Sunday, October 30, 2011

गुदड़ी के लाल की बेमिसाल कामयाबी

रविवासरीय हिन्दुस्तान (30 अक्तूबर 2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम


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जज्बे से बने पंचकोटि महामनी विजेता

खुश रहने के लिए 'मालदार और मशहूर' (रिच एंड फेमस) होना ज़रूरी नहीं है, वास्तव में खुश रहने के लिए केवल मालदार होना ही काफी है. बिहार के पूर्वी चंपारण के सुशील कुमार केबीसी की बदौलत अब फेमस भी है और रिच भी. उनके घर में टीवी सेट नहीं होने से वे केबीसी देखने पड़ोसी के घर जाया करते थे. उन्हें लगता था कि वे केबीसी में गए तो साढ़े बारह लाख या पच्चीस लाख रुपये तक ज़रूर जीत सकते हैं. लेकिन वे जीत गए पूरे पंचकोटि महामनी यानी पांच करोड़ रुपये. जीवन में उन्होंने कभी हवाई जहाज में यात्रा नहीं की थी लेकिन केबीसी की बदौलत वे अपनी पत्नी के साथ विमान में बैठ मुंबई पहुंचे. इस शो के कारण ही उन्होंने जीवन में दूसरी बार जूते पहने. (पहली मर्तबा अपनी शादी में पहने थे). अभी इस कार्यक्रम का प्रसारण अभी बाकी है इसलिए सुशील कुमार को प्रोग्राम के समझौते के अनुसार मुंबई में ही हैं. आखिर क्या खूबी है सुशील कुमार में कि उन्होंने पांच करोड़ रुपये का सवाल एक झटके में ही लॉक कर दिया? सुशील कुमार की सफलता के कुछ सूत्र :
खतरों से डरें नहीं
सबके सामने दो ही विकल्प होते हैं -- सुरक्षित और शांत बने रहें या खतरा उठाकर कामयाब बनें. सुशील के सामने भी यही सवाल था. उन्होंने दूसरे विकल्प को चुना. इसके पहले केबीसी-4 में प्रशांत नामक एक युवक बारह सवालों का सही जवाब देकर पांच करोड़ रुपये के तेरहवें सवाल तक पहुंचा था लेकिन वह डबल डिप में मात खाकर एक करोड़ के पायदान से नीचे गिरकर केवल केवल तीन लाख बीस हज़ार ही ले जा सका था. केबीसी के सीजन फोर में बिहार की ही राहत तस्लीम ने बारह सवालों का सही जवाब देकर एक करोड़ रुपये जीते और पांच करोड़ के सवाल को खेले बिना ही एक करोड़ लेकर खेल छोड़ चली गयीं थी. बारहवें सवाल का सही जवाब देने और एक करोड़ रुपये जीतने के बाद सुशील कुमार को भी ऐसा ही लगा कि कहीं वे चक्रव्यूह में फंस तो नहीं जायेंगे, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और चक्रव्यूह तोड़ने का फैसला किया.
हर जवाब बुद्धिमानी से
बिना खतरे के जीत यानी बिना सम्मान का ताज! हर सवाल का जवाब उन्होंने बुद्धिमानी से दिया. बारहवें सवाल का जवाब देकर जब सुशील ने एक करोड़ रुपये जीते तो ख़ुशी से चीख पड़े. उन्होंने अमिताभ बच्चन के पैर भी छुए और उनसे लिपट गए. जब तेरहवां सवाल सामने आया तब वे मन ही मन मुस्करा उठे. उन्हें उसका सटीक जवाब नहीं मालूम था लेकिन उनके पास दो दो लाइफ लाइन थी. उन्होंने एक लाइफ लाइन फोन ए फ्रेंड का उपयोग किया लेकिन कामयाब नहीं हो पाए. तब उन्होंने अपनी दूसरी लाइफ लाइन डबल डिप का उपयोग किया जिसमें उन्हें चार जवाबों के विकल्प में से दो जवाब देने थे. यहाँ उन्हें यूपीएससी की तैयारी में अर्जित अपना सामान्य ज्ञान बहुत काम आया. उन्होंने अपने ज्ञान का उपयोग सावधानी और बुद्धिमत्ता से किया और विजेता बने.
जॅकपॉट सवाल व जवाब
1868 में अंग्रेजों को निकोबार द्वीप समूह बेच कर किस देश ने अपना आधिपत्य छोड़ा था? यह था जैकपॉट सवाल। और इस सवाल के जवाब के विकल्प थे


ए. बेल्जियम

बी. इटली

सी. डेनमार्क और

डी. फ्रांस

फोन ए फ्रेंड में सही जवाब ना पाकर भी सुशील आशावादी थे क्योंकि अपने सामान्य ज्ञान के खजाने के आधार पर वह दो जवाबों के बारे में निश्चिन्त थे –

