Monday, August 25, 2014

'लक्ष्मी दर्शन' से 'महालक्ष्मी दर्शन' तक

वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (23 अगस्त  2014)



केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि आरटीओ कार्यालय लक्ष्मी दर्शन की दुकान बन गए हैं, इसलिए उन्हें बंद किया जाएगा। इसकी जगह वे महालक्ष्मी दर्शन की दुकान खोलने जा रहे हैं। आरटीओ कार्यालय बंद होंगे और उनकी जगह खुलेंगे एलटीए का कार्यालय। रीजनल ट्रांसपोर्ट ऑफिस का नाम अब लैंड ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी होगा। आरटीओ वालों की कमाई से नितिन गडकरी संतुष्ट नहीं हैं, उन्हें लगता है कि आरटीओ वालों की कमाई और ज्यादा होनी चाहिए। ज्यादा कमाएंगे तभी तो ज्यादा पैमेंट कर पाएंगे बेचारे। आरटीओ वाले केवल लाइसेंस, रजिस्ट्रेशन, परमिट आदि ही तो देते हैं। अब जो एलटीए आएगा जो लाइसेंस, परमिट, रजिस्ट्रेशन आदि का काम तो करेगा ही, साथ में सड़कें मरम्मत करने, सड़कों से अतिक्रमण हटाने, सड़कों पर प्रदर्शन धरना आदि करने से रोकने का काम     भी करेगा। 

बात साफ है, जब आरटीओ वाले केवल लाइसेंस, परमिट में ही अच्छी खासी कमाई कर लेते हैं, तो अब वे सड़क मरम्मत, जुलूस वगैरह की परमिशन और अतिक्रमण करने की अनुमति भी देंगे। अभी तक केवल पैसे लाओ लाइसेंस, परमिट ले जाओ था। अब हो जाएगा पैसे लाओ तो तुम्हारा अतिक्रमण नहीं हटाएंगे। पैसे लाओ तो तुम्हारे इलाके की सड़क दुरुस्त करा देंगे। पैसे दो और धरना कर लो। हमारी परमिशन के बिना तो कुछ काम होगा नहीं। इसलिए अब आरटीओ वालों का महत्व और बढऩे वाला है। लोग कहते हैं कि ट्रांसपोर्ट कमिश्नर की पोस्ट नीलामी की पोस्ट है। अब उस नीलामी में बढ़ा हुआ रेट लागू हो जाएगा। 

अभी आरटीओ वालों का काम क्या है? बिना दक्षिणा के आप वहां भीतर भी नहीं जा सकते। दक्षिणा वालों ने इतना सुंदर सिस्टम बना रखा है कि वाह-वाह कहने का जी करता है। हर काम का रेट तय। जल्दी काम, ज्यादा पैसा। ज्यादा पैसा, बिना दिक्कत के काम। और ज्यादा पैसा यानी होम डिलीवरी। आपको लाइसेंस चाहिए, पैसे दो तो आसानी से बन जाता है। और ज्यादा पैसे दो तो नो ट्रॉयल, नो एक्जाम। ऐसा नहीं कि वहां ट्रॉयल या एक्जाम का प्रावधान नहीं है। वो तो होता है, लेकिन मुन्नाभाई क्या केवल मेडिकल वालों की ही बपौती हैं? अगर और भी सुविधा चाहिए तो लाइसेंस घर बैठे भी मिल सकता है। हर सेवा का शुुल्क तय है। 
ये मीडिया वाले फिजूल ही आरटीओ वालों को बदनाम करते हैं। आरटीओ के कर्मचारी इतनी मेहनत करते हैं तो क्या उन्हें उनका मेहनताना नहीं मिलना चाहिए। दूसरे सरकारी दफ्तरों में जहां कर्मचारी काम ही नहीं करते, आरटीओ से प्रेरणा ले सकते हैं। हर कर्मचारी काम के लिए ऐसा प्रतिबद्ध कि छुट्टी लेने में हमेशा हिचकिचाता है। यहां तक कि वह ड्यूटी खत्म होने के बाद भी काम करता रहता है। इससे बढ़कर कई कर्मचारियों ने तो अपनी तनख्वाह में से काम करने वाले कर्मचारी नियुक्त कर रखे हैं। किसी और विभाग में होता है ऐसा? हो सकता है?

जिसे नितिन गडकरी लक्ष्मी दर्शन की दुकान कहते हैं, उससे सरकार को कोई घाटा है ही नहीं। आरटीओ के कर्मचारी ने दावा किया कि हमारी सेवाओं से सरकार को केवल फायदा ही फायदा है। अगर ड्राइविंग लाइसेंस के 300 रुपए लगते हैं तो क्या किसी को 299 रुपए में लाइसेंस बनाकर दिया गया? सरकार का जो रेट फिक्स है उतना पैसा खजाने में जमा होता है या नहीं? अब अगर लोग आरटीओ कर्मचारी के काम से खुश होकर उन्हें 'सेवा शुल्क' या 'प्रोत्साहन राशि'  देते हैं तो इसमें उन कर्मचारियों का क्या दोष? क्या होटल में खाना खाने के बाद लोग टिप नहीं देते? 

यह अच्छी बात है कि नितिन गडकरी नई एजेंसी को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाना चाहते हैं, पर वे यह काम बिना अच्छी सड़कों, बिना यातायात की शिक्षा, बिना स्वचलित सिग्नल प्रणाली आदि के बिना करना चाहते हैं। जिस देश में लोग लातों के भूत हों, कानून को अपनी जेब में रखते हों और हर व्यक्ति नेता हो, वहां नितिन गडकरी का कानून कितना सुधार कर पाएगा, यह देखने वाली बात होगी। जैसा कि और विभागों में हुआ है, आरटीओ में भी कमाई के रास्ते बढ़ जाएंगे और लोग नितिन गडकरी के गुण गाया करेंगे। नितिन गडकरीजी पहले वक्त पर गाडिय़ों की नंबर प्लेट तो बनवा दीजिए। इस नंबर प्लेट की क्वालिटी की बात भी कर लीजिए। ट्रांसपोर्ट कमिश्नर की नियुक्ति का सिस्टम सुधार लीजिए। इस बात की पूरी-पूरी संभावना है कि लक्ष्मी दर्शन की दुकानें अब महालक्ष्मी दर्शन की दुकानें न बन जाएं। 
Copyright © प्रकाश हिन्दुस्तानी

वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (23 अगस्त  2014)

39 साल से धधक रहे हैं शोले


वीकेंड पोस्ट (23 अगस्त  2014)
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15 अगस्त1975 को रिलीज हुई शोले ढाई साल में बनी। 3 अक्टूबर1973 से इस फिल्म की शूटिंग शुरु हुई थी और यह अपने समय की सबसे महंगी फिल्मों में शामिल थी। उस समय इस फिल्म की लागत करीब ३ करोड़ रुपए आई थी और इसने रिकॉर्ड कारोबार किया। पांच साल तक एक ही थिएटर में लगातार प्रदर्शन का रिकॉर्ड भी इस फिल्म के नाम है। इस फिल्म के कई कलाकार अब इस दुनिया में नहीं है। कई कलाकारों के बच्चे फिल्मी दुनिया पर राज कर रहे है। कई कलाकारों ने इस फिल्म से पहचान बनाई और कई कलाकार केवल इस फिल्म के कारण ही जाने-पहचाने जा रहे है।

