Sunday, July 31, 2011

सामाजिक सरोकार की कामयाबी


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सामाजिक सरोकार की कामयाबी


इस साल का मैग्सेसे अवार्ड पानेवालों में डॉ हरीश हांडे भी हैं जो सेल्को इण्डिया नामक कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. पेशे से इंजीनियर डॉ हांडे ने आईआईटी से इंजीनियरिंग की डिग्री ली और फिर यूएस के मसाच्चुसेट विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट पायी. लेकिन दूसरे आईआईटी विद्यार्थियों की तरह उन्होंने विदेश में बस जाने की जगह यहीं रहकर कुछ अलग करने की ठानी. उन्होंने सोचा कि इतनी पढ़ाई का क्या मतलब अगर उसका फायदा हमारे अपने लोगों को नहीं मिले. 1995 में उन्होंने सोलर इलेक्ट्रिक लाइट कंपनी (सेल्को) बनाई. और भारत के ही दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में लोगों के घर जगमगाने में जुट गए. उनकी कंपनी अभी तक करीब सवा लाख लोगों को सौर ऊर्जा से बिजली उपलब्ध करा रहे हैं. सौर ऊर्जा से ही किसान अपने खेतों की सब्जियां और फलों को सुखाकर डिब्बाबंद कर रहे हैं और अपनी आय बढ़ा रहे हैं. उनकी कंपनी की 25 शाखाएं हैं जिनमें करीब दो सौ कर्मचारी काम कर रहे हैं.उनकी परियोजना से सैकड़ों बच्चों को पढ़ाई के वक्त रोशनी मिल पा रही है और बंगलुरु के पास गुलाब की खेती करनेवाले किसानों को अलसुबह अँधेरे में गुलाब एकत्र करने में सुविधा हो रही है क्योंकि सेल्को ने ऐसे सोलर लैम्प बनाये हैं जिन्हें टोप की तरह पहना जा सकता है. डॉ हरीश हांडे ने अपनी सफलता की नयी इबारत लिखी है, उनकी सफलता के कुछ सूत्र :

कारोबार के नए नियम
डॉ हरीश हांडे ने कई लोगों के इस भ्रम को तोड़ दिया जो मानते थे कि सौर ऊर्जा जैसी टेक्नोलाजी आम लोगों के लिए नहीं होती है. उन्होंने इसे भी गलत साबित कर दिया कि आम लोग ऐसी टेक्नोलाजी को मेंटेन नहीं कर सकते. उनकी योजनाओं से जुड़े आम लोग ही उनके काम की असली पहचान बन गए हैं. शहरों और कस्बों से दूर बसे गाँवों में भी लोग उनकी कंपनी की योजनाओं का लाभ ले रहे हैं. सौर ऊर्जा की रोशनी के लिए लगे हजारों रुपये के पैनल्स के लिए साधारण लोग ना केवल भुगतान कर रहे हैं, बल्कि उसके मेंटेनेंस का भी ख्याल रख रहे हैं. उन्होंने इसे समझा कि छोटे से छोटे उपभोक्ता के लिए तीन बातें बहुत मायने रखती हैं : (1) टेक्नॉलॉजी (2) वित्तीय व्यवस्था और (3) बिक्री के बाद की सेवा.

डिग्री अचार डालने के लिए नहीं
डॉ हरीश हांडे ने दुनिया के नामी शिक्षण संस्थानों से डिग्री हासिल की और इस बात को समझा कि ये कोई आचार डालने के लिए नहीं, लोगों की मदद के लिए है. आईआईटी के दिनों में ही उन्होंने तय कर लिया था कि अब वे जो कुछ भी करेंगे उसमें गाँवों के लोगों को फायदा होना ही चाहिए. उन्हें इस बात का अहसास था कि वे भी विदेश जाकर लाखों की नौकरी पा सकते हैं और विलासितापूर्ण जीवन जी सकते हैं, लेकिन उनके ज़मीर ने कहा कि उन्हें कोई सार्थक काम करना है. साधु बनना उनका लक्ष्य नहीं था लेकिन उचित भाव से सेवा करना लक्ष्य ज़रूर रहा.

सामाजिक उपक्रम से मुनाफा
अब तक यही समझा जाता रहा है कि अगर कोई उपक्रम सामाजिक मकसद से शुरू किया जाता है तो उसमें घाटा ही घाटा होता है. उन्होंने लोगों को सोचने पर विवश कर दिया कि ऐसा हर बार हो यह जरूरी नहीं. अगर सोच समझकर काम किया जाए, लोगों को इसमें शामिल किया जाए और वे ऐसे उपक्रमों से लाभान्वित हों तो सामाजिक उपक्रम में भी सभी के लिए लाभ का सौदा हो सकते हैं. इस लाभ में सभी की भागीदारी होगी. सेल्को की सारी योजनायें ही इस तरह से बनाई गई थी कि उसमें पैसा डूबने की गुंजाइश नहीं रहे.

पवित्र उद्देश्य का महत्व
अगर आप कोई भी काम पवित्र उद्देश्य से कर रहे हैं तो पीछे ना हटें, हतोत्साह से बचें, क्योंकि पवित्र उद्देश्य को लेकर काम शुरू करनेवाले लोगों की मदद करने भी लोग आ ही जाते हैं. हरीश हांडे ने जब सेल्को की स्थापन की थी तब उनके पास कोई पूंजी नहीं थी, लेकिन साल भर बाद ऐसा नहीं था. उनकी मदद के लिए विनरॉक इंटरनेशनल नाम की संस्था सामने आयी और उन्हें कुछ शर्तों के साथ 150,000 डॉलर का क़र्ज़ मुहैय्या करा दिया, जिसे सेल्को ने चार साल में ही लौटा दिया. आज उनकी कंपनी में पूंजी लगाने के लिए वैश्विक कम्पनियाँ सौ करोड़ रुपये तक का निवेश करने को तैयार हैं.

