Friday, April 29, 2011

बेहतर प्रबंधन से बने बेमिसाल





फ़ोर्ब्स की अरबपतियों की सूची में रतन टाटा का नाम इसलिए नहीं आता कि टाटा की 28 प्रमुख कम्पनियाँ अलग-अलग स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड हैं. फ्लेगशिप कंपनी टाटा सन्स में रतन टाटा का व्यक्तिगत शेयर 65 फीसदी बताया जाता है, लेकिन रतन टाटा की व्यक्तिगत संपत्ति को कंपनी अलग से नहीं दिखाती. कह सकते हैं कि रतन टाटा जितनी संपत्ति पर नियंत्रण रखते हैं वह फ़ोर्ब्स सूची में आने के लिए काफी है.



बेहतर प्रबंधन से बने बेमिसाल

रतन टाटा, ऐसे भारतीय उद्योगपति हैं जिनका दुनिया में बहुत सम्मान है. रतन टाटा के नेतृत्व में टाटा ग्रुप ने वेल्थ क्रियेशन में दुनिया की टॉप 50 बिजनेस ग्रुप में जगह बनाई है. टाटा ग्रुप पूरी दुनिया में 96 तरह के बिजनेस करता है. माना जाता है कि रतन टाटा की संपत्ति बिल गेट्स और वारेन बफेट से भी ज्यादा है लेकिन फिर भी फ़ोर्ब्स पत्रिका की अरबपतियों की सूची में रतन टाटा का नाम इसलिए नहीं आता कि टाटा की 28 प्रमुख कम्पनियाँ अलग-अलग स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड हैं. फ्लेगशिप कंपनी टाटा सन्स में रतन टाटा का व्यक्तिगत शेयर 65 फीसदी बताया जाता है, लेकिन रतन टाटा की व्यक्तिगत संपत्ति को कंपनी अलग से नहीं दिखाती. कह सकते हैं कि रतन टाटा जितनी संपत्ति पर नियंत्रण रखते हैं वह फ़ोर्ब्स सूची में आने के लिए काफी है. भारत के बाहर ब्रिटेन, यूएसए, चीन, थाईलैंड, स्पेन, दक्षिण अफ्रीका, मोरक्को, नीदरलैंड, इटली सहित करीब 56 देशों में टाटा का साम्राज्य खड़ा है. स्टील, कोयला, संचार, बीमा, आईटी, ऑटोमोबाइल, केमिकल जैसे बुनियादी क्षेत्रों के अलावा टाटा का साम्राज्य होटल, शीतल और गर्म पेय, कास्मेटिक, नमक कंस्ट्रक्शन, कलपुर्जे, लेदर गुड्स, कपड़ा आदि तमाम क्षेत्रों में भी है. टाटा ने बीते दशक में 18 अरब डॉलर लगाकर कोरस, जगुआर, लैंड रोवर, टेटली, देवू, पियाजियो एयरो इंडस्ट्री, रिट्ज़ कार्लटन (बोस्टन) जैसी अनेक विश्व विख्यात कंपनियों पर आधिपत्य किया और दुनिया भर में धाक जमा दी. इसके बावजूद जो बात रतन टाटा में दूसरे अरबपतियों से अलग है वह है सामाजिक जवाबदेही. कार्पोरेट सोशल रेस्पंसीबिलिटी (सीएसआर) को टाटा ने नए मायने दिए हैं. तमाम आरोपों और आपत्तियों के बावजूद रतन टाटा ने दुनिया में ख़ास जगह बनाई है, क्या है उनकी खासियत और क्या रहे उनकी सफलता के कुछ सूत्र :

हर नाकामी से सीखो

1937 में जन्मे रतन टाटा ने कार्नेल और हार्वर्ड से आर्किटेक्चर और हार्वर्ड से मैनेजमेंट की में डिग्री लेने के बाद २५ साल की उम्र में फेमिली बिजनेस में कदम रखा. उन्होंने जमशेदपुर के स्टील प्लांट में हजारों मजदूरों के साथ शॉप फ्लोर पर भी काम लिया. उनका पहला बड़ा प्रोजेक्ट नेल्को (नेशनल रेडियो एंड इलेक्ट्रानिक्स) था, जो 40 फीसदी घाटे में थी और मार्केट शेयर केवल 2 फीसदी. रतन टाटा नेल्को नहीं चला पाए. उन्हें मुंबई की इम्प्रेस मिल्स का काम सौंपा गया, जो बंद करनी पड़ी. इंडिका कार परियोजना की लागत 500 करोड़ आंकी गयी थी जो 1700 करोड़ तक पहुँच गयी थी. रतन टाटा ने हर नाकामी से सबक लिया और यही उनके प्रबंधन में झलकता है.

नयी टेक्नॉलॉजी से दोस्ती करो

एकाधिकार जमाकर, सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार के बीज बोकर, फायनांस की फर्जी कम्पनियाँ बनाकर येन केन मुनाफा कमाना ही लक्ष्य नहीं होना चाहिए. नयी टेक्नॉलॉजी को तो केवल प्रोडक्शन में ही महत्त्व नहीं दिया गया, बल्कि नए प्रोडक्ट चुनने में भी रतन टाटा ने हाई टेक बिजनेस चुने. टाटा टेलीकाम, टाटा फायनांस, टाटा केल्ट्रॉन, टाटा हनीवेल, टाटा हाईटेक ड्रिलिंग, टाटा एलेक्सी, प्लंटेक जैसी कम्पनियाँ रतन टाटा की दें हैं. रतन टाटा ने टोम्को बंद कर दी और फार्मा, सीमेंट, कपड़ा, कोस्मेटिक के कारोबार से हाथ खींच लिए. इस सब का असर अच्छा हुआ और ग्रुप का कारोबार तेजी से बढ़ा.