फ्रांस ने भारत छोड़ा नहीं था और इटली ने कभी निकोबार पर कब्ज़ा नहीं किया था। इसका साफ़ साफ़ अर्थ था कि फ्रांस तो गया ही नहीं था और इटली आया ही नहीं था तो जाने का सवाल ही कहां था? इस तरह चार में से दो जवाब अपने आप ही कट गए थे। बचे थे दो जवाब और उन्हें दो जवाब देने की पात्रता डबल डिप में थी ही। इस तरह या तो डेनमार्क हो सकता था या फिर फ्रांस। सुशील का डेनमार्क जवाब सही निकला और वह जीत गए पांच करोड़ रुपए।
साधनहीनता बाधा नहीं
नाकाम लोग कामयाब होने की केवल चाह रखते हैं, जबकि कामयाब लोग अपनी कामयाबी के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं. सुशील कुमार ने अपनी प्रतिबद्धता से बता दिया कि साधनहीनता कहीं भी सफलता में बढ़ा नहीं बन सकती. टूटी छत के तीन कमरे के कच्चे मकान में वे अपने माता-पिता, चार भाइयों, दो भाभियों और चार भतीजे-भतीजियों के साथ रहकर पढ़ाई करते थे. बीते मई में ही उनकी शादी सीमा कुमारी से हुई और वे मोतीहारी के नाका नंबर दो के नकछेद टोले के अपने घर से दूर पश्चिम चंपारण के बेतिया इलाके में चनपेटिया इलाके में नौकरी के कारण किराये का घर लेकर रहने लगे. नौकरी भी अस्थायी, महात्मा गाँधी नरेगा में कंप्यूटर डाटा एंट्री ऑपरेटर. वेतन से गुजरा होता नहीं था, इसलिए ट्यूशन पढ़ना मजबूरी थी. उन्होंने किसी भी साधनहीनता को बाधा नहीं बनने दिया, यहाँ तक कि घर में टीवी न होना भी उन्हें लक्ष्य पाने से नहीं रोक पाया.
सपने देखने में कैसा डर?
रूपया छठी इन्द्रीय की तरह है, उसके बिना आप बाकी पांच का आनंद नहीं ले सकते. शायद इसीलिये जब केबीसी के होस्ट अमिताभ बच्चन ने 'कौन बनेगा करोड़पति' के पंचकोटि महामनी विजेता युवक सुशील कुमार से पूछा था कि अब आपके सपने क्या हैं ? सुशील का जवाब था -- ''मैंने बहुत सपने देखे हैं, लेकिन जीवन की कड़वी सच्चाइयों ने मुझे बीच में ही रोक दिया था. मेरे ऊपर परिवार की ज़िम्मेदारी थी और छह हज़ार रुपये महीने की तनख्वाह! अब मैं अपने सपनों के बारे में, उन्हें अमली जामा पहनने के बारे में काम कर सकता हूँ.'' सुशील कुमार ने केबीसी-5 में पांच करोड़ रुपये का जीते हैं, इससे उनकी तात्कालिक आर्थिक तकलीफें दूर हो गयी हैं.
सफलता मंजिल नहीं, सफ़र
सुशील कुमार जानते हैं कि किसी भी क्षेत्र में सफलता कोई मंजिल नहीं, सफ़र है. पाँच करोड़ जीतने के बाद अब वे दिल्ली जाकर यूपीएससी की अपनी तैयारी करना चाहते हैं, क्योंकि अब उनके पास बेहतर संसाधन होंगे. उन्हें लगता है कि इससे उनकी नौकरशाह बनने की कोशिश आसान होगी और वे भारतीय प्रशासनिक या पुलिस सेवा में जा सकेंगे. वे अपने पढ़ने के शौक को भी पूरा करना चाहते हैं और अपनी लाइब्रेरी बनाना चाहते हैं. वे जानते हैं कि वे केवल पढ़ने के शौक के कारण ही यहाँ तक पहुंचे हैं.
सुशील कुमार इस इनामी धनराशि से अपने खुद के लिए और अपने माता-पिता और भाइयों के लिए मकान बनवाना चाहते हैं. साथ ही वे अपने भाई के कारोबार में भी धन लगायेंगे जो अभी केवल 1500 रुपये महीने में नौकरी कर रहे हैं. वे अपने इलाके में भी वाचनालय खोलना चाहते हैं. इसी दिसम्बर में वे अपने जीवन के अट्ठाईस साल पूरे कर लेंगे, तब तक पाँच करोड़ का चेक नकदी में आ चुका होगा और टैक्स देने के बाद भी वे करोड़पति ही रहेंगे.
प्रकाश हिन्दुस्तानी


हिन्दुस्तान 30 अक्तूबर 2011 को एडिट पेज पर प्रकाशित)

Sunday, October 23, 2011

रविवासरीय हिन्दुस्तान (23/10/2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम




