Saturday, March 29, 2014

इलेक्शन टूरिज्म का मौसम


वीकेंड पोस्ट के  29 मार्च 2014   के अंक में  मेरा कॉलम
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अगले तीन-चार हफ्ते इलेक्शन टूरिज्म के नाम होंगे। 
चुनाव के साथ ही नेता, क्रिकेटर और फिल्मी हीरो हीरोइनों को देखने सुनाने का अद्भुत संयोग! अचानक यूपीवालों की बन आई है। काशी  यानी वाराणसी आकर्षण का फिर केंद्र बन गया है। ताजमहल के लिए आगरा और कबाब के लिए लखनऊ फेमस था ही, अब काशी-मथुरा का नाम लिया जा रहा है।
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इलेक्शन टूरिज्म का सीजन फिर आ गया है। अगले तीन-चार हफ्ते इलेक्शन टूरिज्म के नाम होंगे। चुनाव के साथ ही नेता, क्रिकेटर और फिल्मी हीरो हीरोइनों को देखने सुनाने का अद्भुत संयोग! अचानक यूपीवालों की बन आई है। काशी  यानी वाराणसी आकर्षण का फिर केंद्र बन गया है। ताजमहल के लिए आगरा और कबाब के लिए लखनऊ फेमस था ही, अब काशी का नाम नरेंन्द्र मोदी, विजय प्रकाश जायसवाल (बसपा) और अरविंद केजरीवाल के कारण फिर चर्चा में है। मथुरा का नाम कृष्ण मंदिरों के साथ-साथ दिलावर खान यानी धरम पाजी की बेगम आयशा बी यानी एशा देओल की सगी और सनी देओल पाजी की सौतेली मां हेमा मालिनी के लिए लिया जा रहा है।

गाजियाबाद को एनसीआर का महत्वपूर्ण केन्द्र माना जाता है, आज वह राज बब्बर, जनरल वीके सिंह और शाजिया के लिए जाना जा रहा है। अमेठी जाने वालों की भी कतार है, कुमार विश्वास की कविताएं कैसी हैं, जानना दिलचस्प होगा। कभी यहां से संजय गांधी सांसद हुआ करते थे, उनकी मौत के बाद यहां से राजीव गांधी खड़े हुए तो तौलियों की मॉडलिंग कर चुकी गांधी परिवार की बहू मेनका यहां से कड़ी हो गईं, पर जेठजी (राजीव गांधी) से उन्होंने जोरदार मात खाई। ऐसी मात कि अब संजय के बेटे वरुण ने अपनी पार्टी के नेताओं से साफ कह दिया कि मैं भैया (राहुल) और ताईजी (सोनिया गांधी के क्षेत्र रायबरेली) जाऊंगा ही नहीं। रायबरेली  सोनियाजी का इलाका है और समाजवादी पार्टी ने कहा है कि वह यहां से उम्मीदवार ही खड़ा नहीं करेगी, क्योंकि डिम्पल यादव के खिलाफ कांग्रेस ने उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था। हिसाब बराबर! लखनऊ में कबाब के साथ राजनाथसिंह और हेमवतीनंदन की बेटी रीता बहुगुणा के भाषणों का लुत्फ! 

यूपी के ही फूलपुर में भी इलेक्शन टूरिज्म की अच्छी संभावनाएं हैं। यहां से तीन-तीन बार नेहरूजी जीत चुके हैं। इस बार क्रिकेटर मोहम्मद कैफ इलेक्शन के मैदान में वोटों के रन बनाएंगे। अगर क्रिकेट और नेतागीरी का घालमेल ही देखना हो तो राजस्थान में सवाई माधोपुर जाना पड़ेगा, जहां भूतपूर्व मिस इंडिया और भूतपूर्व  हीरोइन संगीता बिजलानी के भूतपूर्व पति और क्रिकेट सट्टे  के मामले में जानकार मोहम्मद अजहरुद्दीन मैदान में हैं। राजस्थान के जयपुर ग्रामीण में भूतपूर्व ओलिम्पियन निशानेबाज राज्यवर्धन सिंह निशानेबाजी कर रहे हैं। 
केंद्रीय शासन वाले चंडीगढ़ भी कौन जाना नहीं चाहेगा? आरोपों के बाद हटाने वाले रेल मंत्री पवन बंसल के साथ ही साथ यहां अनुपम खेर की बीवी किरण खेर मैदान में हैं और उनके सामने समलैंगिकों की पक्षधर मिस इंडिया रह चुकी गुल पनाग यहां अपने जलवे दिखने वाली हैं। चंडीगढ़ से अमृतसर जाकर आप स्वर्ण मंदिर साहिब के दर्शन कर सकते हैं और पटियाला पैग वाले पटियाला के भूतपूर्व राजा अमरिंदर सिंह से मिल सकते हैं।  अगर खुश हों तो हो सकता है आपको एक-दो ऑफर कर दें। 

