Tuesday, May 19, 2015

फिलास्फी ऑफ ऐडक्वैट रिसोर्सेस

अमेरिकी डायरी के पन्ने (8)


कोई  भी देश केवल वहां के बंदरगाहों, हवाईअड्डों, राज मार्गों, इमारतों, संग्राहलयों और वहां की सम्पन्नता से नहीं बनता। देश बनता है वहां के लोगों से। अमेरिका में अगर कुछ विशेष है, तो उसके पीछे वहां के नागरिक है। एक ऐसा देश जिसका इतिहास पांच सौ साल से पुराना नहीं है, जहां दुनिया की सभी जातियों-प्रजातियों के लोग बहुतायत से हैं, जहां मानव की गरिमा सर्वोच्च है और श्रम का पूरा सम्मान है। ये सब चीजें अमेरिका को विशिष्ट होने का दर्जा देती है, लेकिन इससे बढ़कर भी कुछ बातें है, जिसके कारण अमेरिका, अमेरिका कहलाता है। (यहां मेरा आशय यूएसए से है)

अमेरिका में आप कहीं भी जाए, कितने भी दिन रुके वह आपको चमत्कृत जरूर करता है। अमेरिकियों की कुछ बातें बेहद आकर्षित करती है कि वे बहुत मेहनती हैं। अमेरिकी श्रम की गरिमा को पहचानते है। वहां समानता का बर्ताव आमतौर पर नजर आता है। (कहीं-कहीं श्वेत-अश्वेत के बीच असमानता की बातें भी आती हैं, लेकिन अब यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं बचा है)। इंग्लैण्ड के गोरे अंग्रेजों के मुकाबले अमेरिका के गोरे ज्यादा संवेदनशील लगते है। आमतौर पर अमेरिकी भीतर और बाहर से एक जैसे ही नजर आते हैं। उनके नैतिकता के पैमाने अलग हो सकते है, लेकिन उनकी संवेदनाओं का स्तर भी वैसा ही है जैसा भारतीयों का है। आप कहीं भी जाएं अमेरिकी आपका स्वागत ही करेंगे । छोटी सी काफी शॉप में भी जाइए, आपका स्वागत उतने ही जोश से होता है जैसा किसी बड़े समारोह में जाने पर होता है।
अमेरिका में हर चीज विशाल है। राज मार्ग है तो बेहद विशाल, शिक्षा संस्थान है तो बड़े-बड़े, इमारतें गगनचुंबी, शॉपिंग मॉल विशाल क्षेत्र में, कारें महंगी और बड़ी-बड़ी, आमतौर पर वहां रहने वालों के घर भी बड़े और आधुनिक हैं। आमतौर पर कहीं भी कोई भीड़ नहीं टूट पड़ती। आखिर ऐसा क्या है कि वहां के लोग कभी भी आक्रामक तरीके से न बात करते हैं, न व्यवहार। सबकुछ शालीन नजर आता है। वहां रहने वाले एक अनिवासी भारतीय से पूछा कि यहां कैसा लगता है? तो उसने कहा- ऐसा लगता है कि हम भी इनसान हैं। भारत में लगता था कि शायद हम कीड़े-मकोड़े हैं। भारत में कहीं भी जाओ, भीड़-भाड़, धक्का-मुक्की और पहले पाने की तड़प। मैंने पूछा ऐसा क्यों है? जवाब मिला- शायद वहां संसाधन कम है और उस पर भी उन संसाधनों का वितरण समान नहीं है। जो पैसे वाला है और रसूखदार है वहीं सारे संसाधनों पर कब्जा जमाने की ताक में रहता है।
अनिवासी भारतीय की बात सही लगी। अमेरिका में फिलास्फी ऑफ ऐडक्वैट रिसोर्सेस चलता है। हर व्यक्ति को यह पता है कि वहां संसाधनों की कमी नहीं है। जब भी वह चाहेंगे वह संसाधन उसे मिल जाएगा। भारत में लोगों की प्रमुख जिम्मेदारियां हैं- अच्छा घर, ठीक-ठाक कार, बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा की व्यवस्था, सेवा निवृत्ति पर गुजारे की व्यवस्था और सम्मानजनक जीवन। इन चीजों के लिए भारत में लोग गहरा संघर्ष करते है। करोड़ों भारतीयों के लिए घर एक सपना ही है। मध्यमवर्ग किसी तरह किश्तों पर गाड़ी लेता है और भुगतता रहता है। बच्चों की पढ़ाई की बात करें तो भारतीय महानगरों में स्कूल में प्रवेश एक बहुत बड़ी चुनौती है। बीमार होने पर लोगों के घर बिकना आम बात है और बुढ़ापे में भारतीयों को परजीवी बनकर रहना पड़ता है। सरकार नाम की चीज कहीं नजर नहीं आती।भारतीय हालात के विपरीत अमेरिका में मूलभूत चीजों के लिए संघर्ष बहुत कम है। घर और मकान पक्की नौकरी हो तो आराम से किश्तों पर मिल जाते हैं, बच्चों की पढ़ाई सरकार की जवाबदारी है। वृद्धों के लिए पेंशन की व्यवस्था है। चिकित्सा व्यवस्था सभी के लिए उपलब्ध है। खास बात यह है कि कागजों पर तो यह सभी सुविधाएं भारतीयों को भी है, लेकिन हालात ऐसे नहीं है। महानगरों में तो मध्यवर्गीय परिवार एक से अधिक बच्चे इसलिए पैदा नहीं कर पा रहे है, क्योंकि वे उनकी पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते। केवल सरकारी नौकरियों से रिटायर होने वाले लोग ही ठीक-ठाक पेंशन पाते है। बाकी लोग 250-300 रुपए पेंशन के हकदार है और वह भी साल-साल, छह-छह महीने में मिलती है। अमेरिका में लोगों को लगता है कि वहां की सरकार के पास पर्याप्त संसाधन है और उन्हें जीने के लिए उतना संघर्ष नहीं करना पड़ेगा। अगर सरकार जरूरी समझेगी तो उन्हें पर्याप्त मदद मिल ही जाएगी। इस सिद्धांत के चलते अमेरिकी नागरिक व्यवहार रूप में संतोष का भाव रखते हैं, जबकि हमें ‘जब आवे संतोष धन’ जैसे सिद्धांतों पर चलकर जीवन गुजारना पड़ता है।
ऐसा नहीं है कि अमेरिकी लोगों के सामने चुनौतियों नहीं हैं। हर अमेरिकी कर्ज से दबा है, हर अमेरिकी सरकारी करों के बोझ से दबा है, हर अमेरिकी को उसकी बीमें की किश्त परेशान करती है। आम अमेरिकियों की आय का बहुत बड़ा हिस्सा कर्ज की किश्तों, टैक्स और बीमे की किश्त देने में ही बीत जाती है। इसके बावजूद अमेरिकी शांत, संयत और अनुशासित नजर आते हैं।
एक ऐसा देश जिसका क्षेत्रफल भारत से तीन गुना से भी अधिक हो और आबादी लगभग एक चौथाई। उस देश में हर जगह एक जैसा व्यवस्थित इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना मजाक नहीं है। इस सबके पीछे अमेरिका के लोगों की कड़ी मेहनत साफ नजर आती है। 250-300 साल पहले जब भारत में राजा-महाराजा छोटी-छोटी बातों के लिए लड़ रहे थे, तब अमेरिका अपनी आधारभूत संरचना को तैयार करने के लिए काम कर रहा था। जब भारत जातिवाद और सांप्रदायिक उन्माद में उलझा था, अमेरिकियों के आगे अपने देश का विकास लक्ष्य रहा था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने अपने देश के दरवाजे पूरी दुनिया के लिए खोल दिए थे और सारी दुनिया के लोग अमेरिका जाकर बसने लगे थे। बाद में अमेरिका को अपनी नीति से हाथ खींचना पड़ा, क्योंकि वहां की सरकार को लगा कि उन लोगों का बोझ वह नहीं उठा पाएगी, जो बड़ी संख्या में बाहर से आकर दायित्व बन रहे है।
अमेरिका के राज मार्गों पर मैंने देखा कि सुबह पांच बजे से भारी यातायात उमड़ पड़ता है। एक नागरिक ने बताया कि यहां ट्रैफिक के पीक ऑवर्स सुबह 5 से और शाम 3 से 7 होते है। 8 बजे तक अधिकांश कार्यालय पूरी तरह गतिशील हो जाते है। कई दफ्तर तो सुबह 7 बजे से ही काम करने लगते है। 11 बजते-बजते लंच ब्रैक हो जाता है और फिर काम शुरू। काम करने के लिए लोग 100-100, 150-150 किलोमीटर दूर से आते है। आमतौर पर वे देर रात तक रुकना पसंद नहीं करते और निर्धारित समय पर घर लौट जाते है। रात 10 बजे तक बड़े-बड़े शहरों में सन्नाटा पसर जाता है। सड़कों पर कोई हायतौबा नहीं, कोई हांकिंग नहीं, नियमों की अवहेलना नहीं, लोग एक-दूसरे को पूरा सम्मान देते हुए गाड़ियां चलाते है। घर जाने की हर एक को जल्दी होती है, लेकिन यातायात नियमों की अवहेलना कहीं नजर नहीं आती। तीन हफ्ते की यात्रा के दौरान अमेरिका में कहीं भी ऐसी दुर्घटना देखना को नहीं मिली, जिसमें किसी व्यक्ति की जान गई हो या कोई गंभीर घायल हुआ हो।

