Tuesday, October 29, 2013

पुरुष को क्यों मानते हो दोयम?

एंटी कॉलम


वीकेंड पोस्ट के 26 अक्तूबर २०१३ के अंक में  मेरा कॉलम





( नोट : यह लेख महिलाओं के प्रति पूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए भारतीय समाज में पुरुषों की दशा बताने के लिए है, कृपया इसे नारी के सम्मान-असम्मान से जोड़ने का की कोशिश नहीं करें। )

कई बार लगता है कि पुरुष होकर  कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया है। कोई भी अखबार, रिसाला, वेबसाइट पर जाओ, पुरुषों को हर तरह से गैर-ज़िम्मेदार और स्वार्थी बताने के साथ ही बलात्कारी-व्यभिचारी, शोषक, नीच, दम्भी, कुटिल, धूर्त, परजीवी और न जाने क्या-क्या बताना फैशन हो गया है. जितनी भी घटिया उपमाएं हैं, सब की सब पुरुष प्रजाति के नाम ! क्यों? क्या स्त्रियां अपनी मर्जी से स्त्रियां और पुरुष अपनी मर्जी से पुरुष बने हैं? दोनों को प्रकृति ने बनाया है, दोनों ही सम्माननीय हैं। पुरुष भी, स्त्रियाँ भी।  फिर बीच में यह जेंडर की लड़ाई क्यों? किसकी दुकान सजाने के लिए? इससे क्या वाकई किसी का भला होगा?

पुरुषों को गाली देना फ़िज़ूल है। स्त्रियाँ घर बनाने में योगदान देती हैं तो  क्या पुरुष घर को चलाने  में योगदान नहीं देते?(अपवाद छोड़कर) अगर कोई कहे कि  स्त्रियाँ अपने मर्दों (पति, पिता, भाई, प्रेमी आदि) की कमाई पर ऐश करती हैं तो क्या गलत बात नहीं होगी? नारी पूजनीय थी, है और रहेगी लेकिन पुरुष को भी वह सम्मान अवश्य मिले, जिसका वह हक़दार है. पुरुष द्वारा  उत्पीड़न की बातें करनेवाले   नेशनल  क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की यह रिपोर्ट ज़रूर देखें कि रोजाना 168 विवाहित पुरुष 'विभिन्न कारणों से' आत्महत्या करते हैं, और यह संख्या विवाहित स्त्रियों की तुलना में करीब दो गुनी है।  दसियों साल से आत्म हत्या में पुरुषों  की संख्या बढ़ती ही जा रही है। पुरुषों की आत्महत्या हर साल 5. 6 की दर से बढ़ रही है जबकि स्त्रियों में यह प्रतिशत 1.  4 है. यानी पुरुषों से एक चौथाई। (देखिये ग्राफ) आत्महत्या के ये दोनों ही आंकड़े दुखद हैं।

भारतीय दंड संहिता की धारा '498 -ए' के तहत हर साल दहेज़ के 58  हजार से भी ज्यादा  मामले दर्ज किए जाते हैं। इन लोगों में केवल नौकरीपेशा, व्यवसायी, मज़दूर, एन आर आई  ही नहीं; फ़ौज और पुलिस  के अफसर और यहाँ तक कि न्यायाधीश तक शामिल हैं।  आंकड़े देखें तो औसतन जहां हर 19 मिनट में देश में किसी व्यक्ति की हत्या होती है, वहीं हर 10 मिनट में एक विवाहित व्यक्ति आत्महत्या करता है।   हर साल  एक लाख से भी ज्यादा लोग झूठे मामलों में गिरफ्तार होते हैं। हर 4  मिनट में एक पुरुष को  दहेज मांगने के झूठे मामले में फंसा दिया जाता है।  हर ढाई  घंटे में एक बुजुर्ग  को दहेज की मांग के झूठे आरोप में पकड़ लिया जाता है। यहाँ तक कि रोजाना  एक निर्दोष बच्चा इसी धारा में गिरफ्तार होता है, हर २३ मिनट में कोई न कोई बेक़सूर महिला भी 'धारा 498 ए' के तहत गिरफ्तार होती है।  हर पांच मिनट में एक निर्दोष सलाखों के पीछे पहुंचता है। ऐसा लगता है कि पुरुष विरोधी कानूनों के पीछे परिवार की सत्ता को ख़त्म करके व्यक्तिवादी सत्ता की स्थापना करना बाज़ार का लक्ष्य है. पुरुषों को गाली देकर वाहवाही लूटना सोशल वेबसाईट्स पर शगल बनता जा रहा है।

 इस मामले में ऐसे अनेक प्रकरण सामने आ चुके हैं कि   अपनी दुश्मनी निकालने के लिए कुछ लोग दहेज माँगने  के गलत आरोप लगा कर बेक़सूर  लोगों को फंसा देते हैं.  हालात इतने खराब हो गए कि एक मामले में न्यायमूर्ति  अशोक भान और और न्यायमूर्ति  डी.के. जैन ने को यहाँ तक कहना पड़ा कि   सेक्शन '498  ए' को दहेज के कारण होने वाली मौतों को रोकने के लिए लागू किया गया था न कि मासूम व निर्दोष लोगों को फांसने के लिए। आईपीसी की धारा '498 -ए' के दुरुपयोग के मामले भी सामने आने लगे हैं ।इस कानून के तहत दर्ज मामला गैर जमानती और दंडनीय होने के कारण और भी उलझ जाता है। आत्मसम्मान वाले व्यक्ति के लिए यह काफ़ी घातक हो गया है, जब तक अपराध का फ़ैसला होता है जेल में रहते-रहते वह इस तरह खुद को बेइज्जत महसूस करता है कि मर जाना पसंद करता है, इंदौर में भी ऐसे प्रकरण सामने आ चुके हैं जब झूठे मामानों में फंसे बेक़सूर पुरुष ने आत्महत्या कर ली.  आत्मसम्मान वाले आदमी के लिए एक बार गिरफ्तार हो जाना काफी घातक होता है। इस क़ानून में एक गुनाहगार को सजा दिलाने के लिए हजारों बेक़सूर लोगों को फंसाना आम हो गया है.
इसी कारण दहेज़ विरोधी कानून को 'लीगल टेररिज्म' तक कहा जाने लगा है. दहेज़ लेना और देना दोनों ही गैरकानूनी है तो फिर केवल दहेज़ माँगनेवाले ही क्यों जेल में बंद किये जाते हैं?