बिहार के पटना पहुंचें तो पटना साहिब गुरुद्वारे मत्था टेकने के साथ सोनाक्षी सिन्हा के बापू शत्रुघ्न सिन्हा को भी देख लेंगे। संतरों के शहर में जाकर नागपुर आप नितिन गडकरी से मिल सकते हैं, संतरे खा सकते हैं, संघ का मुख्यालय बाहर से देख सकते हैं (अंदर कौन जाने देगा?)। साउथ घूमने का मन  हो तो वहां फिल्मी सितारों और उनके बीवी-बच्चों का माहौल देख सकते हैं और देश के (ऑफिशियली) सबसे मालदार उम्मीदवार नंदन नीलेकणि से मिलने बेंगलुरु जा सकते हैं, जिनके पास आधिकारिक रूप से 7700 करोड़ की सम्पदा है। और दिल्ली? दिल्ली क्या जाना, जिनको हमेशा से ही टीवी पर 'नमस्काआआआरÓ करते सुनते आए ऐसे (आशुतोषजी) नेताओं से क्या मिलना ? वो जीत भी गए तो भी दिल्ली ही जाएंगे, हारे तो भी वहीं मिलेंगे। तो बना लो अपना टूर प्रोग्राम! मुझे भी साथ ले चलना।

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 

वीकेंड पोस्ट ,  29 मार्च 2014 

Monday, March 24, 2014

ताकि सनद रहे (5)

गधे हम हैं, हमें बनानेवाले नेता नहीं !


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आप इस बात पर खुश हो सकते हैं कि आपको उल्लू बनानेवाले खुद उल्लू नहीं हैं!
एक नज़र नेताओं की डिग्री पर; धारणा ग़लत है कि हमारे नेता पढ़े लिखे नहीं है. 
सभी पार्टियों के नेता बहुत पढ़े लिखे हैं.  योग्यतम लोग राजनीति में हैं .
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    नेता गधे नहीं, अच्छे पढ़े लिखे हैं :आप इस बात पर खुश हो सकते हैं कि आपको उल्लू बनानेवाले खुद उल्लू नहीं हैं!

एक नज़र नेताओं की डिग्री पर; धारणा ग़लत है कि हमारे नेता पढ़े लिखे नहीं है. योग्यतम लोग राजनीति में हैं,  इसके बावजूद हम सौ फीसदी साक्षरता के लक्ष्य को नहीं पा सके.


--मनमोहन सिंह के आगे सभी की शिक्षा फीकी है, जिनके पास विश्व के प्रमुख शिक्षा संस्थानों  के साथ ही ऑक्सफोर्ड और केम्ब्रिज की उपाधियां भी हैं। वे दुनिया के सबसे ज्यादा पढ़े लिखे प्रधानमंत्री हैं और रिजर्व बैंक के प्रमुख भी रह चुके हैं। 


--आप पार्टी में शामिल होनेवाली फ़्रांस में पढ़ीं  मीरा सान्याल की बहुत चर्चा है जो ए बी एन एम्रो की सी ई ओ रह चुकी हैं.