भारत में हम समझते है कि हमारा काम केवल गंदगी फैलाना ही है और सफाई करना नगर निगम या ग्राम पंचायत का काम है। वहां की सफाई का माहौल देखकर भारत से जाने वाला शख्स भी सफाई के प्रति सजग हो जाता है। गंदगी फैलाने पर भारी जुर्माने का प्रावधान तो है ही, जुर्माना किया और वसूला भी जाता है। किसी को यह भ्रम नहीं है कि वह बड़ा आदमी है या ऊंची राजनीतिक पहुंच वाला शख्स है। कानून सबके लिए बराबर है, तो है। कानून की गिरफ्त में सब बराबर हैं। एक अमेरिकी ने भारतीय यातायात के बारे में कहा कि वहां कानून का पालन क्यों नहीं होता? अगर सलमान खान ने शराब पीकर गाड़ी चलाई और किसी को कुचला तो उसका केस 15 साल से क्यों लटका है? अगर उसने अपराध किया है तो सीधा जेल भेज दो और अगर अपराध नहीं किया है तो मुक्त करो ताकि वह भी चेन से जी सके।
मानव श्रम की गरिमा अमेरिका में देखने को मिलती है, जब बड़े से बड़ा आदमी भी अपना काम खुद करता नजर आता है। घरेलू नौकर और ड्रायवर वहां दुर्लभ हैं। घरों में बड़े से बड़े लोग भी अपना काम खुद ही करते है और अपनी गाड़ी भी खुद ही चलाते है, वहां उनकी गाड़ी के दरवाजे खोलने के लिए कोई आगे नहीं आता। विशालतम पार्किंग लाट्स में गाड़ी खड़ी करके एक-एक मील तक लोग पैदल चलते हैं। इसके बावजूद आम अमेरिकी मोटापे के शिकार है और वहां पांच-पांच सौ लोग एक साथ कसरत कर सके इतने बड़े-बड़े जिम भी देखने को मिले। पर्याप्तता के सिद्धांत के कारण ही शायद वहां लोग खूब जी भरकर खाते है।
किसी भी चीज का व्यावसायीकरण करना अमेरिकी खूब जानते है। वहां कोई भी सुविधा नि:शुल्क नहीं है। पार्किंग हर जगह पैसे देने पर ही उपलब्ध होती है। टोल टैक्स अधिकांश मार्गों पर है। जनसुविधाओं की कीमत अच्छी खासी है। आमतौर पर पार्किंग शुल्क घंटों के आधार पर होता है और प्रमुख शहरों में वह 5 डॉलर प्रति घंटे से अधिक भी है। कहीं-कहीं तो 10 डॉलर घंटा भी देना पड़ता है। किसी होटल में जाकर रुके तो होटल कमरे के अलावा कार की पार्किंग का पैसा भी अलग देना पड़ता है। राज मार्गों पर टोल टैक्स के अलावा विशेष लेन भी हैं। जिन पर कम भीड़ होती है, क्योंकि वे ज्यादा पैसा वसूल करते है। भारत में आमतौर पर लोग साक-सब्जी की दुकानों पर मोल-भाव करते है वहां सीधा मोल-भाव तो नहीं होता, लेकिन डिस्काउंट का चलन काफी है। मंदी की मार से निपटने के लिए एक पर एक फ्री का फॉर्मूला वहां खूब आजमाया जाता है। जहां कई भी अमेरिकियों के हित पर आघात पहुंचता है वे तत्काल एक हो जाते हैं। यह खूबी वहां रहने वाले अनिवासी भारतीयों में नजर नहीं आई। भारतीय समुदाय के लोग वहां भी पंजाबी, मलियाली, तेलुगु, गुजराती, बिहारी जैसे खांचों में बंटे हैं। वहां भी ब्राह्मण, जाट और जैन जातियों के संगठन नजर आते हैं। हम भारतीय भारत में भी एक नहीं होते और वहां जाकर भी एक होने में हमें कष्ट होता है। इसी कारण वहां सम्पन्न भारतीयों की हत्या के मामले भी हुए है।
एकाकीपन महसूस करने वाले भारतीय मूल के लोग भी अमेरिका छोड़कर वापस आना नहीं चाहते। उनकी पीड़ा यह है कि वे अब भारत को अपना नहीं सकते क्योंकि उन्हें और उनके बच्चों को वहां की सुविधाओं की आदत पड़ चुकी है। दूसरी तरफ उनमें से अधिकांश लोग अमेरिकी मुख्यधारा में समाहित नहीं हुए है और वहां भी वे अपना अलग समुदाय बनाकर रहना पसंद करते हैं। इन कारणों से वे अमेरिकियों में लोकप्रिय नहीं है। उनमें से अधिकांश की दिक्कत यह भी नजर आई कि जो लोग 20-25 साल पहले भारत छोड़कर गए थे उन्हें लगता है कि भारत अब भी वैसा ही देश है। 20-25 साल की भारत की तरक्की उनमें से कुछ ही लोगों ने देखी है और जब वे भारत आकर देखते है कि दिल्ली और मुंबई का अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा किसी भी अमेरिकी हवाई अड्डे से ज्यादा आधुनिक और सुविधाजनक है और इसी तरह दिल्ली की मेट्रो ट्रेन न्यूयार्क की वाशिंगटन की मेट्रो की तुलना में ज्यादा अच्छी, सुविधाजनक और सस्ती है, तो उन्हें अचरज होता है। एक शख्स ने कहा कि अब हम भारत क्यों जाए, अब तो भारत ही अमेरिका हो चला है।

Saturday, May 16, 2015

प्रकृति का विशाल वालपेपर है नियाग्रा


अमेरिकी डायरी के पन्ने (7)



नियाग्रा वाटर फाल्स को दुनिया एक खूबसूरत चमत्कार की तरह देखती है। धरती का जीवंत वालपेपर। गजब की खूबसूरती। गजब की लोकेशन। गजब की व्यवस्थाएं। नियाग्रा नदी के ये झरने यूएसए और कनाडा की सीमाओं को बांटते है। एक तरफ अमेरिका है और दूसरी तरफ कनाडा। नियाग्रा वाटर वाल्स दुनिया के सबसे ऊंचे झरने नहीं है, लेकिन फिर भी ये दुनिया के सबसे लोकप्रिय पर्यटन केन्द्र है। करीब 15 लाख पर्यटक प्रतिवर्ष यहां आते है।


हनीमून मनाने वालों के लिए यह लोकप्रिय स्थान है और हर साल करीब 50 हजार जोड़े इस पर्यटन केन्द्र पर आकर यादगार वक्त बिताते है। कहा जाता है कि नेपोलियन के भाई जेरोम बोनापार्ट और उनकी पत्नी ने 1803 में इस स्थान पर हनीमून मनाया था उसके बाद ही यह जगह हनीमून मनाने वालों के लिए लोकप्रिय हो गई। ऐसा कहा जाता है कि लाखों करोड़ों साल पहले जब ग्लेशियर पिघलने लगे और पानी की बड़ी-बड़ी झीलें बनने लगी तो उस पानी ने प्रशांत महासागर तक जाने के लिए जो रास्ता चुना वह नियाग्रा नदी कहलाई। यह नदी जब आगे बढ़ी और झरनों के रूप में उसका पानी नीचे गिरने लगा तब यह दुनिया के सबसे खूबसूरत जल प्रपात में माना जाने लगा। दुनिया का सबसे ऊंचा जल प्रपात नियाग्रा से 15 गुना ऊंचा है, लेकिन जितना चौड़ा पाट यहां नदी का है और जिस तरह अर्धचन्द्राकार में नदी गिरती है वह शानदार है और इससे भी शानदार है इस जल प्रपात से हर एक मिनिट में गिरने वाला करीब 14 करोड़ लीटर पानी।


जब यह जल प्रपात नीचे गिरता है तब तीन प्रमुख झरने बनते है। उसमें से कनाडा की तरफ से गिरने वाला झरना करीब 173 फीट नीचे है और अमेरिका की तरफ गिरने वाला करीब 100 फीट। दिलचस्प बात यह है कि कनाडा की तरफ जो झरना गिरता है वह अर्धचन्द्राकार है जिसे घोड़े की नाल के आकार के कारण अंग्रेजी में होर्स शू फॉल कहा जाता है। नियाग्रा झरने के दोनों तरफ जो शहर है उनका नाम एक ही है। अमेरिका की तरफ वाला भी ओंटारियो और कनाडा की तरफ भी ओंटारियो। दो अलग देश होने के कारण एक ओंटारियो से दूसरे ओंटारियो जाना आसान नहीं। वीजा संबंधित दिक्कतें रास्ते में आती है। अगर किसी के पास दोनों देशों का वीजा है तो वो दोनों देशों से नियाग्रा की यात्रा कर सकता है। ऐसा कहा जाता है कि कनाडा की तरफ से नियाग्रा ज्यादा सुंदर दिखता है। मेरे पास कनाडा का वीजा नहीं था और अमेरिका के ओंटारियो से ही नियाग्रा का नजारा देखना पड़ा, लेकिन वह भी अच्छा खासा दिलचस्प था।

 नियाग्रा में रात का नजारा देखने और वहां के होटल में रात बिताने के बाद फिर सुबह-सुबह नियाग्रा देखने का लोभ रोकना आसान नहीं था। 13 अप्रैल 2015 को जब हम रात में नियाग्रा देखने के लिए रवाना होने वाले थे तभी जोरदार बारिश होने लगी। सस्ती सी बरसाती (5 डॉलर) खरीदने के बाद उसे ओढ़कर जब हम झरने तक पहुंचे तब बारिश थोड़ी धीमी हो चुकी थी, लेकिन तेज हवाओं ने हमारी बरसाती को प्रभावहीन बना दिया था। ठंड अच्छी खासी थी और ठिठुरते हुए नियाग्रा झरनों को देखना अपने आप में सुवूâन भरा था। जिस तरह से रात के वक्त नियाग्रा जल प्रपात पर रोशनी की व्यवस्था की गई थी वह अपने आप में यादगार थी। उसे देखकर लगा की अगर रात के वक्त नियाग्रा नहीं देखते तो कुछ छूट जाता। रंग-बिरंगी रोशनी में गिरते हुए पानी का नजारा ऐसा था मानो प्रकृति ने कोई बेहद विशाल वालपेपर हमारे लिए छोड़ दिया है। जब हम वहां पहुंचे तब लाइट एंड साउंड शो चल रहा था। बारिश के कारण हमने उस शो को देखना स्थगित रखा।


सुबह-सुबह होटल की खिड़की से बाहर का नजारा देखा तो मन प्रसन्न हो गया। सामने विशाल नियाग्रा नदी बहती हुई नजर आई। अप्रैल तक बर्फ पूरी तरह पिघल नहीं पाई थी। अमेरिका के तरफ से देखो तो झरना इसलिए विशिष्ट लगता था कि नियाग्रा नदी यहां झरने के बाद 90 डिग्री तक मुड़ जाती है। अमेरिका और कनाडा के बीच के जल प्रपातों के बीच जमीन का भी एक टुकड़ा है, जिसे बताया गया कि यह गोट आईलैण्ड है। गोट आईलैण्ड की तरफ भी एक छोटा सा झरना है। जिसे ब्राइडल वेल (दुल्हन के घूंघट की तरह) कहा जाता है। इसके बाद भी एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा है उसे लूना आईलैण्ड कहा जाता है। अमेरिका की तरफ से नियाग्रा झरने को देखो तो 90 डिग्री का विशाल झरना, फिर लूना आईलैण्ड, फिर ब्राइडल वेल के झरने और फिर गोट आईलैण्ड। इसके बाद का हिस्सा कनाडा में है।


