Saturday, November 26, 2011

भय के आगे जीत है

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज (27/11/2011) पर मेरा कॉलम


भय के आगे जीत है / आंग सान सू की
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देश, समयकाल और नेता ज़रूर अलग हैं लेकिन हालात वैसे ही होते जा रहे हैं जैसे म्यांमार में थे. आंग सान सु ची का यह भाषण इस सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत में भी व्यापक आन्दोलन चल रहा है और लोगों के मन में आक्रोश भी उसी तरह बढ़ रहा है.
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जेल और नजरबंदी में पूरे 15 साल गुजारने वाली म्यांमार की आंग सान सू की ने भय के हर रूप का मुकाबला किया है। उन्हें उनके परिवार से अलग किया गया। उन पर बर्बर हमले हुए। एक वक्त वह भी था, जब अपने घर में नजरबंद थीं और म्यांमार में आए तूफान में उनके घर की छत उड़ गई, बिजली की सप्लाई कट गई। उन्होंने कई हफ्ते बिना छत के इस घर में सिर्फ जलती-बुझती मोमबत्तियों के सहारे गुजारे। उनका एक मशहूर भाषण ‘भय से मुक्ति’ बताता है कि डर को अपने मन से कैसे निकाला जाए और यह क्यों जरूरी है।
सू की का कहना है, ‘कुछ लोगों की निडरता कुदरत की देन हो सकती है, लेकिन सबसे बेशकीमती है वह साहस, जिसे हम अपनी कोशिशों से हासिल करते हैं। यह साहस अपने भीतर उस आदत को रोपने से आता है, जिसका संकल्प होता है कि डर हमारे जीवन का रास्ता तय नहीं करेगा। इस साहस की व्याख्या कुछ इस तरह की जा सकती है- दबाव में भी अडिग बने रहना। कठिन और निरंतर दबाव के बीच अडिग बने रहने की कोशिशों को लगातार बढ़ाते रहना पड़ता है।’
डर और साहस
‘एक ऐसी व्यवस्था में, जो आपको मूलभूत मानवाधिकार देने से भी इनकार करती हो, वहां भय दिनचर्या का हिस्सा बन जाते हैं। बंदी बनाए जाने का डर, प्रताड़ना का डर, मृत्यु का डर। अपने दोस्तों, परिजनों, अपनी संपत्ति, अपने रोजगार को खो देने का डर। गरीबी का डर, अलग कर दिए जाने का डर, नाकामी का डर। सबसे बड़ा धोखेबाज होता है वह डर, जो एक आमफहम सोच या बुद्धिमानी का नकाब ओढ़कर आता है और जो साहस की किसी भी कोशिश को बेकार, व्यर्थ करार देता है। लेकिन साहस इंसान के आत्मसम्मान और उसके भीतर की मानवता की रक्षा करता है। बहरहाल, सत्ता-व्यवस्था चाहे जितनी भी अत्याचारी क्यों न हो, साहस बार-बार उठ खड़ा होता है, क्योंकि डर मानव सभ्यता की फितरत नहीं है।’
भ्रष्टाचार की जड़