 --सचिन पायलेट के पास दोहरे एम् बी ए  की डिग्री है , एक भारतीय और दूसरी वार्टसन, यूएस ए  की। 


--वरुण गांधी के पास लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनोमिक्स की डिग्री है।


--सुनील दत्त की बेटी, कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त  के पास न्यू यॉर्क के मीडिया संस्थान से टीवी प्रोडक्शन की उपाधि है। 


--राहुल गांधी के पास अमेरिका के फ्लोरिडा विश्वविद्यालय की डिग्री है, लेकिन वह उनके नाम से नहीं है क्योंकि श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्हें सुरक्षा कारणों से किसी अन्य नाम से भर्ती किया गया था, और उसी नाम से उन्होंने परीक्षा पास की थी।


--नवीन जिंदल टेक्सॉस से एम् बी ए हैं। 


--सलमान खुर्शीद भी ऑक्सफ़ोर्ड की डिग्री रखते हैं.


--कट्टरपंथी मुस्लिम नेता असदुद्दीन -ओवैसी लन्दन से बैरिस्टर एट  लॉ की डिग्री पा चुके हैं। 


--अगाथा संगमा के पास पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री के साथ ही ब्रिटेन से अनेक डिप्लोमा की मालकिन हैं जिनमे साइबर लॉ, कॉर्पोरेट लॉ, मानवाधिकार और निवेश सम्बन्धी डिप्लोमा शामिल हैं।


--कपिल सिब्बल हार्वर्ड लॉ स्कूल से एलएल एम हैं।


--शशि थरूर ने उच्च शिक्षा यूके से पायी और पीएच डी भी वहीँ से की।


--सुरेश कलमाड़ी आठ साल तक भारतीय वायु सेना में अधिकारी रहे थे


--ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास हार्वर्ड से ग्रेजुएशन और स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी से एम बी ए की 

डिग्री है।  

--अरविंद केजरीवाल कोई पहले नेता नहीं हैं जो भारतीय राजस्व सेवा की नौकरी छोड़कर राजनीति कर रहे हैं।  पहले भी बहुत से नेता आईएएस, आईपीएस नौकरियां छोड़कर राजनीति  में आ चुके है और अपना नाम चमका चुके हैं। भारतीय राजनीति में उच्च अध्ययन और प्रशासकीय पद का अनुभव रखनेवाले कई लोग हैं।


--कांग्रेस  के नेता अजीत जोगी आईएएस थे, और राजनीति  में आकर मुख्यमंत्री बने।  ------मनोहर पार्रीकर भी आईआईटी में पढ़ चुके हैं और  गोवा के मुख्यमंत्री हैं।


--लोकसभा की स्पीकर श्रीमती मीरा कुमार भारतीय विदेश सेवा में रह चुकी हैं और अब सफल राजनीतिज्ञ हैं। 


--शशि थरूर भी मंत्री बनने  के पहले भारतीय विदेश सेवा में रह चुके हैं।


--मणिशंकर अय्यर भी भारतीय विदेश सेवा से काँग्रेस की राजनीति में आये और मंत्री बने.  --यशवंत सिन्हा भी आईएएस थे और राजनीती में आकर मंत्री बने। 


--रोमेश भंडारी भी भारतीय विदेश सेवा में थे और दिल्ली के उप राज्यपाल और त्रिपुरा, गोवा और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे। 


--मध्य प्रदेश के  रुस्तम सिंह भाजपा में आने पहले आईपीएस के रूप में अपनी सेवाएं देते थे। 


--आंध्र प्रदेश से राज्य सभा सदस्य जेसुदासु सलीम भी आईएएस हैं। 


--आंध्र प्रदेश के ही एक आईएएस नागभैरव जयप्रकाश नारायण भी आईएएस हैं और विधायक होने के साथ ही लोक सत्ता पार्टी के अध्यक्ष भी हैं। 


--कर्नाटक में ही काँग्रेस के नेता अशोक कुमार मनोली और एस पुत्तास्वामी भी आईएएस हैं। 


--बंगलुरु के पूर्व निगम आयुक्त  एस. सुब्रमण्यम और बाबूराव मुदाबी भी आईएएस थे और अब जनता दल (एस) के सदस्य हैं।