नियाग्रा में जिस तरह पर्यटकों की भीड़ थी और थक्का-मुक्की तो नहीं हो रही थी, लेकिन हालात उससे कम भी नहीं थे। झरने की तरफ से पानी के बारीक कणों के कारण विशालकाय इन्द्रधनुष बन गए थे। हर कोई उन इन्द्रधनुषों के पास अपनी तस्वीर खिंचवाना चाहता था। ऐसा लग रहा था मानो विशाल झरने में एक जीवंत इन्द्रधनुष ने वालपेपर में और वृद्धि कर दी हो। दुनियाभर के पर्यटक यहां नजर आए। हर उम्र, रंग और आय वर्ग के। इसमें बड़ी भारी संख्या भारतीयों और चीनियों की भी थी। हम जिस बस में नियाग्रा गए थे उसका ड्रायवर भी चीनी था और हम पर्यटकों की गाइड भी एक चीनी युवती थी, जो ठीक से अंग्रेजी नहीं बोल पा रही थी, लेकिन जब वह चीनी भाषा में कमेंट्री करती तो वह ज्यादा अच्छी थी। उसकी एक ही चीज ने प्रभावित किया कि वह हर बात चार-चार बार कहती थी। मसलन अगर उसे कहना हो कि हम लोग सुबह 6.50 मिनिट पर मिलेंगे, तो वह
कहती थी मार्निंग  सिक्स फिफ्टी, सिक्स फिफ्टी फिर वह उसे दोहराती थी मार्निंग सिक्स फाइव ज़ीरो, सिक्स फाइव ज़ीरो। थोड़ी ही देर में हमने देखा कि उसने अपने बेग में से एक झंडा निकाला और दृष्टिहीनों के काम आने वाली छड़ी भी अपने बेग से निकाली और झंडा छड़ी में लगा दिया। उसका झंडा पीले रंग था। हमने देखा कि वहां पर्यटकों के बहुत सारे समूह थे और उन सबके गाइड कोई न कोई रंग का झंडा लिए थे। अधिकांश पर्यटक दलों में गाइड का काम युवतियां ही कर रही थीं, अपवाद स्वरूप ही युवक गाइड नजर आ रहे थे।

अप्रैल के दूसरे सप्ताह में भी जबरदस्त ठंड थी। तापमान 2 डिग्री सेल्सियस के आसपास था। वहां जाने के पहले अखबारों में खबर पढ़ी थी कि भारी ठंड के कारण नियाग्रा जल प्रपात जम गया था। बर्फ की बड़ी-बड़ी पहाड़नुमा चट्टानें नीचे जमी हुई थी। नदी के दोनों तरफ की बर्फ पिघली नहीं थी और सफेद चादर जैसी बन गई थी। 1848 में इतनी ज्यादा ठंड पड़ी थी कि पूरा नियाग्रा जल प्रपात ही जम गया था और नदी का पाट भी पूरी तरह से बर्फ बन गया था, जिस पर लोग चहलकर्मी कर रहे थे। 1911 में भी ऐसे ही बर्फ जमी थी। इस बार भीषण ठंड के कारण नियाग्रा जम गया था, लेकिन पानी की धाराएं नीचे से बह रही थी। हमें बताया गया कि अगर दिसंबर से फरवरी के बीच यहां आए तो यहां का नजारा अलग मिलेगा। चारों तरफ जमी हुई बर्फ सूर्य की रोशनी से चमकती है और अलग ही नजारा पेश करती है। रात को चांदनी इस स्थान को खूबसूरत बना देती है।

अमेरिका और कनाडा दोनों ही सम्पन्न देश है और उन्होंने नियाग्रा फॉल्स को एक बहुत बड़े कारोबार में तब्दील कर दिया है। दोनों ही तरफ गगनचुंबी इमारतें हैं, जिनमें से 95 प्रतिशत होटल है। ये होटल इस तरह बनाए गए हैं कि उनके कमरों की खिड़कियों से ही आप नियाग्रा जल प्रपात का नजारा देख सकते है। यानि आपको अपने होटल से बाहर निकलने की जरूरत ही नहीं है। एक गगनचुंबी होटल ने तो अपनी छत पर्यटकों के लिए खोल रखी है और वह वहां जाने का टिकिट बेचती है। यानि अगर आप उतनी ऊंचाई से झरना देखना चाहें तो अलग से पैसा दीजिए। अमेरिका और कनाडा के महंगे से महंगे होटल यहां उपलब्ध है। अगर आपके जेब में ज्यादा पैसे कूद रहे हों तो लाख डेढ़ लाख रुपए रोज का कमरा भी आपको मिल सकता है। सर्दी के दिनों में यानि दिसंबर से फरवरी के बीच यहां पर्यटक कम आते हैं तो यह होटल वाले भी सब्जी की दुकानों की तरह अपने कमरे का किराया घटाते-बढ़ाते है। इसके बाद भी कई पर्यटक मोल-भाव करते है और किराया कम करवाकर ही मानते है। टूर पैकेज के नाम पर यात्रियों को ले जाने वाले थोक में ग्राहक उपलब्ध कराते है इसलिए उन्हें और भी सस्ती दरों पर यह कमरे उपलब्ध है।


अमेरिकी लोग पैसा बनाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते। वे हर बार कोई न कोई नया तरीका निकाल देते है और फिर उसमें एक और नया तरीका पैसा कमाने का ढूंढ लेते है। 1848 में यहां भाप से चलने वाली नौंकाएं यात्रियों को नदी के एक तरफ से दूसरे तरफ ले जाने लगी थी। छह साल बाद ही इन नौंकाओं की जगह विलासितापूर्ण नौंकाओं ने ले ली। उन्होंने एक और नया धंधा खोजा, नदी में यात्रियों को घुमाने का। डॉलर खर्च कीजिए और आधे घंटे की नदी की यात्रा कीजिए। नदी में से ही ऊपर से गिरते झरने को निहारिए। इतनी बड़ी मात्रा में जब पानी झरने से नीचे गिरता तो पानी बेहद बारीक-बारीक कणों में छितरकर नयनाभिराम दृश्य पैदा करता है। पहाड़ों के बादलों के मानिन्द इस माहौल में ले जाने के लिए एक अलग सेवा शुरू की गई है, जिसका नाम है- ‘मैड ऑफ द मिस्ट’। हमें बताया गया कि नदी में विशालकाय बर्फ की चट्टानों के कारण यह सेवा अभी बंद है, क्योंकि इन चट्टानों से टकराकर कोई भी नाव उलट सकती है। जैसे की टाइटेनिक फिल्म में जहाज बर्फ की चट्टान से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है वैसा नजारा यहां देखने को न मिले इसीलिए यह ऐहतियात बरती गई। मैड ऑफ द मिस्ट का किराया बचने की खुशी हुई। इसके अलावा नियाग्रा प्रपात के आसपास पर्यटकों के लिए अलग से ही शहर बस गए है। इन शहरों में पर्यटकों को लुभाने की हर कोशिश की जाती है। शराबखाने, एम्युजमेंट पार्क, वैक्स म्यूजियम, हेलीकॉप्टर से नजारा देखने की व्यवस्था, बंगी जम्पिंग जैसी कई सुविधाएं यहां उपलब्ध करवाई जाती है। मछली पकड़ने के शौकिन मछली मारने के लिए भी यहां आते है। इस इलाके में करीब दर्जन भर वाइन फैक्ट्रियां भी है। नियाग्रा नदी से गिरने वाले पानी का करीब-करीब आधा हिस्सा पनबिजली योजनाओं में उपयोग में आ जाता है। इस तरह इस झरने का उपयोग व्यावसायिक रूप से बिजली बनाने में भी किया जा रहा है। इस इलाके की बिजली की काफी मांग यहीं से पूरी हो जाती है।


नियाग्रा में भारतीयों के लिए खाने-पीने की हर सुविधा उपलब्ध है। यहां आप शाकाहारी भोजन भी खरीद सकते हो। एक रेस्टोरेंट में बिना लहसून व प्याज का जैन फूड भी उपलब्ध था। 'इंडिया किचन'  नामक एक बड़ा सा रेस्टोरेंट एक भारतीय का मिला, जिसमें शाकाहारी थाली से लेकर भेल पूरी और पानी पूरी तक हर तरह के व्यंजन उपलब्ध थे। 7 डॉलर की भेल पूरी खाने के पहले हमने डॉलर का रुपयों में परिवर्तन करके अंदाज लगाया कि इतनी महंगी भेल पूरी तो हम भारत में कभी नहीं खा सकते।

कॉपीराइट © 2015 प्रकाश हिन्दुस्तानी

वाशिंगटन डीसी का दिलचस्प डक-टूर

अमेरिकी डायरी के पन्ने (6)


वाशिंगटन डीसी की यात्रा के दौरान डक-टूर अपने आप में दिलचस्प अनुभव रहा। करीब डेढ़ घंटे में यह टूर वाशिंगटन डीसी की आधी से ज्यादा प्रमुख जगहों की एक झलक दिखा देता है। वाशिंगटन डीसी की शानदार सड़कों से गुजरता हुआ यह वाहन एक स्थान पर जाकर वाशिंगटन डीसी के बीच से बहती हुई पोटोमेक नदी में उतर जाता है। जो वाहन सड़क पर होता है वहीं वाहन नदी की सैर भी कराता है। वास्तव में टू इन वन। 1942 में पर्ल हार्बर पर हुए ऐतिहासिक हमले के बाद ऐसे वाहनों का ईजाद  किया गया जो सड़क पर भी चले और पानी में भी।
 इन वाहनों को पानी में ले जाने के लिए किसी बंदरगाह की जरूरत नहीं, सिर्फ एक छोटी सी रपट ही काफी होती है। यह वाहन युद्ध के लिए तैयार किया गया था, इसलिए इसमें लग्जरी की आशा करना सही नहीं होगा। भारत की सरकारी बसों की सीटें जैसी सीटें काफी ऊंची लगाई जाती है। सड़क पर बस का मजा और नदी में नाव का। पोटोमेक नदी में चलते हुए यह बस एक ऐसे मुहाने पर ले जाती है जहां से वाशिंगटन डीसी का अंतर्राष्ट्रीय विमानतल नजर आता है। दिन के समय औसतन दो मिनिट में एक विमान यहां से उड़ान भरता है। नदी के मुहाने और एयरपोर्ट के बीच कोई बड़ी दीवार नहीं है। हमारे यहां एयरपोर्ट जिस तरह दीवारों से घिरे रहते है वैसा कुछ भी नहीं है। केवल एक छोटा सा बोर्ड नजर आया जिस पर लिखा था कि यह सुरक्षित क्षेत्र है यहां हर किसी को आने की अनुमति नहीं है।
यूनियन पार्क स्टेशन के करीब, कोलम्बस चौराहे पर जब हमने इस डक-टूर के बारे में पूछताछ की तो एक अधेड़ से गौरे अमेरिकी ने बहुत ही संयमित होकर हमें पूरी जानकारी दी। हमने टिकिट खरीदा तब उन्होंने बताया कि टूर में अभी करीब एक घंटा है, तब तक आप नेशनल पार्क तक घूम कर आ सकते हैं। जब हम लौटकर आए तब वहीं सज्जन कंडक्टर की तरह टिकिट चेक करते हुए नजर आए। हमने आखिर सबसे पीछे वाली सीट चुनी जहां से आगे और पीछे के नजारे खुलकर देखे जा सकते थे। हमें बहुत आश्चर्य हुआ जब उन्हीं सज्जन ने कहा कि अब हम डक-टूर के लिए रवाना होने वाले है और उन्होंने उस वाहन की सीढ़ी ऊपर कर दी। अचरज हुआ जब हमने देखा कि वही सज्जन सिर पर एक टोप पहनकर वाहन की ड्रायवर की सीट पर जाकर बैठ गए। वहां बैठे-बैठे ही उन्होंने कार्डलेस माइक्रोफोन लगा लिया। अरे, यह क्या? जो सज्जन टिकिट बेच रहे थे, वहीं कंडक्टर है और वे ही ड्रायवर भी। इतना तो ठीक था- हमारे टूर के गाइड भी वही सज्जन थे। उन्होंने घोषणा की कि जापानी फेस्टिवल सकूरा मत्सुरी के कारण आज यातायात बहुत अस्त-व्यस्त है, इस कारण हमें थोड़ा सा विलम्ब हो सकता है।