भय के इस फलसफे में सू की इस भय को ही म्यांमार में फैले भ्रष्टाचार का कारण मानती हैं। वह कहती हैं, ‘हमें सत्ता भ्रष्ट नहीं करती, बल्कि हमें भ्रष्ट करता है भय। सत्ता खोने का भय उन्हें भ्रष्ट करता है, जो सत्ता छोड़ना नहीं चाहते। हमारे देश में चार तरह के भ्रष्टाचार हैं। निजी आर्थिक लाभ के लिए किया जाने वाला गलत आचरण, अपने चहेते लोगों को फायदा दिलाने के लिए किया गया भ्रष्टाचार, कार्य के प्रति लापरवाही से उपजा अनुचित व्यवहार और इन सबसे बुरा होता है, भय के कारण सही और गलत की पहचान ही खो देना। यह भ्रष्टाचार दूसरी तमाम बुराइयों की जड़ में होता है। ..डर और भ्रष्टाचार में जब इतना गहरा रिश्ता है, तो कोई हैरत की बात नहीं कि जहां डर का राज हो, वहां हर तरह का भ्रष्टाचार बहुत गहराई तक अपनी जड़ें जमा ले।’
हर कोई नायक बने
म्यांमार की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की महासचिव सू की ने साहस का यह जज्बा अपने पिता आंग सान से हासिल किया है। वह आधुनिक म्यांमार के संस्थापक कहे जाते हैं, जो म्यामांर (तब बर्मा) को आजादी की दहलीज तक ले आए थे। लेकिन उनकी हत्या कर दी गई। आंग सान का यह कथन सू की के लिए हमेशा प्रेरणादायक रहा, ‘दूसरों के साहस और कोशिशों पर कभी निर्भर नहीं रहो। हर किसी को बलिदान करना पड़ेगा और नायक बनना होगा। हर किसी को साहस दिखाना होगा और कोशिश करनी होगी। तभी हम सब सच्ची आजादी का आनंद ले सकेंगे।’ अपने पिता के अलावा सू की महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से भी प्रेरणा लेती हैं। नेहरू का यह कथन उन्हें काफी प्रभावित करता है, ‘किसी देश या व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा वरदान है उसका अभय होना, सिर्फ शारीरिक साहस के मामले में ही नहीं, बल्कि मन के भयमुक्त होने के मामले में भी।’
कहां से आता है साहस
लेकिन यह साहस आता कहां से है? सू की मानती हैं कि यह बहादुरी हमारे जज्बे से आती है, ‘किसी दुष्ट सत्ता के सामने साहस और अडिग रहने की ताकत आमतौर पर नैतिक सिद्धांतों में आस्था से आती है, इसके साथ ही इस इतिहास बोध से भी कि सारी मुश्किलों के बावजूद इंसान का आध्यात्मिक और भौतिक विकास भय से मुक्ति की ओर ही हो रहा है। खुद को सुधारने और आत्म-अवलोकन करने की इंसान की क्षमता ही उसे बर्बर बनने से रोकती है। इंसानी जिम्मेदारी के मूल में आदर्श बनने की अवधारणा है, इसे हासिल करने का आग्रह है, इसकी राह खोजने की बुद्धिमानी है, इसकी राह पर चलने की इच्छाशक्ति है। इस राह का अंत भले ही कितनी भी दूर क्यों न हो, लेकिन मनुष्य अपनी सीमाओं और वातावरण की बाधाओं से ऊपर उठकर इसकी ओर बढ़ता है। एक आदर्श और सभ्य मानवता कायम करने की यह सोच ही है, जो हमें ऐसा समाज बनाने का साहस देती है, जो भय से मुक्त हो। सत्य, न्याय और दया की अवधारणाओं को आप घिसा-पिटा कहकर खारिज नहीं कर सकते। खासतौर पर तब, जब सत्ता-व्यवस्था की निरंकुशता इनका रास्ता रोककर खड़ी होती हो।’ निडरता के इस फलसफे को आप आंग सान सू की के जीवन में हर कदम पर देख सकते हैं।