--पूर्व आईपीएस अधिकारीद्वय  जी.  शंकरनारायण और सुभाष भराणी ने भी जनता दल की सदस्यता ली थी, लेकिन भराणी जी ने भाजपा में जाना  उचित समझा। 


इतने पढ़े लिखे और प्रशासकीय सेवा के अनुभव वाले नेताओं के बावजूद देश की दशा किसी से छुपी नहीं है।  अब नए नए नेता राजनीति में आ रहे हैं, उनसे कुछ आशा करना कितना उचित है, अह तो वक़्त ही बताएगा।


आप इस बात पर खुश हो सकते हैं कि आपको उल्लू बनानेवाले खुद उल्लू नहीं हैं!



© प्रकाश हिन्दुस्तानी 

Saturday, March 22, 2014

ताकि सनद रहे (4) चुनाव में नारों का मज़ा

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  आजादी के वक्त नारे मन्त्र होते थे, अब मसखरी लगते हैं। नारों के  लिहाज़  से यह चुनाव मज़ेदार रहेगा। नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में वाराणसी से भी लड़ रहे हैं, जहाँ नारों का अपना आनंद है।
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आजादी के वक्त नारे मन्त्र होते थे, अब मसखरी लगते हैं। चुनाव  आते ही नए नए नारे सुनकर मज़ा आ जाता है। कितने फ़र्टाइल दिमाग हैं हमारे नेताओं के ! हजारों लफ्ज़ों की बात चार-छह शब्दों में हो जाती है। इक़बाल का  -  'सारे  जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां  हमारा ' आज भी गया जाता है।  गांधी जी ने  'भारत छोड़ो ' और 'करो या मरो ' का नारा दिया था, जिसने गजब ढा दिया।  नेताजी ने कहा था- 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' बेहद प्रभावी रहे। तिलक ने कहा था -'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है ', यह नारा जन जन की आवाज बना। बंकिम चन्द्र चटर्जी का नारा - 'वंदे मातरम् ' और और भगत सिंह के 'इंकलाब जिंदाबाद ' ने तो चमत्कार कर दिया था।  आजादी के बाद लालबहादुर शास्त्री का 'जय जवान जय किसान' खूब चला, जिसमें अटलबिहारी वाजपेयी ने 'जय विज्ञान ' भी जोड़ दिया था. अमेरिका में 'ब्लैक पॉवर', 'ब्लैक इज़ ब्यूटीफुल 'और 'ब्रेड एंड रोज़ेज़ 'जैसे नारे चले। वामपंथियों ने 'ईट दि रिच ' जैसे नारे दिए तो प्रगतिशीलों के  'एवरीमैन इज किंग', 'पॉवर टु द पीपल', 'गो फॉर ग्रोथ' जैसे नारे भी खूब चलन में रहे हैं। 
  

नारों के लिहाज़  से यह चुनाव मज़ेदार रहेगा। नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में वाराणसी से भी लड़ रहे हैं, जहाँ नारों का अपना आनंद है। भाजपा ने 2004 में 'इण्डिया शाइनिंग'  का नारा दिया था, जो पिट गया। भाजपा के लिए 'अबकी बार'  लकी है '--'अबकी बारी अटल बिहारी'  चल गया था। 
इस बार नारा है  'अबकी बार, मोदी सरकार' ; कैसा रहता है, देखेंगे। 'वोट फॉर इण्डिया' नारा भी चल पड़ा है। 'कसम राम की खाते हैं, मंदिर वहीँ बनाएंगे';  और  बाबरी गिराने  के बाद - 'ये तो पहली झांकी है, काशी मथुरा बाकी है' चला था।  काशी  के बाद मथुरा का   वहाँ से हेमा मालिनी मैदान में हैं। कांग्रेस  के पास इस बार नारा है, 'मैं नहीं हम' ।   इसके पहले 'गरीबी हटाओ',  'जात  पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर'  और 'चुनिए उन्हें जो सरकार  चला सके'  जैसे नारों के बूते कांग्रेस  सत्ता  तक पहुंची थी।
उत्तरप्रदेश में मायावती - 'तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' ; 'ब्राह्मण , ठाकुर , बनिया चोर ; बाकी सब हैं डीएस फोर' ,  'ब्राह्मण साफ , ठाकुर हाफ , बनिया माफ' ;  'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा , विष्णु ,महेश है'  जैसे नारे चलाती रही हैं. मुलायम सिंह का  'यूपी में है दम , क्योंकि यहां जुर्म है कम'  चमत्कार नहीं दिखा पाया। 'जिसका जलवा कायम है उसका नाम मुलायम है'  नारे से सत्ता में आ चुके हैं। मुलायम के बेटे अखिलेश इस बार फिर उम्मीद से हैं और  'उम्मीदों की साइकिल' चला रहे हैं.