हमारे कंडक्टर- ड्रायवर - सह गाइड हमें बताते जा रहे थे कि हमारा वाहन किधर से जा रहा है और हमारे आसपास कौन-कौन से प्रमुख स्थान है। सबसे पहले उन्होंने यूनियन स्टेशन के पास जापानी अमेरिकन मेमोरियल के बारे में बताया। फिर हमें यूएस कोर्ट हाऊस दिखाया, जो वहां की सर्वोच्च अदालत का मुख्यालय है। नेशनल गैलेरी ऑफ आर्ट्स, नेशनल आर्काइव्स, यूएस नेवी मेमोरियल, ओल्ड पोस्ट ऑफिस पेवेलियन, व्हॉइट हाऊस, वाशिंगटन मोनुमेंट, लिंकन मेमोरियल और पेंटागॉन जेफरसन मेमोरियल होते हुए वह वाहन पोटोमेक नदी में उतर गया। नदी में से गुजरते हुए वहां के प्राकृतिक नजारे और वाशिंगटन डीसी की विशाल अट्टालिकाएं साफ नजर आ रही थी। यहां तक की रोनाल्ड रीगन इंटरनेशनल एयरपोर्ट का रनवे भी साफ नजर आ रहा था। डक-टूर के दौरान ही वाहन से हमें होलोकास्ट मेमोरियल, बॉटनिकल गार्डन, एयर एंड स्पेस म्यूजियम, अमेरिकन इंडियन म्यूजियम, स्मिथ सोनिअन म्यूजियम होते हुए वापस लाया गया।

मुझे यह बात बड़ी दिलचस्प लगी कि जो व्यक्ति सड़क पर वाहन चला रहा था वहीं व्यक्ति नदी में भी वाहन चला रहा था। इस दौरान उसने वाशिंगटन डीसी की जगहों से जुड़े तमाम ऐतिहासिक तथ्य हमें बताए और वह भी दिलचस्प अंदाज में। जब हमारा वाहन नदी में उतरा तब उसने हमें पीले रंग की एक व्हिसल दी, जिसमें फूंक मारने पर बतख की आवाज जैसी ध्वनि निकलती थी। गाइड ने हमें कहा कि हम उसे कितनी भी बार बजा सकते है। पोटोमेक नदी में डक-टूर के साथ-साथ हमें कई बतख भी पानी में तेरती मिली। अनेक लोग थे जो अपनी कारों के पीछे ट्रॉली में मोटर बोट लादकर लाए थे। हमारे वाहन के साथ-साथ वे लोग भी रिवर्स मोड में अपनी कार से मोटर बोट पानी में उतार रहे थे। वाहन में सवार बच्चों और किशोरों को एक-एक करके उस डक बोट को चलाने का अवसर भी उन्होंने दिया। इस दौरान वाहन चालक वहां मौजूद रहे। बोट पर सवार बच्चों और किशोरों का उत्साह देखते ही बनता था। इस यात्रा की सबसे बड़ी बात यह थी कि जब वह वाहन सड़क पर होता था तब हमारी सीट इतनी ऊंची थी कि कोई भी कार हमें साइड सिइंग से नहीं रोक सकती थी।
हमें बताया गया कि डक-टूर में उपयोग किया जाने वाला वाहन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान लड़े जाने वाले वाहन जैसा ही है। पर्यटकों के लिहाज से उसमें थोड़े से परिवर्तन किए गए थे। विश्व युद्ध के दौरान इन वाहनों का उपयोग एम्बुलेंस के तौर पर भी होता था और आग या पानी में तबाह हो रहे वाहनों को बचाने के लिए भी। पोटोमेक नदी में हमें कई लग्जरी मोटर बोट भी दिखीं।उन वाहनों में बार और रेस्टोरेंट की सुविधाएं भी थी। उनमें से कुछ तो वातानुकूलित भी थे। उनका किराया हमारे डक-टूर की तुलना में निश्चित ही काफी ज्यादा था। डक-टूर वाले वाहन के बारे में हमें यह भी बताया गया कि यह वाहन सड़क और नदी के अलावा उबड़-खाबड़ रास्ते पर भी धीमी गति से चल सकता है और रेतीली जमीन पर तेजी से दौड़ सकता है। इसी कारण विश्व युद्ध के दौरान यह वाहन उन जहाजों की मदद कर पाता था जो पानी में होते थे और बंदरगाह पर आने के लिए उनके पास समय नहीं होता था। पर्यटकों के लिए इस वाहन में सुरक्षा के सारे इंतजाम मौजूद थे। सुरक्षा जैकेट, वायरलेस सम्पर्क तंत्र, ध्वनि विस्तारक यंत्र आदि चीजें मौजूद थी। फस्र्ट ऐड का सामान भी उपलब्ध था।
अगर आप वाशिंगटन डीसी की यात्रा पर जाएं और कम समय में तथा कम खर्च मेंं घूमने की इच्छा रखते हो तब यह आपका मनपसंद टूर हो सकता है। डेढ़ घंटे में आप प्रमुख-प्रमुख स्थान की झलकियां देख सकते है। इसके बाद भी आपके पास वाशिंगटन डीसी के पर्यटन केन्द्र घूमने का समय तो बचता ही है। इस टूर के माध्यम से आप चयन कर सकते है कि कौन-सी जगह जाना आप पसंद करेंगे। वाशिंगटन डीसी के म्यूजियम, स्मारक और बगीचे आपका मन मोह लेंगे और मजबूर करेंगे कि आप ज्यादा से ज्यादा समय इसी शहर को समर्पित करें। और हां, अगर आप सकुरा मत्सुरी उत्सव के दौरान यहां जाएं तो खुले बगीचे और मैदान छोड़कर जाने की इच्छा नहीं होगी।
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वाशिंगटन डीसी में चेरी ब्लॉसम और सकूरा मत्सुरी की मस्ती

अमेरिकी डायरी के पन्ने (5)