हर फिल्म की तरह शोले की भी अलग कहानी है। यह कहानी फिल्म की कहानी नहीं बल्कि इस फिल्म के निर्माण की कहानी है। अंग्रेजी से अनेक फिल्मों से प्रेरित इस फिल्म की कहानी बेहद दिलचस्प है और इसकी खास बात यह है कि फिल्म का हर चरित्र अपने आप में बेमिसाल है। यह फिल्म अपने संवादों के कारण तो चर्चा में रही ही है। हिंसा, कॉमेडी और ट्रेजडी के दृश्यों के लिए भी यादगार मानी जाती है। डाकूप्रधान फिल्म होते हुए भी इसमें रोमांस का पुट था। शोले को अंग्रेजी की फिल्में वन्स ए टाइम इन द वेस्ट, द गुड द बेड एण्ड द अगली, ए फिस्ट फुल ऑफ डॉलर्स, फॉर ए फ्यू डॉलर्स आदि से प्रेरित बताया जाता है। कुल मिलाकर यह फिल्म चूँ चूँ का मुरब्बा थी, जिसे बेहतरीन निर्देशन, अभिनय, डायलॉग, गीतों और प्रस्तुति ने यादगार बना दिया। 

बहुत छोटी-सी कहानी थी इस फिल्म की। रामगढ़ के ठाकुर बलदेव सिंह ने एक डाकू सरगना को पकड़ जेल में डलवाया, जो जेल से फरार होने के बाद ठाकुर परिवार को बर्बाद करने पर आमादा था। उसने ठाकुर के परिवार के पुरुष सदस्यों को जान से मार दिया और खुद ठाकुर के दोनों हाथ काट दिए। ठाकुर डाकू से बदला लेने के लिए दो चोरों की मदद लेता है और अंत में डावूâ को पुलिस के हवाले करने में सफल होता है।

शोले की जो मूल कहानी लिखी गई थी उसमें ठाकुर पुलिस इंस्पेक्ेटर न होकर सैनिक अधिकारी रहता है और वह अपने परिवार पर हुए हमले का जवाब दो रिटायर्ड फौजी जवानों की मदद से देता है, लेकिन इस कहानी और फिल्म बनाने में दिक्कत थी, क्योंकि फौजियों के दृश्य शूट करना मुश्किल काम था और इसके लिए बहुत सी अनुमतियां जरुरी थी। मूल कहानी मेंं अंत में ठाकुर डावूâ को तड़पा-तड़पा कर मार डालता है। शोले में भी यहीं क्लाइमेक्स शूट किया गया था, लेकिन सेंसर बोर्ड की आपत्ति के कारण डावूâ गब्बर को पुलिस के हवाले कर दिया जाता है। विदेश में प्रदर्शित फिल्म शोले भारत में प्रदर्शित फिल्म से थोड़ी अलग थी, क्योंकि वहां गब्बर की मौत के दृश्य फिल्म में दिखाए गए थे। 

जब शोले रिलीज हुई थी तब शुरु के तीन-चार दिनों में दर्शकों का रिस्पांस अच्छा नहीं था। फिल्म के निर्माता निर्देशक रमेश सिप्पी चिंता में पड़ गए। लगा कि 70 एमएम का प्रचार, करोड़ों की फिल्म, मल्टी स्टार कास्ट, फिल्म के संवादों के कैसेट्सकी बिक्री, पूरे देश में धुआंधार प्रचार आदि के बाद भी फिल्म को रिस्पांस नहीं मिला, तो जरूर कुछ गड़बड़ रही होगी। 1975 में ही लगी अमिताभ बच्ची की दीवार सुपरहिट रही थी। दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन की मौत हो जाती है और शोले में भी। सिप्पी साहब को लगा कि शायद दर्शकों को अमिताभ की मौत पसंद नहीं आई। विचार किया गया कि फिल्म का क्लाइमेक्स बदला जाए और अमिताभ बच्चन को अंत तक जीवित ही दिखाया जाए। जब इस बारे में फिल्म के लेखक सलीम और जावेद से बात की गई तो पहले वे नहीं माने, लेकिन बाद में किसी तरह तैयार हुए। फिल्म की शूटिंग आनन-फानन में करके फिल्म का अंत बदलने की योजना बनी, लेकिन उस पर अमल हो पाता इसके पहले ही बॉक्स ऑफिस पर भीड़ जुटने लगी और इससे फिल्म के निर्माता, निर्देशक का हौंसला बढ़ा। फिल्म का क्लाइमेक्स बदलने का इरादा टाल दिया गया और ाqफर जो कुछ भी हुआ वह इतिहास है। 

शोले को फिल्मफेअर के 9 अवॉर्ड एकसाथ मिले। बीबीसी इंडिया ने शोले को शताब्दी की महान फिल्म करार दिया। साथ ही इसे बॉलीवुड की टॉप 10 फिल्मों में शामिल किया। पंचासवें फिल्म पेâयर अवार्ड समारोह में 50 वर्ष की फिल्मों में से एक सबसे चर्चित फिल्म को ईनाम दिया गया और वह फिल्म थी शोले। एचएमवी  ने शोले फिल्म के संवादों की वैâसेट बेचकर लाखों रुपए कमाए। इसके पहले किसी फिल्म के संवादों केकैसेट्स इस तरह न तो बने और न बिके। शोले को कितने अवार्ड मिले इसका हिसाब लगाना ही एक कठिन काम है। इस फिल्म में हर विधा में अवार्ड जीते है। 

कर्नाटक में बैंगलोर के पास रामनगर में आज भी पर्यटकों को घूमाने ले जा रहे गाइड यह बताने से नहीं हिचकते कि रामनगर की इन्हीं पहाड़ियों में शोले फिल्म की शूटिंग हुई थी। शोले का रामगढ़ रामनगर के पास ही बसाया गया था। शूटिंग के लिए रामगढ़ तक सड़क बना दी गई थी। शोले में दिखाए गए जेल के दृश्य मुंबई के राजकमल स्टुडियों में फिल्माए गए। रामनगर के फिल्मी सेट को लोग अब तक सिप्पी नगर के रूप में याद करते है। जिन चट्टानों के आसपास गब्बर सिंह का डेरा था उसे लोग शोले रोक्स के नाम से जानते है। 

शोले फिल्म का पहला शॉट अमिताभ बच्चन और जया बच्चन के साथ फिल्माया गया था। तब जया बच्चन गर्भवती थी और श्वेता उनके पेट में थी। इसीलिए जया के लिए ऐसे दृश्य लिखे गए थे जिनमें उन्हें ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़े और कैमरा  उनके चेहरे पर ज्यादा समय केन्द्रित रहे। शोले में राधा बनी जया बच्चन के दो दृश्य है जिनमें वे शाम होने पर लालटेन जलाती है। इन दो दृश्यों को फिल्माने में निर्देशक को 20 दिन लग गए, क्योंकि रात होने के पहले लालटेन जलाना जरूरी था और दिन में लालटेन जलाई नहीं जा सकती थी। निर्माता व निर्देशक ने परफैक्ट  बनाने के लिए दृश्यों पर बहुत मेहनत की। जैसे पांच मिनिट का गाना ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे तीन सप्ताह में फिल्माया गया। गब्बर बने अमजद खान द्वारा इमाम बने एके हंगल की हत्या का दृश्य 21 दिन में फिल्माया गया। फिल्म में दिखाया गया शुरुआती ट्रेन लूटने का दृश्य मुंबई-पुणे रेलवे रूट पर पनवेल के पास फिल्माया गया, जिसमें7 सप्ताह लगे। 