नि:शुल्क में भी शुल्क है
डॉ. हरीश हांडे की कंपनी की कई सुविधाएँ नि:शुल्क लगती है, लेकिन ऐसा नहीं है. वे कोई भी सुविधा नि:शुल्क उपलब्ध नहीं करा रहे, बल्कि शुल्क वसूल कर रहे हैं. वे अपने सौर ऊर्जा के ग्राहकों से केवल 25 प्रतिशत शुल्क एडवांस में लेते हैं. कई ग्राहक इतनी राशि देने में भी सक्षम नहीं हैं, उन्हें सरकारी क्षेत्र और ग्रामीण सहकारी बैंकों से कम ब्याज दर पर कर्ज उपलब्ध कराते हैं. सरकारी योजनाओं में उनके ग्राहकों को जो भी सब्सिडी मिलती है,वह उनके उपभोक्ताओं तक पहुँचती है.

बिक्री बाद की सेवा
किसी भी सामान की बिक्री के बाद की सेवा केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही दायित्व नहीं है,डॉ. हरीश हांडे ने इस बात को समझते थे. उन्होंने सौर ऊर्जा के क्षेत्र में आनेवाली इस समस्या का ध्यान रखा कि किस तरह की परेशानियों का सामना ग्राहकों को करना पड़ता है. उन्होंने बिक्री बाद की सेवा के लिए कंपनी में अलग से टीम बनाई और अपने तमाम ग्राहकों से सीधे संपर्क बनकर उन्हें आश्वस्त किया कि वैकल्पिक ऊर्जा अपनाने में उन्हें किसी भी तरह की कोई दिक्कत नहीं होने दी जाएगी.

टेक्नॉलॉजी की ज़रुरत
सेल्को जो काम कर रही है, वही काम देश भर में अनेक संस्थाएं कर रही हैं, लेकिन वे आम जानता का भला नहीं कर रही क्योंकि उनमें से ज़्यादातर भ्रस्टाचार करने के लिए ही बनाई गयी है. सेल्को ने हमेशा इस बात का खयाल रखा कि सौर ऊर्जा केवल बत्ती जलने के लिए नहीं, और भी कई कामों के लिए उपयोग में लाई जा सकती है. उनकी कंपनी सौर ऊर्जा से खाना पकाने, घर को ठंडा रखने, सब्जियों और फलों को सुखाकर स्टोर करने, दो लाख लीटर तक पानी को गरम करने जैसे कामों के लिए ग्राहकों की ज़रुरत के अनुसार उपकरण बनाती और वित्तीय प्रबंधन का कार्य कर रही है

असली कामयाबी का इंतज़ार
डॉ हरीश हांडे को मिले सम्मानों की फेहरिस्त काफी लम्बी है. उन्हें प्रिंस चार्ल्स से लेकर ओबामा तक सम्मानित कर चुके हैं. उन्हें भारत के उन पचास लोगों में गिना गया है जो एक नए भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण रोल निभा रहे हैं, वे अपने कार्य को विकेन्द्रित और ग्राहकोन्मुख बनाने के काम में जुटे हैं. उनका कहना है कि अभी हमें केवल कर्णाटक और गुजरात में ही काम करने का मौका मिला है, हम यह कार्य पूरे देश में फैलाना चहेते हैं. जब हर गाँव में हमारी सेवा पहुँच जाएगी, तभी हम अपने आप को कामयाब पाएंगे.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान 31 july 2011

Sunday, July 24, 2011

संघर्ष से थामा कामयाबी का दामन

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संघर्ष से थामा कामयाबी का दामन