मार्च के आखिरी दिनों में पूरा वाशिंगटन डीसी ही एक बगीचे की तरह हो जाता है। शहर में लगे चेरी के हजारों पेड़ों पर फूल खिल आते है और फूलों से लदे ये पेड़ एक अलग ही छवि बनाते है। मध्य अप्रैल आते-आते ये पेड़ अलग रूप धारण कर लेते है और इन पर फल आना शुरू होते है। चेरी के ये हजारों पेड़ अलग-अलग रंगों के है। गुलाबी, लाल, सफेद, बैंगनी फूलों से लदे ये पेड़ दुनियाभर के पर्यटकों को अपनी तरफ खींच लेते है। इन्हीं दिनों यहां जापानी फेस्टिवल सकूरा मत्सुरी भी होता है। कई प्रमुख सड़कें बंद कर दी जाती है और उन सड़कों पर जापान के हजारों लोग जमा हो जाते है।
जापानी वस्त्रों का मेला लग जाता है। जापानी खान-पान के स्टॉल खुल जाते है, जापानी संगीत और नृत्य से माहौल त्यौहारमय हो जाता है। कहीं जापानी भाषा में भाषण होते रहते है तो कहीं जापानी युवक-युवतियों की परेड, कहीं फैशन शो, तो कहीं मार्शल आर्ट का प्रदर्शन। कहीं जापानी कला व संस्कृति को प्रदर्शित करती नुमाइशें, तो कहीं जापानी स्मृति चिन्हों के बाजार। जगह-जगह जापानी युवक-युवतियों के नृत्य के लिए मंच सजे होते है। वाशिंगटन डीसी के ठीक बीच से बहती हुई पोटोमेक नदी के किनारों पर चेरी के इन वृक्षों की खूबसूरती देखती ही बनती है। सबसे पहले चेरी के इन वृक्षों को रोपने का काम पोटोमेक नदी के किनारे ही किया गया। आज भी पोटोमेक के किनारे-किनारे चेरी के इन वृक्षों के साथ-साथ टहलना अद्भुत अनुभव देता है।
दूर-दूर से जापानी लोग इस समारोह में आते है। ऐसा लगता है मानो हम वाशिंगटन डीसी में न होकर जापान के किसी शहर में जश्न मना रहे हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि जिस दिन जापानी फैस्टिवल मनाया जाता है वह और उसके आसपास के दिन ‘पीक ब्लूम’ के दिन होते हैं। पीक ब्लूम के बाद चेरी के पेड़ों से फूल झड़ना शुरू हो जाते है।
वाशिंगटन डीसी में कहीं भी जाए, ऐसे शानदार चेरी के वृक्ष कतारबंद नजर आते है। पूरा माहौल रंगीन हो जाता है। हमारे देश में जैसे होली के पहले पलाश के फूल जंगल में नजर आते है। पलाश के पेड़ों पर लाल फूलों की मात्रा सीमित होती है, लेकिन चेरी के पेड़ पर पत्ते नजर नहीं आते केवल फूल, फूल और फूल। चेरी ब्लॉसम फेस्टिवल और जापानी फेस्टिवल मिलकर वाशिंगटन डीसी को एक नया ही रूप दे देते है। 
वाशिंगटन डीसी के ये चेरी के पेड़ जापान और अमेरिका की दोस्ती के प्रतीक है। जापान ने करीब 50 हजार पौधे अमेरिका को समय-समय पर उपहार में दिए और उनकी देखरेख करने का तरीका भी बताया। करीब सवा सौ साल पहले इसकी अनौपचारिक शुरूआत हुई थी, लेकिन औपचारिक शुरूआत 1910 में हुई। जब 2000 पौधे जापान की तरफ से भेजे गए। 1912 में ऐसे तीन हजार पौधे और भेजे गए। धीरे-धीरे करके करीब 50 हजार पौधे अमेरिका को उपहार में दिए गए जो आज बढ़कर कई लाख हो गए। इसके बदले अमेरिका ने भी अपने देश के अनेक पेड़-पौधे और वनस्पतियां जापान को उपहार में दी। बरसों बरस वाशिंगटन में किसी भी प्रमुख समारोह में चेरी के पौधे रोपने का कार्य किया जाता रहा।
यूएसए की राजधानी होने के नाते वाशिंगटन डीसी में वैसे ही व्यवस्था बड़ी चाक-चौबंद होती है। चेरी ब्लॉसम और जापानी फेस्टिवल के दौरान तो यह और भी मजबूूत नजर आती है। किसी की क्या मजाल जो नियमों की अनदेखी कर दे। मेट्रो ट्रेन, बस और कारों में जापानी परिधानों में सजे जापानी नागरिक अलग ही नजर आते है। जापानी नागरिक आम अमेरिकियों से अलग है। वे आमतौर पर दुबले-पतले और कम ऊंचाई के होते है। बोलते इतना धीमे है कि आपको लगे कि वह फुस-फुसा रहे है। जापानी फेस्टिवल में सुबह आठ-साढ़े आठ बजे से ही भीड़ इकट्ठा होना शुरू होती है। मुख्य कार्यक्रम तीन बजे तक चलते है और उसके बाद भीड़ छंटने लगती है। वैसे ये कार्यक्रम शाम 6 बजे तक चलते है। इस दौरान लोग वाशिंगटन के प्रमुख स्थानों पर भी घूमने चले आते है। इसलिए हर जगह भीड़ ही भीड़ दिखाई देती है। वैसे भी वाशिंगटन डीसी संग्रहालयों, बगीचों और ऐतिहासिक इमारतों का शहर है। सभी प्रमुख सरकारी कार्यालय यहां है। व्हॉइट हाऊस भी इसी शहर में पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बना रहता है।
जापानी फेस्टिवल की विचित्र बात यह लगी कि स्ट्रीट फेस्टिवल होने के बावजूद सड़कें बंद करके इस कार्यक्रम के लिए टिकिट बेचे जाते है। 20 डॉलर का एक टिकिट। तीन बजे के बाद यहीं टिकिट 10 डॉलर का हो जाता है। मेले में खाने-पीने और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के पैसे अलग। वाशिंगटन में पार्किंग खासी महंगी है और मेट्रो ट्रेन हमारी दिल्ली की मेट्रो की तुलना में कई गुना महंगी और सुविधाहीन है। मेट्रो के सामान्य स्टेशनों पर न तो बैठने के लिए बेंच है, न रेस्ट रूम की सुविधा। खाने-पीने की स्टॉल भी कुछ एक स्टेशनों पर एक सीमित क्षेत्र में है। दिल्ली मेट्रो में यात्रियों को जानकारी देने की जो व्यवस्था है वैसी व्यवस्था वहां नहीं है। न तो ढंग से इंडिकेटर लगाए गए है और ना ही प्रॉपर अनाउंसमेंट होता है। मेट्रो ट्रेन में कर्मचारी भी गिने-चुने ही होते है। टिकिट खरीदना हो तो ऑटोमेटेड वेंडिंग मशीन से खरीदो। उसी टिकिट को मशीन में डालो और स्टेशन पर जाने का दरवाजा खुल जाता है। जापानी फेस्टिवल जैसे मौके पर भी वहां यात्रियों के लिए कोई अतिरिक्त सुविधा नजर नहीं आई। बड़ी संख्या में यात्री मदद के लिए यहां-वहां भटकते नजर आते है। वाशिंगटन की मेट्रो देखने के बाद यह बात दावे से कही जा सकती है कि हमारी दिल्ली या कोलकाता की मेट्रो ट्रेन वाशिंगटन डीसी की मेट्रो की तुलना में बहुत सस्ती, सुविधाजनक और आधुनिक है।
वाशिंगटन डीसी में भी लोग घरों से बाहर निकलने के पहले मौसम की जानकारी लेना नहीं भूलते। आमतौर पर आकाश खुला नहीं होता और जिस दिन बादल न हो उस दिन वहां के लोग उत्सव के मूड में आ जाते है। भारत में तो केवल बरसात के दिनों में ही बादल होते है। वहां जिस दिन धूप खिल जाए, लोगों के चेहरे खिल उठते है। अगर लगातार धूप न खिले तो उससे लोगों में मानसिक अवसाद की स्थिति पैदा होने लगती है।
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लोम्बार्ड स्ट्रीट में भरी दोपहर का सफर

अमेरिकी डायरी के पन्ने (4)


सेन फ्रांसिस्को की मशहूर रशियन हिल के इलाके की वह चमकीली दोपहर यादगार रही। जब हमारे मेजबान रमेश भाम्ब्रा जी ने कहा कि आप गाड़ी से उतर जाइए। मुझे लगा कि वे कहीं गाड़ी पार्क करने जा रहे है। फिर उन्होंने कहा कि आप सीढ़ियों से आ जाइए। बात मेरी समझ में नहीं आई, लेकिन मैं सीढ़ियों की ओर बढ़ा।
मैंने देखा कि रमेश गाड़ी चला रहे है और एक चौराहे के आगे धीमी गति से पहाड़ी सड़क उतर रहे है। वहां स्पीड लिमिट का निशान लगा था, जिस पर लिखा था 5। सड़क के दोनों तरफ फूलों की खूबसूरत क्यारियां और शानदार मकान। सेन फ्रांसिस्को का बे एरिया और गोल्डन गेट ब्रिज तो मशहूर है ही, इस सड़क के बारे में मैंने पहले नहीं सुना था। सड़क के दोनों तरफ बने शानदार मकानों में अमेरिका के कई मशहूर लोग रहते है, यह जानकारी भी मेरे लिए नई थी। दिलचस्प बात यह थी कि ऐसी चढ़ाई वाले इलाके में भी लोगों ने शानदार बगीचे और गैराज बना रखे थे। निश्चित ही वह वन-वे था। मैंने मुंबई और दिल्ली में बहुत से शहरी पहाड़ी इलाके देखें है, जो अब पहाड़ी कम ही नजर आते है। मुंबई में मलाबार हिल, कम्बाला हिल जैसे इलाके देखें है और दिल्ली में रायसीना हिल उसके आगे कुछ भी नहीं। मुझे बताया गया कि अगर इस सड़क पर कोई वाहन चालक बगैर दुर्घटना के वाहन चला लें तो समझो वह बहुत ही कुशल ड्रायवर है। 


सर्पीली सड़क सीमेंट कांक्रीट की बजाय लाल रंग की इन्टरलाकिंग ईटों से बनी है। अमेरिका के सबसे महंगे शहरों में से एक है सेन फ्रांसिस्को और सेन फ्रांसिस्को की यह सड़क दुनिया की सबसे महंगी आवासीय बस्तियों वाले क्षेत्र में मानी जाती है। इतनी सर्पीली सड़क होने के बावजूद भी वहां दुर्घटनाएं नगण्य होती है। इसका कारण यह है कि यातायात के नियमों का सख्ती से पालन होता है और यातायात पुलिस इस इलाके पर विशेष ध्यान रखती है। कार से उतरते समय जब एक के बाद एक घुमाव आते है तो सांस ऊपर की ऊपर रह जाती है। यह सड़क पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र है। 




इस घुमावदार सड़क के साथ ही सेन फ्रांसिस्को शहर की सुंदरता, पास का ही गोल्डन गेट ब्रिज, बे एरिया में बनी शानदार इमारतें, खाड़ी के तट पर खड़ी सुंदर नौकाएं और स्पीड बोट अनायास ही ध्यान खींच लेती है। दुनिया की सबसे घुमावदार इस सड़क के बारे में यह जानकारी दिलचस्प थी कि इससे भी खतरनाक सड़क वेर्मोण्ट 20वीं और 22वीं स्ट्रीट है, लेकिन वहां उतनी प्राकृतिक सुंदरता नजर नहीं आती, इसलिए उसकी प्रसिद्धि उतनी नहीं है। 




इस इलाके में रहने वालों ने 1920 से यहां बसना शुरू किया था। तब भी उन्हें लगता था कि यह जगह वाहन चलाने के लिए उपयुक्त नहीं होगी, लेकिन इसकी सुंदरता के आगे वे सब नतमस्तक हो गए। पूरी लोम्बार्ड स्ट्रीट को चौड़ा करके सीधी सड़क बनाने का स्थानीय निवासियों ने विरोध किया और पूरी सड़क को फूलों की क्यारियों से लाद दिया। इस सड़क पर फूलों के बीच से कारें रेंगती हुई धीरे-धीरे नीचे की तरफ आती है। वहां से सेनफ्रांसिस्को का सुंदर नजारा भी दिखता है। दर्जनों स्थानीय पर्यटक वहां कुछ इमारतों के आगे खड़े होकर फोटो खिंचाते नजर आते है। यह इमारतें वहां के प्रसिद्ध लोगों की है। हॉलीवुड की कई फिल्मों की शूटिंग यहां हुई है और होती भी रहती है। करीब 100 साल पुरानी इस बस्ती में कई भुतहा महलनुमा इमारतें भी है। अल्प्रेâड हिचकॉक की प्रसिद्ध फिल्म वर्टिगो इसी इलाके में फिल्माई गई थी। 
लोम्बार्ड स्ट्रीट के करीब खाड़ी तट पर अनेक बंदरगाह है। जिनमें पियर 39 सबसे लोकप्रिय पिकनिक स्थल है। यहां खाने-पीने की दर्जनों दुकानें है। दुनिया की सभी तरह की शराबें और खाद्य पदार्थ यहां उपलब्ध है। पर्यटकों को खरीददारी के लिए भी यह जगह मुफीद है। दुनियाभर की पर्यटक आपको यहां नजर आ जाएंगे। लोम्बार्ड स्ट्रीट अपने आप में अनूठी जगह है।
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Tuesday, May 12, 2015

बांग्लादेश में एक और ब्लॉगर की दिनदहाड़े हत्या

बांग्ला देश में  आज  12  मई की सुबह ब्लॉगर अनंत बिजॉय  दास की दिनदहाड़े  हत्या कर दी गई.