प्रकाश हिन्दुस्तानी

( दैनिक हिन्दुस्तान में 27/11/2011 को प्रकाशित )

Sunday, November 20, 2011

'अग्नि' की बेटी, 'तेजस' की माँ

रविवासरीय हिन्दुस्तान (20/11/2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम




'अग्नि' की बेटी, 'तेजस' की माँ

डॉ. टेसी थॉमस को कुछ लोग मिसाइल वूमन कहते हैं तो कई लोग उन्हें 'अग्नि - पुत्री' का खिताब देते हैं. वे देश के मिसाइल प्रोजेक्ट (डी आर डी ओ) की प्रमुख हैं और उन्हीं के नेतृत्व में 15 नवम्बर को उड़ीसा के व्हीलर द्वीप से तीन हज़ार किलोमीटर तक सतह से सतह पर मार करने वार करने की क्षमता वाली मिसाइल अग्नि-4 का सफल प्रक्षेपण किया. यह मिसाइल अपने साथ एक हज़ार किलो तक के परमाणु हथियार लेकर जा सकती है और दुश्मन के इलाके में तबाही मचा सकती है. टेसी पहली भारतीय महिला हैं, जो मिसाइल प्रॉजेक्ट का नेतृत्व कर रही हैं. अब पाँच हज़ार किलोमीटर तक मार कर सकने वाली अग्नि-5 बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण करने की भी योजना है.जिसकी प्रमुख भी टेसी ही हैं. डॉक्टर ए पी जे कलाम की शिष्या टेसी ऐसे क्षेत्र में कार्य कर रही हैं जहाँ पुरुषों का वर्चस्व माना जाता है. भारतीय सुरक्षा की एक प्रमुख आधार टेसी की कामयाबी के कुछ सूत्र :
एकाधिकार को तोड़ें
आमतौर पर रणनीतिक हथियारों और परमाणु क्षमता वाले मिसाइल के क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व रहा है. इस अवधारणा को तोड़कर टेसी थॉमस ने सच कर दिखाया कि हर उड़ान पंखों से नहीं, हौसलों से होती है. 1988 में वे अग्नि परियोजना से जुड़ीं और तभी से लगातार इस परियोजना में काम कर रही हैं. उनकी प्रेरणा से डी आर डी ओ में करीब दो सौ से ज़्यादा महिलाएँ कार्यरत हैं जिनमे से करीब बीस तो सीधे तौर पर उनसे जुड़ी हैं. शुरू में लोग उनसे यह भी कहते कि आप किस दुनिया में काम कर रहीं है, यहाँ तो केवल पुरुषों का वर्चस्व है, तब वे मुस्करा देतीं. उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि आज कोई यह नहीं कह सकता कि परमाणु मिसाइल बनाने का क्षेत्र पुरुषों का ही है. अगर वे तब पीछे हट जातीं तो आज उन्हें यह गौरव प्राप्त नहीं होता.
असफलताओं से पस्त ना हों
टेसी तीन साल पहले ही अग्नि परियोजना की प्रमुख बनी थी और उन्हें पहला आघात तब लगा जब अग्नि-3 मिसाइल का परीक्षण सफल नहीं हो सका. अरबों रुपये की परियोजना का हिस्सा अग्नि -3 का परीक्षण उड़ीसा के बालासौर के पास द्वीप पर हो रहा था और अग्नि-3 मिसाइल के प्रक्षेपण होने के तीस सेकंड के भीतर ही वह मिसाइल समुद्र में जेया गिरी. लेकिन तमाम आलोचनाओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और कहा की यह विफलता ज़रूर थी, लेकिन ऐसी नहीं की हमारे हौसलों को तोड़ सके. उन्होंने मामूली सी तकनीकी त्रुटि की भी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली और कहा कि हम विफल नहीं हुए हैं, फिर कोशिश करेंगे और कामयाब होंगे. ऐसी परियोजना, जिस पर पूरी दुनिया की निगाहें हों, की विफलता का अर्थ भी वे जानती थीं और उसकी कामयाबी का भी. मेहनत, लगन, निष्ठा और मेघा से उन्होंने अपने लक्ष्य को पाया.
नेतृत्व के लिए आगे बढ़ें
