पानी उबलने लगे. कभी कभी सुस्ताते हुए रूककर पीछे देखना अच्छा लगता है, लेकिन यह खतरनाक है, क्योंकि इसी से गति मंद पड़ जाती है. बार बार मुड़कर देखने की आदत और रुकना ठीक नहीं. थोड़ी सी कामयाबी पर क्या रुकना, जब लक्ष्य दूर हो.आप जितना भी वक्त रुकने में लगायेंगे, मंजिल उतनी ही देर से पायेंगे. बेहतर है कि पड़ाव पर रुक कर वक्त गंवाने के, मंजिल पर जाकर ही रुकें. इसी बात को शायर बशीर बद्र ने यों कहा है -- जब से चला हूँ मैं, मेरी मंजिल पे नज़र है, आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा.
सचमुच बहादुर बनो
''बहादुरी भय की गैर मौजूदगी नहीं, भय पर विजय का नाम है.'' एक छोटा बच्चा जो सांप के ज़हर से अनजान हो, हाथों से सांप को पकड़ सकता है, लेकिन वह बहादुर नहीं कहा जा सकता. बहादुर वह है जो इस भय से दूर है कि सांप ज़हरीला हो सकता है और फिर भी सांप को पकड़ ले, जिसे सांप से भय न लगता हो. जब सांप पकड़ने का मौका आता है तब आपके साथी इसलिए भी डरते हैं कि कहीं उन्हें आपकी मदद न करनी पड़ जाए. वे आपकी मदद नहीं करना चाहते, इसलिए आपको डराते हैं. बहादुरी दिखाने के लिए हमेशा तैयार रहो,लेकिन अपनी सुरक्षा और संरक्षा को ध्यान में रखकर. और हाँ, हमेशा जिज्ञासु बने रहो, ताकि नयी नयी बातें पता चलती रहेँ.
धीरज कभी भी मत खोओ
''सम्पूर्ण होने से पहले हर काम असंभव लगता है.'' जब काम ख़त्म हो जाता है, तब पता चलता है कि हमने वह कर डाला, जिसे हम खुद कभी असंभव मानते थे. मैंने कई जेल यात्राएं कीं हैं. जब मैं रोब्बेन द्वीप की जेल में था , तब वे बहुत कठिन दिन थे. २३ घंटे सीलन भरी छोटी सी कोठरी में पड़ा रहना होता था, जहाँ केवल एक बल्ब की रोशनी थी. वक्त का कोई अंदाज़ नहीं होता था. खाने के नाम पर जो कुछ मिलता था, उसे खाना नहीं कहा जा सकता था. अखबार देखे बरसों बीत जाते, चिट्ठी छह महीने में एक आ सकती थी, उसे ऐसे सेंसर किया जाता था कि पढ़ पाना मुश्किल था. मुलाकातें महीनों में हो पाती. कैदी भी बातचीत नहीं कर सकते थे. ऐसे में अपने आप को बचाए रखन ही बड़ी उपलब्धि लगती थी. उस दौर में भी मैंने और मेरे कुछ साथी कैदियों ने धीरज नहीं खोया था.
