Saturday, February 22, 2014

(वीकेंड पोस्ट के 22 फ़रवरी 2014  के अंक में  मेरा कॉलम)


दिल्ली की मेट्रो और (आने वाली) हमारी !!

दिल्ली मेट्रोवाले में क्या ले जा सकते हैं दूध की टंकियांखिड़की से लटकाकर? क्या वहां महिलाओं के डिब्बे में पुरुष जा सकते हैं? क्या थूक सकते हैं मेट्रो के प्लेटफार्म पर? मेट्रो स्टेशनों पर क्या पोहे खा सकते हैं? क्या वहां झूठा दोना फेंक सकते हैं? पान की पीक थूक सकते हैं क्या? फिर काहे का कल्चर? सू-सू के तो पैसे मांगते हैं और बात करते हैं कल्चर की। अरे भाई, प्रकृति के खिलाफ क्या जाना, जहां चाहे वहां यह प्राकृतिक कार्य करने दो, जैसा हमारे इंदौर में होता है।




अभी दिल्ली की मेट्रो में हूं और बहुत बुरा लग रहा है। इन दिल्लीवालों को बिलकुल शऊर नहीं है। ऐसे चलाते हैं मेट्रो? मेट्रो चलाना हो तो आओ इंदौर। हम दिल्लीवालों को सिखाएंगे कि मेट्रो कैसे चलाई जाए। अब आप पूछेंगे कि जब इंदौर में मेट्रो है ही नहीं, तब ये मेट्रोवालों को सिखाएंगे क्या? यह वैसा ही है कि क्या बरात में केवल शादीशुदा लोग ही जाते हैं?  बरातों में जा जाकर ही बहुत से लोग कई बातें सीख जाते हैं। लाखों घरों में औरतें और मर्द आमलेट बनाते हैं तो इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि पहले अंडे दो, फिर आमलेट बनाओ? मुर्गी अंडे दे सकती है तो क्या वही आमलेट भी बना सकती है?

मेट्रोमैन श्री ई. श्रीधरन को 1995 में  दिल्ली मेट्रो कंपनी बनाकर काम सौंपा गया था। 2002 में उन्होंने मेट्रो शुरू कर दी। केवल सात साल में। 58 स्टेशन और 65 किलोमीटर की लाइन दाल दी। आज सात रूट पर 192 किलोमीटर का सफर मेट्रो से तय किया जा सकता है। जब इसके सभी चरण पूरे हो जाएंगे तब यह दुनिया की सबसे लंबी 413 किलोमीटर की हो जाएगी, लंदन की मेट्रो से भी बड़ी। पर बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर? माहौल ही नहीं बन पाया था मेट्रो का कि मेट्रो शुरू। ये भी कोई बात हुई? हमारे इंदौर में देखो 13 किलोमीटर का बीआरटीएस बनाने में क्या माहौल बनाया था! मेट्रो कर पाई थी क्या बीआरटी का मुकाबला? रोज-रोज खबरें आतीं, आज पुलिया बनाने का फैसला होगा, फिर पुलिया  के नक्शे पास होने की खबर, फिर पुलिया का शिलान्यास, फिर (पुलिया का) उद्घाटन! ऐसे ही साइकिल ट्रैक, फुटपाथ, सिग्नल्स, लेफ्ट टर्न, राइट टर्न आदि के बारे में खबरें छपीं। अतिक्रमण हटाने और 'धार्मिक स्थलोंÓ के शॉट होने की भी सौ-सवा सौ खबरें प्रकाशित हुईं। ये माहौल बना कि बीआरटी आ रही है। पता नहीं कितने सौ एक्सपर्ट पधारे और नॉर्वे-स्वीडन आदि देशों के पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन चुराकर हमें दिखाकर बता गए कि बस लेन ऐसी बनेगी। और दिल्ली में? पूरा का पूरा कनाट प्लेस खोद डाला और तीन-तीन मंजिल का स्टेशन बना मारा, न धूल उडऩे दी, न कोई बड़ा माहौल बनाया। आज दिल्ली के साथ इतने ज्यादा 'फस्र्टÓ जुड़े हैं कि अगर लिखने बैठो तो पूरा पन्ना  भर जाए। 

दिल्ली मेट्रोवाले विजन, मिशन और कल्चर की बातें करते हैं। जरा देखें तो हमारे इंदौर में आकर। दिल्ली मेट्रो में ले जा सकते हैं बकरी और कुत्ते? हमारी लोकल मीटरगेज देख लो। इसे बोलते हैं कल्चर - सभी प्राणी भाई-भाई हैं। आदमी ट्रेन में जाए और बेचारा कुत्ता, बकरी, मुर्गा अलग रास्ते से? ये क्या कल्चर हुआ भाई? क्या ले जा सकते हैं मेट्रो में दूध की टंकियां ट्रेन की खिड़की से लटकाकर? क्या वहां महिलाओं के डिब्बे में पुरुष जा सकते हैं? क्या थूक सकते हैं मेट्रो के प्लेटफार्म पर? मेट्रो स्टेशनों पर क्या पोहे खा सकते हैं? क्या वहां झूठा दोना फेंक सकते हैं? पान की पीक थूक सकते हैं क्या? फिर काहे का कल्चर? सू-सू के तो पैसे मांगते हैं और बात करते हैं कल्चर की। अरे भाई, प्रकृति के खिलाफ क्या जाना, जहां चाहे वहां यह प्राकृतिक कार्य करने दो, जैसा हमारे इंदौर में होता है।

इंदौर इज दी बेस्ट! आने तो दो यहां पर मेट्रो या मोनो ट्रेन। यहां आएगी और पूरा माहौल बनाकर आएगी। फिर जयपुर, बंगलुरु, हैदराबाद,  अहमदाबाद, पुणे, कानपुर, पटना, लखनऊ, सूरत, नागपुर, कोच्चि, कोजीखोड़े, कोयंबटूर, नागपुर आदि हमारी नकल करेंगे।  याद रखो, इंडिया पूरे वल्र्ड का ज्ञान गुरु है और इंदौर पूरे इंडिया का। 

-प्रकाश हिन्दुस्तानी

(वीकेंड पोस्ट के 22 फ़रवरी 2014  के अंक में  मेरा कॉलम)