आप पार्टी वाले आजकल  'झाड़ू चलाओ, बेईमान भगाओ' का नारा दे रहे हैं।  उनके नारे बार बार बदलते रहे हैं।  'मैं भी आम आदमी', 'मैं भी अण्णा, तू भी अण्णा' , 'मुझे चाहिए पूर्ण स्वराज' आते-जाते रहते हैं। ये नारे भी खूब चर्चित रहे हैं --  'जब तक रहेगा समोसे में आलू , तब तक रहेगा बिहार में लालू' ; भाजपा की पुरा आत्मा जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था और कांग्रेस का बैल की जोड़ी। जनसंघ का नारा   था 'जली झोंपडी़ भागे बैल, यह देखो दीपक का खेल'  कांग्रेसी उसके जवाब में कहते थे --'इस दीपक में तेल नहीं, सरकार बनाना खेल नहीं'.  डॉ. राम मनोहर लोहिया जी के दौर में जब संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) बनी थी, नारा दिया गया था 'संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ'. 'एमवाई का राग है झूठा , राबड़ी को मिला अंगूठा';   'राजा नहीं फकीर है , जनता की तकदीर है' ( वीपी सिंह के लिए ) ; 'सेना खून बहाती है , सरकार कमीशन खाती है' ( बोफोर्स घोटाला ) नारे कभी अच्छे चलते थे।  नारों का चुनाव आयोग पर भी असर पड़ा है और वह भी नारे दे रहा है -- 'पहले अपना वोट डलेगा, चूल्हा उसके बाद जलेगा'  और 'सारे काम छोड़ दो सबसे पहले वोट दो !'

-- © प्रकाश हिन्दुस्तानी 



Tuesday, March 18, 2014




वीकेंड पोस्ट के  15 मार्च 2014   के अंक में  मेरा कॉलम

   भगोरिया का इत्ता इंतजार 

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भगोरिया का जित्ता  इंतजार कैमरामैनों को रहता है, उत्ता तो आदिवासियों को भी नहीं रहता होगा। कब होली आए और भगोरिया के फोटो खींचने का मौका मिले।  ताड़ी का मजा ले सकें। और तो और अब तो सरकारी तौर पर भी भगोरिया को प्रचारित किया जाने लगा है और भोपाल-इंदौर से पत्रकारों को भर-भरकर भगोरिया घूमने का चलन है
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भगोरिया का जित्ता  इंतजार कैमरामैनों को रहता है, उत्ता तो आदिवासियों को भी नहीं रहता होगा। कब होली आए और भगोरिया के फोटो खींचने का मौका मिले।  ताड़ी का मजा ले सकें। और तो और अब तो सरकारी तौर पर भी भगोरिया को प्रचारित किया जाने लगा है और भोपाल-इंदौर से पत्रकारों को भर-भरकर भगोरिया घूमने का चलन है। प्रणय पर्व की तरह प्रचारित भगोरिया अब वैसा नहीं है, जैसा प्रचारित किया जाता रहा है। इतिहास बताता है कि राजा भोज के समय लगने वाले हाटों को भगोरिया कहा जाता था। उस समय के दो भील राजाओं कासूमार और बालून ने अपनी राजधानी भागोर में विशाल मेले और हाट का आयोजन करना शुरू किया। धीरे-धीरे आस-पास के भील राजाओं ने भी ऐसा करना शुरू किया जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहना शुरू हुआ। कुछ लोगों ने भगोरिया को आदिवासियों का वैलेंटाइन-डे बताना शुरू कर दिया है। कुछ का मानना है कि भोंगर्या से भगोरिया बना है जिसका अर्थ होता है त्योहार में लगने वाली सामग्री। 

