Sunday, June 26, 2011

संघर्ष ही बनाता है सिकंदर

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज पर मेरा कॉलम


आईएएस चुने गए सुखसोहित सिंह हजारों थैलेसीमिया पीड़ितों के संघर्ष और सफलता के प्रतीक बन गए है. पंचकुला के इस नौजवान ने अपनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट और प्रधानमंत्री कार्यालय तक लड़ी.

संघर्ष ही बनाता है सिकंदर

सुखसोहित सिंह आईएएस के लिए चुने गए, इसमें कोई नयी बात नहीं है. उनकी पोज़ीशन दूसरी सूची में 42 वीं ( पहली सूची जोड़ने पर 833 वीं) थी. वे हमेशा अव्वल आते रहे, इसमें भी कोई खास बात नहीं, लेकिन उन्होंने वह काम कर दिखाया है जो आजाद भारत में किसी ने नहीं किया. सुखसोहित सिंह ने अपने अधिकार के लिए हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और स्वास्थ्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक अपने हक़ की लड़ाई लड़ी और जीते. दरअसल वे थेलेसिमिया नामक आनुवंशिक रोग से पीड़ित हैं और उन्हें इस आधार पर नियुक्ति नहीं दी जा रही थी कि वे भी सरकार के लिए बोझ साबित हो सकते हैं. सुखसोहित सिंह ने साबित किया कि जिस बीमारी के आधार पर पर उन्हें उनकी योग्यता के मुताबिक रोजगार के अधिकार से वंचित किया जा रहा है, वह बीमारी मैनेज करने योग्य है और इसका उनकी कार्यक्षमता कम नहीं होगी और वे किसी पर भी बोझ तो हर्गिज़ नहीं ही होंगे. जल्द ही सुखसोहित सिंह की नियुक्ति उचित पद पर होगी और वे अपनी योग्यता के मुताबिक काम कर सकेंगे. 2008 में हुई यूपीएससी की चयन परीक्षा की मेरिट में जगह पाने वाले सुखसोहित सिंह की सफलता के कुछ मन्त्र :

थेलेसिमिया बाधक नहीं

सुखसोहित को बचपन में ही इस बीमारी का पता चल गया था लेकिन उन्होंने किसी को भी अपने लक्ष्य में बाधा नहीं बनने दिया. यहाँ तक कि थेलेसिमिया को भी. उन्हें पता था कि इस बीमारी में कई बच्चे जवानी की दहलीज तक ही नहीं पहुँच पाते. बेशक इसमें उनके परिवार का रोल महत्वपूर्ण रहा है, लेकिन सारा संघर्ष तो सुखसोहित सिंह का ही है. सुखसोहित का मानना है कि बीमारी अदृश्य है लेकिन वह मेरे हौसले को तोड़ नहीं सकी. बीमार कोई भी, कभी भी हो सकता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आप पराजय को स्वीकार कर लें.

मंजिल का पीछा मत छोड़ो
जब तक मंजिल मिल ना जाए, उसका पीछा करते रहे. सुखसोहित को यूपीएससी चयनl परीक्षा में पहले दो बार सफलता नहीं मिल सकी, लेकिन उन्होंने निराश होकर भाग्य को कोसने की अपेक्षा मेहनत करने की राह चुनी. उन्होंने कामयाबी पाई लेकिन तीसरी बार. और जब रिज़ल्ट आया तब उनका नाम मेरिट लिस्ट में था. 'फेसबुक' पर अपने परिचय में सुखसोहित ने लिखा है कि अतीत के कैदखाने में वक़्त गंवाने से बेहतर है कि अपने महान भविष्य का शिल्पकार बनना. आप अतीत को नहीं बदल सकते, लेकिन शानदार भविष्य की संरचना कर सकते है.

मेहनत निवेश की तरह है

सुखसोहित पंचकुला के हैं और वहां के एक बुजुर्ग उनसे कहते रहते थे कि जो जवानी सोने में खोएगा, वह बुढ़ापे में रोयेगा. इसका अर्थ यही हुआ कि जवानी को सोने, घूमने -फिरने और बेकार के कामों में जाया ना करो, यही समय है जब आप अपने स्वर्णिम भविष्य बना सकते हैं. फेसबुक पर सुखसोहित ने लिखा है कि खुशी और कड़ी मेहनत एक तरह से भविष्य के लिए किया गया निवेश है. यह मेहनत कभी भी बेकार नहीं जाती. बस, आप आयेज बढ़ने के लिए एक पायदान पर चढ़ते हैं और फिर चढ़ते ही चले जाते हैं. सुखसोहित ने लगातार कई कई बरसों तक सोलह से अठारह घंटों तक पढ़ाई की है, और यह उनकी सफलता का आधार है.