Thursday, February 20, 2014


"तीसरा मोर्चा  भानुमति का कुनबा है, विघ्नसंतोषियों का घोटुल और  भगोरिया पर्व ! वह खुद अपने बूते पर कुछ कर नहीं। तीसरे मोर्चे के कई नेताओं को सपने में प्रधानमंत्री का पद नज़र आता है.… बिना कांग्रेस या भाजपा के तीसरा मोर्चा न कुछ कर पाया है और न कर पाएगा…"


2014 के खट्टे अंगूर (3)

बड़े नेताओं वाले तीसरे मोर्चे के मुगालते

                                                                                                                                               सौ : कीर्तीश

 2014 के चुनाव में तीसरे मोर्चे की आहट  है. इस  तीसरे मोर्चे में बड़े बड़े नेताओं की पार्टियां हैं।  कई राज्यों में इन पार्टियों का क़ब्ज़ा है और लोकसभा की ख़ासी सीटें इनके पास है. इनमें से अनेक नेताओं को  प्रधानमंत्री बनने के सपने आते हैं और कुछ तो यह भी दावा करते नहीं थकते कि उनके बिना इस बार सरकार बन ही नही पाएगी.

मुख्य दावेदार 

इस तीसरे मोर्चे में मुलायमसिंह यादव हैं जिनका बेटा अखिलेश उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री है. इस पार्टी ने गत लोकसभा में 23  सीटें जीतीं थीं और 403  की विधानसभा में 224 सीटें हैं. इस मोर्चे में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं और उनकी पार्टी जेडीयू  लोकसभा में 20  सीटें रखते हैं।  बिहार  विधान सभा में अभी 243  में से 119 सीटें उनके पास हैं।  तीसरे मोर्चे की तीसरी प्रमुख शक्ति हैं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री और एआईएडीएमके की नेता जय ललिता, जिनके पास लोकसभा में  9  सीटें हैं और 234 सीटों की विधानसभा में  158 सीटें हैं। तीसरे मोर्चे में ओडिसा  में नवीन पटनायक हैं जिनकी पार्टी ने गत लोकसभा में 14 सीटें जीती थीं। 147  में से 103 विधायक बीजू जनता दल के हैं।  तीसरे मोर्चे के प्रमुख घटको में वामपंथी पार्टियां हैं जिन्होंने दक्षिण भारत में अपनी अलग पहचान और सत्ता बनाई थी।  गत लोकसभा में सीपीएम ने 16  और सीपीआई ने 4  सीटें जीती थीं। कुछ छोटी पार्टियों  बाद गत चुनाव में तथाकथित तीसरे मोर्चे को कुल 79 और कुछ छोटी पार्टियों सहित समाजवादी पार्टी के चौथे मोर्चे को 27 सीटें मिलीं थीं. 9 निर्दलीय जीते थे और 7 पार्टियों को एक एक सीट मिली  थी।
चौथे  मोर्चे वाली समाजवादी पार्टी अब तीसरे मोर्चे में है। 

तीसरे मोर्चे की ताकत 

आज के हालत में देखें तो उत्तरप्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, ओडिसा के चार राज्यों में ही 180 लोकसभा सीटें हैं, जिनमें से 66 पर तीसरे मोर्चे का अधिकार है। यह इन राज्यों की  एक तिहाई से ज्यादा  है। कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का बोलबाला है।  हिन्दी ह्रदय स्थल वाले कई  राज्यों में भाजपा की एकतरफा बढ़त है और कांग्रेस सभी जगह थोड़ी बहुत है। कांग्रेस को लेकर कहीं भी बहुत अच्छा माहौल है नहीं और खुद कांग्रेस  इस बार आम चुनाव को लेकर बहुत आशान्वित नहीं नज़र आती लेकिन तीसरे मोर्चे को लेकर जो पार्टियां उछलकूद कर रही हैं वह दिलचस्प है। लगता है कि उनके मुगालते भी जल्दी दूर हो जाएंगे।

धर्मनिरपेक्षता का वायरस 

तीसरे मोर्चे में एक से बढ़कर एक नेता हैं, जिन्हें राजनीति की खासी समझ है. लेकिन अपने घोषित उसूलों से हटे हुए ये नेता बार बार के राजनैतिक हनीमून में ही लगे रहते हैं। नीतीश कुमार इसके प्रमुख नमूने हैं। नीतीश कुमार के लिए 2005 तक भाजपा मज़बूरी थी.  भाजपा के बिना उनका मुख्यमंत्री बनाने का सपना पूरा नहीं हो सकता था। 2010  तक मोदी भी बुरे नहीं लगते थे, लेकिन 242 में से 115 पर सीधी जीत हासिल करते ही सेक्युलरिज्म का वायरस आ धमका। भाजपा के साथ मिलकर उन्होंने पिछला चुनाव लड़ा था, अब तलाक़ हो चुका है।  तिकड़म करके वे बिहार के मुख्यमंत्री तो बन सकते हैं लेकिन प्रधानमंत्री कतई नहीं।  हो सकता है कि इस बार उनकी रही सही ताकत  भी जाती रहे. दिल्ली विधानसभा में उन्होंने बहुत ज़ोर मारा था लेकिन केवल एक विधानसभा सीट पर ही संतोष करना पड़ा उन्हें। बीजू जनता दल के नेता ओडिसा के मुख्यमंत्री  नवीन पटनायक को भी उनके स्वर्गीय पिता पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक की तरह प्रधानमंत्री बनाने के सपने आते हैं।  मुलायमसिंह यादव को सपने की पुरानी  बीमारी है, जिसके चलते उन्होंने अपने बेटे को उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री पद सौंप दिया ताकि वे अपने  सपने को  पूरे करने  का वक़्त निकाल सकें। एच डी  देवे गौड़ा किसके साथ थे? धर्मनिरपेक्षता का वायरस नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, मुलायम सिंह यादव, जय ललिता, आदि में समय समय पर आ जाते हैं।  याद कीजिए पहले  शरद पवार की एनसीपी, अब्दुल्लाओं की कस्मीर की एनसी, नीतीश की जेडीयू, ममता की तृणमूल किसके साथ कब कब रही  और किन हालत में वे सेक्युलर हो गई। 