हमेशा शिक्षा लेते रहो
''दुनिया को बदलने का सबसे बड़ा हथियार है शिक्षा.'' हमेशा ही शिक्षा के प्रति आग्रही रहो. सारी की सारी शक्ति शिक्षा में छुपी है. शिक्षा ही किसी को हौसला और ताकत दे सकती है. शिक्षा आपको नवाचार की तरफ ले जा सकती है, शिक्षा आपके भीतर छुपा डर दूर कर सकती है, इसलिए खूब किताबे पढ़ो, तरह तरह की किताबें, देखो तो कि दुनिया में कितना कुछ बदलाव हो रहा है. इसी से आप को बातों के समझने की, अच्छे-बुरे की, खतरों और संभावनों की जानकारी मिलेगी.आगे बढ़ने के रास्ते और नए नए तौर तरीकों को जानो. इससे भीतर का डर भी ख़त्म होगा.
पीछे रहकर नेतृत्व करो
''पीछे रहकर भी नेतृत्व करो, लोगों को आगे रहने दो.'' इससे कई लोगों को यह भ्रम होने लगेगा कि नेतृत्व वे ही कर रहे हैं लेकिन यही असली नेतृत्व है कि आप अदृश्य हों और नेतृत्व भी आप ही का हो. किसी भी आन्दोलन में जब तब बहुत बड़ी संख्या में लोग न जुड़े हों, आन्दोलन सफल नहीं हो सकता. याद रखो कि हर व्यक्ति श्रेय लेना चाहता है. अपने श्रेय को दूसरों के साथ बांटो. दूसरों को आगे आगे झंडा लेकर चलने दो, वे भी आपके हमसफ़र हैं. जितना बड़ा लक्ष्य होगा , उसमें शामिल होनेवाले लोगों के संख्या भी उतनी ही होगी. बहुत बड़ा बदलाव लोग ही कर सकते हैं अकेले आप नहीं.
तत्काल करने की आदत
''सही वक्त का इंतजार मत करो, वह कभी भी नहीं आएगा.'' हालात देखकर यह मत सोचो कि जब वे सुधरेंगे, तब आप काम करेंगे. हालात अपने आप कभी भी नहीं सुधरेंगे. इस मुगालते में कभी भी मत रहो कि आप कुछ समय रुकने के बाद कुछ ऐसा काम करेंगे, जो अद्भुत होगा. वह समय कभी भी नहीं आएगा और आप वह काम कभी नहीं कर पायेंगे. आपको जो भी काम करना है, तत्काल शरू कर दो और उसे पूरा करने के बाद ही दम लो. कोई भी रास्ता आसान रास्ता नहीं है. याद रखो, कोई भी काम के वक्त आपकी मौजूदगी महत्वपूर्ण होती है और आप की मुस्कराहट भी. खुद मौजूद रहो और तत्काल कर डालो.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