अनंत धार्मिक कट्टरपंथ के खिलाफ हमेशा लिखते रहते थे।  बांग्लादेश की राजधानी ढाका से करीब 240 किलोमीटर दूर स्थित सिलहट में यह घृणित-खूनी वारदात की गई। 





नकाबपोश कट्टरपंथी बदमाशों ने  अनंत बिजॉय दास पर गोश्‍त काटने वाले चाकू से हमला किया था।बांग्लादेश में चार माह में ब्लॉगर की हत्या की यह तीसरी वारदात है। अनंत बिजॉय दास भी उसी मुक्त-मन ब्लॉग में लिखा करते थे, जिसमें अविजित रॉय लिखा करते थे।

26 फ़रवरी को ब्लॉगर, लेखक, अनीश्वरवादी बुद्धिजीवी अविजित रॉय की हत्या भी ऐसे ही कर दी गई थी।(अविजित रॉय 'मुक्त-मन' ब्लॉग चलाते थे। वह बांग्लादेशी मूल के थे और पिछले कुछ सालों से अमेरिका में रह रहे थे।)  मार्च में भी  एक और ब्लॉगर वशीकुर रहमान की ढाका में ही हत्‍या  कर दी गई थी। तीनों हत्याएं एक  तरीके  से की गई हैं। 


अनंत बिजॉय  दास की हत्या की जिम्मेदारी अंसार अल इस्लाम नामक बांग्लादेशी संगठन ने ली है। इस अतिवादी  गुंडा संगठन की तरफ से ट्विटर पर यह बात उजागर की गई।  अनत को 2006 में मुक्त मन रेशनलिस्ट अवार्ड से सम्मानित किया गया था. अनंत  एक बैंक में कार्यरत थे और एक त्रैमासिक पत्रिका 'जुक्ति' के संपादक भी थे।  पुलिस ने हत्यारों को पकड़ने का दावा किया है। 

26 फरवरी को अविजित रॉय की हत्या के  बाद बांग्लादेश में व्यापक आंदोलन हुए थे, लेकिन यह खूनी खेल थम नहीं  रहा। 

क्यों की गई बांग्लादेश में सोशल मीडिया एक्टिविस्ट अविजित रॉय की हत्या 

http://prakashhindustani.blogspot.in/2015/02/blog-post_28.html?utm_source=BP_recent


Saturday, May 02, 2015

अमेरिका की डायरी के पन्ने (3)

नापा वैली : बोतल में बंद कविताएँ

तीन सप्ताह की अमेरिका यात्रा के अंत में उत्तरी  कैलिफोर्निया की नापा वेली में जाने का मौका मिला। यहां प्रकृति की अद्भुत सुंदरता के साथ ही शानदार मौसम का भी तोहफा मिला हुआ है। पूरी घाटी पहाड़ों से घिरी है और वहां करीब 450 वाइनरी़ज के साथ ही सैकड़ों होटल और रेस्टोरेंट खुल गए है। मुझे बताया गया कि यहां की मिट्टी और जलवायु ऐसी है कि यहां अंगूर की तरह-तरह की किस्मों की खेती करना संभव है। इस अंगूर से शराब बनाई जाती है। अंगूर भी तरह-तरह के। सफेद, हरे, लाल, कत्थई, भूरे और वे भी अलग-अलग आकार प्रकार के। इसके अलावा यहां गर्म हवा के गुब्बारों की सैर , गोल्फ कोर्स और वाइन ट्रेन और वाइन ट्रॉली आकर्षण का केन्द्र बनी है। 

अमेरिकी लोगों के लिए यह जगह  हनीमून के लिए आदर्श मानी जाती है। हनीमून के आने वाले कपल गर्म हवा के गुब्बारों की सैर करते है, घुड़सवारी का आनंद लेते है और तरह-तरह की वाइन तथा शैम्पेन चखते है। ऐसे जोड़े भी मिले जो घोड़ों की पीठ पर सवार होकर घूम रहे थे और उनके हाथों में शैम्पेन की बोतलें थी। नापा में सांस्कृतिक गतिविधियां भी होती रहती है। खासकर थिएटर के शो। 
किसी ने कहा है वाइन इज बोटल्ड पोएट्री अर्थात वाइन बोतल में बंद कविता है। वाइन लिकर नहीं है। आमतौर पर लोग वाइन को लीकर समझते है। जबकि वाइन को अमेरिका में खाद्य पेय माना गया है। नशा वाइन में भी होता है, लेकिन वैसा नहीं जैसा ज्यादा अल्कोहल वाली शराब में। नापा वेली में तरह-तरह की वाइन बिकती है और वहीं जाकर पता चला कि वाइन की अलग-अलग किस्में अलग-अलग समय पर पीने के लिए होती है। कुछ वाइन सुबह के वक्त पी जाती है, कुछ दोपहर के वक्त और कुछ रात के भोजन के समय। अलग-अलग वाइन के साथ अलग-अलग खाद्य पदार्थों के सेवन का भी चलन है। वाइन और शैम्पेन के साथ ची़ज का सेवन प्रचलन में है। मांसाहारी लोग वाइन पीते हुए चिकन, फिश या टर्की खाना पसंद करते हैं। यह खाना धीमे-धीमे होता है फाइन के सेवन के साथ।
वाइन पीने के तरीके भी बताए गए। वाइन के अलग-अलग तरह के ग्लास होते है। शैम्पेन के भी ग्लास अलग तरह के होते हैं। दिलचस्प बात पता चली कि रेड वाइन को सामान्य तापमान पर पीना पसंद किया जाता है, जबकि व्हाइट वाइन को पीना हो तो उसे एकदम चिल्ड पीना चाहिए। आपके हाथ से कांच का पैमाना गर्म हो सकता है इसलिए अलग-अलग तरीके से पैमानों को पकड़ने का तरीका भी बताया गया। नापा वैली में दर्जनों वाइन क्लब है। उन क्लब की सदस्यता लेने पर वाइन सस्ती मिल सकती है।
अधिकांश वाइनरी़ज ने अपने-अपने रेस्टोरेंट, बार, वाइन टेस्टिंग रूम्स, होटल आदि बना रखे है। इसके साथ ही वाइनरी़ज को घुमाने के कार्यक्रम भी चलते रहते है। डॉलर दीजिए और वाइनरी़ज का गाइड आपको अंगूर के खेतों के साथ-साथ उसकी फैक्ट्री, गोडाउन और रेस्टोरेंट में घुमाता हुआ बार तक लाकर छोड़ देता है। बार में आप पहले से निर्धारित श्रेणी में तरह-तरह की वाइन चख सकते है। वाइन चखने का तरीका भी अद्भुुत है। पैमाने में थोड़ी से वाइन डाली जाती है। उसे घुमाया जाता है और फिर पैमाने को नाक के करीब लाकर उससे उत्पन्न गैसों को सूंघा जाता है। इसके बाद एक घूंट भरना होता है और फिर उसे अपने पूरे मुंह में जुबान से घुमाया जाता है। जुबान के नजदीक की स्वाद की ग्रंथियां उस वाइन का स्वाद ग्रहण कर लेती है। एक के बाद एक लगातार वाइन चखिए और अंतर समझिए।

नापा वैली की यात्रा के दौरान वहां की मशहूर रॉबर्ट मांडवी वाइनरी में जाने का मौका मिला। इसकी स्थापना रॉबर्ट मांडवी ने की थी। 94 साल की उम्र में उनका निधन हुआ। रॉबर्ट मांडवी ने यहां न केवल अंगूर की खेती की, बल्कि वाइनरी, रेस्टोरेंट, होटल जैसे उपक्रम भी किए। यहां उन्होंने एक गिफ्ट शॉप भी खोली ताकि आप नापा वैली की यादगार को अपने साथ ले जा सकें। मूलत: इटली के निवासी रॉबर्ट मांडवी 1943 नापा वैली आए थे और यहां उन्होंने अंगूर की खेती शुरू की थी। 21 साल बाद 1966 में उन्होंने अपने दो बेटों की मदद से यहां वाइनरी खोली। रॉबर्ट मांडवी की बनाई हुई वाइन ने दुनियाभर में ख्याति प्राप्त की और यूरोप की सबसे लोकप्रिय वाइन में उनकी बनाई वाइन का शुमार हुआ। रॉबर्ट मांडवी के देखादेखी अनेक लोग यहां आए और उन्होंने भी यहां वाइनरी खोलना शुरू किया। रॉबर्ट मांडवी ने यहां से अकूत संपदा कमाई और 1937 से लेकर 1980 तक कई शादियां और तलाक के दौर से गुजरे। 1968 में रॉबर्ट मांडवी ने ओक से शराब बनाने का प्रयोग भी किया, जो बहुत सफल रहा। क्योंकि पूरी घाटी में ओक के वृक्षों की बहुतायत है। पिछले 25 वर्षों से रॉबर्ट मांडवी की वाइनरी़ज की वाइन दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित वाइन माने जाने लगी। 2005 में उन्होंने अपने भाई के साथ मिलकर केबरनेट ब्लेंड की वाइन बनाई थी। यह वाइन इतनी दुर्लभ मानी गई कि उसके एक बैरल (करीब 120 लीटर) की कीमत नीलामी में चार लाख डॉलर (करीब ढाई करोड़ रुपए) में बिकी। ‘अंकोरा उना वोल्टा’ (वन्स अगेन) नाम की इस वाइन की बिक्री से प्राप्त आय दान में दे दी गई।

रॉबर्ट मांडवी तरह-तरह की वाइन बनाने वाली कंपनियों का अधिग्रहण भी करते रहे। यह अधिग्रहण दुनियाभर की कंपनियों का किया गया। इसमें इटली की प्रमुख वाइन कंपनियों भी शामिल है।रॉबर्ट मांडवी ने 136 करोड़ डॉलर (करीब साढ़े आठ हजार करोड़ रुपए) में कांसेलेशन ब्रांड्स की वाइन कंपनी अधिग्रहित की। रॉबर्ट मांडवी ने अपनी कमाई से दान भी बहुत किए। उन्होंने रॉबर्ट मांडवी सेन्टर फॉर परफार्मिंग आर्ट्स के लिए एक करोड़ डॉलर और इंस्टीट्यूट ऑफ वाइन एण्ड फूड साइंस के लिए ढाई करोड़ अमेरिकी डॉलर दान किए। नापा वैली के प्रसिद्ध ऑपेरा हाउस और स्कूल के लिए भी उन्होंने काफी बड़े-बड़े दान किए। इसके अलावा विश्वविद्यालयों और थिएटर को भी वे समय-समय पर मोटे-मोटे दान देते थे। 16 मई 2008 को 14 साल की उम्र में उनका निधन हो गया।
रॉबर्ट मांडवी वाइनरी़ज में जाना किसी फाइव स्टार आर्ट सेन्टर मेंं जाने जैसा ही है। अंगूर के शानदार बागान, खूबसूरत कलाकृतियां, शानदार फव्वारें और भव्य रेस्टोरेंट वहां देखने को मिलते है। हर उम्र के लोग इस वाइनरी में देखें जा सकते है और दुनियाभर के टीवी चैनलों में जहां कहीं भी वाइन की चर्चा होती है इस वाइनरी की चर्चा की जाती है।