बल्ले से लिखा वन डे का इतिहास

विराट कोहली कभी भारतीय क्रिकेट टीम में सचिन और युवराज सिंह की बेहतरीन स्टेपनी हुआ करते थे. जब कभी वरिष्ठ खिलाड़ी अनफिट होते, विराट वहां फिट हो जाते थे. 2010 में उन्होंने अपनी भूमिका निश्चित कर ली थी जब आस्ट्रेलिया के खिलाफ उन्होंने 121 गेंदों पर 118 रनों का पहाड़ खड़ा कर भारत की जीत को पक्का कर लिया था. यह ऐसी जीत थी जिस पर विराट के बगैर चर्चा नहीं हो सकती थी. हाल ही फिरोजशाह कोटला में उन्होंने 98 गेंदों पर 16 चौकों की मदद से 112 रन बनाकर इंग्लैण्ड की टीम को ऐसा हराया कि उसने वन डे नहीं, सीरिज का ही फैसला कर दिया. विराट कोहली की वाहवाही जीतनी शतक बनाने से हुई, उससे कहीं ज्यादा शतक बनाने के अंदाज़ से हुई. सीरिज का तीसरा वन डे जीतते ही भारत की आईसीसी वन डे रेंकिंग पांचवे से तीसरे पायदान पर पहुँच गयी और विराट कोहली की वन डे बल्लेबाजी की रेंकिंग धोनी से एक पायदान ऊपर चौथे नंबर पर आ गयी. 'स्टेपनी' से सिकन्दर बनने तक के विराट कोहली की सफलता के कुछ सूत्र :
लक्ष्य के लिए न्योछावर
आज लोग विराट कोहली में सचिन जैसे सुपरस्टार होने की संभावनाएं देख रहे हैं तो उसके पीछे खेल के लिए उनका समर्पण और कड़ी मेहनत है. कोटला स्टेडियम से कोहली का पुराना नाता है. वे यहाँ कई बार खेल चुके हैं, लेकिन दिसंबर २००६ में वे इसी जगह दिल्ली की तरफ से रणजी ट्राफी के लिए कर्णाटक के खिलाफ खेलने आये थे और उन्हें बुरी खबर मिली थी कि उनके पिता प्रेम कोहली का 54 साल की उम्र में हार्ट अटैक आने से निधन हो गया था. यह विराट के जीवन की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा थी. पूरी टीम शोकाकुल थी और जांबाज़ विराट अड़े थे कि बेटिंग मैं ही करूंगा. उस नौजवान ने बेटिंग की और 90 रन बनाकर दिल्ली को जिताया.
झटकों से न घबराएँ
ज़िंदगी के ग्राफ में उतार - चढ़ाव केवल शेयर बाज़ार में ही नहीं, आम ज़िंदगी में भी आते हैं. विराट कोहली ने अंडर 17 , अंडर १९ और इमर्जिंग प्लेयर्स टूर्नामेंट्स में तो शानदार प्रदर्शन किया था लेकिन वन डे में उनका ग्राफ ऊपर नीचे डोलता रहा है. आईपीएल फर्स्ट सीजन फ्लॉप, सेकण्ड सीजन भी फ्लॉप, आइडिया वन डे में ओपनिंग मिली तो केवल बारह रन पर आउट. दूसरे मैच में केवल 37 रन ही बने. चौथे मैच तक आते आते निर्णायक ५४ रन बना लिए. यह थी वन डे मैचों में श्री लंका में श्रीलंका के खिलाफ भारत की पहली जीत ! लेकिन जब भारत में श्रीलंका के खिलाफ मैच हुआ तब वे खेल ही नहीं सके क्योंकि वे सचिन और सहवाग की स्टेपनी थे, और ये दोनों खिलाड़ी फिट हो चुके थे.
अंध विश्वासों से दूरी
कोटला के बारे में कहा जाता है कि वहां दिल्ली के खिलाड़ियों को नहीं फलता, लेकिन विराट कोहली और गौतम गंभीर दोनों ने ही इसे झूठ साबित किया. गत सोमवार को उन्होंने कोटला में सेंचुरी बनाने के पहले गेंद्बाज़ी भी की थी और पांच ओवर में बिना कोई विकेट लिए केवल अठारह रन ही खर्च किये थे. खेल के मैदान में विराट ने यह बात गलत साबित कर दी थी कि कोई भी मैदान लकी या अनलकी होता है.
दिमाग ठंडा रखना आवश्यक
खेल कहीं भी हो रहा हो, किसी के भी विरुद्ध हो रहा हो, दिमाग को ठंडा रखना ज़रूरी है, वरना गड़बड़ हो सकती है. विराट कोहली का खेल और केवल खेल आक्रामक होता है, उनकी भाव भंगिमाए. सामान्य होती हैं और वे जुबां से आक्रामक कम ही होते हैं. उनका फार्मूला यह है कि दिमाग को ठंडा रखकर ही खेला जा सकता है. उनका मानना है कि क्रिकेट शुद्ध रूप से दिमाग से खेला जानेवाला खेल है.
नेतृत्व की बात मानो
विराट कोहली ने जैसा प्रदर्शन किया है उससे यह साफ़ है कि उनमें आलराउंडर होने की सारी संभावनाएं है. यकीन कप्तान महेंद्रसिंह धोनी नहीं चाहते कि विराट कोहली आलराउंडर बनने की कोशिश भी करे. विराट ने कोटला में शतक बनने के पहले अच्छी गेंदबाजी की थी, लेकिन धोनी का मानना है कि विराट की गेंदबाजी थोड़ी जटिल किस्म की है और उससे चोटिल होने का खतरा बना रहता है. ऐसे में विराट को मैदान में रखना खतरनाक हो सकता है. अच्छा है कि विराट वही काम करे, जिसके लिए उन्हें तैनात किया गया है. जरूरत पड़ने पर उनसे तीन से पांच ओवर तक की गेंदबाजी करवाई जा सकती है. विराट ने धोनी बात को पूरी तवज्जो दी है.
नए नियमों का ज्ञान रखें
क्रिकेट के नए नियमों से विराट कतई इत्तेफाक नहीं रखते. खासकर रन आउट के नियमों से. उन्हें इन नियमों की पूरे जानकारी है, लेकिन इसके व्यावहारिक पहलू भी हैं. नए नियमो के अनुसार अगर अम्पायर को लगे कि बल्लेबाज़ बिना किसी कारण के रन लेते समय अपनी विकेट बचने के लिए विकेट के बीच में ही यदि अपनी दौड़ाने की दिशा बदलता है तो उसे आउट करार डे दिया जाता है. नए नियम से दोनों छोर से नयी गेंद का उपयोग किया जा सकता है और सोलहवें और चालीसवे ओवर में पावर प्ले लेना अनिवार्य है.
होनहार विराट कोहली के बारे में अब अगर दक्षिण अफ्रीका के खिलाड़ी जोंटी रोड्स कह रहे हैं कि विराट में सचिन जैसे सुपरस्टार होने के तमाम गुण हैं तो वे गलत कुछ भी नहीं कह रहे है,
---- प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिंदुस्तान (23/10/2011) को एडिट पेज पर प्रकाशित