( 2 अक्तूबर 2011 को प्रकाशित )

Sunday, September 25, 2011

जीत में विनम्र, हार में गरिमामय

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज 25 सितम्बर 2011 को प्रकाशित मेरा कॉलम



जीत में विनम्र, हार में गरिमामय


विश्व स्तर किये गए एक सर्वे के अनुसार टेनिस के सुपरस्टार रोजर फेडरर दुनिया के सबसे सम्माननीय खिलाड़ी और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के बाद दूसरे सबसे सम्माननीय और विश्वसनीय सेलेब्रिटी हैं. इसी सूची में अमेरिकी बेसबाल खिलाड़ी डेरेक जेटर और ब्रिटिश फुटबालर डेविड बेकहम का नाम भी है, लेकिन सोलहवें और चौबीसवें नंबर पर. रतन टाटा भी इस सूची में नौवें नंबर पर हैं. सर्वे में यह बात सामने आई कि लोग ज्यादा कमाने वाले व्यक्ति को नहीं, समाज सेवा में ज्यादा से ज्यादा धन और समय देने के साथ ही अच्छी भावना रखनेवाले व्यक्ति के प्रति यह सम्मान भाव रखते हैं. सम्माननीय और विश्वसनीय सेलेब्रिटी का यह ख़िताब ऐसा है जिसे कोई भी उनसे नहीं छीन सकता. आखिर क्या क्या बातें हैं जिनके कारण रोजर फेडरर इतने लोकप्रिय हैं? उनकी सफलता के कुछ सूत्र:
हमेशा बुद्धिमतापूर्ण प्रदर्शन
इस दौर में जबकि टेनिस पावर गेम बन चुका है, फेडरर हमेशा अपनी बुद्धि का उपयोग करते हैं और हमेशा विविधतापूर्ण तरीके से खेलते हैं उनका अपने टेनिस रैकेट की गति, शक्ति और टॉपस्पिन पर पूरा नियंत्रण रहता है. फेडरर जब भी सर्व करते हैं तब उनकी कोई न कोई रणनीति होती है. उनका फोरहैण्ड (यानी रैकेट वाले हाथ की तरफ से मारा गया) शॉट दूसरे खिलाड़ी के लिए खतरनाक होता है और जब खेल चरम पर पहुंचता है और फैसला अंतिम क्षणों में होना हो तब फेडरर तांडव करते हैं जिसे 'एडवांटेज फेडरर' कहा जाता है. खेल के दौरान उनका आत्मविश्वास देख लोग दंग रह जाते हैं.
निरंतर श्रेष्ठतम खेल
रोजर फेडरर टेनिस में लगातार अपना श्रेष्ठतम प्रदर्शन करते रहे हैं. ऐसी निरंतरता शायद ही किसी ने दिखाई हो. वे लगातार 237 सप्ताह तक विश्व टेनिस रेंकिंग में नंबर वन पर बने रहे.( वैसे वे कुल 285 सप्ताह तक नंबर वन रेंकिंग में रहे हैं) विम्बलडन और यू एस ओपन में लगातार पाँच पाँच बार विजेता रहे. लगातार बीस बार ग्रांड स्लेम सेमीफायनल में मुकाबला करते नज़र आये. वे पीट सेम्प्रास और आंद्रे अगासी की तुलना में फिट रहे हैं और हर बार अपना शानदार प्रदर्शन करते रहे हैं. चपलता, पैनापन और दृढ़ता ने उन्हें बेहतरीन खिलाड़ी बनाया.
मानसिक मज़बूती आवश्यक
रोजर फेडरर जैसा खेलने के लिए मानसिक तौर पर मज़बूत होना ज़रूरी है. जब खेल के मैदान में मैच हाथ से छूटता नज़र आता हो तब भी वे पाना आप बनाये रखते हैं और रत्तीभर भी बेचैनी प्रकट नहीं करते. खेल में लव लव के हालात हों या प्रेशर कुकिंग टाई ब्रेकर, उन्हें जब कभी भी बाउंस, ग्राउंड स्ट्रोक, ड्रॉप शॉट, वॉली या हाफ वॉली की ज़रुरत होती है, वे वैसा ही खेल जाते हैं. वे टेनिस कोर्ट में इतने मानसिक मज़बूती दिखाते हैं कि सामनेवाले के होश फाख्ता हो जाते हैं. मैदान में उन्हें किसी ने कभी चिढचिढाते नहीं देखा. वे जो सोच लेते हैं, कर डालते है.
जीत में विनम्र, हार में गरिमामय