हर सोच बड़ी हो

रतन टाटा का फार्मूला है कि हर सोच बड़ी रखो. छोटी सोच रखनेवाला 1200 करोड़ डॉलर के खर्च से कोरस स्टील कंपनी का अधिग्रहण नहीं कर सकता था. इसमें खतरे भी थे, लोगों ने कहा था कि टाटा ग्रुप बरबाद हो जाएगा, पर एक ही दिन में टाटा के शेयर ग्यारह प्रतिशत चढ़ गए. जब उन्होंने जगुआर और लैंड रोवर डील की, तब भी ऐसी ही बातें हुई थीं. जब उन्होंने न्यूयॉर्क में पीयरे व बोस्टन में रिट्ज़ कार्लटन होटल खरीदा और टेटली की डील की तब भी लोगों ने शक की निगाह से देखा था. बड़ी सोच के कारण ही टाटा ग्रुप वैश्विक हो सका है.

भारतीय उपभोक्ता का महत्त्व
रतन टाटा इस बात की अहमियत जानते हैं कि भारतीय उपभोक्ता भी बहुत महत्वपूर्ण है. आप 121 करोड़ लोगों को अनदेखा कैसे कर सकते हैं जो आप के ग्राहक होने की क्षमता रखते हैं. टाटा ने सोडियम युक्त नमक बेचना शुरू किया तो कई और कम्पनियाँ बाजार में आ कूदीं. टाटा अगर मुंबई में ताज, न्यूयॉर्क में पीयरे व बोस्टन में रिट्ज़ कार्लटन होटल चलाता है तो देश भर में जिंजर नामक दर्जनों बजट होटल भी. अगर वह करोड़ रूपये से भी महंगी जगुआर और लैंड रोवर बनता है तो दुनिया की सबसे सस्ती नेनो भी. घर में या घर से निकलते ही कोई न कोई टाटा प्रोडक्ट आपको दिख ही जाएगा.

विवादों में शक्ति मत गँवाओ

रतन टाटा जैसी शख्सियत विवादों में न हो यह संभव नहीं, उनकी पहली कोशिश विवाद को टालने की ही रहती है. अगर विवाद गले पद ही जाए तो उस से जल्द से जल्द बाहर निकलकर काम में जुट जाना ही अक्लमंदी है. चाहे 25 साल इम्प्रेस मिल्स में दत्ता सामंत की यूनियन की हड़ताल हो या सिंगूर में नेनो प्लांट की भूमि का मामला, हाल ही में नीरा रादिया टेप कांड में जिक्र आने के बाद रतन टाटा की छवि को धक्का लगा है लेकिन अपने कारोबार पर से उनका ध्यान हटा नहीं है. नेताओं से अपने संपर्कों को वे प्रचारित नहीं होने देते और मीडिया से दूरी रखते हैं.

मानव संसाधन को प्राथमिकता

टाटा समूह को दुनियाभर में अच्छा नियोक्ता माना जाता है. रतन टाटा का मानना है कि हमारी सबसे बड़ी ताकत हमारे लोग ही हैं. जब देश में श्रम कानून बने भी नहीं थे, तब से टाटा समूह ने काम के घंटे, साप्ताहिक अवकाश आदि के नियम बनाये थे, उनमें से कई नियम आगे जाकर कानून बने. मुंबई में ताज होटल पर हुए आतंकी हमले के बाद रतन टाटा ने जिस तरह हर एक कर्मचारी की मदद की, चाहे वह एक दिन आनेवाला अस्थायी कर्मचारी ही क्यों ना हो, वह पूरे कार्पोरेट जगत के लिए आदर्श है. टाटा समूह के अस्पताल, शिक्षा और खेल संस्थान अपनी अलग पहचान रखते हैं.

क्वालिटी का पर्याय

रतन टाटा ने ब्रांड टाटा को क्वालिटी का पर्याय बनाने की जिद में पूरे ग्रुप को ही फिर से डिजाइन किया, इसके लिए कंपनियों के विलय और अधिग्रहण को हथियार बनाया गया. आगे की योजनाएं, ग्राहकों का रुझान, वित्तीय संरचना पर फोकस किया गया. ग्रुप में से भाई भतीजावाद को ख़त्म कर प्रतिभों को आगे लाया गया, निवेशकों को रिझाने में वे कामयाब रहे. अपनी प्रतिभा और मेहनत के बूते पर टाटा समूह के प्रमुख बीते १४ साल से उत्तराधिकारी तलाश रहे हैं और अब उनका भरोसा है कि दिसंबर २०१२ तक वे यह जिम्मेदारी किसी और को सौंप देंगे.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान
1 मई 2011 को प्रकाशित

Friday, April 22, 2011

सचिन तेंदुलकर (38)




सचिन जुबान कम और बल्ला ज्यादा चलाने में यकीन करते हैं. सचिन किसी को भी शब्दों से जवाब नहीं देते, उनका हर जवाब बल्ला देता है सवाल चाहे उनकी फिटनेस पर हो या फ़ार्म पर, रिटायरमेंट पर हो या उम्र पर.



अनोखे सचिन की अनोखी बातें

सचिन तेंदुलकर महानतम क्रिकेटर हैं. उनकी किसी से भी तुलना उनका अपमान होगा. कहा जाता है कि उनके बनाये और तोड़े गए रेकार्ड्स पर कोई भी किताब सही नहीं होती क्योंकि जब तक किताब छपकर आती है, सचिन के नाम और भी नए रेकार्ड्स हो जाते हैं. अनेक पुरस्कारों और सम्मानों के अलावा उन्हें भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'पद्मविभूषण' दिया जा चुका है पर लोग उन्हें 'भारत रत्न' से कम नहीं समझते. कोई भी दौलत, शोहरत, सम्मान और प्रशंसा उनके लिए मामूली है. कैटरीना कैफ उनकी फैन हैं और धोनी ने किसी क्रिकेटर का ऑटोग्रॉफ नहीं लिया लेकिन वे सचिन का ऑटोग्रॉफ संभालकर रखना चाहते हैं.