जहाँ तक दिखाई दे, जाओ

एक पंजाबी कहावत है कि जहाँ तक दिखाई दे, वहाँ तक जाओ, वहाँ पहुँचने पर और आगे का रास्ता दिखाई देगा. आईएएस में चयन होने के बाद जब वे दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल में अपने मेडिकल परीक्षण के लिए गये तब उन्हें नियमों के अनुसार अनफिट करार दिया गया, जबकि डॉक्टरों ने उनसे कहा था कि थेलेसेमिया कोई ऐसी बीमारी नहीं है जो उन्हें उनके काम में बाधा बनेगी. आई ए एस में ही चयनित एक दूसरे युवक एम. श्रीनिवासु को भी मेडिकल बोर्ड ने अनफिट कर दिया था क्योंकि श्रीनिवासू को डायबीटीज़ का रोग था. सुखसोहित से प्रेरणा लेकर उन्होंने भी अपील की कि उन्हें अनफिट करार देकर काम से वंचित न किया जाए. सबक यह है की अगर मंज़िल नज़र न आ रही हो तो भी रास्ता छोड़कर भागना उचित नहीं.

परीक्षा से मत हिचको

बीते 10 जून को सुखसोहित का पहला मेडिकल परीक्षण हुआ और फिर 17 जून को दूसरा. वे ससम्मान इस परीक्षण के लिए पहुँचे. उन्होंने अपनी बीमारी के बारे में कोई भी बात छुपाने की कोशिश नहीं की. उन्होंने यही कहा कि यह भी एक तरह की परीक्षा है और वे इसमें पास होकर रहेंगे. उन्होंने अपनी बात अधिकारियों को समझने की कोशिश की कि उनकी इस बीमारी से उनके एक आईएएस अधिकारी के रूप में काम करने पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा क्योंकि वे सिविल सेवा के लिए मानसिक और बौद्धिक रूप से पूरी तरह सक्षम हैं. जहाँ तक शारीरिक क्षमता का सवाल है उन्होंने एक एक्सपर्ट चिकित्सक का प्रमाण पत्र पेश किया कि उन्हें इसके लिए अपने शरीर में मौजूद खून में लौह कणों के असंतुलन के कारण नियमित रूप से ब्लड ट्रांसफ़्यूज़न करना होगा.

बहुकोणीय प्रयास

कामयाबी के लिए बहुकोणीय प्रयास करने चाहिए क्योंकि इसमें कामयाबी की गुंजाइश ज़्यादा होती है और सफलता के पास पहुंचने की गति तेज़ हो जाते है. यूपीएससी क्रेक करनेवाले वे पहले युवा हैं जो थेलेसिमिया रोगी हैं. क़रीब 24 साल पहले उनके परिवार को इस बीमारी का पता चला और उन्होंने सुखसोहित का खास ध्यान रखा. अपने हक के इए उन्होंने न्यायालय का दरवाज़ा भी खटखटाया और मंत्री स्तर पर भी बातचीत की. केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी ने उनका मामला प्रधानमंत्री के पास पहुँचाया और 23 जून को प्रधानमंत्री ने उनकी राह आसान बना दी. सुख़सोहित सिंह आज थेलेसिमिया के हज़ारों रोगियों के लिए बन गये हैं, ऐसे मार्गदर्शक जिन्होंने न केवल अपनी राह खुद बनाई, बल्कि दूसरों को भी रास्ता दिखाया है.

प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान june 26,2011

Thursday, June 23, 2011

>(उम्मीद भरे) स्टोरी आइडियाज़!


(उम्मीद भरे) स्टोरी आइडियाज़! 
तैयार हो जाइए साल भर ऐसे टीआरपी बटोरू (?) स्पेशल प्रोग्राम के लिए :

हे प्रभु, तूने बड़ी कृपा की. अमिताभ का ट्विट क्या पढ़ा, मानो मन की मुराद मिल गयी. बेचारा मीडिया अफवाहें फैला फैला कर थक गया था.
अब मिर्च मसाले का उपयोग हो सकेगा.
साल भर के कुछ स्टोरी आइडियाज़.. :

टीवी चैनल के संपादकों और रिपोर्टरों से अनुरोध है कि वे डायरी में इन्हें नोट कर लें और समय समय पर ऐसे हालात में इन आइडियाज का तुरंत इस्तेमाल कर लें...

....अभी तक क्या कर रहे थे अभिषेक...

...आखिर कैसे सफल हुए इतना गैप रखने में...

...किस हकीम की दवा से गर्भवती हुईं ऐश...

... क्या मन्नत और मनौतियों का फल है यह चहंचहांहट...

...डॉन क्यों हुआ खुश ?...

...क्या सामान्य होगा?...

...फीगर बचाने के लिए नार्मल की पक्षधर नहीं है ऐश...

...ऐश को क्या खाना चाहिए?...

...किस नर्सिंग होम में?..

...घर पर क्यों नहीं?...

...श्वेता कब नाचेगी?...

...इलाहाबाद से आयेंगे (जापे के) लड्डू?...

..अजिताभ ने बधाई क्यों नहीं दी?...

...और अमर सिंह नाचने लगे...

..सोनिया पिघलीं, दी बधाई...

...गुड्डी बनेगी दादी...