जब शोले बनना शुरू हुई थी, तब किसी को अंदाज नहीं था कि यह एक ऐतिहासिक फिल्म होगी। इस फिल्म को लेकर कलाकारों के मन में भी एक जैसा उत्साह नहीं था। कहते है कि केवल अमिताभ बच्चन ही इस फिल्म की कामयाबी के बारे में आश्वस्त थे और अमिताभ ने काफी तिकड़में करने के बाद इस फिल्म का रोल पाया था। इस फिल्म में बने गब्बर सिंह का रोल अमजद खान के बजाय डेनी डेंग्जोप्पा को दिया गया था, लेकिन वे फिरोज खान की फिल्म धर्मात्मा की शूटिंग में अफगानिस्तान में व्यस्थ थे और उन्हें लगा कि धर्मात्मा शोले से बेहतर और सफल फिल्म साबित होगी। धर्मेन्द्र को इस फिल्म में ठाकुर का रोल दिया गया था और संजीव कुमार को धर्मेन्द्र की जगह वीरू बनना था। धर्मेन्द्र किसी भी कीमत पर वीरू का रोल छोड़ना नहीं चाहते थे। आखिर उन्होंने किसी तरह वीरू का रोल पा लिया। जय की भूमिका में अमिताभ की जगह शत्रुघ्न सिन्हा का नाम था। यहां अमिताभ ने किसी तरह यह रोल अपनी झोली में डाला, यहां शत्रुघ्न सिन्हा ने बहुत उत्साह नहीं दिखाया था। शोले के पहले मुझे जीने दो नामक डावूâ प्रधान फिल्म बहुप्रचारित की गई थी, लेकिन उसे दर्शकों का रिस्पांस नहीं मिला। शत्रुघ्न सिन्हा को लगा कि यह भी डावूâ की ही एक ओर फिल्म होगी। इस फिल्म में खलनायक प्राण के लिए भी  एक रोल रखा गया था। पहले यह माना गया कि ठाकुर का रोल प्राण बेहतर कर पाएंगे, लेकिन संजीव कुमार ने किसी तरह यह भूमिका अपने खाते में की। ठाकुर की भूमिका महत्वपूर्ण इसलिए थी कि इसमें एक्टिंग के जौहर दिखाने का पूरा मौका था। दोनों हाथ कटे ठाकुर को जो कुछ कहना था अपने चेहरे के हाव-भाव से ही कहना था। संजीव कुमार इस भूमिका में एकदम खरे उतरे। ठाकुर का रोल एक उम्रदराज व्यक्ति का रोल था और यहीं कारण था कि हेमा मालिनी के पीछे लट्टू हुए धर्मेन्द्र ने ठाकुर के बजाय वीरू का रोल पाने में पूरी ताकत लगा दी थी। 

शोले फिल्म को दर्शकों ने बहुत पसंद किया। शोले के साथ ही एक ही फिल्म को बार-बार देखने का ट्रेंड चला। ऐसे लाखों दर्शक है जिन्होंने शोले को कई-कई बार देखा। लाखों दर्शकों को शोले के डायलॉग जस के तस याद है। निर्देशक ने भी एक-एक प्रेâम को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। डाकूप्रधान फिल्म होते हुए भी इस फिल्म में नाटक, रोमांस, ट्रेजडी, कॉमेडी और हिंसा का पुट मिलता है। फिल्म के एक दृश्य को फिल्माने के लिए निर्देशक रमेश सिप्पी ने 19 दिन तक मेहनत की। यह दृश्य था इमाम की हत्या का। हत्या के पाशविक दृश्य में पृष्ठभूमि में बनी मस्जिद से अजान की ध्वनि सुनाई देती है जो उस पूरे दृश्य का प्रभाव कई-कई गुना बढ़ा देती है। परपेâक्शन की कोशिश में ३ शब्दों का एक डायलॉग ‘कितने आदमी थे?’ 40 रीटेक के बाद फायनल किया गया। फिल्म में संजीव कुमार, धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, जया बच्चन, अमजद खान आदि के तो मुख्य रोल थे ही। सहयोगी कलाकार के रूप में सचिन, जगदीप, लीला मिश्रा, असरानी, मेकमोहन, विजू खोटे, केस्ट्रो मुखर्जी आदि ने भी अपनी भूमिका में जान डाल दी। 


सलीम और जावेद के लिखे ये डायलॉग शोले में यादगार रहे।
- अरे ओ साम्भा, कितने आदमी थे?
- वो दो थे और तुम दिन, फिर भी खाली हाथ लौट आए।
- कितना ईनाम रखे है सरकार हम पर?
- यहां से 5- -50 कोस दूर, गांव में जब बच्चा रोता है, तो मां कहती है सो जा बेटा नहीं तो गब्बर आ जाएगा।
- बहुत नाइंसाफी है।
- बहुत याराना लगता है, क्यों?
- इतना सन्नाटा क्यों है भाई?
- बसंती, तेरा नाम क्या है रे?
- वहीं तो कर रहा हूं भैय्या जो मजनू ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के लिए किया था, रोमियों ने जूलियट के लिए किया था... सुसाइड।
- साला नौटंकी, घड़ी-घड़ी ड्रामा करता है।
- अब तेरा क्या होगा रे कालिया?
- यह हाथ नहीं फांसी का पंâदा है।
- यह हाथ मुझे दे दे ठाकुर।
- तेरे लिए तो मेरे पैर ही काफी है।
- बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना।
- हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर है।
- आधे दाएँजाओ, आधे बाएँ  बाकी मेरे पीछे आओ।

सलीम जावेद ने इस फिल्म के डायलॉग लिखते समय इस बात का ध्यान रखा कि सभी प्रमुख कलाकारों को महत्वपूर्ण डायलॉग बोलने का मौका मिले। एके हंगल से लेकर असरानी तक को इस फिल्म में अच्छे डायलॉग बोलने का मौका मिला। डायलॉग लिखने पर इतनी बारीकी से काम किया गया कि असरानी का प्रसिद्ध डायलॉग ‘हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं अहा’ का ‘अहा’ तक डायलॉग के रूप में शामिल था। अंग्रेजों के जमाने के जेलर के रूप में असरानी का गेटअप वैâसा होगा यह भी स्क्रिप्ट में लिखा गया था। असरानी को जेलर के रूप में हिटलर जैसी आधी मूछें रखने का सुझाव स्क्रिप्ट में ही था। 