बार बार कुट्टी, बार बार चुम्मी 

तीसरे मोर्चे के नेताओं की खूबी यह है कि वे कभी भी कुट्टी कर बैठते हैं और कभी भी चुम्मा लेने लगते हैं। एक विचित्र बात यह है कि तीसरे मोर्चे के नेता आपस में ही तू-तू मैं-मैं करते रहते हैं।  ममता कहती हैं कि जहाँ लेफ्टवाले होंगे, मैं नहीं जाऊंगी। लालू कहते हैं कि जहाँ नीतीश होंगे, मेरा क्या काम? मायावती कहती हैं कि जहाँ लालू वहाँ मैं  क्यों जाऊं ?  सेक्युलरिज्म के बहाने वे आसानी से एनडीए से कन्नी कट सकते हैं और मुस्लिम वोटों को प्रभावित कर सकते हैं। लालू बिहार में कांग्रेस से समझौता कर चुके हैं और शरद पवार की एनसीपी तो महाराष्ट्र में सीटों का बंटवारा भी कर चुकी है। असम, नागालैंड, सिक्किम, हरियाणा, केरल की छोटी पार्टियां तेल की धार  देख कर फैसला करती हैं। हिंदूवादी शिव सेना और अकाली खुद को भाजपा से जुड़ा पाते हैं और तमाम मुस्लिम समर्थक और वामपंथी विचारधारा की पार्टियां यूपीए के करीब खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं।  यह हनीमून हर पांच  साल में अलग अलग पार्टनर के साथ चलता रहता है। 

तीसरे मोर्चे का उदय 

गैर कांग्रेसी  मोर्चे को  पहली कामयाबी इमरजेंसी के बाद 1977 में मिली थी, जब मोरारजी भाई देसाई जनता पार्टी के नेतृत्व वाले जन मोर्चा के प्रधानमंत्री बने थे। अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री और लाल कृष्ण आडवाणी सूचना  प्रसारण मंत्री बने।  (भारतीय जनता पार्टी 1980 में गठित हुई थी). आर एस एस के मुद्दे पर, दोहरी सदस्यता के बहाने संजय गांधी और इंदिरा गांधी ने खेल खेल और मोरारजी की सरकार गिरवा दी। 1979 में   संजय गांधी ने चौधरी चरण सिंह को कहा कि अगर वे आगे बढ़ें तो कांग्रेस  उन्हें प्रधानमंत्री  पद के लिए समर्थन दे सकती हैं।  चौधरी चरणसिंह झांसे में आ गए और फिर एक बार गैर कांग्रेसी सरकार, कांग्रेस के समर्थन से बन गई. छह महीने के भीतर ही कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और 1980 में फिर चुनाव घोषित हो गए। 1980 में कांग्रेस मोर्चे को 374 सीटें मिलीं, जिसमें से 351 कांग्रेस की अपनी सीटें थीं। 

दूसरी बार तीसरा मोर्चा 

दूसरी बार तीसरा मोर्चा नेशनल फ्रंट के नाम से 1989 में आया। त्रिशंकु (हंग) लोकसभा थी।  किसी मोर्चे को साफ बहुमत नहीं था. कांग्रेस 197 सीट, वीपी सिंह का जनता दल 143 और भाजपा 85 सीट।   सीपीएम 33 और सीपीआई 12, एआईडीएमके 11. 19 छोटी पार्टियों को 33 सीटें मिली थीं और 12 निर्दलीय थे।  बोफोर्स को कोस कोस कर भाजपा और  कम्युनिस्टों के समर्थन से विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए थे (143+85 +33 +12+अन्य =बहुमत). 11 महीने बाद भाजपा ने टेका हटा लिया और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार  ढह गई.  गैर कांग्रेसी सरकार  का प्रयोग चालू रहा और वह भी कांग्रेस के सहयोग-समर्थन से। भाजपा हटी तो कांग्रेस ने  शेखर को समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनवा दिया। भाजपा अलग- थलग पड़  गई।  मज़ेदार बात यह हुई कि चन्द्र शेखर ने मौके का तत्काल फायदा उठाया और 64 सांसदों के साथ जनता दल छोड़कर समाजवादी जनता दल बना डाला जिसे कांग्रेस ने समर्थन दे दिया। चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने. मौके का लाभ लेनेवाले नेताओं में देवी लाल, जनेश्वर मिश्र, देवे गौड़ा, मेनका गांधी, सुबोधकांत सहाय, ओमप्रकाश चौटाला,चिमनभाई पटेल, मुलायम सिंह यादव, अशोक कुमार सेन, हुकम सिंह, संजय सिंह, यशवंत सिन्हा,विद्याचरण शुक्ल आदि शामिल थे. इनमें से ज्यादातर मंत्री बन गए। 

तीसरी बार तीसरा मोर्चा 

1996 में भी किसी को साफ़ बहुमत नहीं मिला  था। जनता दल वाले यूनाइटेड फ्रंट ने 192 सीटें जीती और भाजपा के मोर्चे ने 187. कांग्रेस के नेतृत्व वाला मोर्चा 140 पर सिमट गया। कोई भी  सरकार बना ही नहीं सकता था। कांग्रेस ने पहले देवे गौड़ा को प्रधानमंत्री बनवाया और फिर इंद्रकुमार गुजराल को। तीसरा मोर्चा हमेशा ही भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए बनता है या कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के लिए। यह भानुमति का कुनबा है, विघ्नसंतोषियों का घोटुल और  भगोरिया पर्व ! वह खुद अपने बूते पर कुछ कर नहीं।   हर बार उसे कांग्रेस या भाजपा की बैसाखियों की ज़रूरत  पड़ती है। 

2014 में क्या हो सकता है 

2014 में भी तीसरा मोर्चा ज़ोर मारेगा। उसके भाग से छींका टूटा तो वह भाजपा या कांग्रेस की बैसाखियों से  सर्वोच्च पद पर बैठेगा, भारी  जूतमपैजार करेगा।  या फिर भाजपा अथवा कांग्रेस के लिए सिंहासन सजाएगा। ब्लैकमैल करना उसकी मजबूरी भी रहेगी और आवश्यकता भी।  सिद्धांतों  और सेक्युलरिज्म की बातें तो उसे करनी ही है। सत्ता में आने के लिए कांग्रेस और भाजपा को पानी पी पी कर कोसना उसका धर्म है। 