...अभिषेक ने की शूटिंग की छुट्टी...

...लम्बू ने खरीदे छोटू के कपड़े...

...ऐश का वजन (कितना) बढ़ा?...

...तैयार है जच्चा का कमरा...

...पहले भी उम्मीद थी लेकिन...

...क्या कहते हैं आम आदमी?...

...क्या बहुत देर कर दी?....

...देरी से मातृत्व के फायदे या नुकसान?....

...अगर करिश्मा से सगाई ना टूटती तो क्या होता?...

...दादा को चाहिए पोता या पोती?...

...बाबा विश्वनाथ की कृपा...

....ऐश की गोद भराई कहाँ होगी मुंबई में या इलाहाबाद में?

....क्या नाम होगा (गर्भस्थ) जूनियर बच्चन का?

...क्या नाम शुभ होगा शिशु का?

....जच्चा किधर सिर करके सोये तो बच्चे का भाग्य बनेगा?

...सिद्धि विनायक का फल, हनुमानजी का आशीर्वाद..

...साथ ही देखिएगा मालिशवाली बाई का खास इंटरव्यू...

...जच्चा का डाइट चार्ट...

...ड्राइवर करेगा रहस्योदघाटन..

...माली ने खोल दिया भेद

...प्लंबर के रूप में घुसा मीडियाकर्मी

...फलां नीम हकीम का दावा ....

यह भी हो सकता है कि ऐश की बॉडी लैंग्वेज के आधार पर कोई टीवी रिपोर्टर 'सुपर जूनियर बिग बी' का इंटरव्यू ही दिखाकर माने. आखिर हमारे टीवी चैनलों में भी कई रजनीकांत जो हैं.

दरअसल टीआरपी की होड़ में मूल मुद्दों से भटक गए हैं हम !!!

प्रकाश हिन्दुस्तानी
जून 22 , 2011

Saturday, June 18, 2011

कामयाबी इंतज़ार भी कराती है




रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज पर मेरा कॉलम



2002 में भारतीय क्रिकेट टीम में शामिल किये जाने के बाद भी अमित मिश्रा को खेलने के उतने अच्छे मौके नहीं मिले और बरसों तक टीम इण्डिया में उनका उपयोग केवल एक स्टेपनी की तरह ही किया गया. इस पूरी प्रक्रिया का उस खिलाड़ी पर क्या असर पड़ सकता है, यह शायद ही हमारे क्रिकेट प्रशासन ने सोचा हो, लेकिन अमित मिश्रा ने मौका आने पर अपनी काबीलियत साबित कर दी.

कामयाबी इंतज़ार भी कराती है


क्रिकेट को टीम का खेल माना जाता है, लेकिन सच्चाई यही है कि मैदान में हर खिलाड़ी एकाकीपन से जूझता रहता है. लेग ब्रेक बॉलर और दाहिने हाथ के लोअर ऑर्डर बेट्समैन अमित मिश्रा से ज्यादा अच्छी तरह इस बात को और कौन समझ सकता है? यह बात भी सच है कि क्रिकेट जेंटलमेंस गेम है और यहाँ की सभ्यता के पैमाने अलग ही हैं. 2002 में भारतीय क्रिकेट टीम में शामिल किये जाने के बाद भी अमित मिश्रा को खेलने के उतने अच्छे मौके नहीं मिले और बरसों तक टीम इण्डिया में उनका उपयोग केवल एक स्टेपनी की तरह ही किया गया. इस पूरी प्रक्रिया का उस खिलाड़ी पर क्या असर पड़ सकता है, यह शायद ही हमारे क्रिकेट प्रशासन ने सोचा हो, लेकिन अमित मिश्रा ने मौका आने पर अपनी काबीलियत साबित कर दी. हाल ही में वेस्ट इंडीज़ से हुई वन दे सीरिज में भारत की तीन दो से जीत में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है.
24 नवम्बर 1982 को जन्मे अमित मिश्रा दिल्ली के हैं और क्रिकेट में उनका कोई गोडफादर नहीं रहा. उन्होंने जो कुछ भी अर्जित किया अपने खेल से. अनेक झंझावातों को पार करके उन्होंने अपनी मुकाम हासिल कार ही लिया. अमित मिश्रा की सफलता के कुछ सूत्र :

सही वक्त आने दें
अमित मिश्रा ने अंडर -19 में जिस तरह का क्रिकेट खेला था उससे भारतीय टीम में जगह पाने का रास्ता तो मिल गया था. 2000 -2001 में उन्हें फर्स्ट क्लास क्रिकेट में जगह मिली और वे 2002 में वेस्ट इंडीज़ के सामने खेलेनेवाली टीम इण्डिया में शामिल भी कर लिए गए थे लेकिन लेकिन उन्हें टीम इण्डिया में खेलने का मौका ही नहीं मिला. वे टीम में एक स्टेपनी की तरह साल भर तक रहे लेकिन मैदान में जौहर दिखाने के मौके से वंचित रहे. 2003 में उन्हें ढाका में टीवीएस कप में खेलने का मौका मिला और फिर वे मैदान के बाहर कर दिए गए. फिर दुबारा टीम इण्डिया के साथ खेलने का मौका उन्हें 2009 में ही मिल पाया जब दक्षिण अफ्रीका में आईसीसी चैम्पियंस ट्रोफी के लिए मैच हुए. इतने साल तक वे अपने खेल की तैयारियां करते रहे. खेल को और बेहतर बनाने की कोशिशों में लगे रहे.