फिल्म की स्क्रिप्ट में हिंसा के साथ ही रोमांस और कॉमेडी के लिए भी पूरी जगह थी। धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी ने रोमांस के दृश्यों को वास्तविक दृश्यों में बदल दिया था। अंग्रेजों के जमाने के जेलर के रूप में असरानी ने बेहतरीन कॉमेडी की थी। साथ ही अमिताभ बच्चन का जय के रूप में वीरू बने धर्मेन्द्र के लिए बसंती यानि हेमा मालिनी का हाथ मांगने जाना दर्शकों को आज भी गुदगुदाता है। धर्मेन्द्र ने भी टंकी पर चढ़कर सुसाइड की धमकी वाले दृश्य में कॉमेडी के जलवे बिखेरे। बंदूकों की धाय धाय और घोड़े  और तांगे की रेस ने रोमांच के दृश्य भी निर्मित किए। अमजद खान ने डावूâ के रूप में खूंखार छवि पेश की। उसके एक-एक डायलॉग और हरकत को सलीम-जावेद ने लिपीबद्ध कर रखा था। गब्बर कब खैनी बनाएगा, कितने देर हथैली पर रगड़ेगा, जुबान के नीचे किस तरह चुटकी में खैनी रखेगा और कब थूकेगा। एक-एक बात बारीकी से लिखी गई थी। धर्मेन्द्र के बचकाने हास्य प्रसंग, बसंती की बक-बक, गब्बर का दहाड़ मारकर चीखना-चिल्लाना और हंसना, जय का वीरू पर तन्ज कसना, सब अपने आप में विलक्षण था। 

शोले की एक खूबी उसके गाने भी थे। इन गानों में भावनात्मक बातें भी थी और मजाकिया बातें भी। उत्तेजना के दृश्य भी थे और भाव प्रणयता के भी। होली के दिन दिल मिल जाते है, ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे और जब तक है जान जाने जहां मैं नाचूंगी जैसे गाने दर्शकों को मन को छू लेते थे। तो कोई हसीना जब रुठ जाती है और मेहबूबा-मेहबूबा जैसे गाने आम दर्शकों की पसंद को ध्यान में रखकर तैयार किए गए थे। आनंद बक्षी ने इस फिल्म के गाने लिखे थे और एक दिलचस्प कहानी है कि शोले के बनने के भी कई साल पहले उन्होंने कोई हसीना जब रुठ जाती है तो और भी हसीन हो जाती है गाना लिखा था। जब वे यह गाना लेकर जीपी सिप्पी से मिले तब जीपी सिप्पी ने इस गाने का मजाक उड़ाया और आनंद बक्षी को विदा कर दिया। बरसों बाद जब शोले के गाने लिखने की बात हुई तब आनंद बक्षी ने फिर वही गाना पेश कर दिया। शोले की सिच्युएशन ऐसी थी कि गाना पसंद आ गया। शोले का महबूबा-महबूबा गाना राहुल देव बर्मन ने खुद गाया। इसे हेलन और जलाल आगा पर फिल्माया गया था। १९७५ की बिनाका गीतमाला में यह गाना २४वें पायदान पर था जो १९७६ में पांचवें पायदान पर आ गया। बिनाका गीतमाला उन दिनों श्रीलंका रेडियो का सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम माना जाता था और इस कार्यक्रम में शोले के दो और गाने जबर्दस्त हिट रहे। ये दोनों गाने है कोई हसीना जब रुठ जाती है तो और ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे। दूसरा वाला गाना ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे किशोर कुमार ने दो बार गाया एक बार खुशी के मौके पर एक बार गमगीन मौके पर। 

जय का वीरू के लिए बसंती का हाथ मांगना, बसंती के लिए वीरू का पानी की टंकी पर चढ़ना, हेलन का मेहबूबा-मेहबूबा गाने को फिल्माने के दृश्य ऐसे है जो आज भी किसी न किसी रूप में फिल्मों में घुमा फिराकर दिखाए जाते है। दिलचस्प बात यह है कि खूंखार डावूâ का रोल करने वाले अमजद खान को भी लोगों ने उतना ही प्यार दिया जितना इमाम बने एके हंगल को। इस फिल्म में जय बने अमिताभ बच्चन ने दर्शकों को सबसे ज्यादा रिझाया। उनकी जेब में दो सिक्कों को घीसकर आपस में चिपकाकर बनाया गया एक सिक्का, जिसके दोनों तरफ हेड था, दर्शकों के दिल को छू गया। इस सिक्के का उपयोग जय अपनी जरुरत के हिसाब से करता था। इस फिल्म में मैकमोहन ने एक ही डायलॉग बोला था और इस एक डायलॉग के बूते ही वो फिल्म में छा गए। 

शोले भारतीय फिल्म इतिहास की पहली फिल्म है जिसने100 से ज्यादा सिनेमा घरों में सिल्वर जुबली मनाई। मुंबई के मिनरवा टॉकिज में इस फिल्म ने लगातार 5 साल का रिकॉर्ड बनाया। अगर आज के दौर में रुपए और उसकी कीमत की तुलना की जाए तो यह फिल्म 1500 करोड़ से भी ज्यादा का व्यवसाय कर चुकी है। 
 प्रकाश हिन्दुस्तानी
वीकेंड पोस्ट (23 अगस्त  2014)

Saturday, August 16, 2014

परफैक्ट फेमिली पिक्चर 'शोले' !

वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (16 अगस्त  2014)



39 साल से है जादू बरकरार 
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15 अगस्त 1975 को शोले रिलीज़ हुई थी और तब से लगातार उसका जादू बरकरार है. कई बार 'शोले जैसी' दूसरी फिल्म बनाने की कोशिशें हुईं, पर 'शोले' जैसी कोई और फिल्म नहीं बन सकी. शोले में हिंसा, कॉमेडी, एक्शन, संगीत, इमोशन का ऐसा तालमेल था जो बेमिसाल था. यहाँ मैने 'शोले' पर एक अलग मजाकिया लहजे में लिखा है ......................................................................................................................................................................................................


ये मेरी नई  रिसर्च है। 'शोले' परफैक्ट फेमिली पिक्चर थी. परदे पर तो फेमिली थी ही, पीछे  भी फेमिली ही फेमिली थी. कुछ पहले से थी, कुछ बाद में बनी. लोग ग़लत कहते हैं  कि 'शोले' हिंसा प्रधान फिल्म थी। 'शोले' को रिलीज़ हुए 39 साल पूरे हुए। अब यह फ़िल्म 40 वें साल में पहुँच  गई है.  कई रूप में 40 वें का अपना महत्व  है.  'शोले' ने  कई रेकॉर्ड बनाए  और  पुराने रेकॉर्ड तोड़े  थे। लेकिन आज के दौर में कई लोगों को इस फिल्म की जानकारी नहीं है।  उनकी सुविधा  के लिए मैं यहाँ कुछ जानकारी दे रहा हूँ. शपथपूर्वक कह रहा हूँ कि यह सभी जानकारियाँ सही हैं. मेरी रिसर्च का नतीजा !