Sunday, October 16, 2011

रफ़्तार और संतुलन का महारथी

रविवासरीय हिन्दुस्तान (16 अक्तूबर 2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम





रफ़्तार और संतुलन का महारथी

प्लेब्वॉय की छवि वाले और फार्मूला वन के जानेमाने ड्राइवर मार्क ऐलन वेबर की दिली इच्छा भारत में आकर आस्ट्रेलिया और भारत के बीच क्रिकेट मैच देखने की है, लेकिन भारत के लाखों फार्मूला वन रेस के दीवाने उन्हें फार्मूला वन रेस में उनका वाहन दौड़ते हुए देखना चाहते हैं. अपने खेल के कैरियर की शुरूआत बॉल ब्वाय के रूप में करनेवाले मार्क वेबर की गिनती दुनिया के सबसे अच्छे फार्मूला वन ड्राइवरों में की जाती है. वे फार्मूला वन कार को सबसे कम समय में सबसे तेज़ गति पर दौड़ाने में भी माहिर हैं. फार्मूला वन के दीवानों का कहना है कि यह कोई खेल नहीं, 'एनर्जी मैनेजमेंट' है, जहाँ अनेक बातों का ध्यान रखना पड़ता है. लाखों लोगों को दीवाना बनानेवाले मार्क वेबर की सफलता के कुछ सूत्र :
जो आगे, वही सिकंदर
खेल कोई भी हो, जीत के लिए पहले ही दौर में सबसे आगे रहना हमेशा फायदेमंद होता है. उसमें गति का भी अपना बहुत महत्व होता है. गति के बिना खेल में न तो मज़ा है और न ही जीत. इस पर भी बात अगर फार्मूला वन की हो तो कहना ही क्या? हाल ही में लन्दन की सिल्वरस्टोन रेड बुल टीम के सदस्य मार्क वेबर ने एक मिनट 30.399 सेकेंड 5.14 किलोमीटर लम्बी सिल्वरस्टोन सर्किट का एक चक्कर लगाया। यह अब तक का सर्वश्रेष्ठ समय है. उनका रेस का अपना नियम यह है कि हमेशा पहले ही क्रम में पहली पोजीशन पकड़ लो. अगर किसी को सालाना इम्तहान में अव्वल आना है तो उसे हर टेस्ट में अच्छे नंबर लाना चाहिए.
शक्ति का संचय और गति
खेल हो या जीवन के कोई भी क्षेत्र, आगे रहने के लिए सदैव अपनी शक्ति का संचय करें और उसे रंचमात्र भी व्यर्थ न जाने दें. विजेता बनना हो तो अपनी पूरी ताकत, पूरा मनोयोग उस लक्ष्य को पाने में लगा दें. यही फार्मूला है फार्मूला वन के चैम्पियन का. मार्क वेबर जो भी काम शुरू करते हैं, उसमें अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं. मज़ेदार बात यह है कि जब उन्होंने फार्मूला वन में हिस्सा लेना शुरू भी नहीं किया था, तब से वे इसी सूत्र को अपनाये हुए हैं और इसी के सहारे हर जगह अव्वल रहने की कोशिश में लगे रहते हैं.
विविधता भरा हो जीवन
मार्क वेबर खेल की दुनिया में दुनिया में सबसे ज्यादा दौलत कमानेवालों में से हैं. 2010 में ही उन्होंने करीब 65 करोड़ रुपये कमाए. उनकी छवि कभी एक प्लेब्वॉय की रही है, लेकिन वे शराब के शौक़ीन नहीं हैं. वे अपनी जीवनसाथी से बहुत प्यार करते हैं और हर रोज़ उन्हें कहते हैं कि आज वे अपना जन्मदिन मना रहे हैं क्योंकि वे अकेले नहीं हैं. वे १३ वर्षों से ऐन नील के साथ रह रहे हैं जो उनका पूरा ध्यान रखती हैं. मार्क वेबर कई खेल खेलते हैं, जिनमे रग्बी और टेनिस शामिल है. वे एफ वन प्रो-एएम टेनिस के तीन बार के विजेता भी है.
निडर और जीवटता
फार्मूला वन के ड्राइवर होने के नाते उनका जीवन खतरों से भरा है और वे इसे जानते हैं. फार्मूला वन में करीब २५० किलोमीटर की गति से उनकी गाड़ी की टक्कर होने के बाद उनकी जान जाते-जाते बची थी और वे अपनी टांग भी तुड़वा चुके हैं. इसके अलावा वे साइक्लिंग के दौरान भी एक दुर्घटना के कारण कई दिनों तक अस्पताल में रहे. इस दौरान उनके मन में कई बार अच्छे -बुरे ख्याल आये. कई बार उन्हें लगा कि अब वे शायद कभी भी फार्मूला वन रेस में हिस्सा नहीं ले पायेंगे. अपनी जीवटता के करना ही वे बुरे हालात से बाहर आ सके.
असंभव कुछ नहीं
जो लोग समझते हैं कि यह दुनिया में बहुत से काम असंभव हैं उन्हें यह मन लेना चाहिए कि असंभव कुछ भी नहीं. कुछ कम कठिन हो सकते हैं, पर असंभव नहीं हैं. वे आस्ट्रेलिया में जन्मे और बचपन में उन्होंने रग्बी खेल के मैदान में बॉल ब्वॉय का काम किया.
रेसिंग उन्हें पसंद थी और उन्होंने 14 साल की उम्र में रेसिंग शुरू की. फॉर्मूला वन वर्ल्ड चैपियन एलेन प्रॉस्ट उनके बचपन के हीरो थे। मार्क वेबर ने शुरूआत कार्ट रेसिंग से की। 1993 में वे न्यूसाउथ वेल्स स्टेट चैम्पियनशिप के विजेता बने। 1995 एडीलेड में ऑस्ट्रेलियन ग्रां प्री के दौरान हुई सपोर्ट रेस जीती। 1995 में 21 वर्ष की उम्र में मार्क यूके चले गए। मार्क वेबर का एफ वन कैरियर 2002 में ऑस्ट्रेलियन ग्रां प्री से शुरू हुआ। एफ वन की पहली जीत मार्क वेबर को सात वर्ष बाद 2009 में रेडबुल टीम के ओर से जर्मन ग्रा.प्री. में मिली। वेबर पिछले सात वर्ष से रेडबुल टीम के ड्राइवर हैं और अब अगले वर्ष वे संन्यास लेने की सोच रहे हैं.
दान का महत्व न भूलें
इसमें दो मत नहीं कि वेबर ने बहुत कमाई की है लेकिन वे चैरिटी के महत्व को समझते हैं. वे कभी कैसर पीड़ित बच्चों के लिए तो कभी गरीब बच्चों के लिए कोई न कोई खेल का आयोजन करते रहते हैं. ये आयोजन रेस के या साइक्लिंग के होते हैं. करोड़ों रुपये वे ऐसे आयोजनों से हर साल इकठ्ठा करते हैं, और उसे भलाई के काम में लगा देता हैं. उनका अहंकार से दूर सामान्य रूप से जीने का अंदाज़ भी लोगों को पसंद आता है.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