नापा वैली में वाइन टेस्टिंग एक तरह का लगातार चलने वाला जश्न है। चीन के कई कारोबारी अब यहां आ रहे है। 4 करोड़ डॉलर (करीब 250 करोड़ रुपए) की लागत से चीनी निवेशकों ने यहां रदरफोर्ड नाम की फाइनरी खरीदी है। चीनी निवेशकों ने यहां अपनी क्षमतानुसार न केवल निवेश किया है, बल्कि इस कारोबार को हथियाने में भी लगे है। उनका कहना है कि चीन उनके लिए सबसे बड़ा विदेशी बाजार है, जिसकी वृद्धि दर हर साल 20 प्रतिशत से अधिक है। यहां की वाइन महंगी भी होती है, जिसका फायदा चीनी लोगों को होगा।रॉबर्ट मांडवी वाइनरी़ज में जाना किसी फाइव स्टार आर्ट सेन्टर मेंं जाने जैसा ही है। अंगूर के शानदार बागान, खूबसूरत कलाकृतियां, शानदार फव्वारें और भव्य रेस्टोरेंट वहां देखने को मिलते है। हर उम्र के लोग इस वाइनरी में देखें जा सकते है और दुनियाभर के टीवी चैनलों में जहां कहीं भी वाइन की चर्चा होती है इस वाइनरी की चर्चा की जाती है।


रॉबर्ट मांडवी वाइनरी़ज में जाना किसी फाइव स्टार आर्ट सेन्टर मेंं जाने जैसा ही है। अंगूर के शानदार बागान, खूबसूरत कलाकृतियां, शानदार फव्वारें और भव्य रेस्टोरेंट वहां देखने को मिलते है। हर उम्र के लोग इस वाइनरी में देखें जा सकते है और दुनियाभर के टीवी चैनलों में जहां कहीं भी वाइन की चर्चा होती है इस वाइनरी की चर्चा की जाती है।
नापा वैली में वाइन टेस्टिंग एक तरह का लगातार चलने वाला जश्न है। चीन के कई कारोबारी अब यहां आ रहे है। 4 करोड़ डॉलर (करीब 250 करोड़ रुपए) की लागत से चीनी निवेशकों ने यहां रदरफोर्ड नाम की फाइनरी खरीदी है। चीनी निवेशकों ने यहां अपनी क्षमतानुसार न केवल निवेश किया है, बल्कि इस कारोबार को हथियाने में भी लगे है। उनका कहना है कि चीन उनके लिए सबसे बड़ा विदेशी बाजार है, जिसकी वृद्धि दर हर साल 20 प्रतिशत से अधिक है। यहां की वाइन महंगी भी होती है, जिसका फायदा चीनी लोगों को होगा।
नापा वैली में विमान कंपनी जेट ने भी अपना एक सेंटर खोल रखा है। इस केन्द्र में विमानों का रख-रखाव और पायलटों को ट्रेनिंग भी दी जाती है। वहां जाने की इच्छा तो थी, लेकिन समयाभाव के कारण जा नहीं सके। समयाभाव के कारण ही नापा वैली वाइन ट्रेन की यात्रा भी नहीं हो पाई और ना ही नापा वाइन ट्रॉली का सफर। 

नापा वाइन ट्रेन दुनिया की ऐसी ट्रेन है जो सीएनजी से चलाई जाती है। 29 किलोमीटर का सफर इस ट्रेन से किया जा सकता है और एक बार में 370 यात्री इस ट्रेन में यात्रा कर सकते है। 29 किलोमीटर का सफर तीन घंटे तक वाइन टेस्टिंग के साथ ही नजारे देखते हुए किया जा सकता है। इसी तरह एक बसनुमा वाहन भी चलता है जिसका नाम है नापा वाइन ट्रॉली। नापा वाइन ट्रेन सन् 1964 से चल रही है। बार-बार इसका स्वरूप बदलता रहा, लेकिन ट्रेन का सफर जारी है। हर साल 20 लाख यात्री इस ट्रेन में यात्रा करते है। चार स्टेशन पर यह ट्रेन रुकती है और ट्रेन की अंदर से वाइन पीते हुए संगीत और प्राकृतिक नजारों का लुत्फ लिया जा सकता है। इस ट्रेन में लाउंज, ऑब्जर्वेशन और डायनिंग कार शामिल है। जबकि नापा वाइन ट्रॉली एक चलता फिरता रेस्टोरेंट है, जो सड़क पर चलता है। इस ट्रॉली को आप निजी पार्टी के लिए भी किराये पर ले सकते है। इसका किराया मात्र 250 डॉलर प्रतिघंटा है और यह न्यूनतम 6 घंटे के लिए उपलब्ध है। 250 डॉलर के अलावा करीब 150 डॉलर के अन्य खर्चे भी है, इस तरह 2400 डॉलर में 6 घंटे की पार्टी का लुत्फ लिया जा सकता है। भारत में रहते हुए और डॉलर की कीमत देखते हुए ऐसी पार्टी की कल्पना करना मुश्किल है।
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अमेरिका की डायरी के पन्ने (2)

बीएचयू से भी बहुत पुराना है रटगर्स 

इंदौर का देवी अहिल्या विश्वविद्यालय 51  साल पुराना है। वाराणसी का बनारस हिन्दू विद्यालय 100  साल पुराना है और कोलकाता विश्वविद्यालय 198  साल। कोलकाता विश्वविद्यालय भारत का सबसे पुरातन विश्वविद्यालय है, लेकिन अमेरिका के न्यू जर्सी क्षेत्र में न्यू ब्रुंसविक का रटगर्स विश्वविद्यालय 250  साल पुराना है। जब अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने के लिए रटगर्स विश्वविद्यालय जाने का मौका मिला, तो वह अपने आप में बेहद सुखद अनुभव रहा।


रटगर्स अमेरिका के टॉप 60  विश्वविद्यालय में शामिल है। यह विश्वविद्यालय एक शोध विश्वविद्यालय के रूप में भी मशहूर है। शोध भी खासकर चिकित्सा के क्षेत्र में। इसके अलावा मनोविज्ञान, भाषा विज्ञान, कम्प्यूटर आदि के क्षेत्र में भी शोध होते रहे है। इसी विश्वविद्यालय में पेनिसिलिन की खोज हुई। यहीं के शोध के कारण चिकित्सा जगत में वाक्सवेन दुनियाभर में पहचाने गए, जिन्हें 1952  में चिकित्सा का नोबल पुरस्कार मिला। अंतरिक्षयानो की सुरक्षा से लेकर कैंसर की दवाइयों तक अनेक खोज यहां की गई। चिकित्सा जगत के अलावा कृषि क्षेत्र की अनेक दवाइयां यहीं खोजी गई। इंजीनियरिंग और स्टेम सेल साइन्स की खोजों में भी यहां के विद्यार्थियों का अमूल्य योगदान रहा है। सैकड़ों खोजें इस विश्वविद्यालय में हुई है और यही इसकी खूबी है। 


नेवार्वâ एयरपोर्ट से आधे घंटे की दूरी पर है न्यू ब्रुंसविक रेलवे स्टेशन। यहीं से शुरू होता है रटगर्स विश्वविद्यालय का परिसर। करीब 2766  एकड़ में बसा रटगर्स का क्षेत्र तीन हिस्सों में है। न्यू ब्रुंसविक शहर ही रटगर्स का पर्याय है। 2688  एकड़ में पैâला न्यू ब्रुंसविक केम्पस, 40  एकड़ में फैला केमडेन और 38  एकड़ में फैला नेवार्वâ। मुख्य केम्पस के अलावा दोनों केम्पस प्रशासकीय कार्यों के लिए है। 
रटगर्स विश्वविद्यालय में करीब 65,000  विद्यार्थी है, जिनमें से 20,000  विद्यार्थी स्नातकोत्तर कक्षाओं के है। इन्हें पढ़ाने के लिए करीब 3000  फैकल्टीज हैं, लेकिन इससे दो गुने से भी अधिक 6750  प्रशासकीय कर्मचारी है जो इस विश्वविद्यालय की गतिविधियों को संचालित करते है। विश्वविद्यालय को गत 250  वर्षों में कुल 92 करोड़ डॉलर (पौने छह हजार करोड़ रुपए) के बराबर दान मिल चुका है। 2013 -14  में इसका बजट 360  करोड़ डॉलर (22,000  करोड़ रुपए से अधिक) रहा है। यानी एक विद्यार्थी पर एक साल में करीब 35,00,000  रुपए के बराबर खर्च होते है। 

10  नवंबर 1766  को क्वीन्स कॉलेज के रूप में शुरू हुआ संस्थान 1885  में कर्नल हेनरी रटगर्स के नाम पर शिक्षा संस्थान के रूप में आगे बढ़ा। शुरुआत में यह केवल छात्रों के लिए था। छात्राओं को बाद में प्रवेश दिया जाने लगा। 1924  में इसे विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया। 1924  के बाद ही इसे को-एज्युकेशनल पब्लिक रिसर्च यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया। बाद में इसे स्टेट यूनिवर्सिटी कहा जाने लगा। इसका साधारण शब्दों में अर्थ यह है कि सरकारी क्षेत्र का विश्वविद्यालय है। इस विश्वविद्यालय में चिकित्सा और दंत चिकित्सा विभाग भी है और विश्वविद्यालय का अपना एक विशाल अस्पताल भी है। दूर-दूर से लोग इस विश्वविद्यालय के अस्पताल में इलाज के लिए आते है। इस विश्वविद्यालय में न्यू जर्सी के विद्यार्थियों को अपेक्षाकृत कम फीस देनी पड़ती है। न्यू जर्सी प्रशासन विश्वविद्यालय की मदद करता है। सरकारी मदद 2010-11  में 49  करोड़ 22  लाख डॉलर से अधिक थी। विद्यार्थियों को भी छात्रवृत्ति के रूप में 18  करोड़ डॉलर से ज्यादा की मदद की गई थी। एकेडमिक रैंविंâग ऑफ वल्र्ड यूनिवर्सिटीज (एआरडब्ल्यूयू) ने इसे विश्व में 52 वें रेंक पर रखा है और अमेरिका में 34 वें रेंक पर। टाइम मेग्जीन ने इसे विश्व की 103  नंबर की रेंविंâग दी है। सैकड़ों पाठ्यक्रम यहां उपलब्ध है। विद्यार्थियों के लिए कक्षाओं और होस्टल की सुविधा के अलावा नि:शुल्क यातायात, म्युजियम, लाइब्रेरिस, जिम्नेजियम, हेल्थ क्लब और सभी खेलों की सुविधाएं उपलब्ध कराई गई है। विश्वविद्यालय की 27  टीमें है, जो अलग-अलग खेलों में विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व कर रही है। इस विश्वविद्यालय परिसर की खूबी यह है कि यह आने के बाद यहां से बाहर जाने का मन ही नहीं करता। दुनियाभर के विद्यार्थी यहां अलग-अलग विषयों की पढ़ाई करते मिलेंगे। विश्वविद्यालय के अपने संगीत समारोह होते है, खेल प्रतिस्पर्धाएं होती है, पैâशन शो और अन्य गतिविधियां रोज के जीवन का हिस्सा है। परिसर में कहीं भी छात्र और छात्राओं के बीच, अमेरिकी और गैरअमेरिकी के बीच, श्वेत या अश्वेत के बीच कोई फर्वâ ऊपर से नजर नहीं आता। 
अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के आयोजन में रटगर्स की फैकल्टीज ने तो सक्रिय भूमिका निभाई ही, विद्यार्थियों ने भी सक्रिय भागीदारी की। विद्यार्थी ही थे जो सम्पूर्ण आयोजन की व्यवस्था कर रहे थे। इस व्यवस्था में सभागृह में मंच बनाने से लेकर बैठक व्यवस्था और भोजन व्यवस्था भी शामिल थी। आयोजन से जुड़ी एक-एक चीज पर बारिकी से गौर किया गया था। कितने बजे कार्यक्रम शुरू होगा, कार्यक्रम के पहले अतिथि कहां जाएंगे, कार्यक्रम के बाद लोगों का निकास कैसे होगा, अतिथियों की गाड़ियां कहां पार्वâ होगी। इस सबकी जानकारी लिखित में सभी को उपलब्ध करा दी गई थी। कार्यक्रम स्थल और पार्विंâग स्थल के नक्शे सभी को दे दिए गए थे। विश्वविद्यालय परिसर में नि:शुल्क संचालित बसों के बारे में पूरी जानकारी लोगों को दे दी गई थी। ये बसें विश्वविद्यालय परिसर में निरंतर संचालित होती रहती है और इनका कोई किराया नहीं होता। विद्यार्थी इन बसों में अपनी साइकलें भी ले जा सकते है। 
रटगर्स विश्वविद्यालय को देखने का अनुभव वास्तव में विशेष रहा। सेन फ्रांसिस्को के स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय को देखने के बाद अमेरिकी विश्वविद्यालयों के बारे में मेरी धारणा पूरी तरह बदल गई। भारतीय विश्वविद्यालयों की संसाधनहीनता का भी भान हुआ। अभी हमें विश्वविद्यालय की शिक्षा के क्षेत्र में बहुत आगे जाना है। यह बात भी समझ में आई कि क्यों हमारे देश के नेता और श्रेष्ठि वर्ग अपने बच्चों को अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पढ़ने भेजते हैं।
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अमेरिका की डायरी के पन्ने (1)