सचिन के पास अरबों की संपत्ति है लेकिन उनके पास एक-एक रुपये के वे 13 सिक्के भी हैं जो उन्होंने सबसे पहले जीते थे. उनके गुरु रमाकांत आचरेकर प्रैक्टिस के दौरान स्टंप पर एक रुपये का सिक्का रख देते थे, जो गेंदबाज सचिन का स्टंप उड़ा देता, सिक्का जीत जाता और अगर सचिन नाबाद रहते तो सिक्का सचिन जीत जाते. 24 अप्रैल 1973 को जन्मे सचिन 1987 में मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में भारत जिम्बाब्वे मैच में बॉल बॉय थे. सुनील गावस्कर ने अपने अल्ट्रा लाइट पैड और दिलीप वेंगसरकर ने इंग्लिश विलो का अपना क्रिकेट बैट सचिन को गिफ्ट किये थे, जो आज भी उनके लिए अनमोल हैं. सचिन के पिता रमेश तेंदुलकर मराठी साहित्यकार थे और संगीतकार सचिन देव बर्मन के फैन, इसीलिये उन्होंने अपने बेटे का नाम सचिन रखा. मुंबई के बांद्रा पूर्व में सचिन का परिवार डॉ धर्मवीर भारती का पड़ोसी था और सचिन के बल्ले से टकराकर जब घरों की खिड़कियों के कांच टूटते तो सचिन के पिता उन्हें डांटने के बजाय इनाम देते. बड़े भाई अजीत ने सचिन के भाई, दोस्त, गाइड और क्रिकेट-अभिभावक की भूमिका निभाई और खुद क्रिकेट प्रेमी होते हुए भी अपनी पूरी जवानी छोटे भाई के लिए समर्पित कर दी. आज लोग सचिन को क्रिकेट का भगवान तक कहते हैं लेकिन सचिन की सफलता का यह सफ़र आसान नहीं रहा. मेहनती, अनुशासित और ईमानदार खिलाड़ी सचिन की महान कामयाबी के कुछ सूत्र :

एक्शन स्पीक्स लाउडर देन वर्ड्स
सचिन जुबान कम और बल्ला ज्यादा चलाने में यकीन करते हैं. हर महान खिलाड़ी की तरह उनके भी अनेक आलोचक हैं लेकिन सचिन किसी को भी शब्दों से जवाब नहीं देते, उनका हर जवाब बल्ला देता है सवाल चाहे उनकी फिटनेस पर हो या फ़ार्म पर, रिटायरमेंट पर हो या उम्र पर. खुद पर उठी हर अंगुली का जवाब वे गरजते बल्ले से देते हैं. हर आरोप का खंडन एक्शन से, हर सवाल का जवाब बेहतर से बेहतरीन होता परफार्मेंस. जब-जब आलोचकों को लगता था कि अब सचिन का खेल ख़त्म, तब-तब सचिन फीनिक्स की तरह उभरकर सामने आये हैं.

बिना अभ्यास के मत खेलो
जिन्दगी में क्रिकेट हो या कुछ और, अभ्यास ज़रूरी है. आपने कितनी भी सेंचुरी मारी हो, कितने भी रेकार्ड्स बनाये हों, हर मैच के पहले उस मैदान पर प्रैक्टिस ज़रूर ज़रूर करो, जहाँ अगला मैच खेला जाना है. सामने आते हुई हर गेंद वही और वैसी गेंद नहीं होगी, जैसी पिछली थी. ध्यान रहे कि हर परीक्षा आखिर परीक्षा ही है, हर प्रोजेक्ट नया प्रोजेक्ट ही है, हर कंज्यूमर नया ही कुछ चाहता है. बिना अभ्यास के मैदान में जाना खतरे से खाली नहीं. हर खतरे से संघर्ष की पूरी तैयारी रखो.

सही वक़्त पर रिस्क लो
हर जगह नयी रणनीति होना चाहिए. जो शाट टेस्ट मैच में रिस्क हो सकता है, वन डे में ज़रुरत और टी 20 में अनिवार्यता हो सकती है. हर पारी की शुरूआत सावधानी से करना चाहिए. बगैर रिस्क उठाये तो कुछ नहीं हो सकता. लेकिन रिस्क कब उठाना है, तय करो. मैदान में जाते ही खतरनाक गेंदों पर रिस्क मत लो. पहले मैदान पकड़ो, फिर बहादुरी दिखाओ. रिस्क तो लेनी ही है, पर पहले आसान सवालों के जवाब देना ठीक होता है. रिस्क कहाँ लेना है, हर खतरा सोच समझकर उठाना ही अक्लमंदी है.

टीम की तरह खेलो
हर मैच में खेलते तो खिलाड़ी हैं, लेकिन जीतती या हारती टीम है. हमेशा टीम भावना से खेलो. अपनी सेंचुरी से ज्यादा टीम की जीत ज़रूरी होती है. काम ऐसा करो कि आपकी मौजूदगी से टीम का हौसला बढ़े और जीत करीब आने लगे. याद रखो, एक टीम में कैप्टन एक ही हो सकता है, इसलिए कैप्टन को जीत में मदद करो. यह भी मत भूलो कि हर मैच मैदान में ही नहीं खेला जाता, वह ड्रेसिंग रूम में और मीडिया में भी खेला जाता है.

ईमानदार रहो
ईमानदारी कभी भी ना छोड़ो, चाहे सौवीं सेंचुरी से ही क्यों ना चूक रहे हों. 450 वें वनडे में 20 मार्च 2011 को सचिन चार गेंदों पर दो रन बना कर आउट हो गए. हजारों दर्शक, करोड़ों फैन्स उनकी सौवीं सेंचुरी का इंतज़ार कर रहे थे. सचिन वेस्ट इंडीज़ के फ़ास्ट बॉलर रवि रामपाल की शॉट पर खेलने से चूक गए थे और बॉल सचिन के बैट से किनारा करते हुए विकेटकीपर ड्वेन थॉमस के हाथों में जा चुकी थी लेकिन अम्पायर स्टीव डेविस ने उन्हें नॉट आउट करार दे दिया था लेकिन फिर भी सचिन एक पल भी गवांये बिना पैवेलियन लौटने लगे और खुद को कैच आउट होने दिया. .... हो सकता था सचिन सौवीं सेंचुरी बना लेते, लेकिन क्रिकेट प्रेमियों के दिल में जो जगह उन्होंने बनाई है, वह बहुत बड़ी बात है.