बेशक, इस मोर्चे में बड़े बड़े नेता हैं और उनकी साख दांव पर लगी है। देखें, चुनाव किस तरह के रंग दिखता है। 

© प्रकाश हिन्दुस्तानी 
19. 02. 2014

Tuesday, February 18, 2014

(वीकेंड पोस्ट के 15 फ़रवरी 2014  के अंक में  मेरा कॉलम)




ये लफ़्ज़ों के तोहफ़े!
 ये फ़र्ज़ी अवतार  !!
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एक और शब्द है जिसका धड़ल्ले से बिना सोचे-समझे उपयोग होता है -- अवतार।  बचपन से पढते सुनते आये हैं कि इस धरा पर भगवान  अवतार लेते आये हैं।  आजकल यह काम कोई भी कर लेता है --''आनेवाली फ़िल्म में दीपिका नए अवतार में नज़र आएँगी'', मतलब यही है न कि दीपिका को नया रोल मिला है।  ऐसा  शीर्षक भी देखा है -''नए साल में मल्लिका  कैबरे डांसर के अवतार में होगी'', तो क्या कैबरे करनेवाली वास्तव में  देवियाँ होती हैं? जो अवतार लेकर इस धरती का कल्याण हैं ? अधनंगी-नंगी होकर नाचना क्या दैवीय कार्य है? 
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वैलेंटाइन वीक में प्यारभरे  तोहफों का दौर चलता रहता है, लेकिन हमारा मीडिया पूरे 52 सप्ताह 'तोहफे' दिलवाता रहता  है।  ऐसा लगता  है कि मीडिया के मित्रों का शब्द-भंडार कम है और वे फैसले, आदेश, अधिकार और  वितरण जैसे शब्दों  की जगह तोहफा लिख  देते है. तोहफे भी ऐसे अजब-ग़ज़ब कि दिमाग भन्ना जाए।  उदाहरण के लिए --'एक अप्रैल   से मिलेगा कर्मचारियों को बढे हुए वेतन का तोहफा', 'फलां जिले को मिला  कृषि विश्वविद्यालय का तोहफा', 'दीपावली पर कर्मचारियों को  मिलेगा बोनस का तोहफा', 'फलां गाँव को मिला सड़क का तोहफा', 'अल्पसंख्यकों को मिलेगा आरक्षण का तोहफा', 'अजा-अजजा को मिलेगा प्रमोशन का तोहफा', 'बेघर लोगों को मिलेगा घर का तोहफा' वगैरह-वगैरह। 

बढ़ा हुआ वेतन, सड़क, बोनस,  आरक्षण, प्रमोशन, शिक्षा केन्द्र का खुलना आदि वे चीज़ें  हैं जिन पर  लोगों का अधिकार है। शिक्षा, मकान, वेतन वृद्धि,सड़क, आरक्षण, प्रमोशन आदि में तोहफे जैसी क्या बात है?  यह तो अधिकार है और अधिकार तोहफा कैसे हो सकता है? तोहफा देने  का अर्थ है --किसी को प्रसन्न करने के लिए धन, वस्त्र या उसके काम या पसंद की वस्तु, जो बिना किसी अपेक्षा के प्रदान की जाती हे, तोहफा कहलाती है। तोहफा या  उपहार मन की खुशी को प्रकट करने के लिए या किसी को सम्मानित करने के लिए भी दिए जाते हैं, इनके बदले में किसी धन की अपेक्षा नहीं की जाती है। हांलांकि यह अपेक्षा अंतर्निहित हो सकती है कि जिसको उपहार दिया गया है वह अपना प्रेम और कृपा देने वाले पर बनाए रखेगा। अड अधिकार होता है और तोहफा, तोहफ़ा।

बात यहाँ तक भी होती तो ठीक था, पर कई बार तोहफे के नाम पर अजीबोगरीब शीर्षक देखने  को मिलते हैं : मसलन 'पूनम पाण्डेय देंगी भारतीय टीम के सामने न्यूड होने का तोहफा' या 'सनी लियोन ने ट्विटर पर दिया हॉट तोहफा' या 'पामेला एंडरसन ने फेन्स को दिया  फड़कता तोहफा ',  या ''कैटरीना ने दिया रणवीर को प्यार का तोहफा' या  'सलमान खान ने दिया सुपर  हिट का तोहफ़ा'. ऐसे  शीर्षकों का अर्थ क्या है? कोई बताए तो कि  इन तथाकथित सुंदरियों के 'तोहफों' से किसी का भला हो जाएगा? सलमान खान की फ़िल्म  सुपर हिट रही तो यह तोहफा कैसे? क्या फ़ोकट में जनता को फ़िल्म दिखाई गई थी? तहफा तो जनता ने हीरो को फ़िल्म सुपर हिट कराकर दिया। 

एक और शब्द है जिसका धड़ल्ले से बिना सोचे-समझे उपयोग होता है -- अवतार।  बचपन से पढते सुनते आये हैं कि इस धरा पर भगवान  अवतार लेते आये हैं।  आजकल यह काम कोई भी कर लेता है --''आनेवाली फ़िल्म में दीपिका नए अवतार में नज़र आएँगी'', मतलब यही है न कि दीपिका को नया रोल मिला है।  ऐसा  शीर्षक भी देखा है -''नए साल में मल्लिका  कैबरे डांसर के अवतार में होगी'', तो क्या कैबरे करनेवाली वास्तव में  देवियाँ होती हैं? जो अवतार लेकर इस धरती का कल्याण हैं ? अधनंगी-नंगी होकर नाचना क्या दैवीय कार्य है? एक शीर्षक देखकर तो सचमुच ही  माथा कूटने का मन करने लगा -''अर्जुन-रणबीर की जोड़ी अब गुंडे के अवतार में.''

…आप ही बताइए -- क्या करुं? खुद का माथा कूटूँ या शीर्षक लिखनेवाले  सिर फोडूं?

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
(वीकेंड पोस्ट के 15 फ़रवरी 2014  के अंक में  मेरा कॉलम)

Monday, February 10, 2014

मज़ा कैसे आता है ?


वीकेंड पोस्ट के 8 फ़रवरी 2014  के अंक में  मेरा कॉलम


मज़ा कैसे आता है ?