फेडरर के बारे में मशहूर है कि वे कभी अहंकारी नहीं हुए; क्या जीत में, क्या हार में. जीत उन्हें विनम्र बना देती है और वे पराजय होने पर ऐसी गरिमा से उसे स्वीकारते हैं जैसे वह भी उनकी जीत ही हो. जीत के बाद जब भी वे ट्रॉफी लेने जाते हैं तब उन्हें पहली बार देखनेवाले को लगता है कि शायद यह उनकी पहली जीत है और जब (कभी ऐसा मौका आये तो) हारने के बाद भी वे मैदान में रहते हैं, विजेता के खेल की तारीफ करते हैं और उसे खुलकर बधाई तथा शुभकामनाएं देते हैं. पराजय उनके दिल में कभी भी कड़वाहट नहीं घोल पाती.
भाषा पर पकड़ महत्वपूर्ण
फेडरर ने 17 देशों में अपने टाइटल जीते हैं, इसका अर्थ यह है कि वे दुनिया के कई देशों में घूमते रहते हैं. वे स्विटज़रलैंड और दक्षिण अफ्रीका की दोहरी नागरिकता रखते हैं और सात भाषाएँ जानते हैं. अंग्रेज़ी, स्विश, स्विश-जर्मन वे अच्छी तरह जानते हैं और इटालियन, स्वीडिश और स्पैनिश भी बोलते -समझते हैं. मीडिया से बातें करते वक़्त वे स्विटज़रलैंड की स्थानीय बोली भी बोलते हैं और मीडिया तथा लोगों से तादात्म्य बना लेते हैं. लोग कहते हैं कि केवल एक ही भाषा के महारत रखते हैं और वह है कोर्ट में टेनिस की भाषा!
निरंतर बढ़त ज़रूरी
जीत के लिए फेडरर का फार्मूला यही है कि अपने प्रतिस्पर्धी से लगातार बढ़त बनाये रखो. यही कामयाबी का श्रेष्ठतम और पक्का रास्ता है. अगर खेल में आपको पहले लीड मिल गयी हो तो उसे और आगे बढ़ा लेना चाहिए और उस बढ़त को इतना आगे ले जाना चाहिए कि खेल के उत्कर्ष पर वह बढ़त ऐसी हो जाए कि उसका मुकाबला नामुमकिन हो जाए. खेल का यह सूत्र निजी जीवन की प्रतिस्पर्धाओं में भी अपनाया जाना चाहिए. उन्होंने अपने लिए कोच की सेवाएं नहीं लीं. शायद इसीलिये वे इतने निश्छल होकर खेल पाते हैं क्योंकि उन्हें किसी को सफाई देने की ज़रुरत नहीं होती.
परिवार को अव्वल रखें
फेडरर के लिए अपना परिवार हमेशा महत्वपूर्ण रह है. वे अपनी पत्नी मिर्का को बहुत मानते हैं. वे 2000 में सिडनी ओलिम्पिक्स के दौरान मिले थे और बाद में दोनों ने ब्याह रचा लिया. खेल के दौरान गंभीर चोट लगने के कारण मिर्का को खेल छोड़ देना पड़ा, लेकिन मिर्का ने फेडरर के खेल को विकसित करने में काफी मदद की. मिर्का मैच के दौरान दर्शकों के बीच मौजूद रहतीं और फेडरर की हौसला अफजाई करतीं. फेडरर को मानसिक तौर पर शांत चित्त रखने में मिर्का की बड़ी भूमिका है, जिसके लिए फेडरर उन्हें सबके सामने धन्यवाद करने से नहीं चूकते.
मददगार रवैया अपनाएं
रोजर फेडरर की आय करीब सवा दो अरब रुपये के बराबर थी. यह कमाई उन्होंने खेल की पुरस्कार राशि की थी. दुनिया के अनेक खेल सामग्री उत्पादनों के विज्ञापन से भी उन्हें करोड़ों की आय होती है. उन्होंने इस कमाई को सही तरीके से खर्चने के लिए भी उन्होंने व्यवस्था कर ली है और रोजर फेडरर फाउंडेशन के मार्फ़त अविकसित देशों के बच्चों के कल्याण के लिए कार्य करते हैं. हाल ही वे इथियोपिया के बच्चों के बीच जाकर टेबल टेनिस खेलते पाए गए. वे अपनी संस्था के जरिये कई तरीकों से धन संग्रह भी करते हैं और मदद करने भी जाते हैं. अक्टूबर में वे शंघाई रोलेक्स मास्टर्स खेलेंगे और फिर स्विश इन्डूर्स, बी एन पी और नवम्बर में बर्कले एटीपी वर्ल्ड टूर. रोजर फेडरर की कामयाबी के सूत्र बेहद सरल और दिलचस्प हैं और उन्होंने शिखर तक का सफ़र कड़ी मेहनत, साफ़ मन और बुलंद हौसलों से किया है.
--प्रकाश हिन्दुस्तानी