'शोले' फिल्म के मुख्य किरदार थे सनी देओल-बॉबी देओल  के पापा यानी धर्मेन्द्र और   अभिषेक बच्चन के डैडी अमिताभ बच्चन ! इस फिल्म में हीरोइनें भी दो दो थी--ईशा देओल की मम्मी और अभिषेक बच्चन की मम्मी जया भादुड़ी बच्चन.  ईशा की मम्मी इसमें बसंती बनी थीं, और अभिषेक की माँ ने  ठाकुर की विधवा बहू राधा का रोल किया था, जिन पर अभिषेक के बापू लाइन मारते रहते थे।  इस फिल्म की शूटिंग के दौरान ही सनी-बॉबी के पापा ने हीरोइन पर काफ़ी लाइन मारी थी, जिसमें सफलता के बाद ही उन्होंने दिलावर ख़ान बनकर हेमा मालिनी से शादी की थी और बाद में हेमा मालिनी को ईशा देओल जैसी कन्या मिली जो हीरोइन बनने के बाद अब अपने ससुराल में हैं . जहाँ तक अभिषेक की बात है, वह भी इस फिल्म में  थे ज़रूर, लेकिन नज़र नहीं आ रहे थे. जब इस फिल्म की शूटिंग चालू हुई तब तक अमिताभ और जया का विवाह हो चुका था और 3 अक्तूबर 1973 को जब 'शोले' शूटिंग शुरू हुई तब अभिषेक की बहन श्वेता अपनी मान के गर्भ में थीं. शूटिंग के दौरान ही श्वेता का जन्म हुआ और अभिषेक उनके बाद आए. पूरी फिल्म में जया बच्चन के दृश्य छुई मुई से ही रहे.


' शोले' की कहानी  लिखी थी --सलमान ख़ान के बापू सलीम ख़ान और फरहान अख़्तर के अब्बा जावेद अख़्तर ने.  दोनों के बाप लोग मिलकर स्टोरियाँ बनाते थे. उनकी 'शोले' सुपर हिट रही, पर इसके पहले भी वे कई हिट फिल्में दे चुके थे जिनमें अंदाज़, अधिकार, हाथी मेरे साथी, सीता और गीता, यादों की बारात, ज़ंजीर, मजबूर, हाथ की सफाई, दीवार प्रमुख हैं .

'शोले' के डायरेक्टर थे जी. पी. (गोपालदास परमानंद) सिप्पी के छोरे रमेश सिप्पी, जिन्होंने जिन्होंने 'बुनियाद' सीरियल की 'वीरावाली' यानी किरण जुनेजा को दूसरी बीवी बनाया था और जिनकी बेटी शीना की शादी कपूर खानदान के शशि कपूर के बेटे कुणाल कपूर से हुई है.

'शोले' का म्यूजिक दिया था आर डी बर्मन ने, जो सचिन देव बर्मन के बेटे थे. इस फिल्म का एक गाना -- ''हाँ, जब तक है जाँ, मैं नाचूंगी'' अपनी बड़ी साली लता मंगेशकर से गवाया था. 'शोले' का म्यूजिक दिया था आर डी बर्मन ने, जो सचिन देव बर्मन के बेटे थे. इस फिल्म का एक गाना -- ''हाँ, जब तक है जाँ, मैं नाचूंगी'' अपनी बड़ी साली लता मंगेशकर से गवाया था. इसी फिल्म का एक गाना 'महबूबा महबूबा' गाया तो था आर. डी. बर्मन ने खुद ही, पर इसको फिल्माया गया था  हेलेन पर, जिन्होंने बाद में  सलमान ख़ान के पापा यानी  सलीम ख़ान को लाइफ पार्टनर बनाया .

फेमिली पिक्चर होने के कारण  ही शुरू के तीन-चार दिन पिक्चर को अच्छा रेस्पांस नहीं मिला।  बाद में जब यह प्रचारित किया गया कि यह हिंसा प्रधान, डाकू प्रधान, कॉमेडी प्रधान, रोमांस प्रधान, ट्रेजेडी प्रधान, नाटक प्रधान आदि आदि है , तब कहीं लोगों ने इस फिल्म को देखना शुरू किया। वरना इस फिल्म में फेमिली ही फेमिली थी -- यहाँ तक कि  हीरोइन बसंती बार बार बोलती है -- चल हट साले !

अब भी अगर आपको भरोसा न आये तो इसे मत मानिये फेमिली पिक्चर ! …पर मेरी रिसर्च तो इसे फेमिली फिल्म ही बताती है !
Copyright © प्रकाश हिन्दुस्तानी
वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (16 अगस्त  2014)

Thursday, August 14, 2014

लोकसभा चुनाव के बाद मोदी की जीत पर पहली किताब


सभी मित्रों और हितैषियों का हार्दिक आभार.
सभी मित्रों और हितैषियों का हार्दिक आभार.
सभी मित्रों और हितैषियों का हार्दिक आभार.


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नरेन्द्र मोदी ने 26 मई 2014 को शपथ ली थी लेकिन यह किताब 25 मई 2014 को ही विमोचित होकर पाठकों के पास आ गई, शपथ के एक दिन पहले!

यह किताब रिकॉर्ड 5 दिन में लिखी गई और केवल 2 दिनों में मुद्रित हुई.
25 मई 2014 को इंदौर प्रेस क्लब में प्रकाश हिन्दुस्तानी की किताब 'चायवाले से प्रधानमंत्री - नरेन्द्र मोदी : एक तिलिस्म' का विमोचन करते हुए वरिष्ठ पत्रकार  श्रवण गर्ग, इंदौर प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष व  पत्रकार कृष्णकुमार अष्ठाना और इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज़ के डायरेक्टर डॉ पी. एन. मिश्र, प्रेस क्लब इंदौर के चैयरमैन प्रवीण खारीवाल, प्रेस क्लब के महासचिव अरविंद तिवारी, कार्यक्रम का संचालन करतीं श्रुति अग्रवाल और किताब के लेखक प्रकाश हिन्दुस्तानी .



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शीघ्र प्रकाश्य ........
जल्दी ही  गुजराती और मराठी में भी 




....मराठी में भी 



प्रकाश हिन्दुस्तानी की किताब 
'चायवाले से प्रधानमंत्री - नरेन्द्र मोदी : एक तिलिस्म' 
 मीडिया कवरेज 
The Times of India (26 may 2014)

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The Times of India (26 may 2014)

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Free press journal


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News Today (24 may 2014)

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www.webdunia.com 









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अग्निबाण (24 मई 2014)


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राजस्थान पत्रिका (25 मई 2014)


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आउटलुक 





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दुनिया इन दिनों






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'ब्रेकिंग बुक' मैंने नहीं, मित्रों ने गढ़ा है

प्रकाश हिन्दुस्तानी से कृष्णपाल सिंह जादौन की बातचीत

वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश हिन्दुस्तानी इन दिनों नरेन्द्र मोदी पर लिखी एक किताब को लेकर चर्चा में है। यह किताब नरेन्द्र मोदी के चुनाव अभियान को लेकर लिखी गई है। दिलचस्प बात यह है कि इस किताब का विमोचन 25 मई 2014 को हो गया था, जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 26 मई को शपथ ग्रहण की थी। यह किताब नरेन्द्र मोदी के चुनाव अभियान को लेकर तो है ही उनकी चुनावी रणनीति और राजनीतिक पैतरेबाजी को लेकर भी थी। नरेन्द्र मोदी की ब्रांडिंग, मार्वेâटिंग और चुनावी व्यूह रचना को लेकर तुरत-फुरत में प्रस्तुुत यह किताब हाथों-हाथ ली गई।

 प्रस्तुत है प्रकाश हिन्दुस्तानी से कृष्णपाल सिंह जादौन की बातचीत:-

सवाल- आखिर नरेन्द्र मोदी पर किताब लाने की इतनी जल्दी क्यों थी?