सेलेब्रिटी के रूप में फ़िल्म स्टार, खिलाड़ी, नेता, उद्योगपति, सामाजिक कार्यकर्ता आदि को तो सभी जानते हैं, लेकिन कोई किसान भी किसी देश में सेलेब्रिटी माना जाने लगे, यह अनोखा काम हरचावरी सिंह चीमा ने कर दिखाया है. उन्होंने यह बात भी गलत साबित कर दी कि ग्लोबल इंडियन केवल आईटी, मैनेजमेंट या फाइनेंस के क्षेत्र में ही मशहूर हो सकते हैं. वे किसान परिवार के है और अब भी मूल रूप से किसान ही हैं. उन्होंने किसान के रूप में ही दौलत और सम्मान हासिल किया और वह भी अफ्रीकी देश घाना में. वे ४० साल पहले अमृतसर से विस्थापित हुए थे. उन्होंने अपनी लगन, मेहनत और दृढ़ता से भारत का नाम रोशन किया. उन्होंने यह मिथक भी तोड़ा कि बड़ा उद्यमी, नेता, अभिनेता या खिलाड़ी बनकर ही भारत का नाम रोशन किया जा सकता है. उन्होंने वहां सुपर मार्केट के मैनेजर के रूप में अपना करीयर शुरू किया था और अब वे घाना के जानेमाने किसानों में से हैं. घाना के राष्ट्रपति उन्हें दो बार सर्वश्रेष्ठ किसान के रूप में सम्मानित कर चुके हैं. कहते हैं कि सिख कौम मेहनती और बहादुर होती है और इसके लोग दुनिया में कहीं भी जाएँ, अपनी मुकम्मल जगह बना ही लेते है. हरचावरी सिंह चीमा की गिनती सफलतम अनिवासी भारतीयों में होती है. हर्चावरी चीमा की सफलता के कुछ सूत्र :
सारे मिथक तोड़ो
हरचावरी सिंह चीमा ने अपनी कामयाबी की दास्तान स्याही से नहीं, पसीने से लिखी है. सारे मिथक तोड़ते हुए वे आगे बढ़ते ही रहे. यूएसए, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि देशों में तो हर कोई जाना चाहता है, लेकिन वे पहुँच गए पश्चिमी अफ्रीका के देश घाना. अनुभव के नाम पर मुंबई की कपड़ा मिल में मज़दूरी का अनुभव था और परिवार खेती किसानी करता था. न कोई बड़ी पूंजी, न कोई रहनुमा, न कोई आईआईएम या आईआईटी की डिग्री. वे कामयाबी की सभी सीढ़ियाँ अपनी मेहनत से चढ़ते चले गए, बिना किसी की मदद के, बिना पूर्व नियोजित लक्ष्यों के.उन्होंने अपनी नयी मंजिल खुद तय की और वहां तक पहुंचे. दुनिया में सभी जगहें अच्छी हैं और ईमानदारी से काम करो तो कामयाबी मिलटी ही है, यही उनका दर्शन रहा.
मूल धंधा मत छोड़ो
हरचावरी सिंह चीमा चालीस साल पहले घाना गए तो थे एक सुपर मार्केट शृंखला के मैनेजर बनकर लेकिन जब वहां मंदी का दौर आया और वह सुपर मार्केट बंद हो गया जहाँ वे नौकरी करते थे. उन्होंने घाना छोड़कर वापस भारत आने के बजाय वहीँ रहने का फैसला किया और खुद का व्यवसाय शुरू करने की सोची. उन्होंने पोल्ट्री फार्म खोला लेकिन उसमें कोई खास कमाई नहीं हुई. अनेक किस्म की परेशानियों के कारण उन्हें मज़बूरन वह व्यवसाय बंद करना पड़ा. घाना जाने के पहले वे मुंबई में एक कपड़ा मिल में काम कर चुके थे, और उन्हें लगा कि अगर कपड़ा बनाने का व्यवसाय शुरू किया जाए तो शायद कामयाबी मिले. उन्होंने एक छोटी सी मेन्युफेक्चरिंग यूनिट खोली लेकिन वहां भी नाकामी ही हाथ लगी. हाल यह था कि उन्हें अपने परिवार के खाने के लिए खुद मक्का की फसल लेनी पड़ती थी. उन्हें लगा कि किसान परिवार का होने के नाते उन्हें खेती को ही अपनाना चाहिए और खेती ही उनका भाग्य बना सकती है. लेकिन वहां भी खेती बारिश पर निर्भर थी और किसानों तक को खाने के लाले पड़ रहे थे. हिम्मत नहीं हारते हुए उन्होंने खेती में अनेक प्रयोग किये. यह महसूस किया कि अगर सब्जियों की पैदावार की जाये और उन्हें यूरोप निर्यात किया जाए तो अच्छी आय हो सकती है. उन्होंने वही किया और कामयाब हुए.
हर काम में विशिष्टता हो
हरचावरी सिंह चीमा का काम करने का अंदाज़ अलग है. घाना में वैसे तो हजारों किसान हैं जो रोज़मर्रा में संघर्ष कर रहे हैं लेकिन चीमा ने अलग राह पकड़ी. उन्होंने शोध किया कि वे घाना में कौन कौन सी फसलें ले सकते हैं और क्या क्या निर्यात कर सकते हैं. उन्होंने 25 तरह की सब्जियों के निर्यात की संभावनाएं खोजी, उनका उत्पादन और निर्यात शुरू किया. वे घाना से यूरोप के देशों को हजारों टन सब्जियां निर्यात कर रहे हैं, जिससे घाना को विदेशी मुद्रा मिल रही है और चीमा को अच्छी कमाई. सब्जियों के उत्पादन और निर्यात के बाद उन्होंने अनाज का उत्पादन शुरू किया और आधुनिक तकनीक अपनाकर अधिक से अधिक उत्पादन शुरू किया. घाना के राष्ट्रपति उन्हें दो बार सम्म्मानित कर चुके हैं.
पूरी मज़दूरी दो, पूरा टैक्स भरो
मज़दूरों को उनका पसीना सूखने से पहले पूरी मज़दूरी मिल जानी चाहिए और सरकार को वक़्त के पहले उसका टैक्स. अगर इस पर अमल हो जाये तो तनाव से तो बचा ही जा सकता है, लोकप्रियता भी पाई जा सकती है. इस व्यवहार से हरचावरी सिंह चीमा अपने मज़दूरों में विवादों से दूर रहते हैं और पसंद किये जाते हैं. सरकारी अफसरों को लगता है कि अगर टैक्स वक़्त पर मिल जाये तो उनका काम आसान हो जाता है. कभी भी मज़दूरों की तरफ से उनकी कोई शिकायत किसी को नहीं मिली. इसका एक और फायदा यह है कि उन्हें जब भी मज़दूरों की ज़रुरत पड़ती, वे उपलब्ध हो जाते हैं. खेती में मजदूरों की उपलब्धता बहुत मायने रखती है.
सारी दुनिया अपना घर
जब हरचावरी सिंह चीमा की नौकरी चली गयी, तब कई लोगों ने उन्हें सलाह दे डाली थी कि अब उन्हें वापस भारत लौट जाना चाहिए. लेकिन उन्होंने इस सुझाव को नहीं माना. उन्होंने अपना घर बदला ज़रूर लेकिन घाना में ही. घाना की राजधानी के घर से वे उपनगर में गए और फिर वहां से बाहरी इलाके में. उनका कहना था कि घाना के लोग बहुत अच्छे हैं और उन्हें कभी भी उनसे कोई दिक्कत नहीं हुई, ऐसे में वे घाना क्यों छोड़ें? वे कहते हैं कि हो सकता है कि मैं कनाडा या यू एस में ज्यादा दौलत कमा लेता लेकिन मेरे लिए सारी दुनिया ही घर है. मैं यहाँ भी जिअतना धन कमा रहा हूँ, मेरे और मेरे परिवार के लिए काफी है.
किसान से उद्यमी
हरचावरी सिंह चीमा आज घाना के नंबर वन किसान हैं जो खाद्यान्न और सब्जियां उत्पादित करते हैं. उनका कहाँ है कि अब नंबर वन के आगे मैं इस क्षेत्र में कहाँ जा सकता हूँ? बेहतर है कि मैं अपने काम को विस्तार दूं. इसी इअरेड से उन्होंने अब पैकेजिंग इंडस्ट्री में कदम रखा है और अपने कारोबार को विस्तार देने में जुटे हैं. उनकी परियोजनों को देखकर दुनिया भर के अनेक उद्यमी घाना में निवेश करने जा रहे हैं और वे मानते हैं कि घाना का विकास सभी के लिए अच्छा रहेगा. वे किसान से आएग बढ़कर कुछ करना चाहते हैं, घाना के लिए भी और अमृतसर के लिए भी.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान 24 july2011