निराशा से बचना ज़रूरी
अगर लम्बे समय तक किसी योग्य व्यक्ति को अवसर ना मिले तो इस बात का खतरा पैदा हो जाता है कि वह व्यक्ति किसी ना किसी तरह की निराशा या अवसाद का शिकार न हो जाए. अमित मिश्रा के साथ भी ऐसे मौके बहुत सी बार आये जब यह लगने लगा कि उन्हें कहीं बलि का बकरा या क्रिकेट की राजनीति का मोहरा तो नहीं बनाया जा रहा? निराशा के दौर में उनका मन क्रिकेट से संन्यास लेने का भी होने लगा था लेकिन जल्द ही उन्होंने अपने आप को संभाला और और मैदान में डटे रहने का प्रयास करते रहे. अगर वे बीच के इन छह सालों में कभी भी संन्यास ले लेते तो फिर टीम इण्डिया में लौटने का तो सवाल ही नहीं था. घनघोर निराशा के दौर में भी वे मैदान में डटे रहे.

तकनीकी पक्ष को जानें
टीम इण्डिया से अलग होने के बाद अमित मिश्रा क्रिकेट गुरुओं और विशेषज्ञों से सलाह मशविरा करते रहे और अपने खेल की बारीकियों को उन विशेषज्ञों के नज़रिए से समझ कर सुधार करते रहे. विशेषज्ञ उन्हें बताते रहे कि उनकी आदर्श स्थिति क्या होनी चाहिए. उन्हें स्पिन करने के दौरान विविधता लानी चाहिए, सेकण्ड लाइन पर खेलना और कितना,कब स्पिन करना चाहिए, एक्स्ट्रा ओवर को कैसे कवर करना चाहिए आदि आदि बातों पर ध्यान देते और खेल को सुधारते रहे. उनके खेल का अपना स्टाइल रहा है लेकिन जब उन्हें लगा कि शायद वे कहीं कमज़ोर पद रहे हैं तो उन्होंने तत्काल उसमें सुधार का अभियान छेड़ दिया.

अवसर को मत चूको
टीम इण्डिया से किनारे किये जाने के बाद भी अमित मिश्रा अपने खेल में जुटे रहे. उन्होंने आईपीएल में डेल्ही डेयर डेविल्स और गत आईपीएल सीजन चार में डेक्कन चार्जर्स की तरफ से खेला. डेक्कन चार्जर्स की तरफ से उन्होंने कुल 19 ओवर लिए थे और फायनल में चार ओवर में 17 रन देकर पांच विकेट चटकाए. वे अपने आगाज़ के साथ ही एक झटके में पांच विकेट लेनेवाले छठे क्रिकेटर बन गए. आईपीएल को उन्होंने केवल शौक या मिलनेवाले करीब डेढ़ करोड़ रुपयों के लिए ही नहीं, अपनी प्रतिष्ठा की वापसी के लिए भी खेला था और वे अपने मकसद में कामयाब हो गए. यह शानदार पारी ही उनकी हाल ही की वेस्ट इंडीज सीरिज में जाने का माध्यम बनी.

प्रतीक्षा अपमान नहीं होता
अमित मिश्रा ने साबित कर दिया कि सही मौके के लिए प्रतीक्षा करने को नाक का सवाल नहीं बनाना चाहिए. एक दौर में उन्हें अनिल कुम्बले का विकल्प मानकर मौका दिया जा रहा था और उन्होंने इसका लाभ उठाया. अनिल कुम्बले के पूर्ण स्वस्थ होकर लौटने के बाद वे हरभजन सिंह के विकल्प बने. उन्होंने इस बात को समझा कि कोई भी मौका छोटा नहीं होता और अगर सही भूमिका के लिए इंतज़ार भी करना पड़े तो कर लेना ही ठीक होता है. क्या पता कल को उससे भी बेहतर कोई मौका आनेवाला हो?

राजनीति से दूर रहो
अमित मिश्रा ने कभी भी अपने साथ घटी घटनाओं को लेकर बयानबाजी नहीं की. क्रिकेट के पंडितों का कहना है कि अगर अमित जैसे खिलाड़ियों को आगे लाना हो तो टीम इण्डिया के कुछ वरिष्ठ खिलाड़ियों को बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए. अमित ने हर बार केवल अपने खेल के बूते यह विश्वास हासिल किया कि खेल में राजनीति नहीं आनी चाहिए. उन्होंने कभी मीडिया को बयान नहीं दिया और फिर भी कलात्मक स्पिन गेंदबाजी को उसका पुराना सम्मान लौटा दिया. अब वे यही कहते हैं कि मैं चयनकर्ताओं और सीनियर खिलाड़ियों का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे यह मौका दिया.