जवाब- मैं दैनिक अखबार में चुनाव पर दैनिक कॉलम लिख रहा था। मुझे लग रहा था कि नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना बहुत मुश्किल है। अगर पूरी तरह जोड़-तोड़ की गई तो भी एनडीए किसी तरह बहुमत ला पाएगा। ऐसे में एनडीए के सहयोगी दलों के बीच टकराव की आशंका भी थी, लेकिन 16 मई को चुनाव के नतीजों ने पूरे देश को चौंका दिया। मेरे भी अनुमान गलत निकले। भाजपा और मोदी की एकतरफा जीत हुई। यह सब अप्रत्याशित था। मैं अवाक था। मेरे मन में जिज्ञासा हुई कि मोदी ने आखिर क्या कमाल किया है, जो उन्हें इतनी सीटें मिली। एक मैनेजमेंट संस्थान के डायरेक्टर से बात होने पर उन्होंने कहा कि मोदी और भाजपा की जीत प्रबंधन के छात्रों के लिए तो एक केस स्टडी है ही, पत्रकारों के लिए भी एक केस स्टडी है। मैंने अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए भाजपा और मोदी के अभियान की पुर्नसमीक्षा की, तो मुझे लगा कि इस पर एक किताब लिखी जानी चाहिए। प्रकाशक से बातचीत की, प्रकाशक ने मुद्रक से बातचीत की और बात बन गई। मेरी जिद थी कि अगर मोदी की जीत पर किताब बाजार लाई जाए तो इतनी जल्दी लाई जाए कि पाठकों की जिज्ञासा और बढ़े। मैंने प्रकाशक से अनुरोध किया कि क्या नरेन्द्र मोदी की शपथ के पहले किताब बाजार में पेश की जा सकती है। प्रकाशक ने कहा कि बेशक, अगर किताब प्रकाशन के फार्मेट में हमे मिल जाए तो हम 2 दिन में पुस्तक प्रकाशित कर सकते है। प्रकाशक ने यह भी कहा कि नरेन्द्र मोदी पर उनकी जानकारी के अनुसार 138 किताबें आ चुकी है और 100 से अधिक किताबें एक महीने में और बाजार में आ जाएंगी। ऐसे में पुस्तक को बाजार में लाने का टाइमिंग बहुत मायने रखता है। 5 दिन मेंं किताब लिखी गई और 2 दिन में उसकी छपाई संपन्न हो गई। 23 मई की रात तक किताब की छपाई और बाइडिंग का काम होता रहा और २४ मई की सुबह किताब की प्रति मेरे हाथ में थी। आनन-फानन में किताब को समीक्षार्थ समाचार पत्रों के कार्यालय भिजवाया गया। जिन्होंने उसे अच्छा प्रतिसाद दिया। 

सवाल- नरेन्द्र मोदी पर आई दर्जनों किताबों से आपकी किताब किस तरह अलग है?

जवाब- मेरी किताब नरेन्द्र मोदी की जीवनी नहीं है। न ही इसे सरकारी लाइब्रेरियों में थोक में बेचने के उद्देश्य से लिखा गया है। यह किताब नरेन्द्र मोदी का चुनावी अभियान और कामियाबी को लेकर लिखी गई है। मुझे लगता है कि देश में दो ही तरह के लोग है नरेन्द्र मोदी के समर्थक या उनके विरोधी। उन्हें नजरअंदाज कर सवेंâ, ऐसा कोई तीसरा वर्ग है ही नहीं।नरेन्द्र मोदी की जीवनी अनेक लेखकों ने लिखी है। उनके मुख्यमंत्री कार्यकाल को लेकर भी अनेक किताबें है। नरेन्द्र मोदी की खुद की जिंदगी भारी उतार-चढ़ाव से भरी हुई है। जिससे वे खुद एक स्टोरी आइडिया है। उनके जीवन पर फिल्म भी बनाई जा सकती है। एक साधारण घर में पैदा हुआ व्यक्ति अपनी कुशलता, मेहनत और रणनीति के कारण राजनीति के शीर्ष पर पहुंचा। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण राजनैतिक पद तक पहुंचना किसी चमत्कार से कम नहीं है। इसीलिए किताब का नाम दिया गया ‘चायवाले से प्रधानमंत्री : नरेन्द्र मोदी एक तिलिस्म’। किताब की भूमिका में यह बात स्पष्ट कर दी गई कि यह कोई नरेन्द्र मोदी की जीवनी नहीं है। यह नरेन्द्र मोदी के चुनाव अभियान को लेकर की गई छानबीन है, यह चुनाव के नतीजों की समीक्षा की विनम्र कोशिश है और भारतीय राजनीति में आए बदलाव का दस्तावेज है।
सवाल- आखिर इस जल्दबाजी की जरुरत क्या थी? इत्मीनान से और गहन अध्ययन करके किताब लिखी जा सकती थी।

जवाब- आजकल हर काम तेजी से होता है। फास्ट पूâड का जमाना है। लोग दुनियाभर की खबरें टीवी चैनलों पर लाइव देखना चाहते है। हाल यह है कि आजकल के अखबार खबरों का विश्लेषण कम और सूचनाएं ज्यादा देते है। इस आपाधापी में अखबार टेलीविजन बनना चाहते है। मैंने अखबार और टेलीविजन चैनल दोनों में काम किया है, इसलिए मुझे लगा कि अगर यहां त्वरित गति से काम किया जाए तो भीड़ से अलग किताब की पहचान बन सकती है। संयोग से प्रकाशक और मुद्रक साथ में थे और आनन-फानन में 116 पेज की किताब बाजार में आ गई। मजेदार बात यह रही कि 26 मई को नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और 25 मई को ही इंदौर प्रेस क्लब में वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग, कृष्णकुमार अष्ठाना और मैनेजमेंट गुरु पीएन मिश्रा ने पुस्तक का लोकार्पण कर दिया। 25 मई के अखबारों में पुस्तक के विमोचन की खबर प्रमुखता से छपी। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अंग्रेजी के अखबार ने इस खबर को 3 कॉलम में सभी संस्करणों में छापा और अपनी वेबसाइट पर भी प्रमुख स्थान दिया। जिस कारण मुझे विश्व के कई कोनों से मित्रों, शुभचिंतकों और भाजपा नेताओं के फोन आना शुरु हो गए। आम धारणा थी कि किताब नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की कहानी है या उनकी जीवनी है, लेकिन किताब देखते ही लोगों के भ्रम दूर हो गए। 

सवाल- इस किताब में आपने क्या-क्या शामिल किया है?