भगोरिया ही नहीं, आदिवासी अंचलों का बहुत कुछ बदल चुका  है। मुश्किल यह है कि गैर आदिवासी समाज यह मानने को तैयार नहीं। आदिवासी जगत के बारे में ऐसी-ऐसी कहानियां गढ़ी जाती हैं कि सवाल आता है कि कौन पिछड़ा है? शहरी तथाकथित सभ्य समाज या आदिवासी?

आदिवासी जगत में बढ़ रही शिक्षा, विकास की बातें, उपलब्धियों पर चर्चा की किसी को फुरसत नहीं। हर कोई भुना लेना चाहता है अपने पूर्वाग्रहों को। अधिकांश पत्रकारों के दिमाग में जो छवि बरसों से है, उसे बदलने की जरूरत कब समझेंगे? अब आदिवासी लंगोट पहनकर नंगे बदन नहीं घूमते, उनकी बहू-बेटियां भी फिल्मी आदिवासियों की तरह अद्र्धनग्न नहीं रहतीं, वे सभी रंग-बिरंगी पोशाकें, चांदी के भारी गहने, बढिय़ा जूते-चप्पल पहनती हैं।  आदिवासी नौजवान अब मोटरसाइकिलों पर भर्राते हुए आते-जाते हैं, कई पढ़े-लिखे संपन्न तो कार भी रखते हैं। इस महत्वपूर्ण समाज का नक्शा बदल रहा है, जो देश की सूरत भी बदल रहा है। हमें यह सब क्यों नहीं दिखता?

सच है कि वे कलरफुल जीवन जीते हैं, बढिय़ा तस्वीरों का कच्चा माल हैं वे। पर इससे ज्यादा भी हैं वे। कई मामलों में तो हमसे भी आगे! 

प्रकाश हिन्दुस्तानी 

वीकेंड पोस्ट के  15 मार्च 2014   के अंक में  मेरा कॉलम


Saturday, March 08, 2014

औरतें अच्छी हैं, औरतें अच्छी हैं, औरतें अच्छी हैं !!!

(वीकेंड पोस्ट के  08 मार्च 2014   के अंक में  मेरा कॉलम)



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कुछ औरतें बहुत एक्टिव हैं उनके लिए  नारीवादी के  मायने हैं  -बात-बिना बात मर्दों को गालियां देना, मर्दों को कोसना, मर्दों को जलील करना और अगर कोई मर्द तीखी  प्रतिक्रिया  लिख दे तो महिला थाने जाकर रिपोर्ट लिखाने  की धमकी देना।  उन्हें लगता  है कि यही फेमिनिज्म  है और इससे उन्हें कोई ख़ास ओहदा मिलनेवाला है। ....................................................
सोशल मीडिया में कुछ औरतें बहुत एक्टिव हैं और उनमें  कुछ ऐसी  हैं जो खुद को  नारीवादी कहती हैं। उनके लिए  नारीवादी के  मायने हैं  -बात-बिना बात मर्दों को गालियां देना, मर्दों को कोसना, मर्दों को जलील करना और अगर कोई मर्द तीखी  प्रतिक्रिया  लिख दे तो महिला थाने जाकर रिपोर्ट लिखाने  की धमकी देना।  उन्हें लगता  है कि यही फेमिनिज्म  है और इससे उन्हें कोई ख़ास ओहदा मिलनेवाला है।  इनमें से कुछ औरतें  हैं और घर की भड़ास के अलावा नौकरी कि भड़ास भी उनके लेखन में आ जाती है।  फेमिनिस्ट होना आसान है,  कुछ करना नहीं पड़ता; सिवाय गाली देने के। वे लिखती हैं सारे मर्द ख़राब होते हैं, (उनके भाई-बाप को छोड़कर). उनके पति खराब हैं, प्रेमी बदजात हैं, नौकरी के पुरुष  सहयोगी लोलुपता से भरे  हैं, सड़क पर चलनेवाला हर मर्द घिनौना है, पुरुष लेखक लम्पट हैं, वगैरह वगैरह।  ये लिखती हैं औरतें ही हैं कि देश और दुनिया चल रही है  वरना कहर आ जाता। इनकी दुनिया 'मैं' से  होती है और 'मैं' पर ही ख़त्म हो जाती  है।  