Saturday, July 16, 2011

कामयाबी के लिए मौलिकता ज़रूरी

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज पर मेरा कॉलम


अब सोनू निगम और ब्रिटनी स्पिअर्स की जोड़ी 'आई वान्ना गो' के रिमिक्स में देखने को मिलेगी. पार्श्व गायक, अभिनेता, रेडियो और टीवी कार्यक्रम प्रस्तोता, स्टेज आर्टिस्ट और संगीतकार सोनू निगम इसके पहले माइकल जेक्सन के भाई के साथ आइफा के आयोजन में प्रस्तुति दे चुके हैं. 38 साल के सोनू 35 साल से गाने गा रहे हैं. तीन साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता श्री अगम निगम के साथ एक मंच पर फ़िल्म 'हम किसी से कम नहीं' का मो. रफ़ी का गाना 'क्या हुआ तेरा वादा...' गया था और उसके बाद गायन से उनका रिश्ता अटूट हो गया. 35 साल के गायन में उन्होंने हिंदी के साथ ही अंग्रेज़ी,नेपाली, मराठी, पंजाबी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, बांग्ला, कन्नड़, भोजपुरी और छत्तीसगढ़ी फिल्मों में भी गाने गाये हैं और दुनिया के लगभग सभी प्रमुख शहरों में स्टेज शो किये हैं. ब्याह-शादी के आयोजनों और होटलों में गायन से शुरुआत करनेवाले सोनू निगम को कामयाबी आसानी से नहीं मिली. सोनू निगम की सफलता के कुछ सूत्र :

कोई मजबूरी स्थायी नहीं
सोनू निगम के घर के हालात बुरे नहीं थे लेकिन आगे बढ़ने की जिद ने सोनू निगम से कई तरह के काम करवाए. सोनू निगम के पिता मंच के कलाकार थे और तीन साल की उम्र में ही उन्होंने पिता के साथ मंच पर आमद दर्ज करा ली थी. उनका लक्ष्य गायन के क्षेत्र में नाम कमाना था वे उनके स्कूल जाने और खेलने के दिन थे लेकिन उन्हें होटलों और शादी ब्याह में मंच की शोभा बढ़ाना पड़ रही थी. उनके पिता और वे जानते थे कि मज़बूरी का यह दौर ख़त्म होगा और हुआ भी. वे हर दिन कुछ न कुछ नया करने के लिए जुटे रहे और असफलताओं को पार करते हुए खुद का मुकाम बनने में कामयाब रहे. उनका संकल्प यही था कि कोई भी काम अगर मज़बूरी में किया जा रहा है या करना पड़ रहा है तो वह दौर कभी भी स्थायी नहीं हो सकता.

हर भूमिका में सर्वश्रेष्ठ
सोनू निगम ने हर तरह की भूमिकाओं को अपने सर्वश्रेष्ठ के साथ जीया है. बाल गायक के रूप में जब उन्होंने गायन स्पर्धाओं में जाना शुरू किया तब लगभग हर बार उन्हें ही पुरस्कार मिलता. स्पर्धा आयोजकों ने उन्हें बाल गायक कलाकार की सूची से ही बाहर कर दिया और उन्हें वयस्क गायकों की सूची में दाल दिया. वहां भी वे जीतते गए तो उन पर रोक लगाने के लिए उन्हें ही स्पर्धाओं का जज बनाया जाने लगा. जब वे अपने पिता के साथ मुंबई शिफ्ट हुए और फिल्मों में बाल कलाकार के रूप में काम मिला तो उन्होंने पांच फिल्मों में भूमिकाएं की. जब उन्होंने टी सीरीज के लिए कवर वर्जन गाये तब वे भी बेहतरीन थे और पार्श्व गायन में 'संदेसे आते हैं', 'साथिया...', कल हो न हो'. 'पंछी नदिया..', 'सूरज हुआ मद्धम..'के लिए सर्वश्रेष्ठ पुरुष गायक का फ़िल्मफेयर अवार्ड मिल चुका है. राष्ट्रीय फ़िल्म अवार्ड, जी सिने, आईफा, स्टार स्क्रीन आदि अनेक देशी-विदेशी अवार्ड उनकी झोली में हैं. उन्होंने जो भी किया अपना सर्वश्रेष्ठ करने की कोशिश के साथ.

नकलची ना बनें

सोनू निगम के पिता मो. रफ़ी के भक्त होने की हद तक प्रशंसक थे. वे रफ़ी साहब के नग्मे खूब गाते थे. सोनू ने भी गायन की शुरुआत रफ़ी के नग्मे से ही की थी. हर जगह सोनू रफ़ी के नग्मे गाते. लोग उन्हें दूसरा रफ़ी कहने लगे. 31 जुलाई 1980 को रफ़ी साहब का इंतकाल हो गया और उस दौर में कवर वर्जन खूब चल पड़े थे, जो असली अलबम से काफी सस्ते और सर्वसुलभ थे. टी सीरीज के लिए सोनू ने दर्जनों कवर वर्जन प्रति अलबम पाँच पाँच हजार रुपये में रिकार्ड करवाए. आज पुरानी राहों से...,टूटे हुए ख्वाबों ने..., ये आंसू मेरे दिल की जुबान हैं..., सौ बार जनम लेंगे..., तकदीर का फ़साना...,भरी दुनिया में आखिर दिल...., मिली खाक में मोहब्बत..., रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क का सितारा...,अकेले हैं चले आओ..., आपके पहलू में आकर रो दिए...., जैसे दर्जनों गाने सोनू ने गाये जो हू ब हू रफ़ी का स्वर लगते थे. ऐसा लगता था कि अब सोनू का करीयर ख़त्म क्योंकि रफ़ी के डुप्लीकेट की मार्केट में कितनी दिन मांग रहती. सोनू इस स्थिति को समझ चुके थे और अपनी आवाज़ में पार्श्व गायन करने लगे थे.