..." अखबार खरीदा  जाता है खबरों के लिए, विचारों के लिए।  कैसे मज़ा आता है तुम्हें? और मज़े के लिए पेपर क्यों खरीदते हो यार?  अखबार कोई मज़े के लिए खरीदता है क्या ? मज़े के लिए तो  शराब पीते हैं, बैंकाक जाते हैं, कैबरे देखते हैं, औरतों के पास जाते हैं और तुम साले  गधे, मज़े के लिए अखबार खरीदते हो? एक रुपये का अखबार जो तुम्हारे घर रोज सुबह बिना नागा किये तुम्हारे घर पहुँच जाता है, जिसे पढ़ा जाता है, फिर अनेक उपयोग के बाद रद्दी में भी बेच दिया जाता है , उससे तुम मज़े कैसे ले सकते हो? क्या अखबार में कोई गारंटी छपी रहती है कि एक रुपये में मज़े की गारंटी? तुम जैसे लोगों को 'मुगले आज़म' देखकर भी मज़ा नहीं आता ! क्या पचास रुपये में मधुबाला को बेडरूम में नचवाओगे? एक रुपये में क्या संपादक तुम्हारी लंगोट धोये-सुखाये-प्रेस करे?"

  उन दिनों 'नवभारत टाइम्स' में था।  एक पुराने मित्र आये और कहने लगे --''यार, तुहारे पेपर में मज़ा नहीं आ रहा है। ''
  मैंने पूछा --"क्या बड़ी ख़बरें चूक रहे हैं?''
  ''नहीं।''
  क्या सम्पादकीय ठीक नहीं है? छपाई खराब है? निष्पक्षता नहीं है?
  ''नहीं''
  ''फिर क्या काग़ज़ ख़राब लग रहा है? स्याही से  बदबू आती है? क्या पेपर के अक्षर छोटे हैं? वक़्त पर पेपर नहीं मिलता?''
  ''वो बात भी नहीं है''
  ''फिर क्या बात है? पेपर निष्पक्ष है, खबरें नहीं चूकता, सबकी और सारी खबरे देता है, सम्पादकीय भी ठीक है, छपाई अच्छी है, फोटू- वोटू भी ठीक हैं, काग़ज़- स्याही ठीक है। अखबार लेट भी नहीं होता तो फिर क्या दिक्कत है भाई? क्या अखबार घर पर नहीं आ रहा?''
  ''नहीं , ऐसा भी नहीं है। हर रोज़  मेरे उठने से पहले ही सात बजे तक आ जाता है।'' 
  नवभारत टाइम्स उन दिनों एक रुपये का बिकता था फिर भी मैंने पूछ लिया --''कितने का है नवभारत टाइम्स?''
  वे बोले -''एक रुपये का''
 अब बारी मेरी थी, मैंने कहा -''आप एक रुपये का अखबार लेते हो, जो रोज़ सुबह तुम्हारे घर पहुँच जाता है। खबरों, लेखों, काग़ज़, छपाई किसी से आप को शिकायत नहीं है।  फिर क्या बात है ?''
  वे बोले --''यार, मज़ा नहीं आ रहा पेपर में?''
  मैं भन्ना उठा -''क्या करें कि तुम्हें मज़ा आने लगे?''
  वे बोले -''पता नहीं, पर मज़ा नहीं आ रहा। ''
--''तो क्या तुम्हारे घर आकर रोज कैबरे डांस करें कि तुम्हें मज़ा आ जाए? एक रुपये में पान का पत्ता नहीं  आता, जूते की पॉलिश नहीं हो सकती? एक कंडोम नहीं आता एक रुपये में।  पानी की बोतल नहीं खरीद सकते एक रुपये में  तुम! बड़े आये 'मज़ा नहीं आ रहा' कहनेवाले? ? अखबार खरीदा  जाता है खबरों के लिए, विचारों के लिए।  कैसे मज़ा आता है तुम्हें? और मज़े के लिए पेपर क्यों खरीदते हो यार?  अखबार कोई मज़े के लिए खरीदता है क्या ? मज़े के लिए तो लोग   शराब पीते हैं, बैंकाक जाते हैं, कैबरे देखते हैं, औरतों के पास जाते हैं और तुम साले  गधे, मज़े के लिए अखबार खरीदते हो? एक रुपये का अखबार जो  रोज सुबह बिना नागा किये तुम्हारे घर पहुँच जाता है, जिसे पढ़ा जाता है, फिर अनेक उपयोग के बाद रद्दी में भी बेच दिया जाता है , उससे तुम मज़े कैसे ले सकते हो? क्या अखबार में कोई गारंटी छपी रहती है कि एक रुपये में मज़े की गारंटी? तुम जैसे लोगों को 'मुगले आज़म' देखकर भी मज़ा नहीं आता ! क्या पचास रुपये में मधुबाला को बेडरूम में नचवाओगे? एक रुपये में क्या संपादक तुम्हारी लंगोट धोये-सुखाये-प्रेस करे?''
....................
… अब वह मेरा मित्र नहीं रहा इसलिए पता नहीं, मज़े के लिए वह क्या करता है? लेकिन कहीं आप भी मज़े के लिए तो अखबार नहीं खरीदते हैं न?
---प्रकाश हिन्दुस्तानी 
(वीकेंड पोस्ट के 8 फ़रवरी 2014  के अंक में  मेरा कॉलम)

Friday, February 07, 2014


ताकि सनद रहे


http://epaper.newstodaypost.com/c/2592790

2014 के खट्टे अंगूर (2)


 2 डिज़िट की कांग्रेस और मोदी के 'मत'वाले 

मोदी  के 'मत'वाले दावा कर रहे हैं कि इस  बार कांग्रेस की सीटें दो अंकों  सिमट जाएगी।  सम्भव है।  कितने पर सिमटेगी कांग्रेस? दो का आंकड़ा यानी  99 से ज्य़ादा नहीं। कुछ का  दावा है कि कांग्रेस शायद 50 के भीतर सिमट जाए। यह भी असम्भव नहीं।  जिस भाजपा की 1984 में केवल 2 सीटें थीं,  12  साल बाद 1996 में वही  भाजपा 161  सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी. दसवें प्रधानमंत्री के रूप में 13 दिन के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने किया फिर बहुमत साबित न कर पाने पर चुनाव हुए और फिर भाजपा ने 183 सीटें जीत कर सरकार बनाई।  यह सरकार  13 महीने चली और फिर जयललिता मैडम ने टंगड़ी मार दी। सरकार गिर गई। 1999 में फिर चुनाव हुए और भाजपा की सीटें फिर बढ़कर 183 हो गई। इस तरह अटलजी 3 मर्तबा लगातार प्रधानमंत्री रहे, लेकिन फील गुड फैक्टर के तहत वक़्त के कुछ पहले चुनाव कराये गए और भाजपा 2004 में 183 से 138 पर आ गई।  यूपीए की सरकार बनी और उमा भारती तथा सुषमा स्वराज  के स्यापे के बाद सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की पहल की. 