(दैनिक हिन्दुस्तान 25 सितम्बर 2011 को प्रकाशित )

Sunday, September 18, 2011

आंतरिक सौन्दर्य से बनीं मिस यूनिवर्स

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज पर 18 सितम्बर 2011 को प्रकाशित मेरा कॉलम




भीतरी खूबसूरती से मिला मिस यूनिवर्स का ताज


दुनिया में केवल तीन तरह की स्त्रियाँ होती हैं : सुन्दर, अति सुन्दर और कोई अद्वितीय सुन्दर. अंगोला की 25 वर्षीया लीला लोपेज़ तीसरी श्रेणी की हैं जो हाल ही 2011 की मिस यूनिवर्स चुनी गयीं. 88 दूसरी सुंदरियों को पीछे छोड़ते हुए आंतरिक सौन्दर्य और बुद्धि के बूते उन्होंने 60 वां मिस यूनिवर्स का ताज अपने माथे पर रखवाया. अंगोला की इस अश्वेत सुन्दरी ने साबित कर दिखाया कि असली सौन्दर्य त्वचा का रंग, चेहरा और शारीरिक अंकगणित नहीं, उससे कहीं बढ़कर अंतर्मन में है. अंगोला की निवासी और ब्रिटेन में व्यवसाय प्रबंधन की छात्रा लीला लोपेज़ की सफलता के कुछ सूत्र:
सौन्दर्य के मापदंडों को चुनौती
मिस यूनिवर्स स्पर्धा में अंतिम दौर में लीला लोपेज ने सौन्दर्य के मापदंडों को ही चुनौती देने का हौसला दिखाया और मिस यूनिवर्स का ताज झटक लिया. एक निर्णायक ने जब उनसे पूछा था कि यदि संभव हो तो वह अपने रंग - रूप में किस तरह का बदलाव करना चाहेंगी? प्रश्नकर्ता का आशय रहा होगा कि शायद लीला अपने अश्वेत होने पर श्यापा करेंगी और कुछ कहेंगी, लेकिन उनके जवाब ने निर्णायकों के चुप करा दिया क्योंकि उनका जवाब था --ऊपरवाले ने मुझे जैसा बनाया है मैं वैसी ही बहुत खुश हूँ. मैं कोई भी ऊपरी बदलाव नहीं चाहती. मैं खुद को एक ऐसी ही स्त्री के रूप में देखना चाहती हूँ जो भीतर से सुन्दर हो. लीला के जवाब ने सौन्दर्य के तयशुदा मापदंडों पर नयी समझ का मार्ग खोल दिया और आंतरिक सुन्दरता की तरफ देखने पर बल दिया.
असली सौन्दर्य की पहचान
लीला लोपेज़ अंगोला की पहली युवती हैं जिन्होंने मिस यूनिवर्स का ख़िताब जीता है.(भारत की सुष्मिता सेन 1994 में और लारा दत्ता 2000 में यह ताज जीत चुकी हैं.).जब वे मिस अंगोला चुनी गयीं थीं, तब 'मिस फोटोजनिक' का ख़िताब भी उन्हें ही मिला था. मिस यूनिवर्स स्पर्धा में शामिल कई युवतियों का कद लीला के समान ही पांच फीट दस इंच का था लेकिन लीला को पता था कि यह केवल शारीरिक सौन्दर्य की प्रतियोगिता नहीं है और इसमें इंटरव्यू का एक दौर भी है. सौन्दर्य को समझाने के लिए उन्होंने बुद्धि और ह्रदय को बराबरी के स्थान पर रखा और इन्हीं के भरोसे अपने इंटरव्यू का सामना किया. इस तरह लीला ने उन लोगों को असली सौन्दर्य की पहचान करा दी जो त्वचा के रंग को सुन्दरता से जोड़कर देखते हैं.
नकलीपन से दूरी
लीला लोपेज़ ने कभी भी किसी भी तरह की कॉस्मेटिक सर्जरी नहीं कराई. ना ही नकली बत्तीसी का सहारा लिया, जैसा कई प्रतियोगी करती रही है. उनका मानना है कि यदि आप खुद अपनी सुन्दरता को नहीं देखेंगे तो दूसरा कोई कैसे देखेगा? अगर आप नकली चीज़ों का उपयोग करके खुद को सुन्दर दिखाना चाहते हैं तो यह एक तरह का धोखा होगा. कोई भी दूसरा इतना नासमझ नहीं है कि आपके नकलीपन के भुलावे में आ जाये. जब आप एक नकली रूप धरते हैं तो फिर वही नकलीपन आपके आचार व्यवहार और रोज़मर्रा के जीवन का अंग बनाने लगता है और आप असली चीज़ों से दूर होने लगते है.