टेसी ने कभी भी अपने जहाँ में यह ख़याल नहीं आने दिया की वे ऐसे क्षेत्र में हैं, जहाँ पुरुषों का बोलबाला है, इससे आगे बढ़कर उन्होंने अपने वैज्ञानिकों की टीम का नेतृत्व भी किया और टीम के मनोबल को भी बनाए रखा. उनका पूरा रास्ता कंटकाकीर्ण था. बेहद गोपनीय प्रोजेक्ट होने के कारण कामयाबी का श्रेय तो लगभग नहीं ही था, और नाकामी का ठीकरा फोड़ने के लिए देशी ही नहीं, विदेशी मीडिया भी तैयार खड़ा था कि कब टेसी के बहाने ही सही, भारत की रक्षा नीति पर हमला करे. मिसाइल की नाकामी भारत को उलाहना देने के लिए पर्याप्त कारण थी. टेसी ने कभी भी किसी की परवाह नहीं की, उन्हें सदा अपने लक्ष्य को पाने की चिंता थी और अपनी टीम के मनोबल को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी. महिलाओं के मिसाइल क्षेत्र में आने पर वे कहतीं हैं कि साइंस हेज़ नो ज़ेंडर. उनकी एक महत्वपूर्ण खूबी यह है की वे अपनी टीम को कामयाबी की क्रेडिट देने में कभी कोई कोताही नहीं करतीं. हाल की कामयाबी के लिए उन्होंने कहा है कि यह तो उनकी टीम की उपलब्धि है.
अपने लक्ष्य को जानें
टेसी को बचपन से ही साइंस और गणित में दिलचस्पी थी. रॉकेट और मिसाइल से उनका लगाव तब बढ़ा, जब यूएस का अपोलो चंद्रमा मिशन सफल हुआ. उन्होंने छुटपन में ही तय कर लिया था कि उन्हें आगे जाकर इंजीनियर बनना है. कोझीकोड के त्रिसूर इंजीनियरिंग कॉलेज से उन्होंने बीटेक की डिग्री ली और फिर उनका चयन पुणे के डिफेंस इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस्ड टेक्नॉलोजी से एमटेक के लिए हो गया. डीआरडीओ के 'गाइडेड वेपन कोर्स' के लिए उनका चयन होते ही मिसाइल वुमन के तौर पर सफर शुरू हुआ। उन्होंने 'सॉलिड सिस्टम प्रोपेलेंटस' में विशेष दक्षता प्राप्त की, यही वह तत्व है, जो अग्नि मिसाइल में ईंधन का काम करता है. टेसी ने इग्नू से पी एचडी की उपाधि ली. टेसी को इस बात की खुशी है कि लोग उनकी पहचान हमेशा ही वैज्ञानिक के रोपोप में करते हैं न कि किसी महिला के रूप में. वे अपनी यही पहचान बचपन से चाहती थी.
काम महत्वपूर्ण है, प्रसिद्धि नहीं
टेसी जानती हैं कि वे जो काम कर रही हैं वह महत्वपूर्ण है, लेकिन इसमें ग्लैमर या प्रसिद्धि अपेक्षाकृत कम है. गोपनीयता के कारण वे सार्वनजिक जीवन में बहुत से लोगों से मिलती-जुलती नहीं, मिल-जुल भी नहीं सकतीं. वे अपना ज़्यादातर समय अपने काम में ही बिताती हैं. उनके जैसी बेहद महत्वपूर्ण शख्सियत मीडिया से गिनी चुनी बार ही मुखातिब हुई है. उनकी ताज़ा उपलब्धि पर भी मीडिया को जानकारी उन्होंने नहीं दी. जब अग्नि -3परियोजना विफल हुई थी, तब भी उन्होंने मीडिया से बात नहीं की थी. उनका फार्मूला साफ है कि काम खुद बोले तो बेहतर. महत्वपूर्ण केवल काम है.
परिवार पर भी दें ध्यान
टेसी जानती हैं की सबसे बड़ा शॉक एब्जार्वर अगर कोई है तो वह परिवार ही है. डॉ कलाम की शिष्या वे ज़रूर हैं, लेकिन उन्होंने शादी की है और उनका एक बेटा है, जिसका नाम मिसाइल के नाम पर 'तेजस' रखा है. उनके पति भारतीय नौसेना में कमोडोर हैं. वास्तव में उनके पति भी बेहद व्यस्त जीवन जीते हैं और दोनों को अपने निजी जीवन के लिए बहुत ही कम वक़्त मिल पता है. इस समस्या का हाल उन्होंने यह निकाला है कि जो भी वक़्त मिले उसे क्वालिटी टाइम के रूप में बिताया जाए. वे खुद मध्यवर्गीय परिवार की हैं और परिवार के मूल्यों को खूब जानती पहचानती हैं.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान 20/11/2011 के एडिट पेज पर प्रकाशित मेरा कॉलम.