जवाब- इस किताब में नरेन्द्र मोदी की निजी जिंदगी के बारे में कोई बात नहीं कहीं गई है। यह कहा जा सकता है कि यह किताब नरेन्द्र मोदी के चुनाव अभियान पर लिखी गई किताब है। जिसमें 21 मई 2014 तक की घटनाएं शामिल है। चुनाव जितने के बाद नरेन्द्र मोदी का पहला भाषण भी इसमें है और 20 मई 2014 को भाजपा संसदीय दल का नेता चुने जाने पर दिए गए भाषण का अंश भी है। संसद भवन की सीढ़ियों पर मत्था टेकते नरेन्द्र मोदी अंतिम आमुख पर है। दिलचस्प बात यह रही कि इतनी तेज गति से कई साप्ताहिक पत्रिकाएं भी नरेन्द्र मोदी के अभियान को कवर नहीं कर पाई, जो हमने कर दिखाया।

सवाल- 116 पन्नों में क्या-क्या आपने दिया?

जवाब- नरेन्द्र मोदी ने यह चुनाव युद्ध की तरह लड़ा। उन्हें बता था यूपी और बिहार को फतह करें बिना प्रधानमंत्री की गद्दी नहीं पाई जा सकती। इस किताब में नरेन्द्र मोदी की ब्रांडिंग, उनकी मार्वेâटिंग, स्टोरी टेलिंग का अंदाज, चुनाव अभियान की रोचक और दिलचस्प गतिविधियां युवा वोटरों पर विशेष ध्यान जैसी बातें शामिल है। मीडिया मैनेजमेंट पर नरेन्द्र मोदी ने विशेष ध्यान दिया। चैनलों को मैनेज किया गया और प्रिंट मीडिया में माहौल बनाया गया। सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग नरेन्द्र मोदी बखूबी जानते थे, जो उन्होंने कुशलता से उपयोग में लाकर मतदाताओं को रिझा दिया। उन्हें समाचार चैनलों की आपसी टीआरपी की प्रतिस्पर्धा का अच्छा ज्ञान है और उन्होंने समाचार चैनलों पर इस तरह इंटरव्यू दिए कि हर दिन वे ही बने रहे। नरेन्द्र मोदी ने अपने चुनाव अभियान को बहुत ही सुव्यवस्थित तरीके से संचालित किया। सबसे पहले उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में अपनी सुप्रीमेसी कायम की। बड़े नेताओं को दरकिनार किया। नए-नए नारे गढ़े। गुजरात के सीईओ से देश के पीएम तक का उनका सफर उतार-चढ़ाव से भरा रहा। उन्होंने विकास का फार्मूला प्रचारित किया और यूपी बिहार में मतदाताओं को जातिवाद से ऊपर उठकर वोट देने के लिए प्रेरित किया। स्टेच्यू ऑफ यूनिटी की कल्पना उनके चुनाव प्रचार का ही हिस्सा थी, जिसे उन्होंने भुला दिया। उन्होंने एक कुशल प्रकाशक की छवि बनाने की कोशिश की। स्थानीय टेव्नâोलॉजी पर बल दिया और जनभागीदारी तथा मिलजुलकर काम करने की बात हमेशा कहीं। एक कुशल प्रकाशक के रूप में अपनी छवि को प्रचारित करने में वे कामयाब रहे। सम्पन्न और उन्नत गुजरात में उनकी छवि को आगे बढ़ाने में मदद की। हर चीज को बढ़ा-चढ़ाकर बताना उनका मार्वेâटिंग पंâडा था। जिसे उन्होंने बुद्धिमानी से अंजाम दिया। 

सवाल- नरेन्द्र मोदी के भाषणों का इस जीत में कितना योगदान मानते है?

जवाब- नरेन्द्र मोदी अच्छे वक्ता है। उन्हें किस्से-कहानियां कहना खूब आता है। जनता की नब्ज पर उनका हाथ रहा है। वे खुद निम्न आय वर्ग के परिवार से आए है और आम आदमी के कष्ट जानते है। उन्हें बता है कि आम आदमी वैâसे सपने देखता है। आम आदमी के संघर्ष और सपनों को मिलाकर नरेन्द्र मोदी ने अपनी कामयाबी का रास्ता बनाया। अपने भाषणों में उन्होंने हर तरह का मार्वेâटिंग पंâडा अपनाया। उन्होंने साबित किया कि मार्वेâटिंग केवल किसी प्रॉडक्ट या सर्विस के लिए ही नहीं राजनीति के लिए भी जरुरी है। नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के लिए होस्टर ब्वाय के रूप में प्रचारित किए गए। उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया, जबकि लोकसभा चुनाव में संसद का सदस्य ही चुना जाता है। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता को भुनाने के लिए भाजपा ने एक तीर से दो निशाने साध लिए। पहला उन्होंने यह बात साबित कर दी कि हमारा ध्येय गुजरात की तरह पूरे देश का विकास करना है और भाजपा में किसी तरह का मतभेद मोदी को लेकर नहीं है। दूसरा उन्होंने कांग्रेस को भी निशाने पर ले लिया कि अगर यूपीए को बहुमत मिला तो उनका प्रधानमंत्री कौन होगा? जरा नरेन्द्र मोदी के भाषण तो देखिए- लोगों ने हमपर जो पत्थर पेंâके थे हमने उन्हें इकट्ठा कर एक नए गुजरात का निर्माण कर डाला। जब राहुल गांधी ने अपने परिवार के बलिदान की बात कहीं, तब नरेन्द्र मोदी ने जोर-शोर से इस बात को प्रचारित किया कि मैं चाय बेचने वाला साधारण घर का एक बच्चा हूं जिसे इस देश की जनता ने सिर-आंखों पर बैठा लिया है। उन्होंने एक आम आदमी के मन में यह आत्म-सम्मान का भाव जागृत किया कि कोई भी आदमी छोटा नहीं होता। चाय बेचने वाले लाखों लोगों ने नरेन्द्र मोदी में अपनी छवि देखी और चुनाव में वोट देकर मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में मदद की। प्रचार का कोई मौका नरेन्द्र मोदी ने नहीं छोड़ा। उत्तराखंड में प्रावृृâतिक आपदा के बाद उन्होंने दावा किया था कि हजारों गुजराती भाइयों को उन्होंने उत्तराखंड से सुरक्षित निकाल बाहर किया। 

सवाल- क्या नरेन्द्र मोदी ने मुद्दों से भटका दिया?

जवाब- नहीं, उन्होंने मुद्दों से नहीं भटकाया, बल्कि मुद्दों को अपनी तरफ मोड़ दिया। जैसे जब सोनिया गांधी ने जहर की खेती की बात कहीं तो उन्होंने कहा ६० साल से सत्ता में कौन है और जहर की खेती कौन कर रहा है, कौन जहर पैदा कर रहा है और कौन जहर उगल रहा है? राहुल गांधी ने जब बहुत गंभीर आरोप लगाए और कहा कि मोदी का गुब्बारा पूâटने वाला है और मोदी अडानी और अंबानी के लिए काम करते है। उन्होंने एक टॉफी के भाव में एक वर्ग मीटर जमीन का सौंदा कर डाला है। इस गंभीर आरोप को नरेन्द्र मोदी ने मजाक में यह कहकर उड़ा दिया कि शहजादे अभी बच्चे है और उन्हें टॉफी और गुब्बारे से ही पुâरसत नहीं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जब नरेन्द्र मोदी को कागजी शेर कहा, तो नरेन्द्र मोदी ने उन्हीं की स्टाइल में जवाब दिया कि दीदी आप एक कागजी शेर से क्यों डर रही हो? अगर असली शेर आएगा तो क्या करेंगी? नरेन्द्र मोदी ने साफ कहा कि मैं आपका चौकीदार रहूंगा। आपने कांग्रेस को 60 साल दिए है मुझे 60 महीने देकर देखिए। शुरुआत में उन्होंने बचकानी एबीसीडी भी सुनाई, जो नए वोटरों को आकर्षित करने के लिए थी। बातों को अपनी तरफ मोड़ने और अलग व्याख्या करने में भी नरेन्द्र मोदी का जवाब नहीं। जब प्रियंका गांधी ने कहा कि नरेन्द्र मोदी नीच राजनीति कर रहे है। तो उन्होंने अर्थ का अनर्थ करते हुए उसे अपनी जाति से जोड़कर इस तरह प्रचारित किया मानो प्रियंका गांधी ने उन्हें नीच कहा है।

सवाल- नरेन्द्र मोदी पर यह किताब है किसके लिए?