अलग पहचान की ज़रुरत

सोनू निगम ने संगीत निर्देशिका उषा खन्ना के आशीर्वाद से अमर उत्पल के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'आजा मेरी जान' के लिए पहला गाना रिकार्ड कराया था. लेकिन फ़िल्म में यह गाना नहीं लिया गया. इसे फिर से बाला सुब्रमण्यम से गवाया गया. इस फ़िल्म में उनके पाँच गाने रिकार्ड कराये गए लेकिन एक गाना ही लिया गया. 1995 में टी सीरीज के गुलशन कुमार की फ़िल्म बेवफा सनम के एक गाने 'अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का' ने उन्हें एक पहचान दिलवाई. 1 मई 1995 से ही टीवी पर 'सा रे गा मा' शो शुरू हुआ और वे इसके होस्ट थे. यह कार्यक्रम बेहद लोकप्रिय हुआ और अब तक इसके २०० से ज्यादा एपिसोड प्रसारित हो चुके हैं. 1997 में बॉर्डर फ़िल्म में संदेसे आते हैं गीत ने उन्हें डुप्लीकेट रफ़ी की छवि से अलग पहचान को मज़बूत किया.

सही तालीम, सही लक्ष्य अनिवार्य
सोनू केवल बारहवीं कक्षा तक ही स्कूल गए. स्नातक की डिग्री उन्होंने दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से पाई, लेकिन शास्त्रीय संगीत की तालीम भी ली है जिस कारण वे अपने गायन को परिपूर्णता देने में काफी हद तक सफल रहे हैं. सही तालीम के कारण ही वे अपने लिए सही भूमिका चुन सके. बाल कलाकार के रूप में बेताब, कामचोर, तकदीर, हम से है ज़माना, प्यारा दुश्मन, उस्तादी उस्ताद से जैसी फिल्मों में काम करने के बाद वे जानी दुश्मन, काश आप हमारे होते, लव इन नेपाल और मराठी फ़िल्म नवरा माझा नवसाचा में भी काम कर चुके हैं और शांतनु-निखिल के फैशन शो में रैम्प पर भी कदमताल कर चुके हैं, लेकिन वे जानते हैं कि उनका भविष्य एक्टिंग में नहीं, गायन में है. उन्होंने अपने गायन को पार्श्व गायन तक ही सीमित रखने के बजाय लाइव शो, टीवी कार्यक्रम, प्राइवेट अलबम और देश विदेश के कलाकारों के साथ मिलकर काम कर रहे है.

सेहत और सेवा
xसोनू निगम अपने शरीर और लुक्स का ध्यान रखनेवाले शख्स हैं. सेहत के लिए रोज योगासन भी करते हैं. वे ताइक्वान्डो के प्रशिक्षित खिलाड़ी हैं. शादीशुदा, एक बेटे के पिता सोनू अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा दान भी करते हैं.यह राशि वे उजागर नहीं करते लेकिन कैंसर, दृष्टिबाधित, लेप्रोसी, एड्स जैसी बीमारियों से लड़नेवाले संगठनों की मदद करते रहते हैं. वे आसराहीन बच्चों को अपने बूते पढ़ाते भी हैं. नकद दान के अलावा मुफ्त में शो भी करते हैं. वे कहते हैं कि कामयाबी तभी कामयाबी है, जब उसका फायदा सब को मिले.

प्रकाश हिन्दुस्तानी


हिन्दुस्तान 17 july 2011

Thursday, July 14, 2011

सामान्य ज्ञान का भारतीयकरण भी जरूरी

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सामान्य ज्ञान का भारतीयकरण भी जरूरी

यूपीएससी ने फैसला किया है कि अब प्रशासनिक पदों के प्रतियोगी फायनल इंटरव्यू में अपनी मातृभाषा में जवाब दे सकेंगे. अब तक केवल हिन्दी अथवा अंग्रेज़ी में ही इंटरव्यू होता था. यह एक अच्छा फैसला है जिसका लाभ दूसरी भारतीय भाषाओँ के प्रतियोगियों को होगा. वास्तव में यूपीएससी में भाषा के अलावा सामान्य ज्ञान के नाम पर होनेवाली अराजकता भी ख़त्म की जानी चाहिए.
सामान्य ज्ञान के नाम पर विदेशी और शहरी मामलों की जानकारी को ही ज्यादा महत्त्व क्यों दिया जाता है? जिसे सामान्य ज्ञान कहा जाता है वह भी प्रतियोगी रटकर जाते हैं. क्या सामान्य ज्ञान कोई रटने की विषयवस्तु है? आखिर सामान्य ज्ञान में यह क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि कंडे और सरकंडे में क्या अंतर है? क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि विक्रम संवत और शक संवत में क्या अंतर है? ..क्या अंतर है तबले और पखावज में? कार्तिक के बाद कौन सा महीना आता है?...उर्दू का जन्म कहाँ हुआ था?...मुद्राराक्षस कौन था? क्या यह कोई करंसी है? क्या पाला लगाने से गेहूं की फसल बर्बाद हो जाती है? अमीर खुसरो ने किस वाद्य यंत्र का अविष्कार किया था? शतरंज की खोज कहाँ हुई और पानी पूरी भारत के किस शहर की देन है?...रावण हत्था क्या है? यह कोई हथियार है या वाद्य ? वो कौन शख्स था जिसने राष्ट्रपति भवन एक बार, लाल किला दो बार और ताज महल तीन बार बेच डाला था?
वास्तव में हमारे लिए वही सामान्य ज्ञान वास्तव में उपयोगी है जो हमसे सरोकार रखता हो. आज कितने ही आला अधिकारीयों को यह बात पता नहीं है कि पाला गिरने से दूसरी फसलें भले ही चौपट हो जाएँ, गेहूं की फसल को फायदा ही होता है. आज भी करोड़ों भारतीय घरों में काल गणना हिन्दी तिथि के अनुसार ही होती है. विजडन पत्रिका के कवर पेज पर किसकी तस्वीर है या मिकी माउस के जन्मदाता वाल्ट डिज्नी का साथी कौन था जैसे सवालों की जगह भारतीय सन्दर्भ के सवाल हमारे लिए ज्यादा मौजूं हो सकते हैं. हमारे प्रतियोगी के लिए नोकिया कम्पनी के चैयरमैन का नाम जानने से ज्यादा ज़रूरी दादा साहब फाल्के के बारे में जानना हो सकता है. एक हेक्टेयर में चावल की औसत पैदावार कितनी है और मक्का की फसल को कितनी बार सिचाई की ज़रुरत होती है यह जानकारी हमारे विद्यार्थियों को क्यों नहीं होना चाहिए? कुम्भ का मेला कब और कहाँ भरता है और कब ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का उर्स कब होता है और वहां के सेवकों को क्या कहा जाता है जैसे सवालों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
कोई भी प्रतियोगी अपने आसपास के माहौल को कितना समझता है और उससे क्या सीख सकता है, यह बात सामान्य ज्ञान का पैमाना होना चाहिए. 'क्या आप जानते हैं' टाइप रटा रटाया सामान्य ज्ञान हमारे सन्दर्भ में शायद खरा नहीं उतरता हो और न ही ' कौन बनेगा करोड़पति' छाप सामान्य ज्ञान बहुत उपयोगी होगा क्योंकि यहाँ लक्ष्य होता है ज्यादा से ज्यादा एसएमएस मंगवाकर रूपया कमाना, न कि सामान्य ज्ञान का विस्तार करना.