धूप, नींद और पानी
आज लोग कृत्रिम प्रसाधनों पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं और सौन्दर्य के असली प्रसाधनों को भूलते जा रहे हैं. लीला लोपेज़ के अनुसार सौन्दर्य के असली प्रसाधन हमें प्रकृति से मुफ्त में मिल रहे हैं और वे हैं धूप, नींद और पीने का पानी. लीला का ब्यूटी सीक्रेट उनका यही फार्मूला है -- धूप और सूरज की रोशनी से दूर मत भागो, हमेशा पूरी नींद लो और पूरे दिन भरपूर पानी पीयो. इस बारे में ब्यूटी क्लिनिक चलानेवाले चाहे जो कहें, सबसे बड़ा सौन्दर्य का स्रोत तो प्रकृति है और वह हमें पूरी ज़िन्दगी सारे सौन्दर्य प्रसाधन मुफ्त में उपलब्ध कराती है. लीला लोपेज़ रोजाना सात से आठ घंटे सोती हैं और भरपूर पानी पीती हैं. ये बातें मुझे तरोताज़ा दिखने में मदद करती हैं. धूप सेंकना और भरपूर स्नान करना भी उन्हें पसंद है.
परिवार के आदर्श न भूलें
आप चाहे जहाँ भी पहुँच जाएँ, कितनी भी ऊंचाई को छू लें, लेकिन कभी अपने परिवार के आदर्शों को न भूलें. आप जिस दुनिया के सदस्य हैं, परिवार उसकी पहली कड़ी है. अगर परिवार को महत्व दिया जाए तो आपके तनाव पल में ही दूर हो जाते हैं और परिवार के आदर्शों पर चलकर आप अपनों के बीच तो जगह बना ही लेते हैं नए लक्ष्यों को भी आसानी से पा सकते हैं. लीला का परिवार समाजसेवा के अनेक कार्यों में लगा है और अंगोला के गरीब बच्चों की मदद करने के साथ ही बीमारों को इलाज के लिए धनराशि उपलब्ध कराता है. लीला भी एड्स पीड़ितों को इलाज के लिए धन मुहैया करने का कम करती है. अनेक एनजीओ से जुड़कर वे यह कार्य करती हैं और इसे अपना कर्तव्य समझती हैं.
दोस्तानापन और निश्छल व्यवहार
मिस यूनिवर्स चयन के गलाकाट स्पर्धा के माहौल में लीला की सह प्रतियोगी उनकी तारीफ करते नहीं थकतीं कि पूरीप्रतियोगिता के दौरान उनका व्यवहार पूरी तरह से दोस्ताना बना रहा. किसी भी प्रतियोगी से खौफ खाए बिना वे मित्रवत बनी रहीं, और इसी का नतीजा था कि उनके मिस यूनिवर्स बनने की घोषणा होते ही बहुत सी प्रतियोगियों ने उन्हें मंच पर ही घेर लिया. लीला का कहना है कि जब भी कभी आप किसी के प्रति कटु होते हैं तब अपना ही चैन गंवाते हैं जो किसी भी दशा में अच्छा नहीं कहा जा सकता. इसका एक और लाभ यह है कि अच्छे बर्ताव के बदले आपको भी अच्छा बर्ताव मिलता है.
स्वास्थ्य ही सौन्दर्य है
लीला लोपेज़ अपनी कामयाबी का श्रेय अपनी सेहत को देना भी नहीं भूलतीं. उनका मानना है कि केवल स्वस्थ व्यक्ति ही सुन्दर हो सकता है. अगर कोई बीमार हो तो सुन्दर कैसे लगेगा? वे उन सैकड़ों खिलाड़ियों की तारीफ करती हैं जो अपने सौन्दर्य के लिए कुछ भी नहीं करती, लेकिन फिर भी बेहद खूबसूरत नज़र आती हैं. खेलने से शरीर स्वस्थ रहता है और स्वस्थ इंसान अपनाप ही सुन्दर नज़र आता है. उन्हें स्विमिंग का शौक है और कहती हैं कि यह भी प्रकृति का वरदान है कि इंसान पानी में तैर सकता है.
-- प्रकाश हिन्दुस्तानी