मोदी के 'मत'वालों के मुगालते

राजेन्द्र माथुर साहब ने लिखा है कि कांग्रेस को केवल एक चीज़ जोड़कर रख सकती है। वह है सत्ता।  अगर कांग्रेसियों को लगे कि सत्ता जा सकती है तो वे एक हो जाते हैं और अगर फिर भी सत्ता खो जाए तो वे किसी न किसी बहाने एक होकर, जोड़-तोड़ से सत्ता पर काबिज होने में जुट जाते हैं।  मोदी अकसर कांग्रेसविहीन भारत की बात करते हैं, जो लगभग नामुमकिन है। कांग्रेस या तो राज करने में यकीन रखती है या राज पाने के लिए संघर्ष करने में। अगर आप अतीत पर नज़र डालें तो इमर्जेंसी (1975-1977) के बाद हुए चुनाव कांग्रेस के लिए सबसे बुरे थे। इमर्जेंसी में लाखों लोग जेल में डेढ़ साल तक बंद रहे थे, जबरन  नसबंदी का ख़ौफ़ गाँव गाँव में था।  अनुशासन के डंडे से कर्मचारी नाराज़ थे। लोकशाही के सारे नागरिक अधिकार रद्द रहे थे और चुनाव की घोषणा होते ही वोटरों ने फैसला कर लिया था कि उन्हें क्या करना है। तब लोग प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से नाखुश नहीं, बेहद नाराज़ थे। तब भारतीय जनता पार्टी नहीं बनी थी और आरएसएस के आनुषंगिक संगठन के रूप में भारतीय जन संघ जनता मोर्चे का हिस्सा थी। उस चुनाव में इंदिरा गांधी और उनका बेटा संजय गांधी दोनों हार गए थे (बाद में इंदिरा गांधी चिक मंगलूर से उपचुनाव  लड़ीं और विजयी  रहीं ) लेकिन फिर भी कांग्रेस को 153 सीटें मिलीं थीं। (चुनाव के पहले  उसके पास 350 सीटें थीं). ज़रा गौर करिए प्रीवि पर्स ख़त्म करनेवाली, बैंकों का सरकारीकरण करनेवाली, 1971 में पकिस्तान का बंटवारा करने और भारत को सम्मान दिलानेवाली इंदिरा गांधी को लोगों ने धूल चटा  दी थी, लेकिन  कांग्रेस को 153 सीटें मिल गई थीं.  

चुनावी इतिहास में यू टर्न 

1977 का चुनाव एकलौता चुनाव था, जब किसी एक पार्टी को साफ़ साफ़ बहुमत मिला था। जनता मोर्चे को साफ़ साफ़ 345 सीटें मिल गयी थी, जिसमें से 295 सीटें चुनाव के लिए बनी जनता पार्टी को मिली थी, जिसमें मुख्य रूप से जनसंघ था। जनता मोर्चे की दूसरी 8 पार्टियों ने 47 सीटें जीती जिनमें से 22 वामपंथी थे। उसके बाद किसी भी गैर कांग्रेसी सरकार में एक ही पार्टी को साफ़ साफ़ बहुमत नहीं मिला। 

अगर आप इतिहास में देखें तो पाएंगे कि इमर्जेंसी के जुल्मों के बाद बने जनता मोर्चे को जितनी सीटें (345) मिलीं थीं उससे भी कहीं अधिक सीटें कांग्रेस ने 1984 में पाई।  जिन  इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी लादी थी और लोकतंत्र की सरेआम हत्या कर दी थी, उन्हीं इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस ने 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस  को 404  और भाजपा को 2 सीटों पर लाकर पटक दिया था।  यह चुनाव का सीधा और बहुत बड़ा यू  टर्न  था। 

बिना मनोबल की कांग्रेस 

इस चुनाव में कांग्रेस को शिकस्त देना आसान इसलिए है कि कांग्रेस कभी भी मनोबल के स्तर  पर इतने  नीचे नहीं रही। 1977 में भी नहीं। राहुल गांधी ने उन मठाधीशों को हाशिये पर लाकर पटक दिया है, जिनकी तिकड़मों  के बल पर वे कई सीटें जीत जाया करते थे। हाल ही प्रमुख  चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में हार से भी कांग्रेसियों का मनोबल गिरा हुआ है। महंगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आम वोटर बेहद नाराज़ है और यही मौका है विपक्ष के लिए। कांग्रेस इस चुनाव में वॉक ओवर दे चुकी लगाती है लेकिन कांग्रेस की कमज़ोरी ही भाजपा की ताकत है और भाजपा की कमज़ोरी क्षेत्रीय पार्टियों का अमृत। 

इन हालात में क्षेत्रीय छत्रपों को लग रहा है कि यह सही मौका है महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कोशिश करने का। उन्हें लगता है कि भाजपा में मोदी और राजनाथ के अलावा कोई प्रमुख नेता ऐसा नहीं है जो भीड़ को खींच सके। आडवाणीजी 86 वर्ष के बूढ़े हो चुके हैं और एक बार पीएम इन वेटिंग रह चुके हैं, उनके नाम से लोग वोट देनेवाले नहीं। वे चार बार राज्य सभा  और 5 बार लोक सभा सदस्य चुने जा चुके हैं।  पिछली बार वे मोदी की ही कृपा से गांधीनगर से लोकसभा में गए थे .   उनकी अपनी खुद की कोई ऐसी सीट नहीं, जहां वे कभी भी बेख़ौफ़ खड़े हों और जीत जाएँ। सुषमा स्वराज का भी कोई जनाधार नहीं है, वे पिछली बार शिवराज सिंह चौहान की कृपा से विदिशा से खड़ी  हुई और जीतीं, इस बार वे यहाँ से भी डर  रही हैं क्योंकि राघवजी भाई के होते उन्हें शक  है। नितिन गडकरी, मुरली मनोहर जोशी, बंगारू लक्ष्मण, शाहनवाज़ हुसैन, अरुण जेटली, वैंकेया नायडू, अनंत कुमार, थावरचंद  गेहलोत, यशवंत  सिन्हा, राजीव प्रताप रूढी, उमा भारती, राम लाल, मुख्तार अब्बास नक़वी ऐसे कई बड़े नेता भाजपा में हैं ज़रूर, पर वे प्रधान मंत्री के रूप में वोट नहीं ला सकते। शिवराज सिंह, रमन सिंह, महारानी वसुंधरा, मनोहर पर्रिकर अपने सूबों में ही व्यस्त हैं और कोई राष्ट्रीय नेता की छवि नहीं रखते। 