Tuesday, November 15, 2011

देह और दिमाग़ के योग से शीर्ष पर

रविवासरीय हिन्दुस्तान (13/11/2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम


देह और दिमाग़ के योग से शीर्ष पर
शकीरा भारत आ रही हैं. वे आल इन वन हैं -- बिजनेस वूमन, गायिका, डांसर, गीत लेखिका, संगीतकार, लाइव परफार्मर, रेकॉर्ड निर्माता, मॉडल, समाजसेवी, यूनिसेफ की प्रतिनिधि, अमेरिकी राष्ट्रपति की सलाहकार आदि. वे सुन्दर हैं, युवा हैं, धनवान हैं, शोहरतमंद हैं, लेकिन वे विनम्र हैं, मेहनती, दयालु, गरिमामय भी हैं. इससे बढ़कर वे बुद्धिमान हैं और सच बोलने की आदी. उनके आगे आइटम जैसा शब्द शायद छोटा है. नोबेल साहित्य विजेता गेब्रियल गेर्सिया मार्केज़ का दावा है कि शकीरा के शो में आप किसी और के बारे में सोच ही नहीं सकते. ग्रेमी, गोल्डन ग्लोब जैसे कई सम्मान वे पा चुकी हैं. शकीरा कोई ऐसे ही शकीरा नहीं बनीं; उनकी सफलता के कुछ सूत्र :
लोक से जुड़ाव ज़रूरी
लोक नर्तकी और बेली डांसर के रूप में शकीरा ने नाम और नामा कमाया है और अपने संगीत में मादक-सौन्दर्य का ऐसा बघार लगाया है कि वह सुनने से ज्यादा देखते ही बनता है. वे नंगे पैर नाचना पसंद करती हैं और आने साथ लोगों को नाचने के लिए प्रेरित करने में उन्हें मज़ा आता है. वे स्टेज शो के दौरान अपने से ज्यादा रोशनी दर्शकों पर देखना चाहती हैं और उनके मान के भाव को समझ कर अपनी प्रस्तुति को हर पल नया रूप देती रहती हैं. फूहड़ता के आरोपों के बावजूद उनके दीवानों की संख्या लाखों में हैं. उनकी लोकप्रियता का चार्ट तथाकथित शीला और मुन्नी की तरह टेम्परेरी नहीं है. उनकी पहुँच ग्लोबल है. वे जब भी मंच पर होती हैं, तब संगीत से नफ़रत करनेवाला भी थिरकने के मूड में आ जाता है. वे जब परफ़ॉर्म करने मंच पर जाती हैं, तब अपनी जुबान और दिमाग ही नहीं, पूरी देह की भाषा का इस्तेमाल करती हैं.
देह को एक मंदिर समझें
शकीरा की पूरी दिनचर्या का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण समय अपनी देह की तरफ ध्यान रखने और उसकी चाकरी में बीतता है. बात किस्म किस्म के एक्सरसाइज़ की हो या कड़ाई से पालन किये जाने वाले डायट प्लान को लागू करने की, शकीरा उसमें रत्तीभर भी हेरफेर नहीं होने देती.कभी भी कोई भी दिन ऐसा नहीं होता, जब शकीरा ने अपने डेली वर्क आउट को मिस किया हो. वे भरपूर सलाद खाती हैं, हरी पत्तेदार सब्जियां, वसामुक्त भोजन करती हैं. धूम्रपान, मिठाई-चोकलेट और मांसाहार से दूर रहती हैं. शाकाहार उनकी प्राथमिकता है. वे शराब नहीं पीतीं, यहाँ तक कि कैफीनयुक्त काफी से भी परहेज़ रखती हैं. हमेशा वक्त पर सोना (कार्यक्रमों के अलावा) उनकी आदत है. उनके वर्कआउट में शरीर के हर हिस्से की कसरत शामिल है.
काम के प्रति पूर्ण समर्पण
शकीरा अपने काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहती हैं. इतना ही नहीं, वे अपनी कला के हर क्षण को जीती भी हैं. बात चाहे गीत लिखने की हो या गाने की, उसके वीडियो के डायरेक्शन की हो, या संपादन की, नृत्य संयोजन हो या पोस्ट प्रोडक्शन वे उसमें डूबकर काम करती हैं. उन्हें क्या पहनना है, क्या नहीं पहनना और कैसा मेकअप करना है, कब, कितनी, किस किस के साथ रिहर्सल करना है, जैसी हर बात में दखल और ध्यान रखती हैं. हर हर उनके बारे में मीडिया में अनेक सच्ची- झूठी कहानियां छपती हैं, लेकिन वे उनके प्रति अलग व्यवहार रखती है और कभी भी अपना आपा नहीं खोती.