क्या औरत और मर्द दोनों बराबर नहीं हैं? न औरतें कमतर हैं न मर्द।  दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं,  यह लिखने में वाहवाही नहीं मिलती। वाहवाही मिलती है नारीवादी होने से. 'बेटी है तो कल है' लिखने और बोलने में। ... और अगर गलती से बेटा है तो ? ये नारीवादी लिखती हैं कि औरतें केवल औरतों के ही संसर्ग में रहें, उन्हें गम गलत करने को कंधा ही तो चाहिए। बस, कन्धा ही?

ये औरतें क्यों भूल जाती हैं कि जाती हैं कि अगर महिलाएं घर संभालती हैं तो पुरुष भी तो खदानों-खेतों-खलिहानों में जुते  रहते हैं। समुद्री जहाज़ों में, कारगिल जैसी पहाड़ियों  में,  लोहा तपती भट्टियों में, खतरनाक रसायन उद्योगों में, एयर ट्रैफिक कंट्रोल  विभाग में, गहरे समंदर में मछलियां पकड़ने  में,  रेल  पटरियां  बिछाने जैसे दुरूह कार्य और भूमिगत सीवेज लाइनों की सफाई जैसे कार्यों में लगे हैं. ख़ास बात  यह है कि वे अकसर इसका जिक्र नहीं कर करते। 

ये कथित फेमिनिस्ट अपना ही रोना क्यों रोती रहती हैं? वे अपने प्रेमी या पति में अपनी माँ को क्यों तलाशने लगती हैं? उन्हें अपने कथित ज्ञान को ही सर्वश्रेष्ठ कहने, सहयोगी पुरुष सहकर्मियों को मतलबी करार देने, बदतमीज़ी को आधुनिकता सिद्ध करने की हुक क्यों लगी रहती है?  कई घरों में बेटे और बेटी में भेदभाव  होगा। मैं ऐसे कई मित्रों को जानता  हूँ, बेटी को तवज्जो मिलती रही है, किसी  भाई ने कभी आपत्ति नहीं की।...कोई मुझसे बहस करता है तो मैं उसे देता हूँ और कहने लगता हूँ कि वाकई औरतें अच्छी हैं, औरतें अच्छी हैं, औरतें अच्छी हैं !!!

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
(वीकेंड पोस्ट के 08  मार्च 2014   के अंक में  मेरा कॉलम)

Saturday, March 01, 2014

(वीकेंड पोस्ट के  1 मार्च 2014   के अंक में  मेरा कॉलम)


  हे भगवान, तेरा शुक्र है … 

अगर राजनीति में भी छद्म नाम का चलन बंद हो जाए तो पहचान का संकट ही पैदा हो जाए। फिल्मों में यूसुफ़ खान दिलीप कुमार के नाम से जाने जा सकते हैं, राजीव हरी ओम भाटिया को लोग अक्षय कुमार के नाम से पहचान सकते हैं, मुमताज जहाँ बेगम देहलवी को लोग मधुबाला के नाम से पहचान सकते हैं, अजय देओल को सनी देओल के नाम से पहचान सकते हैं, पर अगर कोई उसके नेता-पिता-अभिनेता धर्मेन्द्र  को दिलावर खान पुकारे तो कौन पहचानेगा?  कौन पहचानेगा भाजपा की नेत्री हेमा मालिनी को आयशा बी कहें तो कौन पहचानेगा?   