(दैनिक हिन्दुस्तान में संस्करणों में 16 अक्तूबर 2011 को प्रकाशित)

Sunday, October 09, 2011

धैर्य और साहस ने दिलाया नोबेल

रविवासरीय हिन्दुस्तान(09 अक्तूबर 2011) के एडिट पेज पर मेरा कॉलम







धैर्य और साहस ने दिलाया नोबेल

'अफ्रीकी आयरन लेडी' कहलानेवालीं लाइबेरिया की राष्ट्रपति एलेन जॉन्सन सरलीफ़ और दो अन्य महिलाओं को इस वर्ष का नोबेल शांति पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है. यह लोकतंत्र और शान्ति की स्थापना में उनके प्रयासों का सम्मान है. एलेन जॉन्सन सरलीफ़ लाइबेरिया में लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी पहली महिला राष्ट्रपति हैं. नोबेल पुरस्कार समिति की वेबसाइट के अनुसार उन्होंने लाइबेरिया में सांति की स्थापना के साथ ही आर्थिक और सामाजिक विकास पर भी ध्यान दिया और महिलाओं की सुरक्षा और विकास में भागीदारी सुनिश्चित करने में अहम् भूमिका निभाई. निर्धन माता पिता की बेटी एलेन ने संघर्षों के बाद अपनी पढ़ाई पूरी की और अपने करीयर में ऊंचाइयां छूते हुए देश के सर्वोच्च पद तक पहुँची और वैश्विक सम्मान पाया. एलेन जॉन्सन सरलीफ़ की सफलता के कुछ सूत्र:
पढ़ाई के कोई विकल्प नहीं
कोई कहीं भी पैदा हो, किसी भी परिवार का हो, माता पिता कितने भी असहाय हों, लेकिन अगर पढ़ाई ठीक से की हो तो वह न केवल अपने हालात बदल सकता है, बल्कि दुनिया को भी बदलने की ताकत रखता है. गरीब माता- पिता की संतान होने के बावजूद एलेन जॉन्सन सरलीफ़ ने पढ़ाई पर पूरा ध्यान दिया. केवल सत्रह साल की उम्र में शादी कर दी गई लेकिन उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी. उन्होंने शादी के बाद पति के साथ यूएस जाकर पढ़ाई जारी रखी और अर्थशास्त्र तथा लोक प्रशासन में डिग्री प्राप्त की. पांच संतानों को जन्म और पति से तनाव के बाद भी पढ़ाई ने ही उनका साथ दिया और वे सिटी बैक में नौकरी पा सकीं. पढ़ाई के कारण ही वे विश्व बैंक के डायरेक्टर तक की कुर्सी तक पहुंची, जिसने उन्हें न केवल आर्थिक रूप से सबल बने बल्कि आर्थिक जगत को देखने-समझने की शक्ति भी दी.इसी पढ़ाई की शक्ति को उन्होंने अपने देश की महिलाओं और बच्चों तक पहुंचाया और शिक्षा को विकास का हथियार बनाया.
हिम्मत रखें
जब एलेन जॉन्सन सरलीफ़ ने राष्ट्रपति की कुर्सी संभाली थी, तब लाइबेरिया के हालात बदतर थे. लखनऊ, पटना और कानपुर से भी कम आबादीवाले देश लाइबेरिया में 80 फीसदी (जी हाँ, अस्सी प्रतिशत) बेरोज़गारी थी, आधी से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा के नीचे बसर कर रही थी, शहरों, कस्बों की बात तो छोड़िये राजधानी मोनरोविया में भी बिजली गुल थी और पीने के पानी का तितरण बंद था. भ्रष्टाचार, महिलाओं-बच्चों पर ज्यादतियां आम बात थी और चौदह साल के गृह-युद्ध में 41 लाख की आबादीवाले में से ढाई लाख लोग मारे जा चुके थे. बदतर हालातों में भी उन्होंने हौसला नहीं खोया और नयी रहें कहे जाने में जुटी रहीं. काल्पन कीजिये राष्ट्रपति बनाने के बाद उनका पहला बड़ा काम क्या था? राजधानी में जलप्रदाय शुरू कराना. उनके पास करने के लिए काम ही काम थे, वे एक एक कर ये काम करती गयी.
आर्थिक आज़ादी का महत्व