सही तरीके से खूब कमाओ
पैसा हमारी ज़रुरत है, खूब कमाओ, लेकिन सही तरीके से. सचिन ने वर्ल्डटेल से 1995 में 30 करोड़ और 2001 में 80 करोड़ के विज्ञापन करार किये थे. 2006 में साची एंड साची से यही करार 180 करोड़ में किया. उन्होंने टूथ पेस्ट से लेकर टायर तक का विज्ञापन किया लेकिन कभी भी शराब या तम्बाखू उत्पादों के सरोगेट (छद्म) विज्ञापन नहीं किये. कैंसर और एड्स जैसी बीमारियों के प्रति जागरूकता के विज्ञापन उन्होंने आगे बढ़कर किये. मुंबई और बंगलुरु में उनके तीन रेस्टोरेंट्स हैं और फ्यूचर ग्रुप के साथ वे हेल्थ प्रोडक्ट्स सेक्टर में आ रहे हैं.

दूसरों की मदद करो
सचिन हर साल 200 बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाते रहे हैं और अब इनकी संख्या 400 करने जा रहे हैं. कैंसर पीड़ितों के लिए उनके अभियान में एक करोड़ रुपयों से भी ज्यादा धनराशि इकट्ठा की गयी. चंदा इकठ्ठा करने के लिए सचिन ने बच्चों को क्रिकेट की कोचिंग की और ट्विटर पर अभियान चलाया. उनकी चौदह साल की बेटी सारा की प्रेरणा और मदद इन सब कामों में रहती है.

जो सही लगे, वही करो
सचिन को निजी जीवन में भी जो सही लगता है वही करते हैं. एक मानद डॉक्टरेट की उपाधि उन्होंने विनम्रता से नामंजूर कर दी, लेकिन इंडियन एयर फ़ोर्स में मानद ग्रुप कैप्टन का प्रस्ताव मान लिया. 1995 में जब सचिन 22 साल के थे, तब उन्होंने अपने से उम्र में 6 साल बड़ी डॉ अंजलि मेहता से शादी की थी, कई लोगों को यह जोड़ी बेमेल लगी लेकिन सचिन ने किसी की परवाह नहीं की. उनके साथी खिलाड़ियों ने कई बार उन पर ताने भी कसे लेकिन सचिन ने उन्हें नज़रंदाज़ कर दिया. विनोद काम्बली और अज़हरुद्दीन के बयानों पर वे चुप रहे. क्लबों में जाकर हंगामा करना, डांस करना उन्हें कभी भी पसंद नहीं रहा.

परिवार पर ध्यान ज़रूरी
सचिन पारिवारिक व्यक्ति हैं. वर्ल्ड कप जीतने के बाद टीम के साथ जश्न मनाते वक़्त स्टेडियम में उनके साथ बेटी सारा और बेटा अर्जुन भी टीवी पर नज़र आ रहे थे. सेलेब्रिटी होने के कारण वे परिवार के साथ कहीं भी आराम से नहीं जा सकते इसलिए कभी-कभी वे देर रात अपने ड्राइविंग के शौक को पूरा करते हैं. अपनी बीवी के साथ एक बार वे विग लगाकर वरली के सत्यम थियेटर में फ़िल्म देखने भी जा चुके हैं, लेकिन फिर भी इंटरवल के बाद पहचान लिए गए और वापस लौटना पड़ा. परिवार या मेहमानों के लिए वे खुद ही चाय बनाना पसंद करते हैं और कभी-कभी उनके परिवार को उनके हाथों का बना बैंगन का भुरता भी खाना पड़ता है !

प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान 24 april 2011

Thursday, April 14, 2011

कामयाबी यों ही नहीं मिलती



सालाना निजी कमाई (वेतन और निवेश से)करीब 8 अरब डॉलर है यानी रोजाना दो करोड़ डॉलर से ज्यादा,हर मिनिट 16 हजार और हर सेकण्ड 250 डॉलर से भी ज्यादा! बिल गेट्स अपने तीन बच्चों के लिए सारी जायजाद छोड़कर नहीं जाना चाहते, उनका मानना है कि अगर मैं अपनी संपत्ति का एक प्रतिशत भी उनके लिए छोड़ दूं तो वह काफी होगा.



बिल गेट्स और उनके सफलता - सूत्र

बिल गेट्स दुनिया के सबसे अमीर लोगों में हैं. वे महादानी भी हैं. 28 अक्टूबर 1955 को उनका जन्म हुआ था लेकिन 32 साल पूरे होने के पहले ही 1987 में उनका नाम फ़ोर्ब्स की अरबपतियों की लिस्ट में आ गया और कई साल तक वे इस लिस्ट में नंबर वन पर भी रहे. 2007 में उन्होंने 40 अरब डॉलर (176 अरब रुपये) का दान दे दिया. वे माइक्रोसाफ्ट के चैयरमैन हैं, जिसका 2010 का कारोबार 63 अरब और मुनाफा करीब 19 अरब डॉलर का था. उनकी सालाना निजी कमाई (वेतन और निवेश से) करीब 8 अरब डॉलर है यानी रोजाना दो करोड़ डॉलर से ज्यादा, हर मिनिट 16 हजार और हर सेकण्ड 250 डॉलर से भी ज्यादा !