लीडर वर्सेस कॉडर 

दिलचस्प बात है कि जो कांग्रेस लीडर बेस्ड पार्टी कही जाती है वह अब कॉडर बेस्ड पार्टी होना चाहती है और जो भाजपा कॉडर बेस्ड पार्टी होने का भ्रम देती है वह एक नेता (मोदी) के पीछे भाग रही है।  कांग्रेस को नया खून देने की कोशिश में राहुल गांधी ने उसे आई सी यूं में डाल  रखा है और राजनैतिक सर्जरी जारी है। इस बार गणित राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस के पक्ष में नज़र नहीं आ रहे हैं और अब उनके सामने केवल यही लक्ष्य है कि डैमेज कम से कम हो। 

© प्रकाश हिन्दुस्तानी 
07. 02. 2014
http://epaper.newstodaypost.com/c/2592790

Wednesday, February 05, 2014

ताकि सनद रहे (1)


सांध्य दैनिक न्यूज़ टुडे में 20 मार्च 2014 को प्रकाशित
http://epaper.newstodaypost.com/245495/Newstoday-Indore/20-03-2014#page/6/1

2014 के खट्टे अंगूर (1 )



भाजपा कहाँ से जुटाएगी 272 सीटें?

मैं किसी पार्टी का नहीं हूँ।  कई बातें समझ नहीं आ रही,  आप समझा दीजिए। भाजपा लोकसभा चुनाव में क्या कर  लेगी?  कहाँ से जुटाएगी 272 सीटें? (अभी हम यहाँ गठजोड़ों यानी अलायंस की बात नहीं कर रहे हैं।)  बच्चों का खेल है क्या ? कई राज्यों  में तो उसका  खाता ही नहीं खुला है।  42 सीटों वाले आंध्रप्रदेश, 20 सीटोंवाले केरल, 21 सीटोंवाले ओड़ीसा, 39 सीटोंवाले तमिलनाडु, 7 सीटोंवाली दिल्ली, 6 सीटोंवाले जम्मू-कश्मीर में उसके हाथ में अंडा यानि शून्य (0) है।  इसी  के साथ ही कई  छोटे राज्य या  केन्द्र शासित सीटों  मणिपुर (2), मेघालय (2),मिजोरम (1), त्रिपुरा (2), लक्ष्यद्वीप(1),अरुणांचल (2),पॉण्डिचेरी(1), सिक्किम (1), चण्डीगढ़ (1 )में खाता उसका 
 नहीं  है अभी. 

इसका अर्थ यह है कि 35 राज्यों (या केन्द्रशासित प्रदेशों) में से 15  पर भाजपा का तो खाता ही नहीं  खुला है. इन 15  प्रदेश में 148  सीटें हैं। कुल 543 सीटों में से 148  कम कर दें तो बचीं  20  राज्यों की 395  सीटें।

 इन्हीं 20  बचे  राज्यों में  भी भाजपा  की हालत बहुत शानदार नहीं थी।  42 सीटों वाले बंगाल में भाजपा के पास 1 सीट है। 13 सीटवाले पंजाब में भी भाजपा के पास एक सीट और 5 सीटवाले उत्तराखंड में भी 1 सीट भाजपा के पास है। इसका अर्थ हुआ तीन राज्यों  बंगाल, पंजाब और उत्तराखंड की 60 सीटों में से उके पास केवल 3 सीटें हैं। 
   
इसे यों समझ सकते हैं : देश में 35 राज्य - केन्द्र शासित क्षेत्र हैं जिनमें से 15 में भाजपा की कोई भी सीट नहीं है और तीन राज्यों में भाजपा की केवल एक एक सीट है।  इन 18 राज्यों में लोकसभा की कुल 208 सीटें हैं जिनमें से भाजपा के पास 3 सीटें हैं। बाकी बची 335 सीटों में से ही भाजपा के करीब एक तिहाई यानी 112 सांसद हैं। ये तो है अभी का हाल।

सरकार  बनाने के लिए चाहिए  कम से कम कुल 272 सीटें। जब भाजपा 35 में से 17 राज्यों में ही यानी आधे राज्यों में ही मैदान में है तो कितना मैदान मार लेगी?

 अभी भाजपा शासित राज्यों में मध्यप्रदेश की 29 सीटों में से  13 पर, छतीसगढ़ की 11 में से 9 पर, राजस्थान की 25 में से 4 सीटों पर काबिज है।  यानी इन 65 सीटों में से भाजपा के पास 26 सीटें ही तो हैं। उत्तरप्रदेश में 80 सीटें हैं जिनमें से भाजपा कि पास हैं केवल 11, गुजरात की 26 सीटों में से भाजपा का कब्ज़ा है 17 सीटों पर और  महाराष्ट्र की 48 सीटों में से भाजपा के पास हैं कुल 9 सीटें।  यानी यूपी, गुजरात  और महाराष्ट्र की 154   सीटों में से भाजपा के पास हैं कुल 36  सीटें। 

संक्षेप में :

--भाजपा का 35 राज्यों-क्षेत्रों में से 15  पर खाता  ही नहीं खुला है और यहाँ हैं कुल 148  सीटें। इसके अलावा ;
--3 प्रमुख राज्यों की 60 सीटों में से भाजपा के पास है केवल 3 सीटें। 
--भाजपा शासित  4  प्रमुख राज्यों में  भाजपा के पास हैं  91  में से 43  सीटें। 
--उत्तरप्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों की 154 सीटों में से भाजपा के पास है 36 सीटें। 

सवाल है कि अरविंद केजरीवाल और  आप के साथ ही तीसरे मोर्चे की सुगबुगाहट के बीच क्या कोई चमत्कार होनेवाला है ? क्या मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरातऔर  छत्तीसगढ़  में उसे सौ फ़ीसदी --सभी की सभी सीटें मिल जाएंगी यानी 91  की 91  ?