प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान, 19 june 2011

Saturday, June 11, 2011

जूझने के जज्बे ने दिलाई कामयाबी


रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज पर मेरा कॉलम


ओप्रा विनफ्रे जानी मानी अभिनेत्री, फ़िल्म निर्माता और दानदाता हैं. ओप्रा विनफ्रे दुनिया की सबसे प्रभावशाली अश्वेत महिलाओं में गिनी जाती हैं. वे पहली अश्वेत महिला अरबपति हैं.

जूझने के जज्बे ने दिलाई कामयाबी

विश्वविख्यात ओप्रा विनफ्रे शो का फेयरवेल सीजन ख़त्म हो गया लेकिन कुछ देशों में रिपीट टेलीकास्ट चल रहा है. पच्चीस साल की शानदार पारी में 4561 एपिसोड का यह कार्यक्रम अमेरिकी टीवी के इतिहास का सबसे ऊँची रेटिंगवाला शो रहा है. 120 से ज्यादा देशों में दिखाए गए इस शो में दुनिया के सबसे नामी गिरामी लोगों ने शिरकत की. हर तरह के मसालों से भरपूर इस शो में सकारात्मक नजरिया, सेल्फ इम्प्रूवमेंट, दान, सहयोग, अध्यात्म आदि रहा है. वे जानी मानी अभिनेत्री, फ़िल्म निर्माता और दानदाता हैं. ओप्रा विनफ्रे दुनिया की सबसे प्रभावशाली अश्वेत महिलाओं में गिनी जाती हैं. वे पहली अश्वेत महिला अरबपति हैं. मोंतेसिटो, केलिफोर्निया में 42 एकड़ के एस्टेट में बने भव्य विला में रहती हैं. दुनिया के अनेक देशों में उनके भव्य महलनुमा मकान हैं. वे बेहद गरीबी में पलीं और बड़ी हुईं. अपनी प्रतिभा से उन्होंने अपनी जगह बनाई. ओप्रा विनफ्रे अगर भारत में होतीं तो निश्चित ही उन्हें कोई अवतार, देवी या महाशक्ति के रूप में याद किया जाता. टीवी होस्ट से ग्लोबल कल्चरल आयकोन बननेवाली ओप्रा विनफ्रे की सफलता के कुछ सूत्र :

हालात से मत डरो
ओप्रा विनफ्रे की माँ घरेलू नौकरानी थीं और जब वे केवल 13 साल की थीं, तब उनके साथ बलात्कार किया गया था इसलिए उनके जन्म के बाद परिवार और पिता का साया उन्हें नसीब नहीं हुआ. माँ ने उनकी नानी के पास उन्हें छोड़ दिया जो खुद बेहद मुफलिसी में थीं. कुछ साल फतेहाले में गुजरे और उन्हें गोद दे दिया गया ऐसे परिवार में जो बेहद क्रूर था. उनके साथ मारपीट और अभद्रता तो आम बात थी. जब वे तेरह साल की थीं, तब उनके साथ बलात्कार किया गया, चौदह की उम्र में वे बिनब्याही माँ बनीं, लेकिन बच्चा एक सप्ताह भी जीवित नहीं रह सका. वे नशे की शिकार हो गयीं और फिर इसका इलाज कराने उन्हें नशा मुक्ति केंद्र भेजा गया. ओप्रा विनफ्रे ने विकटतम दिनों का मुकाबला डटकर किया.

बुद्धि हमेशा उपयोग में लाओ
ओप्रा विनफ्रे का फार्मूला यह रहा कि विपरीत से विपरीत हालात में भी बुद्धि पर भरोसा करना मत छोड़ो. दुर्दिनों में दो साल उन्होंने अपनी पढ़ाई भी छोड़ी लेकिन फिर पढाई शुरू की. ब्रोडकास्ट कम्युनिकेशन की पढ़ाई करने के बाद उन्हें लोकल टीवी में पार्ट टाइम रिपोर्टर का काम मिला. इस बीच वे एक स्थानीय ब्यूटी कान्टेस्ट भी जीत चुकी थीं. तीन साल बाद उन्होंने अपना जॉब बदल दिया और एक बड़े प्लेटफार्म को आधार बनाया. उन्होंने अपने हर शो में अपनी बुद्धि का लोहा मनवाया. प्रस्तुति को हमेशा जीवंत बनाये रखा.

कोई पद छोटा नहीं होता
कोई भी काम छोटा नहीं होता. यह बात ओप्रा विनफ्रे ने साबित कर दी. उनका स्टाइल बड़े पद पर बैठे लोगों को रास नहीं आया. नयी कंपनी में साल भर भी नहीं हुआ था कि उन्हें नौकरी से हटाने के बजाय पदावनत करके टीवी ब्रोडकास्टर से टीवी शो प्रजेंटर बना दिया गया और वह भी दोपहर में महिलाओं के शो का. ओप्रा विनफ्रे ने महसूस किया कि यही काम उनके लिए सही काम है जब वे महिला दर्शकों को अपनी हाजिरजवाबी, अपनेपन, साफगोई और दिलचस्प शैली से प्रभावित कर सकती हैं. वे कहती हैं कि विफलता ईश्वर का वह वरदान है जो आपको इशारा करता है कि आप शायद गलत राह पर हैं.