उच्च जीवन, उच्च विचार :

बिल गेट्स खाते-पीते घर के हैं. स्कूल में उन्होंने 1600 में से 1590 नंबर पाए थे, पढाई के दौरान ही कंप्यूटर प्रोग्राम बनाकर 4200 डॉलर कमाए और टीचर से कहा कि मैं 30 की उम्र में करोड़पति बनकर दिखाऊंगा, सो पहले ही दिखा दिया और 31 की उम्र में वे अरबपति बन गए. बिल गेट्स को दिखावे का शौक नहीं है, वे विलासितापूर्वक नहीं रहते, लेकिन वे व्यवस्थित, शानदार जीवन जीते हैं. डेढ़ एकड़ के उनके बंगले में सात बेडरूम, जिम, स्विमिंग पूल, थियेटर आदि हैं. पंद्रह साल पहले उसे करीब ६० लाख डॉलर में करीदा गया था. उन्होंने लियोनार्दो ला विन्ची के पत्रों / लेखों को तीन करोड़ डॉलर में खरीदा था. ब्रिज, टेनिस और गोल्फ के खिलाड़ी बिल गेट्स अपने तीन बच्चों के लिए सारी जायजाद छोड़कर नहीं जाना चाहते, क्योंकि उनका मानना है कि अगर मैं अपनी संपत्ति का एक प्रतिशत भी उनके लिए छोड़ दूं तो वह काफी होगा. उन्होंने दो चर्चित किताबें भी लिखीं हैं -- दी रोड अहेड और बिजनेस@ स्पीड ऑफ़ थोट्स.1994 में उन्होंने अपने काफी शेयर्स बेच दिए और एक ट्रस्ट बना दिया. 2000 में उन्होंने अपने तीन ट्रस्टों को एक कर दिया और पूरी पारदर्शिता से दुनिया भर के लोगों की मदद करने लगे. बिल गेट्स की कमाई, एकाधिकारी व्यावसायिक नीति और प्रतिस्पर्धा उन्हें बार बार विवादों में भी धकेलती रही है. 16 साल तक फ़ोर्ब्स की अरबपतियों की लिस्ट में नंबर वन रह चुके बिल गेट्स ने अपनी कामयाबी के सूत्र इस तरह बताते हैं:

दुनिया बदलो या घर बैठो :

क्या आपमें है कुछ कर गुजरने की तमन्ना? क्या आप के पास है कोई मक़सद, कोई विजन, कोई आइडिया, कोई इन्नोवेशन ? यदि कोई ऐसा लक्ष्य नहीं है तो घर बैठिये और अगर जवाब हाँ है तो अपनी योग्यता को आंकिये और अपने काम में जुट जाइए.

रास्ते खुद बनाओ :
आज जो भी रास्ते हैं वे हमेशा से नहीं थे. किसी ना किसी ने तो उन्हें बनाया ही है. नए रास्ते बनाने की कोशिश पर हो सकता लोग आपको सनकी कहें, पर आप डिगें नहीं. जब मैंने हर डेस्क और हर घर में कंप्यूटर होने की कल्पना की थी तब किसी को इस बात की कल्पना नहीं थी. मुझे भरोसा था कि कंप्यूटर हम सब की जिन्दगी को बदलकर रख देंगे.

उसूलों पर डटे रहो :
कभी भी अपने उसूलों से ना डिगो. याद रखो, सभी लोग केवल धन के लिए काम नहीं करते. मेरे साथ जितने भी लोगों ने काम शुरू किया था वे सब जानते थे कि वे धन कमाने के लिए नहीं, लोगों की जिन्दगी बेहतर बनाने के लिए काम कर रहे हैं. हम टेक्नोलोजी की मदद से लोगों का जीवन आसान बनाना चाहते थे, और वह हमने कर दिखाया जो धन कमाने से ज्यादा बड़ा काम है. उनकी हमेशा मदद करो जो संसाधनों से वंचित हैं.

हमेशा आगे की सोचो :

दुनिया तेज़ी से बदल रही है, अगर आप आगे की नहीं सोच सकते तो पिछड़ जायेंगे. आपको संभलने का वक़्त ही नहीं मिल पायेगा. आप को खेल में आगे आने के लिए और यहाँ तक कि खेल में बने रहने के लिए भी आगे की बातें सोचना ज़रूरी है. इसके लिए कड़ी मेहनत के साथ ही नवाचार (इन्नोवेशन) ज़रूरी है. बाज़ार की ज़रूरते क्या क्या रहेंगी यह जानना आवश्यक है.
आपका सर्वश्रेष्ठ तभी, जब सही लोग हों :
कोई भी प्रतिभा तभी किसी कार्य को सही अंजाम तभी दे सकती है, जब उसे सही लोगों का साथ मिले. अगर आप में बहुत प्रतिभा है लेकिन सहकर्मी और नियोक्ता आपका साथ ना दें तो? उच्च लक्ष्य को लेकर सर्वश्रेष्ठ योग्यता से काम करनेवाले लोग ही कामयाबी पा सकते है. अगर मेरे साथ पॉल एलेन और स्टीव बाल्मेर जैसे प्रतिभाशाली और चमकदार मित्र और सहकर्मी नहीं होते जो मेरी कमियों को दूर कर देते थे तो आज मैं इस जगह नहीं पहुँच पाता.

सिस्टम बनाओ :
कोई भी काम करने के लिए एक सिस्टम ज़रूरी है जिससे कि सारे काम आसानी हो सके. यह सिस्टम माइक्रो या मेक्रो हो सकता है. जरूरी नहीं कि आप ही सिस्टम बनायें, आप कोई भी अच्छा सिस्टम अपना सकते हैं. सिस्टम के चक्र उर लीवर का लाभ आपको मिल जाएगा, लेकिन ये ध्यान रखिये कि कहीं यह सिस्टम अनुत्पादकता और निकम्मेपन को तो नहीं बढ़ा रहा? अक्सर लोग सिस्टम अपनाकर उसे भूल जाते हैं और वही सिस्टम घुन बनकर संस्था को बर्बाद कर देता है.

समस्या को समझो और टुकड़ों में हल करो :

किसी भी समस्या को दूर करने के लिए उसे बारीकी से समझना ज़रूरी है. हो सकता है कि वह समस्या एक झटके में दूर ना हो सके, ऐसे में उसे टुकड़ों में बांटकर हाल किया जा सकता है. इस तरीके से बड़ी से बड़ी और तात्कालिक समस्याओं से भी पार पाया जा सकता है.

नाकामी को भी मत भूलो :
अपनी हर कामयाबी का जश्न ज़रूर मनाओ, जिससे आपको अपनी कामयाबी पर नाज हो और आप हर कामयाबी को पाना चाहें, लेकिन कभी भी अपनी नाकामी को भी मत भूलो. अपनी नाकामी से सबक सीखो और उसे रिपीट मत होने दो.