एलेन जॉन्सन सरलीफ़ ने राष्ट्रपति बनते ही आर्थिक आज़ादी की दिशा में बढ़ने की शुरुआत की. उन्हें लाइबेरिया का पुनर्निर्माण करना था. अर्थव्यवस्था में सुधार करना था. क़र्ज़ से मुक्ति उनका पहला लक्ष्य था. छह साल के कार्यकाल में उन्होंने सबसे पहले अपने देश पर चढ़े चार डॉलर के क़र्ज़ को मुक्त करने के लिए प्रयत्न किये और यूएस,जर्मनी और विश्व बैंक के क़र्ज़ माफ़ कराये. सोलह अरब डॉलर का निवेश अपने देश में आकर्षित कराया. विकास की दर को पांच से बढ़कर साढ़े नौ प्रतिशत तक पहुंचाया. हीरा, लौह अयस्क, रबर, लकड़ी, कॉफ़ी, कोको आदि के निर्यात को बढाया देकर विदेशी मुद्रा कमाने और नए रोजगार पैदा करने के प्रयास किये. सरकरी बजट पर होनेवाला खर्च चार साल में बढ़ाकर करीब चार गुना से ज्यादा करने में सफलता पायी. लाईबेरिया हजारों स्कूल, अस्पताल और व्यापारिक केंद्र बनाये गए और नए लाइबेरिया के निर्माण में जनसहयोग का अभियान चलाया गया.
आरोपों से डरें नहीं
एलेन जॉन्सन सरलीफ़ पर विदेशी दबाव में काम करने, विद्रोहियों को लाभ पहुँचाने, अमेरिका की सरपरस्ती, भ्रष्टाचार को बढ़ाने, देश के हित को गिरवी रखने, लाइबेरिया की सम्पदा को लुटाने जैसे कई आरोप लगे लेकिन उन्होंने साफ साफ़ कहा कि राष्ट्रपति के रूप में आप क्या करेंगे अगर आप आरोपों से डरने लग जाएँ. असली बात तो यह है कि लाइबेरिया के आर्थिक हालात में सुधार हो और लोगों का जीवन स्तर सुधरे. मेरा राष्ट्रपति बनना बेकार होगा अगर मेरे देश वासियों की बदहाली ऐसी ही रही. उनके विरोधियों ने उन पर लगातार राजनैतिक हमले जारी रखे , लेकिन वे विचलित हुए बिना अपने काम में जुटीं रही.
समस्या की जड़ तक जाएँ
राष्ट्रपति अगर आप कोई भी समस्या हाल करना चाहते हैं तो उसको जड़ों से ख़त्म कीजिये वरना वह फिर पैदा हो जायेगी. राजनैतिक मोर्चे पर उन्होंने अपने विरोधी दलों और छोटी छोटी पार्टियों को विश्वास में लेने की कोशिश की जिससे कि वे भी सुधार और बदलाव में हिस्सेदारी निभा सकें. उन्होंने लाइबेरिया में 'ट्रुथ एंड रीकन्सिलिएशन कमीशन' ( सत्य और सामंजस्य आयोग) गठित किया जिससे राष्ट्रीय स्तर पर शांति, सामंजस्य, भाईचारा और एकता को बढ़ावा दिया जा सके. इस आयोग की रिपोर्ट को लेकर कई बार बहस हुई और सुप्रीम कोर्ट तक भी मामले गए. राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कोशिश की कि न्याय व्यवस्था में सुधार हो, प्रशासकीय ढांचा सुधरे और वे लोकोपयोगी अल्प और दीर्घकालीन कार्य करें.
समझौता न करें
अगर आपने बात बात पर समझौते कर लिए तो लक्ष्य तक जाना आसान न होगा. एलेन जॉन्सन सरलीफ़ ने अपने एक नज़दीकी रिश्तेदार को भ्रष्ट आचरण के मामले में हटा दिया. गत वर्ष उन्होंने अपने १९ में से सात मंत्रियों को बदल दिया था. यहाँ तक कि के व्यवहार से क्षुब्ध होकर तलाक का रास्ता भी उन्हें अपनाना पड़ा. उन्होंने महिलाओं पर उनके पति के अत्चारों के खिलाफ भी मोर्चा खोला. गृह युद्ध के दौरान वे जेल में रहीं, तब एक सैनिक ने उनसे बलात दुष्कर्म की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहा. कैद में उन्होंने कष्ट सहे और निर्वासित जीवन भी जिया. ''लोगों को यह बात याद रखनी चाहिए कि मैंने क्या क्या काम किये है और कैसे कैसे हालात में लड़ाइयाँ लड़ी है. संघर्ष में मैंने भी बहुत कुछ खोया है.'' २०१० में 'न्यूजवीक' ने उन्हें विश्व के दस शीर्ष नेताओं में माना था, 'टाइम' ने उन्हें दुनिया की दस सबसे प्रमुख नेताओं में गिना था और 'इकानामिस्ट' ने उन्हें लाइबेरिया की सबसे योग्यतम राष्ट्रपति बताया था.
--प्रकाश हिन्दुस्तानी