जवाब- 
मैंने नरेन्द्र मोदी पर किताब आम लोगों के लिए लिखी है। युवा, छात्र, दुकानदार, नौकरी पेशा वर्ग और गृहिणियां भी इस किताब को पढ़कर चुनाव अभियान के बारे में समझ सकती हैं। यह कोई महान शोध नहीं है। मुझे ऐसी कोई गलतफहमी नहीं है कि मैंने कोई बड़ा काम किया है। यह कोई कालजयी रचना नहीं है। यह किताब मेरे पत्रकारीय योगदान का हिस्सा है। यह किताब हिन्दी में है ताकि आम आदमी इसे समझ सवेंâ। यह बहुत मोटा ग्रंथ भी नहीं है। सीमित पृष्ठ है और दाम भी सीमित है। खास बात यह है कि इसमें आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल किया गया है, बहुत कठिन शब्दों से बचा गया है। यह किताब राजनीति की केस स्टडी है और पत्रकारिता की भी। 

सवाल- इस तेजी की कोई खास वजह?

जवाब- मैंने प्रिंट मीडिया में काम किया है। प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता टीवी में नहीं है, लेकिन टीवी की तेजी प्रिंट में नहीं आ सकती। मैंने कोशिश की कि इस किताब में प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता और टेलीविजन मीडिया की तेजी एकसाथ नजर आए। 

सवाल- ब्रेकिंग बुक क्या है?

जवाब- पत्रकार मित्रों ने ब्रेविंâग न्यूज की तर्ज पर इस किताब को ब्रेविंâग बुक लिख दिया है। यह मेरे लिए सम्मान और गर्व की बात है। अगर मेरी किसी किताब को लेकर कोई नई शब्दावली गढ़ी जाती है तो निश्चित ही यह फख की बात है। मैं इसके लिए मित्रों का आभारी हूं।

सवाल- क्या फिर कोई किताब लिखेंगे?

जवाब- किताब तो लिखूंगा, लेकिन ऐसी हड़बड़ी में शायद नहीं। 

सवाल- क्या मार्वेâटिंग का ऐसा मौका नहीं आएगा?

जवाब- पता नहीं।

सवाल- आपकी किताब के विज्ञापन दैनिक अखबारों में पहले पेज पर छपे, उन विज्ञापनों में घटें दरों पर थोक में किताबें बेचने का जिक्र है। क्या आपकी किताब कन्ज्यूमर आइटम है?

जवाब- मुझे लगता है कि नरेन्द्र मोदी की चुनावी रणनीति निश्चित ही कन्ज्यूमर आइटम थी। जिसे किताब के रूप में लिखा गया है। यह किताब साहित्य का कोई बड़ा योगदान नहीं है। पत्रकारिता की कोई अनमोल धरोहर भी नहीं है। यह एक जुनून का नतीजा है कि पत्रकारों को कितनी तेजी से काम करना चाहिए। वास्तव में यह किताब लिखते समय दिमाग में जुनून छाया रहा, जिसे लोगों ने पसंद किया। लोगों ने यह भी कहा कि जिस तेजी से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, उसी तेजी से आपने भी किताब लिख डाली। मुझे लगता है कि कुछ किताबें निश्चित ही कन्ज्यूमर आइटम होती है। इस किताब के बारे में पाठकों को पैâसला करने दीजिए। 

सवाल- अपने पत्रकारीय जीवन के बारे में भी कुछ बताइए?

जवाब- मैंने प्रिंट, टेलीविजन और वेब मीडिया में काम किया है। नईदुनिया से शुरुआत की फिर उस जमाने की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका धर्मयुग में काम किया। वहां से नवभारत टाइम्स में करीब डेढ़ दशक तक अलग-अलग पदों पर काम करने के बाद दैनिक भास्कर इंदौर में समाचार संपादक के रूप में काम किया। शाम का अखबार चौथा संसार शुरु किया। दुनिया में हिन्दी का पहला वेब पोर्टल वेब दुनिया शुरु करने वाला मैं ही था। वेब दुनिया का संस्थापक संपादक होने का मुझे आज भी फख है। केबल नेटवर्वâ में भी काम किया और सेटेलाइट चैनल में भी। केवल रेडियो बच गया है जहां मैंने काम नहीं किया है। मेरे लिए यह भी बड़े गौरव की बात है कि मैंने देश के अनेक लब्ध प्रतिष्ठ संपादकों के साथ काम किया है। जिनमें राजेन्द्र माथुर, राहुल बारपुते, अभय छजलानी, धर्मवीर भारती, गणेश मंत्री, विश्वनाथ सचदेव, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, विद्यानिवास मिश्र, श्रवण गर्ग, कन्हैयालाल नंदन आदि शामिल है। ये वे संपादक है जिनमें पारस स्पर्श की क्षमता है और मुझे यह भ्रम है कि उनके स्पर्श मात्र से मुझे कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य मिला होगा। 

सवाल- सोशल मीडिया का रोल भविष्य में क्या होगा?

जवाब- सोशल मीडिया में आम आदमी को अभिव्यक्ति की ताकत दी है। अब हर व्यक्ति पत्रकार है। छोटा-मोटा अखबार निकालने की तुलना में ज्यादा आसान और प्रभावी सोशल मीडिया का उपयोग है। हजार-दो हजार छपने वाले अखबार को निकालने से बेहतर है कि सोशल मीडिया पर अपनी बात ज्यादा बेहतर तरीके से कहीं जाए। ब्लॉगिंग ने भी अभिव्यक्ति को बढ़ावा दिया है। अब अभिव्यक्ति के लिए बड़े-बड़े पूंजीपतियों के संस्थानों पर निर्भर रहने की जरुरत नहीं है। यह अपने-आप में चमत्कारिक कार्य है। 
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खुशी तो बहुत हुई जब मंत्रालय में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज जी को अपनी किताब भेंट की, तब उन्होंने मुस्कराकर कहा कि वे इसे पहले ही पढ़ चुकी हैं !( विदेश मंत्रालय, नई दिल्ली. 14 जुलाई 2014)



                 
                    केंद्रीय मंत्री उमा भारती जी और नरेन्द्र सिंह जी तोमर को भी किताब भेंट की.





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सभी मित्रों और हितैषियों का हार्दिक आभार:

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