प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान 14 july 2011

Sunday, July 10, 2011

प्रयोगधर्मी गालीबाज़ आमिर

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज पर मेरा कॉलम
प्रयोगधर्मी गालीबाज़ आमिर




आमिर खान को मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहा जाता है. वे 'मेथड एक्टर' हैं. बॉलीवुड में वन मेन इंडस्ट्री हैं आमिर खान. उनके पुरखे हेरात, अफगानिस्तान से आये थे. वे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और डॉ. जाकिर हुसैन के वंशजों में से हैं और नज्मा हेप्तुलाह उनके करीबी रिश्ते में हैं. 46 साल के आमिर 38 साल से फिल्मों में हैं. 1973 में रिलीज फ़िल्म यादों की बारात में आठ साल का रोल करनेवाले बाल कलाकार आमिर ग्यारह साल बाद केतन मेहता की फ़िल्म होली में आये. आमिर खान अभिनीत 39 फ़िल्में रिलीज़ हो चुकी हैं, और दो बड़ी फ़िल्में धूम-थ्री और धुंआ बन रही है. तारे ज़मीन पर उन्होंने निर्देशित भी की थी और सात फिल्मों के वे निर्माता हैं. दस साल पहले 2001 में उनकी कंपनी की पहली फ़िल्म लगान आई थी, जो सुपर हिट रही और अब आई है डेल्ही बेली, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसने भाषा के कारण आमिर के दस साल के काम पर पानी फेर दिया है. आमिर को पहचान दिलानेवाली क़यामत से क़यामत तक थी और राख फ़िल्म को नेशनल फ़िल्म (स्पेशल जूरी) अवार्ड मिला था. उनको मिले सम्मानों की फेहरिश्त काफी लम्बी है. इस मुकाम तक आने के लिए आमिर खान ने कई तरह के पापड़ बेले और समझौते भी किये है. ज़रूरी नहीं कि आप उनसे इत्तफाक रखें पर ये हैं आमिर की सफलता के कुछ सूत्र :
परफेक्शन पर जोर
आमिर खान को बॉलीवुड में परफेक्शनिस्ट माना जाता है. जो भी करते हैं पूरी लगन और मेहनत से. अभिनय की बारीकी हो या निर्देशन की,फ़िल्म का प्रमोशन हो या विज्ञापन की शूटिंग.फ़िल्म के कलाकारों का एग्रीमेंट हो या फ़िल्म की बजटिंग, वे हर तरफ ध्यान रखते हैं. उनकी कोशिश रहती है कि हर काम पूरी परिपक्वता से हो हो और पूरी तरह से परिपूर्ण हो. थ्री इडियट फ़िल्म का एग्रीमेंट 25 पेज का था जिसमें हर तरह की बारीकी लिखी हुई थी.
बॉक्स ऑफिस पर निगाहें
बॉलीवुड समीक्षकों की नहीं, बॉक्स ऑफिस की ही भाषा जानता है. आमिर खान के लिए भी बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी ही सब कुछ है. इसके लिए वे सब कुछ करने को तैयार रहते हैं. हाल ही में समीक्षकों ने लिखा है कि लगान और तारे ज़मीन पर जैसी फ़िल्में बनानेवाले आमिर खान ने गालियों को अपनी यूएसपी बना लिया! इस फ़िल्म का काफी विरोध हुआ और एक वर्ग ने इसे पसंद भी किया. जो भी हुआ हो आमिर खान को इसका आर्थिक लाभ हुआ और फ़िल्म को अच्छी ओपनिंग मिली.खुद आमिर का कहना है कि यह फ़िल्म एक 'दुर्घटना' है. अपने ब्लॉग में उन्होंने चार मर्तबा सब हेड लिखा है -- शिट हेपंस !
प्रयोगधर्मिता आवश्यक
आमिर खान प्रयोगधर्मी कलाकार हैं. वे न केवल अपने अभिनय में नयापन खोजते रहते हैं, बल्कि अपने बालों और दाढ़ी मूंछों को लेकर भी प्रयोग करते रहते हैं. क़यामत से क़यामत तक वाले चिकने चुपड़े चाकलेटी आमिर ने गुलाम के लिए जबदस्त बॉडी बिल्डिंग की और फिर वापस छरहरे बदन के लिए जिम में वक़्त गुज़ारा. बरसों बाद वे फिर गजनी के लिए शरीर सौष्ठव में जुट गए. इसी तरह अपने बालों को लेकर भी प्रयोग करते रहते हैं. आमिर की भूमिकाओं में भी विविधता रही है. मंगल पांडे में क्रांतिकारी की भूमिका हो या इश्क का प्रेमी, लगान का किसान हो या फ़ना का आतंकवादी. सरफरोश का पुलिस अफसर, रंगीला का टपोरी, राजा हिन्दुस्तानी का गाइड,अकेले हम अकेले तुम का सिंगर, दिल, दिल चाहता है और क़यामत से क़यामत तक का आशिक, तारे ज़मीन पर का टीचर, रंग दे बसंती का विद्रोही, मन का कासानोवा जैसी अनेक भूमिका वे निभा चुके हैं. हर भूमिका में वे अपनी अलग छाप छोड़ते हैं.
व्यावसायिकता पर ध्यान