(दैनिक हिन्दुस्तान 09 अक्तूबर 2011 के संस्करणों में प्रकाशित)

Sunday, October 02, 2011

नफ़रतों को जीतने की कामयाबी

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज 2 अक्तूबर 2011 को प्रकाशित मेरा कॉलम





नफ़रतों को जीतने की कामयाबी


गांधी जी और गांधीवाद कितना महत्वपूर्ण और शाश्वत है, इसका अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि गांधीवादी नेल्सन मंडेला आज भी दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित और विश्वसनीय सेलेब्रिटी हैं. दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बननेवाले, नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित नेल्सन मंडेला 93 साल के होने पर भी सार्वजानिक जीवन में सक्रिय हैं. उनकी मृत्यु की अफवाहों के बीच वे दक्षिण अफ्रीका के बीमार होते कपड़ा उद्योग की दशा सुधारने के लिए अप्पेरल की नयी रेंज ला रहे हैं, वे अपने परपोते के साथ खेलते भी हैं, वे ट्विटर पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और बार बार यह बात साबित कराते हैं कि गाँधी का रास्ता कितना सहज, जन हितैषी और सर्वोदय का है. दुनिया में शायद ही कोई होगा जो उनकी कार्यक्षमता का लोहा नहीं मानता हो. आखिर वे कौन से सूत्र हैं, जिन्हें अपनाने के बाद उनकी इतनी दुरूह राहें भी उन्हें मंजिल तक ले गयी. नेल्सन मंडेला की सफलता के कुछ सूत्र :
एक नहीं, अनेक मंजिलें
''किसी भी पहाड़ की चोटी पर पहुंचें तो आपको पता चलेगा कि वहां और भी पर्वत शिखर हैं.'' आप केवल एक शिखर को छूकर भी संतुष्ट हो सकते हैं या फिर से किसी और नए शिखर पर पहुँचने का संकल्प कर सकते हैं. अगर आप एक पर चढ़कर ही संतुष्ट हो जाएँ तो इसमें उन शिखरों का क्या दोष? हो सकता है कि नए शिखर पर नयी बातें देखने को मिलें, नयी संतुष्टि का अहसास हो. दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद ख़त्म हुआ यह एक ही मंजिल थी, तरक्की करना, सामाजिक विभेद मिटाना दूसरी मंजिलें हैं. पर्वतों पर चढाने का यह क्रम सदा चलता रहना चाहिए.
दुश्मनों से दोस्ती कारण सीखें
''अगर आप अपने दुश्मनों के साथ शांति चाहते हैं तो उनसे दोस्ती करना सीखें. दोस्ती के बाद वह आपका सहभागी होगा.'' आपका मन बार बार यही कहेगा कि आप सही हैं और आपका दुश्मन गलत है. याद रखिये कि किसी के भी बारे में कोई भी राय बदलना आसान नहीं होता, लेकिन यह कोई असंभव भी नहीं होता. इससे जूझने का मन्त्र यही है आप अपने विचारों और भावनाओं को बहुत ज्यादा गंभीरता से लेना बंद कर दें. सोचें कि आपका दुश्मन भी किसी मुद्दे पर सही हो सकता है. इसी से बातचीत का रास्ता खुलता है. इसके बाद आपका काम आसान हो जाता है.
गिर जाओ तो जल्द संभलो
''गिरना हार नहीं है, हार तब है जब कोई गिरकर उठे ही नहीं''. जब भी आप पर्वतारोहन करते हैं तब बार बार लगता है कि आप अब गिरे, तब गिरे और खेल ख़त्म! सभी जानते हैं कि यह खेल तब तक चलता है जब तक कि कोई भी गिरकर उठे ही नहीं. गिरने लगो तो तत्काल संभाल जाओ; कैसे भी हालात हो, गिरे हुए ही मत पड़े रहे. जब भी कोई पहाड़ पर चढाने का मन बनाता है, तब यह थोड़े ही तय होता है कि उसने शिखर को छू लिया. याद रखो, दूर से तो पहाड़ बड़ा नज़र आता है और चढ़ाई भी बड़ी नज़र आती है, लेकिन छोटे छोटे कदमों से ही हम धीरे धीरे बड़ी दूरी तय कर लेते हैं. इसीलिये गिरने से न डरो, इस डर से सफ़र करने में कोई भलाई नहीं है.
मंजिल पर नज़र हो
''अगर पानी को उबालना हो तो लगातार आंच जलाये रखनी पड़ती है.'' ऐसा होता है क्या कि पानी गुनगुना हो और आप आच बंद कर दें, फिर भी पानी उबलने लगे. कभी कभी सुस्ताते हुए रूककर पीछे देखना अच्छा लगता है, लेकिन यह खतरनाक है, क्योंकि इसी से गति मंद पड़ जाती है. बार बार मुड़कर देखने की आदत और रुकना ठीक नहीं. थोड़ी सी कामयाबी पर क्या रुकना, जब लक्ष्य दूर हो.आप जितना भी वक्त रुकने में लगायेंगे, मंजिल उतनी ही देर से पायेंगे. बेहतर है कि पड़ाव पर रुक कर वक्त गंवाने के, मंजिल पर जाकर ही रुकें. इसी बात को शायर बशीर बद्र ने यों कहा है -- जब से चला हूँ मैं, मेरी मंजिल पे नज़र है, आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा.