रंग और शक्ल पर मत जाओ
ओप्रा विनफ्रे ने महिलाओं के उस कार्यक्रम को सात साल तक प्रस्तुत किया. इस बीच प्रबंधन में बैठे लोगों को उनकी अनेक बातों से शिकायतें हुईं. कहा गया कि आपके बाल ठीक से जमे नहीं होते, उनकी नाक ज्यादा ही लम्बी है और दो आँखों के बीच दूरी ज्यादा है. उनका वजन ज्यादा है आदि आदि. प्रबंधन ने उन्हें न्यूयोर्क भेजा ताकि उन्हें ठीक से बाल जमाना, सही ढंग से मेकअप करना आदि सिखाया जा सके. यह भी सलाह दी गयी कि वे सिर को मुंडा लें और विग पहनना शुरू कर दें.इस सब का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने अपने आप पर ध्यान देना शुरू किया और खुद को ज्यादा प्रभावी टीवी शो के प्रस्तुतकर्ता के रूप में आगे लाने की सकारात्मक कोशिश की.

बेख़ौफ़ होकर सच बोलो
ओप्रा विनफ्रे शो की लोकप्रियता का एक कारण उनकी बेबाकी भी रही है. वे अपने प्रोग्राम के वीआइपी मेहमानों की लल्लो - चप्पो नहीं करतीं. कुछ माह पहले उनके शो में अतिथि के रूप में मशहूर फैशन डिजाइनर टोमी हिलफिगर आये थे. उनका परिचय देने के बाद ओप्रा ने उनसे पूछा -- क्या ये बात सच है कि आपने हाल ही में एक वर्णवादी और रंगभेदी बयान में कहा था कि मेरे बनाये कपड़े अफ्रीकी, एशियाई, अमेरिकी सभी खरीदते हैं लेकिन मैं चाहता हूँ कि मेरे कपड़े अश्वेत और एशियाई नहीं खरीदें. क्या ये बात सही है? टोमी हिलफिगर ने जवाब दिया --हाँ. ओप्रा ने उन्हें कहा तत्काल इस शो से बाहर जाइए. मैं सभी लोगों से गुजारिश करती हूँ कि टोमी हिलफिगर के डिजाइन किये वस्त्र कोई न खरीदे. इनकी आर्थिक हालत ऐसी बना दो कि ये कभी भी कभी भी बहुसंख्यक आबादी के बारे में ऐसा सोचने की जुर्रत न कर सके.

सभी को साथ लो
ओप्रा विनफ्रे फाउंडेशन बनकर करोड़ों डॉलर दान देनेवालीं ओप्रा का मानना है कि आपको जिन्दगी के हर मोड़ पर कुछ न कुछ जिम्मेदारी दी गयी है, उसे पूरा करो. उनकी मदद करो जो हकदार लेकिन मोहताज हैं. अपने काम को ताजी से आगे बढ़ाने के लिए अपने अधीनस्थों को अधिकार सौंपो. रोजमर्रा के जीवन में जो भी आपके साथ हों उनसे दिल से जुड़ो. आपके जीवन में जिसने भी योगदान दिया है, उसका आभार मानना न भूलो. आपको काम के बारे में जो भी प्रतिक्रिया मिले, उसे अवश्य सुनो और अगर सुधर की गुंजाइश हो तो उसे सुधारने में देरी मत करो.

जीवन का सबसे बड़ा रहस्य
ओप्रा का मानना है कि जीवन का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि रहस्य नाम की कोई चीज़ है ही नहीं. इसलिए बेखौफ होकर जो भी अच्छा लगे वही करो. आपका जो भी लक्ष्य हो, वह तभी मिल सकता है जब आप पूरा जोर लगाकर उसकी दिशा में काम करें. काम वही चुनें जो आपको पसंद हो. किसी भी सीमा में खुद को ना बांटे. और जो भी करें दिल लगाकर करें, पूरी शक्ति उस लक्ष्य को पाने में झौंक दें. अगर लक्ष्य को पाने में कोई भी शक हो रहा हो तो किसी और से नहीं, खुद अपने से ही पूछो -- जवाब भी वहीँ से मिलेगा. हर सुबह के पांच मिनिट केवल इस बात के लिए रखो कि आप अपने आप से बात कर सको. अगर आपके पास अपने लिए पांच मिनिट भी नहीं हैं तो आप को कामयाबी की आशा नहीं करनी चाहिए.

