Monday, June 03, 2013

ऋतु दा या ऋतु दी....? 
 
ऋतुपर्णो घोष या ऋतु दा(?) बहुत महान फिल्मकार थे.   इसमें दो मत नहीं. लेकिन वे जो 'व्यक्ति' थे, जैसे 'शख्स' थे, उसके लिए हिन्दी में शब्द ही नहीं है. जेंडरनिरपेक्ष शायद! {जातिनिरपेक्ष यानी जाति से निरपेक्ष, धर्मनिरपेक्ष यानी धर्म से निरपेक्ष} शायद इसलिए कि वे जेंडर से निरपेक्ष, उससे ऊपर पहुँच चुके थे. लिपस्टिक,काजल,फाउन्डेशन,रूज़,खिज़ाब का उपयोग समझ में आता है, स्त्रीयोचित ज़ेवर, सलवार-कुर्ता-दुपट्टा के शौकीन होना भी उनकी अपनी पसंद थी. ठीक है. ...पर राखी सावंत बनने की ज़िद में ब्रेस्ट इम्प्लान्ट और हार्मोंस लेना जेंडरनिरपेक्षता नहीं, कुछ और ही है. उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया था, लेकिन हार्मोन्स का शौक जारी था. चाहते क्या थे, शायद उन्हें खुद पता नहीं था.

बेचारे बच्चे कंफ्यूज़ा जाते थे कि उन्हें अंकल कहें या आंटी;   सह कलाकार चाहकर भी ऋतु दा को ऋतु दी नहीं बोल पाते थे कि बरसों से ऋतु दा बोल रहे हैं तो अब 'दी' कैसे कहें? वह भी तब, जब वे दी हैं भी या नहीं, पता नहीं हो.

प्रकृति ने जैसा बनाया, जो भी बनाया; ठीक है.   उससे क्यों पंगेबाज़ी? मर्द बनाया हो या स्त्री; खुद को बेहतर इंसान बनाना प्राथमिकता होनी चाहिए. वैसे हर मर्द में एक औरत छुपी है और हर स्त्री में एक पुरुष रह रह कर कुलाँचे मारता है. इसीलिए पिता में ममत्व और माता में पिता का सख़्त अनुशासन प्रकट होता है. वैचारिक स्तर पर तसलीमा नसरीन हैं और भौतिक स्तर पर बिग बॉस फेम इमाम.

ऋतुपर्णो घोष LGBT अथवा GDS community अथवा थर्ड जेंडर के लिए समर्पित व्यक्ति भी नहीं थे.
उनके माता पिता नहीं रहे, भाई ने नाता तोड़ लिया, यार कुछ और चाहते थे और वे खुद कुछ और ! उन डॉक्टरों के खिलाफ जाँच क्यों नहीं हो जिन्होंने उनके ओपरेशन किए और ख़तरनाक दवाइयाँ दीं?



ऋतुपर्णो महान फिल्मकार थे, इसमें कोई शक नहीं, लेकिन ये महान लोग भी कैसे कैसे काम कर लेते थे ! जैसे गाँधीजी महान राष्ट्रनायक थे, लेकिन लोगों के विरोध के बावजूद उन्होंने 'सत्य के प्रयोग' कर डाले. तब टीवी चैनल्स नहीं थे. पर अब तो है....किसी ने खुलकर चर्चा नहीं किया.

  ...सचमुच साधारण इंसान होना कितना अच्छा है! कितना सार्थक और कितना आसान भी!!!
--प्रकाश हिन्दुस्तानी