अंकल सैम का खजाना, जो अंकल सैम का नहीं है

न्यू यॉर्क के लिबर्टी स्ट्रीट पर 33 नंबर की बिल्डिंग है फ़ेडरल रिजर्व बैंक। मोटे-मोटे शब्दों में कहा जाए तो इस बैंक का काम वहीं है जो भारतीय रिजर्व बैंक का है, लेकिन इस बैंक में अमेरिकी सरकार की हिस्सेदारी नहीं है और न ही इसकी संपत्तियां अमेरिकी सरकार की हैं। जैसे भारतीय रिजर्व बैंक, बैंकों का बैंक है वैसे ही फ़ेडरल बैंक, अमेरिका के बैंकों का बैंक है। अमेरिका यात्रा के दौरान इस बैंक का एक शैक्षणिक टूर बड़ा दिलचस्प और यादगार रहा।

एक महीने पहले ही इस टूर के लिए ऑनलाइन  बुकिंग की जा चुकी थी। हमें समय मिला था दोपहर 12.30 बजे से 2 बजे तक। हम वहां करीब 12 बजे पहुंच गए थे, तो सुरक्षाकर्मी ने कहा कि आप 12.30 बजे ही प्रवेश कर सकते है। आधे घंटे न्यू यॉर्वâ की गलियों में घूमने के बाद हम 12.30 बजे वहां पहुंचे और तमाम जामा तलाशी और स्केनिंग के बाद हमें प्रवेश दिया गया। इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बंद करने का आदेश भी हुआ। पांच मिनिट बाद ही करीब 20 लोगों का ग्रुप तैयार था, जिसमें अमेरिकन, जापानी, जर्मनी और भारत के हम दो नागरिक शामिल थे। जब तक हमारी गाइड वहां नहीं पहुंची, तब तक हमें बैंक के कॉरिडोर में घूमने की अनुमति थी, वहां बैंक के बारे में तमाम सूचनाएं मौजूद थी। सुंदर तस्वीरें और महलनुमा अंदरुनी साज-सजावट वास्तव में दिल छूने वाली थी। 




थोड़ी ही देर में दो गाइड वहां पहुंची और हमारा बैंक का टूर शुरू हुआ। हमें कुछ वीडियो फिल्में भी दिखाई गई और फिर एक कक्ष में ले जाया गया, जहां अमेरिकी नोटों के बारे में जानकारियां थी। खुर्दबीन से उन नोटों को सैकड़ों गुना बढ़ा करके भी देखा जा सकता था। नोटों की एक-एक बारिकी समझाई गई और फिर हमारी गाइड हमें लेकर गई एक अलग कक्ष में। उस कक्ष में कांच के एक बड़े से बक्से में सौ-सौ डॉलर के नोटों का जखीरा रखा था। बताया गया कि उसमें कुल 3 करोड़ डॉलर रखे है। इतने बड़े जखीरे के बॉक्स को छूना भी अपने आप में एक अनुभव रहा।
इसके बाद हमें बताया गया कि अमेरिका में हर नोट की उम्र तय है। एक निश्चित अवधि के बाद उन नोटों को इकट्ठा करके नष्ट कर दिया जाता है। ऐसे ही एक दूसरे बक्से में लाखों डॉलर के नोटों की बारिक-बारिक कतरन में भरी हुई थी। अमेरिकी नोटों को जलाने की परंपरा नहीं है। डॉलर की उम्र तय करने के पीछे फ़ेडरल  बैंक की धारणा यह बताई गई कि किसी भी देश की मुद्रा उस देश के आर्थिक साम्राज्य से जुड़ी होती है। अगर किसी देश में कटे-फटे नोट चलते है तो इससे उस मुद्रा के महत्व का पता चलता है। अमेरिका में कोई भी नोट 22 माह से अधिक चलन में नहीं रहने दिया जाता।

इसके बाद हमें बताया गया कि बैंक की बिल्डिंग के नीचे की पांचवी मंजिल वाले तयखाने में ले जाया जाएगा, जहां खरबों डॉलर के सोने का भंडार है। सुरक्षाकर्मी हमें अलग-अलग समूह में लिफ्ट तक लेने गए और बताया कि बिल्डिंग में 11 मंजिल नीचे है, जिसमें से वे हमें पांचवीं मंजिल वाले तहखाने में ले जा रहे है, जो जमीन के स्तर से 110 फीट नीचे है। एक विशेष तरह की लिफ्ट में हमें ले जाया गया। उस लिफ्ट का दरवाजा पिंâगर प्रिंट लॉक से खुलता था और एक खास तरीके से ही उस लिफ्ट को संचालित किया जा सकता था। सुरक्षाकर्मी हमें नीचे लेकर गए जहां भारी गर्मी थी। एयर वंâडिशन होने के बावजूद हमें गर्मी का एहसास हो रहा था। वहां हमें एक दूसरी गाइड मिली की हम ऐसी जगह जा रहे है जो दुनिया की सबसे बड़ी सम्पदा है। इस सोने के भंडार का वजन ३७ हजार टन बताया गया। इस सोने की सिल्लियां सलीके से अलग-अलग खांचे में रखी गई। हमें लोहे के एक बड़े से जालीदार दरवाजे के पीछे रोक दिया गया, जहां से हम सोने की सिल्लियां देख सकते थे। इस सोने की कीमत दुनिया में सोने के भाव के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। मोटे-मोटे अनुमान के अनुसार उस सोने का तत्कालीन बाजार भाव 3 खरब अमेरिकी डॉलर से भी अधिक था। दिलचस्प बात यह है कि इस सोने में अमेरिका का खुद का हिस्सा केवल 2 प्रतिशत है।  98 प्रतिशत हिस्सा दूसरे देशों का है। खासकर के मित्र राष्ट्रों का। इन देशों ने अपना सोना वहां जमा कर रखा है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सोने की सुरक्षा कई देशों के लिए संकट बन गई थी और उन्होंने इसके लिए अमेरिकी फ़ेडरल बैंक को चुना।
हमें बताया गया कि बैंक की पूरी बिल्डिंग ही कांक्रीट की बनी हुई है। उन तहखानों को बम गिराकर भी नष्ट नहीं किया जा सकता। सुरक्षा का इंतजाम इतना तगड़ा की चीटीं भी नहीं पहुंच सकती। केवल कुछ अधिकृत लोग ही वहां जा सकते है और वह भी पर्याप्त शिनाख्त के बाद। इतनी बड़ी-बड़ी तिजोरियां और ताले थे, जिसकी कल्पना भी मुश्किल है। बिल्डिंग के बाहरी हिस्से में चट्टानों को काटकर इस तरह र्इंट की तरह लगाया गया और उस पर रंग पोता गया कि वे सोने की चट्टानें लगती थी और बिल्डिंग के अंदर किसी कार्पोरेट हाउस के मुख्यालय का अनुभव को होता था। इतनी भव्य और मजबूत बिल्डिंग के पीछे उसके आर्किटेक्ट की यह भावना बताई गई कि जब कोई भी मित्र राष्ट्र वहां अपना सोना डिपाजिट करेगा, तो उसके मन में यह भाव आना चाहिए कि उसका सोना पूरी तरह सुरक्षित है। किसी कैसल की तरह ही बिल्डिंग की सजावट की गई थी। जिससे यह भान होता था कि हम किसी महल में खड़े है। 
 
मेरे मन में उस सारे सोने और नोटों के बक्से को देखकर कोई विशेष भाव नहीं आया,  जो अपना है  ही नहीं, उसके बारे में क्या सोचना। मन बार-बार यहीं कह रहा था कि पूरी दुनिया की लूटी हुई दौलत इस बिल्डिंग में सुरक्षित है, जहां आना किसी के भी बस की बात नहीं। गाइड से मैंने पूछ ही लिया कि क्या कभी इस बिल्डिंग में लूट की कोशिश की गई थी। गाइड ने हंसते हुए कहा- केवल फिल्मों में ही यह हुआ है। अन्यथा किसी की कोई हिम्मत कभी भी नहीं हुई। तलघर की पांचवीं मंजिल से भूतल पर आने के बाद मैंने रेस्ट रूम के बारे में पूछा। रेस्ट रूम जाकर मैंने सबसे पहले लघुशंका की। हाथ थोए और बाहर आकर मन ही मन कहा कि अमेरिका के पेâडरल बैंक में कितनी भी दौलत हो मैं तो वहां वहीं करके आया, जो कर सकता था। 
यह एक कबीराना अंदाज था।
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(सभी चित्र फ़ेडरल बैंक के सौजन्य से)