प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान june 12, 2011

Saturday, June 04, 2011

सलमान की विनम्रता और शरीरशौष्ठव

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज पर मेरा कॉलम



सलमान खान आज भी करोड़ों युवक-युवतियों के चहेते हैं. लाखों लोग यह मानते
हैं कि किसी भी फ़िल्म में सलमान खान का होना ही उस फ़िल्म के मनोरंजक होने की गारंटी है. इस स्तम्भ में सलमान की अभिनय की समीक्षा नहीं की जा रही है, बल्कि एक कलाकार के व्यावसायिक रूप से कामयाब होने के फार्मूले पर चर्चा की जा रही है.

सलमान की विनम्रता और शरीर शौष्ठव
इंदौर में जन्मे अब्दुल रशीद सलीम सलमान खान उर्फ़ सल्लू महान नहीं, कामयाब हीरो हैं. हीरो के रूप में पहली ही फ़िल्म 'मैंने प्यार किया' (१९८९) ब्लॉकबस्टर साबित हुई थी, और २२ साल बाद गत शुक्रवार को रिलीज़ 'रेडी' को भी अच्छी शुरूआत मिली. बीते साल उनकी 'दबंग' भी ब्लॉकबस्टर रही. २००९ में उनकी 'वांटेड' भी सुपर हिट थी. मैंने प्यार किया ने ६७ करोड़ का कारोबार किया था और दबंग ने १८७ करोड़ का. उम्र के ४६वे साल में भी वे अपने बूते फ़िल्म को सुपरहिट करने का माद्दा रखते हैं और उनकी अपनी निजी फैन फॉलोइंग तगड़ी है. अभी भी वे अपने दर्शकों को बॉडी दिखाते हैं और कई हीरो शरीर शौष्ठव से जलते है. वे १९८८ (बीवी हो तो ऐसी) से आज तक ८४ फिल्मों में छोटे बड़े रोल कर चुके है. इनमें दो तीन को छोड़कर सभी ने अच्छा कारोबार किया और कई तो सुपरहिट रही. सलमान खान ने टीवी पर दस का दम ( सीजन एक और दो) और बिग बॉस (सीजन चार) होस्ट किये, जिनके लिए उन्हें बड़ी धनराशि मिली और उए प्रोग्राम भी सुपर हिट रहे. सलमान खान आज भी करोड़ों युवक-युवतियों के चहेते हैं. लाखों लोग यह मानते हैं कि किसी भी फ़िल्म में सलमान खान का होना ही उस फ़िल्म के मनोरंजक होने की गारंटी है. इस स्तम्भ में सलमान की अभिनय की समीक्षा नहीं की जा रही है, बल्कि एक कलाकार के व्यावसायिक रूप से कामयाब होने के फार्मूले पर चर्चा की जा रही है. सलमान में भी कई कमजोरियां हैं, लेकिन उनकी खूबियाँ भी बहुतेरी हैं. उनकी व्यावसायिक कामयाबी के कुछ सूत्र :

विनम्रता
सलमान खान के नज़दीकी लोग जानते हैं कि सलमान खान निजी जिन्दगी में बेहद विनम्र और दरियादिल प्रवृत्ति के हैं. वे अपने घर पर आनेवाले सभी परिजनों से बेहद अपनेपन और विनम्रता से मिलते हैं. उनकी यह विनम्रता कई लोगों को अचम्भे में दाल देती है और कई लोग समझते हैं कि वे घर पर भी अभिनय करते हैं. आम बोलचाल में वे कभी किसी पर कटाक्ष नहीं करते और यही विनम्रता 'दस का दम' शो में उनकी कामयाबी का आधार भी बनी जहाँ वे सभी से प्यार से बतियाते नज़र आते थे. इसके अलावा वे आमतौर पर विवादों से बचाते हैं और ज़रा भी गलती होने पर उसे तत्काल सुधारने की कोशिश में जुट जाते हैं.

निश्चित दर्शक वर्ग पर लक्ष्य
'अजब प्रेम की गज़ब कहानी', 'इसी लाइफ में', 'ओम शांति ओम' और 'तीसमार खां' फिल्मों में उन्होंने अपना यानी सलमान खान का ही रोल किया. सलमान खान आम जनता के हीरो हैं और उन्ही के बीच उन जैसा लगाना चाहते हैं. उनकी खूबियों में उनका स्वाभाविक अभिनय महत्वपूर्ण कहा जाता है. अगर वे किसी लड़ाकू पात्र के रोल में हो तो सचमुच के लड़ाके लगते हैं और अगर किसी कमज़र्फ के रोल में हों तो वहां भी फिट लगते हैं. उन्होंने अपने आप को आम जनता से जोड़ रखा है और अपने एक खास दर्शक वर्ग के लिए मनोरंजन की कोशिश करते हैं.उन्होंने उसे अपनी यूएसपी बना लिया. कला फिल्मों में अभिनय करना उन्हें जमता नहीं और बहुत नए प्रयोग वे नहीं करते.