अपने लोगों का ध्यान रखो :
याद रखो टेक्नोलॉजी केवल एक टूल है, काम लोग ही करते हैं, इसलिए अपने सभी सहकर्मियों का ध्यान रखना ज़रूरी है. उन्हें कुछ और अधिकार देकर आप और ज्यादा ज़िम्मेदार भी बना सकते हैं. आपका व्यवहार न केवल सहकर्मियों के साथ, बल्कि सभी के साथ अच्छा होना चाहिए, हो सकता है कि उन्हीं में से किसी के लिए आप को काम करना पड़ जाए.

संतोष और धन :

कॉलेज से बाहर आते ही अपने बहुत धन नहीं कमाया, कोई बात नहीं, आपकी जो इनकम होनी चाहिए थी, नहीं है? कोई बात नहीं.क्या आपने अपने काम के लिए कड़ी मेहनत की? क्या आपको उस मेहनत से संतोष प्राप्त हुआ? आपने कितना कमाया यह किसी और का चर्चा का मुद्दा क्यों हो अगर आप किसी के लिए बोझ नहीं हैं तो?
प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान 17 अप्रैल 2011

Friday, April 08, 2011

खिलाड़ियों का खिलाड़ी -- गैरी कर्स्टन




क्रिकेट वर्ल्ड कप जीतने का जितना श्रेय खिलाड़ियों को है, उतना ही 'पत्थरों को मील का पत्थर' बनानेवाले कोच गैरी कर्स्टन को भी है तभी तो वर्ल्ड कप जीतने के बाद खिलाड़ियों ने सचिन को तो कंधे पर उठाया ही था गैरी कर्स्टन को भी यह इज्ज़त बख्शी थी.


गरिमामय गुरु और कमाल के कोच -- गैरी कर्स्टन
क्रिकेट वर्ल्ड कप जीतने का जितना श्रेय खिलाड़ियों को है, उतना ही 'पत्थरों को मील का पत्थर' बनानेवाले कोच गैरी कर्स्टन को भी है तभी तो वर्ल्ड कप जीतने के बाद खिलाड़ियों ने सचिन को तो कंधे पर उठाया ही था गैरी कर्स्टन को भी यह इज्ज़त बख्शी थी. गैरी कर्स्टन अब अपने वतन दक्षिण अफ्रीका चले गए हैं और वहां अपनी बीवी-बच्चों के साथ वक़्त बिता रहे हैं. वर्ल्ड कप जिताने के बाद अब उनके पास एक से बढ़कर एक ऑफर्स आ रहे हैं, इनमें उनके अपने देश की टीम का कोच बनाने से लेकर सिडनी सिक्सर्स और सिडनी थंडर्स के नाम प्रमुख हैं. वर्ल्ड कप जिताने के लिए कोच ने केवल मैदान में ही मेहनत नहीं की, बल्कि ड्रेसिंग रूम और होटलों के कमरों तक को क्रिकेट का रण बना दिया. कोच के रूप में गैरी कर्स्टन ने खिलाड़ियों के आत्मविश्वास को जगाया और खिलाड़ियों को 'थॉटफुल मैनर्स' में ड्रेसिंग रूम के विवादों से भी बचाया. उन्होंने सचिन को रोल मॉडल के रूप में आगे बढ़ाया और धोनी को श्रेष्ठतम कैप्टन के रूप में. गौतम गंभीर उन्हें चमत्कारिक प्रयोगों के लिए क्रेडिट देते हैं और भज्जी बल्लेबाजी में सुधार के लिए. पठान और रैना उन्हें अपने परिवार का वरिष्ठ मानते हैं. नेहरा और श्रीसंत अपने खेल में सुधार के लिए उनके प्रति आभार मान रहे हैं.

गैरी कर्स्टन ने टीम इण्डिया को सही समय पर अलविदा कहा है. कोई पर्वतारोही एवरेस्ट पर फतह कर ले तो उसके पास फतह करने को बचता ही क्या है? गैरी ने भारतीय टीम की जीत की डिजाइन बड़ी शिद्दत से बनाई और उस पर अमल कराया. वर्ल्ड कप के पहले उन्होंने सौ से ज्यादा पेज का एक ब्ल्यू प्रिंट तैयार किया था, जिसके मुताबिक़ खिलाड़ियों के ड्रेसिंग रूम में बॉक्सर मोहम्मद अली और साइकिलिस्ट आर्मस्ट्रॉंग की तस्वीरें लगाईं गयीं थी. खिलाड़ियों को सलाह थी कि वे अपने आप पर नियत्रण रखें और मीडिया से पूरी तरह दूर रहें. होटलों के कमरों से टीवी हटवा दिए जाते थे और अखबार पढ़ने को दिए ही नहीं जाते थे ताकि खेल समीक्षा से बचा जा सके. हर खिलाड़ी के लिए अलग अलग हालात में अलग भूमिका तैयार होती थी, जो दोहराई नहीं जाती. हर मैच की रणनीति अलग. अलग अलग देशों की टीम के अलग नाम थे जैसे बांग्ला देश की टीम डेंजरस फ्लोटर्स के नाम से, दक्षिण अफ्रीका टीम डेंजरस चोकर्स (खरनाक मगर चूकनेवाले), आयरलैंड टीम इजी मीट नाम से पुकारी जाती थी. इन नामों को दोहराने भर से टीम इण्डिया के अवचेतन मन में आ जाता था कि अब उन्हें किस तरह की टीम से मुकाबला करना है.

गैरी कर्स्टन ने अपने करीब तीन साल के कार्यकाल में सबका दिल जीत लिया. विदेशी होने के बावजूद टीम इण्डिया का प्यार पाना बहुत मायने रखता था. टीम के हर सदस्य ने उनकी विदाई के वक़्त कसीदे पढ़े. पूर्व टीम सदस्यों ने भी उन्हें बेमिसाल कोच कहा था. खिलाड़ी उन्हें अपना समझते थे, यह भावना पैदा करने में ही उनकी कामयाबी थी.