(दैनिक हिंदुस्तान 18 सितम्बर 2011 को प्रकाशित)

Sunday, September 11, 2011

दस साल बाद 9 / 11 की याद

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज पर 11 सितम्बर 2011 को प्रकाशित मेरा कॉलम




फौलादी इरादों की कामयाबी

रूडी (रुडोल्फ विलियम लुइस) गुलियानी ने न्यूयॉर्क के मेयर रहते हुए 11 सितम्बर 2001 के बाद हालात को अच्छी तरह से संभाला, वरना न्यू यॉर्क शहर की मुश्किलें और बढ़ जातीं. उन्होंने आतंकी हमले से सहमे शहर के जख्मों पर मरहम और इरादों को फौलाद की परत दी. उन्होंने मेयर के सीमित अधिकारों और असीमित हौसलों से काम किया. उससे उनका कद बढ़ गया और वे राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे. न्यूयॉर्क पर हमले के पहले अप्रैल 2000 में 55 वर्षीय गुलियानी को पता चला कि उन्हें प्रारंभिक अवस्था का प्रोस्टेट कैंसर है और उन्हें नेओअडजुवेंट लुप्रोनहार्मोनल थैरेपी और फिर एक्सटर्नल बीम रेडियोथैरेपी लेनी होगी. वे अपने कैंसर का इलाज करा रहे थे, तभी आतंकवाद के कैंसर ने न्यू यार्क शहर पर हमला कर दिया. उन्होंने अपनी बीमारी और न्यूयार्क शहर के जख्मों से राहत दिलाने की मज़बूत कोशिश की. रूडी गुलियानी के हौसले और सफलता के कुछ सूत्र :
'मेयर ऑफ़ द वर्ल्ड'
जिस दिन न्यूयॉर्क पर आतंकी हमला हुआ, गुलियानी अपनी कैंसर की बीमारी से पूरी तरह उबरे नहीं थे और परिवार के मोर्चे पर वे तनावग्रस्त थे. न्यू यॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद वे अपने स्टाफ,दमकलों, नागरिकों और पत्रकारों के साथ तत्काल पीड़ितों की मदद करने पहुंचे. उस वक़्त वहां धुल और धुंएँ के गुबार उठ रहे थे, वे जलती हुई बिल्डिंग के अंदर घायलों की मदद के लिए पहुंचे और वहां पर पूरे दिन और पूरी रात डटे रहे, एक मिनिट के लिए भी आराम करने नहीं रुके.मौके पर ही सुरक्षा और बचाव के सैकड़ों फैसले लेने थे, उन्होंने तत्काल फैसले किये और राहत कार्य शुरू किये. 'टाइम' पत्रिका ने उन्हें २००१ का 'पर्सन ऑफ़ द ईयर' चुना और शीर्षक दिया 'मेयर ऑफ़ द वर्ल्ड'.
त्वरित मदद की तैयारी
न्यूयॉर्क पर आतंकी हमले के बाद अगले दिन सुबह करीब तीन बजे पहली बार टीवी देखा. उन्होंने टीवी यह सोचकर चालू रखा कि कहीं कोई और आतंकी हमला ना हो जाए. जब जागना असंभव हो गया तब वे धूल और कीचड़ से सने जूते अपने बिस्तर के पास ही रखकर लेटे, इस तैयारी से कि अगर ज़रुरत पड़े तो मिनट भर में ही मदद के लिए दौड़ सकें. मुश्किल दौर में उन्हें नींद नहीं आई तो उन्होंने राय जेन्किन्स की लिखी चर्ची की जीवनी में दूसरे विश्वयुद्ध से सम्बंधित अध्याय पढ़ना शुरू कर दिया. जिस बात ने उन्हें प्रभावित किया, वह थी चर्चिल का भाषण --मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ नहीं है सिवाय खून, आंसू और पसीने के. गुलियानी ने उस वक़्त की तुलना विश्व युद्ध के दिनों से करते हुए अपनी तैयारी कर ली थी.
पुनर्निर्माण का हौसला