शरीर शौष्ठव पर ध्यान
हिंदी फिल्मों में दिलीप कुमार, देव आनंद,राज कपूर, शम्मी कपूर, संजीव कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन जैसे अनेक हीरो हुए हैं जिन्होंने अपने शरीर शौष्ठव पर कभी ध्यान नहीं दिया. सलमान का मानना है कि अगर हीरोइन के लिए शरीर का ध्यान रखना महत्वपूर्ण है तो हीरो के लिए क्यों नहीं? अगर शरीर भी एक सम्पदा है, प्रॉपर्टी है तो फिर उसकी उपेक्षा कतई नहीं होनी चाहिए. आज देश के जिम्नेश्यम्स में सलमान की आदमकद तस्वीरें देखने को मिल जायेंगी. देश भर के हजारों नौजवान सलमान के जैसा बदन पाने के लिए प्रयास कर रहे हैं. भले ही उन पर शरीर के प्रदर्शन का आरोप लगे, वे स्वास्थ्य चेतना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं. इसे 'अजब प्रेम की गजब कहानी' फ़िल्म में भी फ़िल्म का हीरो रणवीर कपूर सलमान की बॉडी की तस्वीर पर अपना चेहरा चस्पा करके हीरोइन कैटरीना कैफ को प्रभावित करना चाहता है. 'दस का दम' शो में आई एक महिला ने कहा था कि जब वह गर्भवती थी तब उसने अपने कमरे में सलमान का फोटो लगा रखा था क्योंकि वह चाहती थीं कि उसकी होनेवाली संतान सलमान खान जैसी आकर्षक हो.

प्रोफेशनल अप्रोच
सलमान अपने बूते पर फ़िल्म को सफलता तक ले आने की कूवत रखते हैं और इसके लिए कड़ी मेहनत करते हैं उनकी फिल्मों का सफलता का प्रतिशत दूसरे कलाकारों की अपेक्षा बेहतर है. फ़िल्म के सेट्स पर वे अनुशासित रहने की कोशिश करते हैं. निर्देशक को सहयोग करते हैं और नए कलाकारों को प्रोत्साहन देते हैं. 'लन्दन ड्रीम्स', 'युवराज' और 'वीर' जैसी वीरगति प्राप्त फ्लाप फिल्मों के बाद भी वे झट से उठ खड़े हुए और अपने निन्मता की मदद को आगे आये. फ़िल्मी असफलता से वे चित नहीं होते और अगले अभियान में कूद पड़ते हैं. फिल हिट हो या फ्लॉप, वे उसे खेल भवन से लेते हैं.

सामाजिक सरोकार
सलमान के करीबी मनाते हैं कि सलमान हमेशा सहयोगी व्यवहार करते है. वे चैरिटी के लिए भी काफी काम करते हैं. 'बीइंग ह्युमन' नामक एनजीओ के माध्यम से तो वे ज़रूरतमंदों की मदद करते ही हैं, निजी तौर पर भी सभी की मदद करते हैं. यह संस्था स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में काम करती है. कैंसर, थेलेसीमिया, ल्यूकेमिया जैसे भीषण रोगों से लड़ रहे लोगों की मदद के लिए उनका संगठन जरूरतमंदों की मदद करता है. उनका संगठन एक लाख लोगों का नाम रजिस्टर करने में जुटा है जो वक़्त आने पर देश भर में कहीं भी रक्तदान कर सके.सलमान ने 'फिर मिलेंगे'(2004) फ़िल्म में उन्होंने एड्स पीड़ित युवक का रोल किया था जिसकी विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी सराहना की थी.

सच्चे धर्मनिरपेक्ष
सलमान खान कभी भी कट्टरवादी नहीं रहे और इसीलिये वे खुद कट्टरवादियों के निशाने पर रहे. उनके पिता मुस्लिम हैं और माँ महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण. उनके घर में पूजा भी होती है, नमाज़ भी. एक बहन अलविरा की शादी अभिनेता अतुल अग्निहोत्री से हुई है. गणेशोत्सव में गणेश प्रतिमा स्थापना को लेकर उनके खिलाफ फतवा भी जारी हुआ था. उन्होंने हमेश ही अपने आप को खान कहने के बजाय भारतीय बताना पसंद किया. शिव सेना भी कई बार उनके खिलाफ मैदान में आई, लेकिन उन्होंने ऐसे मौकों पर विवाद से दूर रहन पसंद किया.

रचनात्मकता को महत्त्व
सलमान खान अपने निजी तनावों को दूर करने के लिए रचनात्मक तरीके अपनाते हैं. उन्हें बच्चों के साथ खेलने के अलावा पेंटिंग करने का भी शौक है. वे अपनी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी भी लगा चुके हैं और पेंटिंग्स से होनेवाली आय को सेवा के कार्य में दान दे चुके हैं. उनके मित्र मनाते हैं कि वे ठीक ठाक पेंटिंग बना लेते हैं. कैटरीना कैफ ने पिछले दिनों बयान दिया था कि उन्हें अभी तक सलमान ने पेंटिंग का विषय नहीं बनाया और वे चाहती हैं कि सलमान उन की पेंटिंग्स बनायें.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान 5 june 2011