पूर्णता में यकीन
34 साल की शकीरा 26 साल से गाना गा और डांस कर रही हैं. ईश्वर ने उन्हें फुरसत में बनाया होगा, पर अपने काम को अंजाम देने के लिए उन्हें वक़्त की कमी रहती है, वे जो भी काम करती हैं, पूरे मनोयोग और बिंदास तरीके से. आमिर खान की तरह वे भी परफैक्शन की दीवानी हैं. इसके लिए उन्हें डायरेक्टर के काम में हस्तक्षेप करना पड़े, तो भी करती है. खुद गाना लिखना हो, दूसरी भाषा सीखना हो, संगीतकार की मदद करनी हो, हर काम कर डालती हैं और पूरी मनोयोग से. उन्हें दिलजोई के लिए गाना गवारा नहीं, वे मासेस के लिए गाती और संगीत में ही जीती हैं. चाहे वे फोक डांस कर रही हों या बेली डांस, दुनिया के किसी भी कोने में गा रही हों, उनका परफेक्शन का प्रयास एक समान रहता है. कुछ साल पहले शकीरा को लगा कि वे कुछ मोटी हो गई हैं तो उन्होंने कड़ी मेहनत करके अपना वज़न काम करके ही दम लिया.
बेबाकी से अपनी राय रखें
दुनिया में बहुत से लोग हैं जो बातों को चाशनी में लपेटकर कहते हैं, लेकिन शकीरा ने जो भी कहा, बेबाकी से कहा. जो कुछ भी किया, बेख़ौफ़ किया. उन्होंने खुले आम कहा कि मैं बगैर मेकअप के कहीं भी नहीं निकलती, क्योंकि मैं एक औरत हूँ. उन्होंने कभी भी खुद को अमेरिकी बताने की कोशिश नहीं की, क्योंकि वे कोलंबियाई हैं. अपने स्पैनिश और अंग्रेज़ी के लहजे पर उन्होंने कभी कोई झिझक महसूस नहीं की. उनका कहना है कि सुन्दर झूठ की जगह कुरूप सच्चाई ज्यादा महत्वपूर्ण है. अपनी निजी ज़िन्दगी के बारे में भी उन्होंने कभी भी कुछ छिपाने की कोशिश नहीं की. वे कहती हैं कि मेरी ज़िन्दगी पानी से भरे कांच के गिलास जैसी है, पूरी तरह से पारदर्शी. एंटोनियो डे ला रुआ के साथ उनके संबंधों के बारे में भी उन्होंने नहीं छुपाया और जब वे उनसे अलग हुई, तब भी नहीं.
सिर्फ़ धन ही महत्वपूर्ण नहीं
शकीरा की आय के स्रोतों में लाइव शो, फ़िल्म, रेकोर्ड-अलबम की बिक्री और डाउन लोड, अपने नाम के उत्पादनों के कारोबार, विज्ञापन आदि तो हैं ही, वे निजी समारोहों में भी धन लेकर नाचती है. वे इससे कितना कमाती है, इसका अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि एक शादी में शो के लिए उन्होंने एक करोड़ यूरो फीस ली थी( तव एक यूरो 63 रुपये का था, यही भारतीय मुद्रा में 63 करोड़ रुपये के बराबर).इसके विपरीत वे अपने देश में लाखों लोगों के लिए होनेवाले शो में टिकिट नहीं लगाने देतीं, हर साल लाखों डॉलर का दान देती हैं कहीं स्कूल के लिए, तो कहीं स्वास्थ्य सेवा के लिए. शकीरा ने अपनी बुद्धि का भी लोहा मनवा रखा है. वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अतिथि वक्ता के रूप में भी भाषण दे चुकी हैं जहाँ मदर टेरेसा और दलाई लामा भाषण दे चुके हैं. भाषण के दौरान शकीरा ने कहा, "मैं चाहती हूं कि 2060 के युवा हमें किस प्रकार देखें: विश्व शांति स्थापित करने के हमारे मिशन में अफगानिस्तान में 30,000 सैनिकों के बदले 30,000 शिक्षकों को भेजा जाना निहित है ''.