सचमुच बहादुर बनो
''बहादुरी भय की गैर मौजूदगी नहीं, भय पर विजय का नाम है.'' एक छोटा बच्चा जो सांप के ज़हर से अनजान हो, हाथों से सांप को पकड़ सकता है, लेकिन वह बहादुर नहीं कहा जा सकता. बहादुर वह है जो इस भय से दूर है कि सांप ज़हरीला हो सकता है और फिर भी सांप को पकड़ ले, जिसे सांप से भय न लगता हो. जब सांप पकड़ने का मौका आता है तब आपके साथी इसलिए भी डरते हैं कि कहीं उन्हें आपकी मदद न करनी पड़ जाए. वे आपकी मदद नहीं करना चाहते, इसलिए आपको डराते हैं. बहादुरी दिखाने के लिए हमेशा तैयार रहो,लेकिन अपनी सुरक्षा और संरक्षा को ध्यान में रखकर. और हाँ, हमेशा जिज्ञासु बने रहो, ताकि नयी नयी बातें पता चलती रहेँ.
धीरज कभी भी मत खोओ
''सम्पूर्ण होने से पहले हर काम असंभव लगता है.'' जब काम ख़त्म हो जाता है, तब पता चलता है कि हमने वह कर डाला, जिसे हम खुद कभी असंभव मानते थे. मैंने कई जेल यात्राएं कीं हैं. जब मैं रोब्बेन द्वीप की जेल में था , तब वे बहुत कठिन दिन थे. २३ घंटे सीलन भरी छोटी सी कोठरी में पड़ा रहना होता था, जहाँ केवल एक बल्ब की रोशनी थी. वक्त का कोई अंदाज़ नहीं होता था. खाने के नाम पर जो कुछ मिलता था, उसे खाना नहीं कहा जा सकता था. अखबार देखे बरसों बीत जाते, चिट्ठी छह महीने में एक आ सकती थी, उसे ऐसे सेंसर किया जाता था कि पढ़ पाना मुश्किल था. मुलाकातें महीनों में हो पाती. कैदी भी बातचीत नहीं कर सकते थे. ऐसे में अपने आप को बचाए रखन ही बड़ी उपलब्धि लगती थी. उस दौर में भी मैंने और मेरे कुछ साथी कैदियों ने धीरज नहीं खोया था.
हमेशा शिक्षा लेते रहो
''दुनिया को बदलने का सबसे बड़ा हथियार है शिक्षा.'' हमेशा ही शिक्षा के प्रति आग्रही रहो. सारी की सारी शक्ति शिक्षा में छुपी है. शिक्षा ही किसी को हौसला और ताकत दे सकती है. शिक्षा आपको नवाचार की तरफ ले जा सकती है, शिक्षा आपके भीतर छुपा डर दूर कर सकती है, इसलिए खूब किताबे पढ़ो, तरह तरह की किताबें, देखो तो कि दुनिया में कितना कुछ बदलाव हो रहा है. इसी से आप को बातों के समझने की, अच्छे-बुरे की, खतरों और संभावनों की जानकारी मिलेगी.आगे बढ़ने के रास्ते और नए नए तौर तरीकों को जानो. इससे भीतर का डर भी ख़त्म होगा.
पीछे रहकर नेतृत्व करो
''पीछे रहकर भी नेतृत्व करो, लोगों को आगे रहने दो.'' इससे कई लोगों को यह भ्रम होने लगेगा कि नेतृत्व वे ही कर रहे हैं लेकिन यही असली नेतृत्व है कि आप अदृश्य हों और नेतृत्व भी आप ही का हो. किसी भी आन्दोलन में जब तब बहुत बड़ी संख्या में लोग न जुड़े हों, आन्दोलन सफल नहीं हो सकता. याद रखो कि हर व्यक्ति श्रेय लेना चाहता है. अपने श्रेय को दूसरों के साथ बांटो. दूसरों को आगे आगे झंडा लेकर चलने दो, वे भी आपके हमसफ़र हैं. जितना बड़ा लक्ष्य होगा , उसमें शामिल होनेवाले लोगों के संख्या भी उतनी ही होगी. बहुत बड़ा बदलाव लोग ही कर सकते हैं अकेले आप नहीं.
तत्काल करने की आदत
''सही वक्त का इंतजार मत करो, वह कभी भी नहीं आएगा.'' हालात देखकर यह मत सोचो कि जब वे सुधरेंगे, तब आप काम करेंगे. हालात अपने आप कभी भी नहीं सुधरेंगे. इस मुगालते में कभी भी मत रहो कि आप कुछ समय रुकने के बाद कुछ ऐसा काम करेंगे, जो अद्भुत होगा. वह समय कभी भी नहीं आएगा और आप वह काम कभी नहीं कर पायेंगे. आपको जो भी काम करना है, तत्काल शरू कर दो और उसे पूरा करने के बाद ही दम लो. कोई भी रास्ता आसान रास्ता नहीं है. याद रखो, कोई भी काम के वक्त आपकी मौजूदगी महत्वपूर्ण होती है और आप की मुस्कराहट भी. खुद मौजूद रहो और तत्काल कर डालो.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

( 2 अक्तूबर 2011 को प्रकाशित )