गैरी कर्स्टन ने अपने देश दक्षिण अफ्रीका के लिए 101 टेस्ट और 185 वन डे खेले हैं. सलामी बल्लेबाज़ के तौर पर उन्होंने कई यादगार पारियां खेली थीं. वे विश्वसनीय फिल्डर भी रहे. इंग्लैण्ड के खिलाफ एक टेस्ट में उन्होंने साढ़े 14 घंटे खेलते हुए 275 रन बनाए थे. 2004 में रिटायर होने के तीन साल बाद उन्होंने दो मित्रों के साथ केप टाउन में परफार्मेंस ज़ोन नामक कंपनी बनायी थी जो उनके भारत आने के बाद भी कामकाज करती रही. 23 नवम्बर 1967 को जन्मे गैरी कर्स्टन के दो बेटे हैं.
प्रकाश हिन्दुस्तानी


हिन्दुस्तान
10 april 2011

Saturday, April 02, 2011





महेंद्र सिंह धोनी खुद अपने अनुभव और विवेक से साहसिक फैसले लेते हैं और कामयाबी या नाकामी दोनों की ज़िम्मेदारी कबूलते हैं. पूरी टीम को साथ लेकर चलाना, टीम की हर कमी और खूबी से वाकिफ रहना, हर खिलाड़ी को आगे बढ़ाने का मौका देना, टीम में आपस में विश्वास को बनाये रखना, मौके और माहौल को देख रणनीति बनाना और उसे बदलना और इस सब से बढ़कर हार या जीत के बाद भी उससे अपने व्यक्तित्व को प्रभावित नहीं होने देना निश्चित ही एक अच्छे कप्तान की खूबी है.


कूल कप्तान और कार्पोरेट लीडर : महेंद्र सिंह धोनी

आईआईएम इंदौर के स्ट्रेटेजिक मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर प्रशांत कुलकर्णी की टीम की स्टडी बताती है कि महेंद्र सिंह धोनी में सफल कप्तान के साथ-साथ सफल कार्पोरेट लीडर के गुण भी हैं. टीम की हार-जीत तो लगी ही रहती है, लेकिन कामयाब लीडर उसे ज्यादा गरिमामय बना देता है. धोनी केवल अपने लिए नहीं, पूरी टीम इण्डिया के लिए खेलते हैं. पूर्व कप्तान कपिल देव का मानना है कि धोनी एक ग्रेट गेम्बलर हैं जो खेल के हर दांव को खेलने में माहिर हैं. धोनी की लीडरशिप में ही टीम इन्डिया टी-20 सिरमौर बनी. सीबी सीरिज, बोर्डर-गावसकर ट्राफी और आई पी एल 2010 में चेन्नई सुपर किंग की जीत हुई. हालात को सूंघने और बेबाक निर्णय लेने की उनकी कला जगजाहिर है.

धोनी ने मीडिया को कभी तवज्जो नहीं दी, फिर भी वे मीडिया के प्रिय सितारे हैं. धोने को दिखाते हैं तो टीवी चैनलों की टीआरपी बढ़ जाती है. पर लगता है कि उन्हें टीवी वालों से एलर्जी है. अपनी शादी के वक्त रिरियाने- गिड़गिड़ाने के बावजूद उन्होंने फूटेज नहीं लेने दी और बेचारे न्यूज चैनलवालों को धोनी की शादी के घोडीवाले से बात करके ही संतोष करना पड़ा था. टीम इण्डिया में धोनी से भी वरिष्ठ खिलाड़ी भी हैं और वे भी धोनी के फैसलों को गंभीरता से स्वीकार करते हैं. टीम इण्डिया को इस मुकाम तक लाने में धोनी का योगदान बहुत ज्यादा है. वे खुद अपने अनुभव और विवेक से साहसिक फैसले लेते हैं और कामयाबी या नाकामी दोनों की ज़िम्मेदारी कबूलते हैं. पूरी टीम को साथ लेकर चलाना, टीम की हर कमी और खूबी से वाकिफ रहना, हर खिलाड़ी को आगे बढ़ाने का मौका देना, टीम में आपस में विश्वास को बनाये रखना, मौके और माहौल को देख रणनीति बनाना और उसे बदलना और इस सब से बढ़कर हार या जीत के बाद भी उससे अपने व्यक्तित्व को प्रभावित नहीं होने देना निश्चित ही एक अच्छे कप्तान की खूबी है.

2005 के उस धोनी को याद कीजिये जिसने पाकिस्तान के खिलाफ वन डे में 148 और श्रीलंका के खिलाफ 183 रन बनाये थे और आईसीसी ओडीआई रेटिंग में नंबर वन बने थे. पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ ने उनकी लहराती जुल्फों की तारीफ के थी, लेकिन उप कप्तान बनते ही उन्होंने अपनी जुल्फें कटवा दीं और खेलने का तौर तरीका भी बदला. जब उन्हें कप्तानी मिली तब उनके व्यवहार में एक अलग ही तब्दीली थी. वे धोनी से 'मि. केप्टन कूल' हो चुके थे. उनकी आक्रामकता उनके फैसलों में नज़र आने लगी, हाव भाव में नहीं. टी-20 में सिरमौर बनने के जश्न में युवी और श्रीसंत डांस कर रहे थे, लेकिन धोनी शांत थे. ट्राफी मिलते ही उन्होंने अपने युवा साथियों को सौपकर यह सन्देश दिया कि यह आप सबकी है. क्रिकेट के तथाकथित विशेषज्ञ धोनी से इसलिए दुखी रहने लगे कि धोनी अपने दिमाग का इस्तेमाल बाखूबी करने लगे हैं.