प्रकाश हिन्दुस्तानी


(दैनिक हिन्दुस्तान 13/11/2011 को प्रकाशित)

Sunday, November 06, 2011

बिरले को मिलती है ऐसी कामयाबी

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज (6नवंबर 2011) पर मेरा कॉलम



अर्जुन की आँखोंवाले अभिनव बिंद्रा
लेफ्टिनेंट कर्नल के मानद पद से सम्मानित अभिनव बिंद्रा प्रथम भारतीय हैं जिन्होंने 112 साल के ओलिम्पिक इतिहास में व्यक्तिगत श्रेणी में पहला स्वर्ण पदक जीता. वे अब तक तीन ओलिम्पिक में निशानेबाजी आजमा चुके हैं और अब लन्दन में होनेवाले ओलिम्पिक की तैयारी में जुटे हैं. उन्हें अपनी 'तथाकथित प्रतिभा' का दंभ नहीं है और वे सहजता से कह देते हैं हैं कि मैं साधारण खिलाड़ी हूँ, लेकिन मैंने अपनी लगन, मेहनत, निष्ठा और योजनाबद्ध प्रयासों से लक्ष्य को पा लिया है. अगर मैं यह कर सकता हूँ तो आप भी अपने लक्ष्य पा सकते हैं. वे 18 की उम्र में अर्जुन अवार्ड पा चुके हैं, १९ की उम्र में राजीव गाँधी खेल रत्न पा चुके हैं. वे 29 के हैं और उन्हें पद्मभूषण मिल चुका है, उनकी आत्मकथा बाज़ार में छपकर आ चुकी है और वे लाखों युवकों के लिए प्रेरणा के केंद्र हैं. बचपन में 11 साल की उम्र तक खेलों से नफ़रत करनेवाले और फिर निशानेबाजी में स्वर्पदक पानेवाले अभिनव बिंद्रा की सफलता के कुछ सूत्र :
खेल से नफ़रत मत करो
अभिनव ने 11 साल की उम्र तक कोई खेल नहीं खेला. यहाँ तक कि उन्हें खेलों से नफ़रत थी, लेकिन दून स्कूल के होस्टल में उन्हें हर दूसरे दिन पिता मंजीत सिंह की चिट्ठी मिलती, जिसमें लिखा होता कि बेटा, अगर पढ़ाई में मन न लगे तो कोई बात नहीं, लेकिन खेलों की अनदेखी मत करना. अभिनव ने टेनिस में आजमाइश की, पर जमा नहीं, गोल्फ पर भी हाथ आजमाया, लेकिन वहां भी मज़ा नहीं आया. अभिनव के पिता की घर के पिछवाड़े में इंडोर शूटिंग रेंज थी, जहाँ उनके पिता के दोस्त लेफ्टिनेंट कर्नल जेएस ढिल्लों ने उनकी संभावनाओं को खोजा. वे ही उनके पहले कोच बने और फिर उनकी प्रतिभा को संवारा डॉ अमित भट्टाचार्य ने, वे आज भी अभिनव के साथ पूरी दुनिया में जाते हैं. केवल 16 साल से भी कम की उम्र में वे कामनवेल्थ गेम्स में अपना निशाना आजमा चुके थे. 2000 के ओलिम्पिक में उन्हें 590 अंक मिले थे और वे ग्यारहवे नंबर पर थे. वे क्वालिफाय नहीं कर पाए क्योंकि शुरू के आठ में नहीं थे, लेकिन बाद में उन्होंने जो कुछ पाया, वह इतिहास है.
उतार-चढ़ाव में रखें हिम्मत
ओलिम्पिक में क्वालिफाय न कर पाना दिल तोड़ने वाली घड़ी थी, लेकिन अभिनव ने अगले ही साल विभिन्न अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में छह स्वर्ण पदक बटोरे. उन्हें इसी साल देश का सबसे बड़ा खेल सम्मान राजीव गाँधी खेल रत्न मिला. 2002 के कामनवेल्थ खेलों में युगल श्रेणी में स्वर्ण और सिंगल्स में रजत पदक जीता. 2004 के एथेंस ओलिम्पिक के लिए उन्होंने जी-जान लगा दी थी, और क्वालिफाइंग राउंड में 597 का स्कोर लाकर वे तीसरे स्थान पर पहुंचे थे, लेकिन फायनल में वे पिछड़कर सातवें पायदान पर जा पहुंचे. एथेंस ओलंपिक के फाइनल में पहुंचने के बाद पदक नहीं मिलने पर वे टूट गए थे। निराशा में उन्होंने यहां तक कहा कि वह कभी टेलेंटेड शूटर नहीं रहे। लेकिन फिर अपने आप को सहेजा और हिम्मत के साथ जुट गए. उनके अभिभावक, मित्र, कोच सभी उनके साथ थे ही.
कड़ी मेहनत भी प्रतिभा है