आमिर खान को इस बात का पूरा एहसास है कि फ़िल्म कलाकार फिल्मों से ज्यादा कमाई विज्ञापनों से करते हैं. उन्होंने परदे पर अपनी छवि से युवाओं को लुभाने पर ज्यादा जोर दिया इसी कारण उन्हें अच्छे विज्ञापन मिले. कोक, टाइटन, टाटा स्काय, अतिथि देवी भव, नमस्कार कोलकाता, टोयोटा इनोवा, मोनेको बिस्किट, सेमसंग मोबाइल, आदि मुख्य हैं. एक टेलीकाम कंपनी के विज्ञापन से उन्हें करीब ३५ करोड़ रुपये की आय हुई जो किसी मेगा बजट फ़िल्म की कमाई के बराबर मानी जा सकती है. आमिर खान अपनी एड फिल्मों की शूटिंग के लिए खासा वक़्त देते हैं, उस पर रिसर्च करते हैं और गंभीरता से उस पर काम करते हैं.
सही प्रमोशन, वक़्त पर
आमिर खान जानते हैं कि फिल्मों के प्रचार का दर्शकों पर असर पड़ता है लेकिन वह असर सबसे अच्छे नतीजे तभी दे सकता है जब वह सही वक़्त पर और अनोखे अंदाज़ में हो. उन्होंने नकारात्मक विज्ञापन शैली के फायदों को समझा और अपनाया. इसीलिये जिस तरह से लगान का प्रचार किया गया उसी तरह जाने तू.. का नहीं किया गया. पीपली लाइव का प्रचार अलग था और थ्री इडियट्स का अलग. पीपली लाइव की क्रेडिट उन्होंने अपनी पत्नी किरण राव को दी और धोबीघाट की भी. उन्होंने इन फिल्मों से बहुत रूपया नहीं बनाया लेकिन नाम कमाने के लिए ऐसी फ़िल्में कारण ज़रूरी था. डेल्ही बेली में उन्होंने एक विवादस्पद गाने के बहाने प्रचार पाया और पहले ही हफ्ते में अच्छी कमाई कर ली.
मीडिया मैनेजमेंट
आमिर का मीडिया मैनेजमेंट का तरीका अलग है. वे जानते हैं कि कब उन्हें मीडिया की ज़रुरत पड़ती है और कब मीडिया को उनकी. नेगेटिव पब्लिसिटी में उन्हें महारथ हासिल है और शाहरुख़ खान के बारे में बयान देकर उन्होंने काफी प्रचार पाया. पहली पत्नी रीना दत्ता से तलाक और किरण राव से ब्याह, भाई फैसल की बीमारी और कस्टडी जैसे मुद्दों पर वे मीडिया में कभी नहीं आये ना ही कुछ बोले. उन्हें यह कला भी आती है कि किन किन राजनेताओं से नजदीकियां मीडिया में सुर्खी बनाती है और किस शब्दावली पर मीडिया बहस पर आमादा हो जाता है.
पुरस्कारों से दूरी
नए कलाकार के लिए के लिए पुरस्कार प्रोत्साहन भी होता है और पब्लिसिटी का माध्यम भी. आमिर उससे ऊपर उठ चुके हैं. लगातार कई साल तक पुरस्कार नहीं मिलने से उनमें इन पुरस्कारों के प्रति उपेक्षा भाव आ गया. खासकर फिल्मफेयर पुरस्कार को लेकर. उन्हें 1989 में राख, 1990 में दिल, 1091 में दिल है कि मानता नहीं, 1992 में जो जीता वही सिकंदर, 1993 में हम हैं रही प्यार के, 1994 में अंदाज़ अपना अपना, 1995 में रंगीला के लिए बेस्ट हीरो के लिए नामिनेट किया गया था लेकिन अवार्ड मिला 1996 में राजा हिन्दुस्तानी के लिए. मंगल पांडे, गजनी और तारे जमीन पर के लिए भी उनका नामिनेशन हुआ, लेकिन तब तक उनका मोह इन पुरस्कारों से खत्म हो चुका था. अब वे अवार्ड के कार्यक्रम में नहीं जाते और इस कारण भी लोग उन्हें याद रखते हैं.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान 10 june 2011

Saturday, July 02, 2011

टेक्नॉलॉजी की मदद से छू ली मंजिल

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज पर मेरा कॉलम




टेक्नॉलॉजी की मदद से छू ली मंजिल


रजनी गोपाल पेशे से चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट हैं. वे इन्फोसिस में सीनियर पद पर कार्य करती है. उन्हें वीणा वादन का भी शौक है और सोशल वर्क में भी उनकी दिलचस्पी है. शतरंज उनका प्रिय खेल है और कुकिंग भी पसंद है. फिट रहने के लिए वे नियमित योग करती है. वे हमेशा ही अच्छे नंबरों से पास होती रही है. आप पूछेंगे कि इसमें खास बात क्या है? जी हाँ, खास बात यह है कि रजनी गोपाल पूरी तरह से दृष्टि बाधित हैं और वे जो कुछ भी देखती हैं वह आँखों से नहीं, बल्कि मन की आँखों से. वे भारत की पहली महिला सी ए हैं जो दृष्टि बाधित हैं. टेक्नॉलॉजी उनकी थोड़ी सी मदद ज़रूर करती है लेकिन वे हौसलों से ही सब कुछ करती-देखती है. सी ए बनना वैसे भी आसान नहीं होता लेकिन दृष्टि बाधिता के बावजूद सी ए बनना और फिर इन्फोसिस जैसी कंपनी में महत्वपूर्ण पद संभालना कोई आसान बात नहीं. आज रजनी गोपाल हजारों लोगों के लिए आदर्श बन चुकी हैं. रजनी की सफलता के कुछ सूत्र :