धोनी फिटनेस के लिए जिम के बजाय बेडमिन्टन और फ़ुटबाल खेलने में ज्यादा यकीन रखते हैं. वे छात्र जीवन में फ़ुटबाल टीम के गोलकीपर रहे हैं. उत्तराखंड के रहनेवाले धोनी के पिता नौकरी की खातिर रांची गए और वहीँ के हो गए. वे पिछले आईपीएल में सबसे महंगे खिलाड़ी थे. विज्ञापनों से कमाई के मामले में शाहरुख़ खान के बाद धोनी ही हैं, उनकी एक विज्ञापन की तीन साल की डील ही २१० करोड़ रूपए की है. महिलाओं में उनकी लोकप्रियता गज़ब की है और हाल यह है कि उनसे धोनी को बचाने के लिए अलग महिला बॉडीगार्ड्स की जरूरत पड़ती है!

प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान
03 अप्रैल 2011 को प्रकाशित

Friday, April 01, 2011

छवि राजावत, एमबीए, सरपंच बाई सा.









मॉडर्न ख्यालों की, टेक्नॉलॉजी-सेवी, अंग्रेज़ीदां, हॉर्स राइडर, एसयूवी ड्राइवर, शेक्सपीयर से लेकर होटल मैनेजमेंट तक पर बहस कर सकनेवाली छवि नरेगा की बैठकों में गाँव के हालात पर बोलती तो अच्छे अच्छों की बोलती बंद हो जाती.



छवि राजावत, एमबीए, सरपंच बाई सा.

नाम - छवि राजावत,
उम्र - 30 साल,
शिक्षा - एमबीए,
शौक - घुड़सवारी,
प्रिय पहनावा - जींस टी शर्ट,
पद - सरपंच ग्राम पंचायत सोडा, (राजस्थान),
ताजा उपलब्धि - संयुक्त राष्ट्र में बीते दिनों हुए इन्फार्मेशन पावर्टी वर्ल्ड कांफ्रेंस में भारत की नुमाइंदगी.
लक्ष्य - अपनी ग्राम पंचायत के सभी लोगों के लिए शुद्ध पेयजल, सड़क, बिजली शौचालय और रोजगार मुहैया करना.

छवि को देखकर कई लोगों को लगता है कि शायद वह बॉलीवुड की कोई हीरोइन हैं या फिर मॉडल. फरवरी 2010 में ग्राम पंचायत का चुनाव लड़ने के पहले छवि ने लाखों के टेलीकॉम कंपनी के जॉब को छोड़ा और अपने गाँव आकर पर्चा भरा. सरपंच का पद महिला आरक्षण कोटे में आने के बाद दर्जनभर से ज्यादा महिलायें दावा कर रही थीं, लेकिन छवि के पर्चा भरते ही केवल दो दावेदार बचीं. छवि के चुनाव ने यह बात गलत साबित की कि पंचायत चुनाव में जाति या धर्म का कोई रोल होता है. छवि को जिताने के लिए लोगों ने जाति, धर्म, क्षेत्र, जेंडर और यहाँ तक कि रिश्तेदारी तक को भूलकर वोटिंग की. छवि ने कहा कि जो काम 63 साल में नहीं हुए, तीन साल में करके दिखाना है. शुरूआत हो गयी और विकास के परंपरागत तरीकों के साथ ही अनेक एनजीओ और कार्पोरेट्स भी छवि की मदद करने में जुट गए. विकास में तेजी भी आई. उन लोगों का मुंह बंद हो गया जो कहते थे कि सरपंच बनने से क्या होगा? मीडिया की यह धारणा भी बदल गयी कि राजस्थान में महिला सरपंच यानी घूँघटधारी अंगूठाछाप स्त्री ! मॉडर्न ख्यालों की, टेक्नॉलॉजी-सेवी, अंग्रेज़ीदां, हॉर्स राइडर, एसयूवी ड्राइवर, शेक्सपीयर से लेकर होटल मैनेजमेंट तक पर बहस कर सकनेवाली छवि नरेगा की बैठकों में गाँव के हालात पर बोलती तो अच्छे अच्छों की बोलती बंद हो जाती.

सरपंच पद संभालते ही छवि टीवी चैनलों के लिए भी आकर्षण बन गयीं. फेसबुक पर छवि के सैकड़ों प्रशंसकों ने उनके काम को सराहा. अनेक एनजीओ मदद की पहल करने लगे. कोई माँ उनसे बायोडाटा मांगने लगी कि मेरी बेटी आप पर निबंध लिखना चाहती है तो कोई उन्हें कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि बनने की जिद करता है, कोई मिलने का वक्त चाहता है तो कोई उन पर डाक्युमेंटरी बनने की तमन्ना रखता है. एक साल में ही छवि आइकॉन बन चुकी हैं. लोग कहते हैं कि आप को गाँव की औरतों के साथ घुलना मिलना पसंद कैसे आता है? इस पर छवि का जवाब होता है मैं भी इसी गाँव की बेटी हूँ, ये सब मेरी बचपन की सहेलियां हैं. मुझे पढ़ाई के लिए अच्छा मौका मिला गया, बस.

छवि फौजियों के खानदान की हैं. उनके पिता को छोड़ दादा, परदादा, चाचा, बाबा सब फ़ौज में रहे. दादा रघुवीर सिंह ब्रिगेडियर थे. रिटायर होकर सोडा गाँव आ गए और गाँव का नक्शा बदलने में जुटे. लगातार तीन बार सरपंच चुने गए. छवि के परदादा सेना में कर्नल थे और आजाद भारत में सोडा के पहले सरपंच बने थे. दादा की जिद पर छवि को नो एक्जाम,नो यूनीफार्म वाले ऋषि वैली स्कूल भेजा गया, फिर अजमेर के मेयो और फिर दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज. पुणे के बालाजी मैनेजमेंट संस्थान से एमबीए के बाद छवि जयपुर में अपनी माँ के पास (जिनका अपना होटल बिजनेस है) आयीं थीं कि सोडा के लोग बस में भरकर आ गए और उनसे सरपंच का चुनाव लड़ने की मांग करने लगे. गांववालों के आगे तो छवि को झुकना पड़ा लेकिन अपने काम और इरादों से छवि ने पूरी दुनिया को अपने आगे झुका दिया है.

प्रकाश हिन्दुस्तानी

नईदुनिया
10 अप्रैल 2011