अभिनव बिंद्रा का विचार है कि कड़ी मेहनत करना भी प्रतिभाशाली होने का लक्षण है. कड़ी मेहनत कोई भी कर सकता है और कामयाबी पा सकता है. सफल होने का सबसे सरल फार्मूला है कड़ी मेहनत करना. लेकिन योजना बनाकर कड़ी मेहनत करने के और भी अच्छे परिणाम हो सकते हैं. अभिनव बिंद्रा ने अपनी कामयाबी का ब्ल्यू प्रिंट बनाया, उसमें निशाना था बीजिंग में होनेवाले ओलिम्पिक खेल. लक्ष्य आसान नहीं था, और इसी बीच वे चोटग्रस्त हो गए. लेकिन हिम्मत नहीं हारी. लक्ष्य पर निगाहें ऐसे ही थीं जैसी अर्जुन की रही होंगी. उन्होंने फिजीकल और मेंटल ट्रेनिंग सहित सभी पहलुओं को चुनौती के रूप में लिया। कभी वे खुद सोचते कि खेल में आप हमेशा नहीं जीत सकते, लेकिन अगले ही पल मन में संकल्प करते कि हर खेल जीतने के लिए ही होता है, हर स्वर्ण पदक पर किसी न किसी का नाम लिखा ही होता है, तो मेरा नाम क्यों नहीं? उन्हें यह बात कचोटती कि ओलिम्पिक खेलों में भारत को कोई भी स्वर्ण पदक क्यों नहीं मिला? उन्होंने खेल और जीवन में संतुलन बनाये रखा और वह हर तरीका अपनाया जिससे उनकी जीत की संभावना प्रबल होती.
पराजय से नफ़रत
अभिनव बिंद्रा को पराजय से नफ़रत हो गयी थी और इसने उन्हें स्वर्ण पदक दिलाने में प्रमुख भूमिका निभायी थी. बीजिंग ओलिम्पिक में भाग लेते वक़्त यह बात उन्हें बिलकुल नहीं जम रही थी कि हमें खेलने में विश्वास करना है, जीत-हार तो लगी रहती है. जीतें या हारें, खेलना लक्ष्य रहे, यह तर्क उन्हें बेमानी लग रहा था, खेल में सर्वोच्च शिखर को छूना ही लक्ष्य होना चाहिए. ओलिम्पिक में दस मीटर एयर रायफल शूटिंग में क्वालिफाइंग राउंड में चौथे स्थान पर थे, लेकिन अंतिम राउंड के बाद वे सबसे आगे थे. 1980 में मास्को ओलिम्पिक के बाद भारत ने यह पहला गोल्ड मैडल जीता था और ओलिम्पिक इतिहास में यह किसी एक भारतीय खिलाड़ी का जीता पहला स्वर्ण पदक. उन्हें पुरस्कार के रूप में तीन करोड़ से भी ज्यादा नकद मिले थे.
सही मार्गदर्शन का महत्व
बिना उचित मार्गदर्शन के सफलता आसान नहीं होती. हालाँकि अभिनव संपन्न परिवार के हैं और पंजाब में उनके अपने घर में ही निजी शूटिंग रेंज भी है, लेकिन उनके पहले कोच लेफ्टिनेंट कर्नल ढिल्लों और डॉ अमित भट्टाचार्य के सहयोग के बिना वे आज यह मुकाम नहीं पा सकते थे. वे हमेशा अपने कोच और परिवार का आभार मानते हैं और उनके लिए दुआएं करते हैं. डॉ भट्टाचार्य साए की तरह उनके साथ हर टूर्नामेंट में जाते हैं चाहे सिडनी हो या एथेंस, बीजिंग हो या मोंट्रियल. वास्तव में भट्टाचार्य उनके मेंटल ट्रेनर हैं और जब अभिनव 13 साल के थे, तब से ही वे हर वक्त उनके साथ जाते हैं और उन्हें समझाइश देते रहते हैं कि वे अपने मनोबल को कैसे बनाये रखें. अभिनव बिंद्रा की वर्तमान कोच स्विट्ज़रलैंड की गेब्रियला बुह्लमन हैं जो 1988 से 2004 के पाँच ओलिम्पिक खेलों में शूटिंग स्पर्धाओं में जा चुकी हैं.
प्रतिस्पर्धी का सम्मान करें
श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कहा था कि विजयी को विनयी रहना चाहिए. इसे अभिनव नारंग ने पूरी तरह आत्मसात कर लिया है. वे शूटिंग रेंज में भी अपने स्पर्धी को पूरा सम्मान देते हैं और उसका मनोबल बनाये रखने का प्रयास करते हैं. यहाँ तक कि ओलिम्पिक खेलों में भी वे अपने प्रतिस्पर्धियों का हौसला बढ़ते नज़र आये. उनका मानना है कि हर खिलाड़ी हमेशा ही जीते, यह संभव नहीं, लेकिन अगर उसका हौसला बरकरार रहे हो उसके लिए अगली जीत का मार्ग आसान हो सकता है.
समाज को वापस लौटाएं
आप इस समाज के अंग हैं और अगर आप इससे केवल लेते ही रहेंगे तो कम कैसे चलेगा? अभिनव बिंद्रा की कोशिश रहती है कि इस समाज से उन्हें जो कुछ भी मिल रहा हैं, वह वापस लौटाते जाएँ. वे नए खिलाड़ियों को सिखाते हैं कि अभ्यास, निरंतर अभ्यास और कड़ा अभ्यास ही सबसे बड़ी प्रतिभा है. इसके लिए वे युवा खिलाड़ियों को संसाधन मुहैया करा रहे हैं. वे खुद अगले साल होनेवाले लन्दन ओलिम्पिक की तैयारी में जुटे हैं और अपने से युवा खिलाड़ियों को मार्गदर्शन भी दे रहे हैं. खेल संगठनों के कामकाज को वे सुधारना चाहते हैं और इस बारे में निडर होकर अपनी बात भी कहते हैं. मैंने व्यक्तिगत रूप से पहला स्वर्ण पदक जीता है, लेकिन और भी स्वर्ण पदक हमें जीतने हैं.
प्रकाश हिन्दुस्तानी


दैनिक हिन्दुस्तान (6 नवंबर 2011) के अंक में प्रकाशित