विलक्षण हौसले की दास्तान


रजनी गोपाल जब नौ साल की थीं, तब स्कूल में उन्हें तेज़ बुखार आया. स्कूल के शिक्षकों ने उन्हें तुरंत घर पहुंचाया. परिवार के लोगों ने उन्हें तुरंत अस्पताल में भर्ती कराया. इलाज में कुछ लापरवाही रही और जब विशेषज्ञ डॉक्टर्स पहुंचे तो उन्होंने बताया कि नन्हीं रजनी को स्टीवन जोंसन सिंड्रोम नाम की बीमारी हो गयी है जो शरीर के किसी ना किसी अंग को बर्बाद करके ही जाती है. रजनी के शरीर की आँखों को इस भयावह बीमारी ने अपना निशाना बनाया और रजनी के जीवन में घोर अँधेरा करके ही यह बीमारी वापस लौटी. उनकी एक आंख की रोशनी पूरी तरह से जाती रही और दूसरी आँख से भी बहुत कम दृष्टि बची थी. कोई और होता तो जीवन भर इस बीमारी को कोसता रहता और लाचारी का जीवन जीने को अभिशप्त रहता. लेकिन रजनी को यह मंज़ूर नहीं था. उन्होंने कहा कि वे खुद अपनी कामयाबी की कहानी लिखेंगी और उन्होंने जो कुछ भी सोचा था वह कर डाला.

टेक्नॉलॉजी ने की मदद

जब रजनी अपनी पढाई करने बैठतीं, तब कई बार लोगों ने उनकी मदद की, लेकिन अनेक मर्तबा उनकी सहपाठी छात्राओं ने ही उन पर फब्तियां भी कसीं. उनसे ज़रा भी हतोत्साहित हुए बिना रजनी ने पढाई जारी रखी. बी. कॉम. के बाद उन्होंने सी ए बनने की ठानी. उन्हें पता चला कि चिकित्सा जगत की लापरवाही से उनकी दृष्टि का नुकसान हुआ है विज्ञान की मदद से उन्हें कुछ राहत मिल सकती है. उन्हें एक एनजीओ के कार्यकर्ताओं ने स्क्रीन रीडिंग साफ्टवेयर जे ए डब्ल्यू एस के बारे में बताया और फिर यही साफ्टवेयर उनकी पढाई का सबसे मददगार हिस्सा बन गया. उन्होंने अपना सारा स्टडी मटेरियल इकठ्ठा किया और उसे स्क्रीन रीडिंग साफ्टवेयर की मदद से पढ़ा और समझा. सारी पढाई उन्होंने इसी की मदद से की और अंतत: सी ए का अंतिम इम्तहान भी पास किया.

संगठन ने की मदद

इंस्टीट्यूट ऑफ़ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ़ इण्डिया (आईसीएआई )ने रजनी के लिए रोजगार उपलब्ध करने में बड़ी मदद की. सी ए की डिग्री लेने के बाद रजनी ने अपना बायो डाटा आईसीएआई के प्लेसमेंट सेल को भेज दिया और संगठन ने उसे गंभीरता से लेते हुए उन्हें पहला रोजगार इंडियन ग्रुप ऑफ़ होटल्स में मुहैया कराया. वे वहां पर कम्युनिटी को ऑर्डिनेटर बन गयीं. लेकिन इस काम में उनकी सी ए की डिग्री का ज्यादा योगदान नहीं था. कुछ ही दिनों में उन्हें नए जॉब का मौका मिला और उन्होंने उसे झपट लिया.

ज्ञान का विस्तार करते रहें

रजनी को अपने ज्ञान के विस्तार के कारण ही आज इन्फोसिस में महत्वपूर्ण जगह मिली है. वे वहां पर कंपनी के भारत और यू एस ए के जनरल अकाउंट्स की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है. वे यह काम अपने सहयोगियों के साथ मिलकर पूरा करती हैं. उन्हें अपने काम में कभी किसी कमी की शिकायत नहीं मिली है. सहयोगियों के बीच भी उनकी अच्छी साख है और वे अपने काम को एन्जॉय करती हैं. उन्हें कभी भी ये एहसास नहीं होता कि उन्हें कोई शारीरिक ब्याधि है. देश में एक और सी ए दिलीप लोयलका भी दृष्टि बाधित हैं, पर वे पुरुष है.

माहौल के अनुसार ढलें

रजनी गोपाल ने अपने जीवन में जो बात सीखी वह यह है कि हमें अपने आप में माहौल के मुताबिक ढलने की आदत भी डाल लेनी होनी चाहिए. हमें हर जगह एक जैसे सहयोगी और सकारात्मक माहौल मिले यह ज़रूरी नहीं. आप खुद कोशिश करके माहौल को थोड़ा तो बदल सकते हैं और थोड़ा खुद को बदलकर माहौल के अनुसार ढल सकते हैं. शुरू में जब वे बंगलुरु में पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग करती थीं, तब उन्हें थोड़ा असहज लगता था लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने आप को हालात के मुताबिक ढाल लिया.

समस्याओं का निदान खुद करें

रजनी के लिए शुरू में यह बात स्वीकार करनेलायक ही नहीं थी कि वे दृष्टि बाधित हैं. उन्हें इस दशा में बहुत असहज और बाध्यता लगती,लेकिन जल्दी ही वे इस से बाहर आ गयीं. उनके भाई ने जब उन्हें कहा कि खुद को दिमागी रूप से मज़बूत बनने के लिए योग का सहारा लेना उचित होगा तो उन्हें यह बात इन्सल्ट लगी. जल्दी ही उन्होंने अपने आप को संभाला और मानसिक रूप से मज़बूत बनाया. वे कहती हैं कि शुरू में तो मुझे यह लगाने लगा था कि मैं दृष्टि बाधित नहीं, बल्कि मानसिक रोगी हो गयी हूँ. आज मैं अपने परिजनों के सहयोग से मंजिल पाने में कामयाब हूँ.

प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान july 03,2011