गुलियानी ने १९४० के लन्दन को याद किया, जब युद्ध की विभीषिका के बीच वहां पुनर्निर्माण का दौर शुरू हुआ था. बर्बादी के उस मंज़र में उन्होंने कल्पना कर ली कि न्यूयॉर्क को फिर से उसके उसी दौर में कैसे लौटाया जाए. लोगों के हौसलों को बनाये रखने में क्या क्या मददगार हो सकता है. उनके हर वाक्य ने लोगों को हौसला दिया -- ''हमें कोई भी हमला आगे बढ़ने से नहीं रोक सकता...हम फिर नया न्यूयॉर्क बनायेंगे, जो पहले से भी ज्यादा मज़बूत और शानदार होगा...हम दुनिया को बता देंगे कि हमारे हौसलों को कोई तोड़ नहीं सकता...हम दुनिया के सामने मिसाल रखेंगे.'' उनकी इस हौसला अफजाई का एक एक लफ्ज़ लोगों के दिलों पर राज करने लगा और लोगों ने गुलियानी को अपना असली नेता माना.
हर दिन उत्साह बरकरार
11 सितम्बर 2001 गुलियानी के लिए फिसलन का दौर शुरू होने का दिन था जो उनके लिए शीर्ष पर जाने का दिन बना. दो बार मेयर रहने के बाद 11 सितम्बर को ही न्यूयॉर्क में नए मेयर के चुनाव के लिए प्रारम्भिक वोट डलने थे और गुलियानी भूतपूर्व मेयर होने की कगार पर थे, लेकिन उन्होंने अपने काम से 'भूतपूर्व' को 'अभूतपूर्व' में तब्दील कर दिया. मेयर के पद पर वे हर दिन संघर्ष करते रहे, कभी अपने राजनैतिक विरोधियों से, कभी खुद के अधीनस्थ सहयोगियों से, कभी मीडिया से, कभी सडकों पर कब्ज़ा जमाये लोगों से. मेयर के रूप में उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि अब वे इस पद से हटने ही वाले हैं.
प्रशासन पर पकड़
मेयर के रूप में गुलियानी की प्रशासन पर मज़बूत पकड़ रही. उनके कार्यकाल में पुलिस की व्यवस्था चक चौबंद रही. अपराधों में एक -तिहाई कमी हुई. आर्थिक सुधार के लिए उन्होंने ऐसे करीब सात लाख लोगों की पहचान की जो हकदार नहीं होते हुए भी सरकारी सेवा का लाभ ले रहे थे. अपराधों में कमी और सेवा में सुधार से न्यूयॉर्क में संपत्तियों के दाम बढ़ गए थे.जनता कि शिकायतों पर तत्काल ध्यान दिया जाने लगा था और लोगों में यह भाव वापस आने लगा था कि वे एक 'वैश्विक शहर' के बाशिंदे है.
सिद्धातों से समझौता नहीं
अपने सिद्धांतों से समझौता गुलियानी को मंज़ूर नहीं रहा. न्यूयॉर्क के पुनर्निर्माण के लिए सउदी अरब के प्रिंस वालिद बिल तलाल का एक करोड़ डॉलर का चेक उन्होंने इस बात पर लौटा दिया कि प्रिंस ने इस्राईल का समर्थन नहीं करने की शर्त रख दी थी. अपने सिद्धांतों पर अड़े रहने के कारण उन्होंने मेयर रहते कई अफसरों को हटा दिया था. उनका कहना है कि आज का न्यूयॉर्क दस साल पुराने शहर से ज्यादा सशक्त और गरिमामय है. वे मानते हैं कि अगर लोगों को बराक ओबामा और उनके बीच चुनाव करना हो तो लोग ओबामा की जगह उन्हें चुनना पसंद करेंगे. अपनी सेहत, ख़राब वैवाहिक रिश्ते, बच्चों के कारण विवादों में रहने के बावजूद गुलियानी आम तौर पर शांत रहते हैं और यह बात पादरी पर छोड़ते हैं कि मैं कैसा कैथलिक हूँ.
प्रकाश हिन्दुस्तानी


(दैनिक हिंदुस्तान के एडिट पेज पर 11 सितम्बर 2011 को प्रकाशित)