आजकल जो कुछ हो रहा है उसे देखते हुए हर दिन अनेक बार मुंह से निकलता है कि हे भगवान, तेरा शुक्र है। 

-- हे भगवान, तेरा शुक्र है कि चीयर लीडर्स क्रिकेट में ही होती हैं, अगर राजनीति में भी होतीं तो? आप  नरेंद्र मोदी की सभा सुन रहे हों, वे कोई डॉयलाग बोलें  और चीयर लीडर्स झूम झूम कर नाचने लगें। बाद में विवाद हो कि फलां चीयर लीडर तो विदेशी बाला  थी और उसे बुलवाना अनैतिक कृत्य था! केजरीवाल कोई आरोप मढ़ें और चीयर लीडर लगे कूल्हे मटकाने ! क्या नज़ारा हो सकता है! क्रिकेट अगर तमाशा है तो फिर चुनाव को भी नेताओं ने तमाशे से क्या कम रहने  दिया है? राहुल गांधी मंच पर अपनी दादी, पापा, ग्रेट ग्रैंड फादर के बलिदान का जिक्र छेड़ें और चीयर लीडर का डांस चालू !

-- हे भगवान, तेरा शुक्र है कि आईपीएल में ही खिलाडियों की नीलामी होते है।  अगर राजनीति  के खिलाड़ियों  की भी नीलामी शुरू हो जाए तो? यहाँ नेताओं को तो कोई खरीदेगा नहीं, पर हो सकता है कि नेता लोग खुद पदों की बोलियां लगाने लगें।  नगर अध्यक्ष से लेकर बड़े बड़े मंत्री पद की बोलियां लगने लगे, जो ज्यादा का ऑफर दे, उसकी कुर्सी पक्की। जो सेवा भावी हो, उसे आजीवन निशुल्क सेवा का मौका दिया जाए और वह बेचारा बिना मेवे के सेवा करता रहे। 

-- हे भगवान, तेरा शुक्र है कि फिल्मों की तरह राजनीति में भी छद्म नाम चलते रहते हैं। अगर राजनीति में भी छद्म नाम का चलन बंद हो जाए तो पहचान का संकट ही पैदा हो जाए। फिल्मों में यूसुफ़ खान दिलीप कुमार के नाम से जाने जा सकते हैं, राजीव हरी ओम भाटिया को लोग अक्षय कुमार के नाम से पहचान सकते हैं, मुमताज जहाँ बेगम देहलवी को लोग मधुबाला के नाम से पहचान सकते हैं, अजय देओल को सनी देओल के नाम से पहचान सकते हैं, पर अगर कोई उसके नेता-पिता-अभिनेता धर्मेन्द्र  को दिलावर खान पुकारे तो कौन पहचानेगा?  कौन पहचानेगा भाजपा की नेत्री हेमा मालिनी को आयशा बी कहें तो कौन पहचानेगा?   संगीतकर ए  एस दिलीप कुमार को कौन पहचानता है, अल्लाह रक्खा रहमान यानी  ए आर रहमान को सब जानते हैं!

-- हे भगवान, तेरा शुक्र है कि इतनी महंगाई, इतनी मारा मारी, इतने दंगों-फसादों के बाद भी हमारा विश्वास कायम है।  कई बार तो हालत संता सिंह जैसी हो जाती है।  हुआ यह कि एक दिन संता अपनी बेटी को बुलाने उसके कमरे में गया. उसने दरवाज़ा थोड़ा सा खोला तो अंदर से सिगरेट की गंध आई.
“हे भगवान … मेरी बेटी सिगरेट पीती है !”
दरवाज़ा थोड़ा सा और खोला तो सामने टेबल पर व्हिस्की से भरा  गिलास दिखाई दिया ….
“ओह नो !!! ये तो शराब भी पीने लगी है !!!”
फिर दरवाज़ा पूरा खोला तो सामने  'अस्त व्यस्त' दशा में एक  लड़का  उसकी बेटी के साथ बैठा दिखाई दिया …
“ओहो तो ये सब इस लड़के का है, और मैं खामखाँ अपनी बेटी पर शक कर रहा था … भगवान तेरा लाख-लाख शुक्र है … !!!”
और संता दरवाज़ा बंद करके वापिस चला आया… !!!
--प्रकाश हिन्दुस्तानी 

(वीकेंड पोस्ट के  1 मार्च 2014   के अंक में  मेरा कॉलम)