क्या भाजपा को महाराष्ट्र - उत्तरप्रदेश में 128 में से आधी भी मिल पाएंगी यानी 64 ?

क्या  केरल, ओडीसा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश में वह खाता  खोल पायेगी ?

भारत में 35 राज्य व् केन्द्र शासित प्रदेश हैं जिनमें 37 पार्टियां और 8  निर्दलीय सांसद पिछले मर्तबा जीते थे। भारत बहुत बड़ा देश है और यह बात समझ लेना ज़रूरी है कि केवल हिन्दी हार्टलैंड ही भारत नहीं है। 


© प्रकाश हिन्दुस्तानी 
05. 02. 2014


Saturday, February 01, 2014

सबूत केजरीवाल के और दूसरों के !

वीकेंड पोस्ट के 1 फ़रवरी  2014  के अंक में  मेरा कॉलम




भय्या, क्या आप ने मेरे वो सबूत देखे हैं? पहले तो बहुत थे, पर अब मिल नहीं रहे हैं। शायद मैंने ही कहीं रख दिए हैं और अब मिल नहीं पा रहे हैं। नहीं भी मिलें तो कोई बात नहीं। अपना काम तो हो ही गया है। 


कुछ हफ्ते पहले वे खूब चिल्ला-चिल्ला कर कहते थे -'मेरे पास हैं शीला दीक्षित के खिलाफ 370 पेज के सबूत हैं। अब कहां गए वे सबूत? बात अरविंद केजरीवाल की ही है। कहां गए वे सबूत? काम आ गए ना भाई! मुख्यमंत्री बनते ही सबूत छूमंतर! अब कह रहे हैं कि मैं फाइलें पढ़ रहा हूं, एक्शन जरूर लूंगा। कब लोगे एक्शन? जब कांग्रेस समर्थन वापस ले लेगी तब? क्या सबूतों की बात धोखा थी? क्यों विधानसभा में बीजेपी के नेता हर्षवर्धन से कहा कि वे सबूत लेकर आएं शीला दीक्षित के खिलाफ। सबूत तो आपके पास हैं ना, कहां छुपा दिए आपने?


केजरीवाल तो सबूत-सबूत चिल्ला-चिल्लाकर सीएम ही बन पाए हैं, इतिहास में उनसे भी बड़े-बड़े सबूतबाज मौजूद हैं, जो प्रधानमंत्री तक बन गए थे। जनता पार्टी के नेता विश्वनाथ प्रतापसिंह तो सबूतों की बात करते-करते प्रधानमंत्री बन गए थे, लेकिन बोफोर्स का भूत प्रकट नहीं हो पाया। कारगिल की लड़ाई में बोफोर्स छा गई और विश्वनाथ प्रतापसिंह जब दिवंगत हुए तो अखबारों में सिंगल कॉलम की खबर ही बन सके। 


केजरीवाल सबूत की बात करने वाले पहले आदमी नहीं हैं। मुंबई महानगर पालिका के पूर्व उपायुक्त गोविंद राघो खैरनार ने शरद पवार पर कई गंभीर आरोप लगाए थे और कहा था कि उनके पास शरद पवार के खिलाफ 'एक ट्रक भरकर' सबूत हैं और वे उन सबूतों को वक्त आने पर पेश करेंगे। वे सबूत आए नहीं, शरद पवार केंद्र में मंत्री हैं और खैरनार एक मानसिक चिकित्सालय में मनोवैज्ञानिक इलाज कराकर घर बैठे हैं। 


कांग्रेस नेता दिग्विजयसिंह कहा करते थे कि उनके पास अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के परिवार वालों के खिलाफ बहुत से सबूत हैं, लेकिन उन्होंने वे सबूत पेश नहीं किए। (पता नहीं, कौन-सी) जनता पार्टी के नेता डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी कहा करते थे कि उनके पास सोनिया गांधी के टू-जी घोटाले में शामिल होने के सबूत हैं। कहां हैं? पेश क्यों नहीं किए? तीस्ता सितलवाड़ बार-बार कहती रही हैं कि नरेन्द्र मोदी गुजरात दंगों के दोषी हैं, इसके सबूत मेरे पास हैं, लेकिन वे सबूत कहां पेश हुए? पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया कहते थे कि आरएसएस के लोग आदिवासी इलाकों में लड़कियां भगाते हैं, मेरे पास सबूत हैं, वे भी सबूत पेश नहीं कर पाए।


ऐसा नहीं है कि केवल राजनीति में ही सबूतों की बात पर लोगों को गुमराह किया जाता हो, खेल और ग्लैमर की दुनिया में भी सबूत-सबूत का खेल चलता रहता है। पाकिस्तान के क्रिकेटर मोहम्मद आसिफ की गर्लफ्रेंड रह चुकी वीना मलिक ने एक भारतीय फोटोग्राफर पर मैच फिक्सिंग में शामिल होने का आरोप लगाते हुए कहा कि उनके पास इस संबंध में पुख्ता सबूत हैं। उन्होंने खुद कभी सबूत पेश नहीं किए। सानिया मिर्जा की पाकिस्तानी क्रिकेटर शोएब मालिक से शादी के पहले आयशा सिद्दीकी नाम की युवती ने शोएब के शादीशुदा होने का इल्जाम लगाया था। उन्होंने भी कहा था कि मेरे पास इसके सबूत हैं। सबूत पता नहीं कहां गए, पर शोएब की शादी सानिया मिर्जा से हो गई। पॉप गायक और एक्टर जस्टिन बीबर की पता नहीं कितनी गर्ल फ्रेंड सामने आकर दावा कर चुकी हैं कि वे बीबर के होने वाले बच्चे की मां हैं। 


प्रकाश हिन्दुस्तानी 

वीकेंड पोस्ट के 1 फ़रवरी 2014  के अंक में  मेरा कॉलम