अगर हम सचमुच अच्छा समाज बनाना चाहते हैं तो हमें स्त्रियों और पुरुषों, दोनों को ही इज़्ज़त देनी होगि. जेंडर के नाम पर अगर स्त्रियों से नाइंसाफी होती है तो वह गलत है ही, लेकिन पुरुषों से नाइंसाफी करके भी अच्छा समाज नहीं बनाया जा सकता। फैशन और अपने फायदे के लिए ऐसी लड़ाइयाँ लड़ी जा रही हैं, जो बंद होना ज़रूरी है.

--प्रकाश हिन्दुस्तानी
(वीकेंड पोस्ट के 26 अक्तूबर 2013 के अंक में  मेरा कॉलम)


Saturday, October 19, 2013

मुहूर्त का काम !

('वीकेंड पोस्ट' के 19 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)



मुहूर्त का काम  !



भारत में सब काम मुहूर्त देखकर शुरू होते हैं। लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों, ज़्यादातर  काम बिगड़ ही जाते हैं।  हर फिल्म का मुहूर्त होता है पर ऐसी  फ़िल्में दस प्रतिशत ही बनती हैं जो हिट  होती हैं।   हर मकान का निर्माण मुहूर्त देखकर शुरू होता है,  और अधिकांश  मकान,   मकान ही रह जाते हैं घर नहीं बन पाते। वाहन खरीदनेवाले भी मुहूर्त देखकर जाते हैं। पर क्या ऐसे वाहनों से कभी कोई दुर्घटना नहीं होती? दुकानें , कारखाने, फैक्टरियां आदि भी मुहूर्त देखकर शुरू होती हैं , 80 फ़ीसदी ठप हो जाती हैं. लगभग सभी  नेता चुनाव अभियान शुरू करते हैं  तो मुहूर्त देखकर। लेकिन कामयाब तो  कुछ ही हो पाते हैं। …. और रही बात शादियों की, तो अधिकाँश मुहूर्त देखकर ही होती हैं और उनका हश्र सभी जानते हैं।  खासकर पति लोग। 
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जो काम मुहूर्त देखकर नहीं होते, उनकी कामयाबी का प्रतिशत कुछ ज्यादा ही होगा।  चोर मुहूर्त नहीं देखते, ज़्यादातर सफल होते हैं। रिश्वत मांगने वाले और देनेवाले दोनों ही कहाँ मुहूर्त के चक्कर में पड़ते हैं? मौक़ा आया तो मांग ली, मज़बूरी अड़ी तो दे दी। मोहर सिंह-माधो सिंह कौन सा मुहूर्त देखकर डाकू बने थे और कौन सा मुहूर्त देखकर सरेंडर करने गए थे? अवैध निर्माण करनेवाले भी कहाँ मुहूर्त देखते हैं, जी में आया और कर डाला।  फिर उन्हें तोड़नेवाले कौन सा मुहूर्त देखकर तोड़ते हैं? दबाव आया तो तोड़ डाला।  नहीं भी तोडा तो क्या? बाबा लोग जो पूरे गाँव को मुहूर्त की पुड़ियाएं बाँटते रहते हैं, कहाँ मुहूर्त देखते होंगे? देखते होंगे और फिर भी फंस जाते हैं तो इसे क्या कहेंगे? बड़े बड़े घोटाले करनेवाले भी कहाँ मुहूर्त के गेर में पड़ते हैं?   मुहूर्त की ऐसी तेसी करनेवालों में मोहब्बत करनेवाले अव्वल हैं।  मोहब्बत करनेवाले  कहाँ मुहूर्त देखने जाते हैं , लोग कहते हैं कि यह अपने आप होनेवाली दुर्घटना है , ऐसी  चीज़ है, जिसका मुहूर्त हमेशा सही ही रहता है.  ऐसा नहीं कि मुहूर्त देखा और लग गए अभियान में। 


इंदौर में हर काम मुहूर्त देखकर किया जाता है। क्यों ? क्यों का क्या? मुहूर्त देखा जाता है, तो बस देखा जाता है।  परम्परा है।  सब देखते हैं तो यहाँ भी देखा जाता है। सड़क का मुहूर्त, फिर भूमिपूजन। नाली बनाने का मुहूर्त, फिर भूमिपूजन। खम्बे लगाना हो , फुटपाथ बनाना हो , बस चलाना हो , बगीचा लगाना हो,  भाषण-प्रवचन-पूजन-रैली-आयोजन करना हो , पहले मुहूर्त देखो और फिर शुरू करो। इसका एक खास मकसद होता है लोगों को मूर्ख बनाने का।  फलां काम का ऐलान हो चुका था , काम शुरू हो गया क्या ? नहीं , मुहूर्त हो चुका  है, पूजा भी हो गयी है, काम जल्द शुरू होगा…। हाल यह है कि हर काम का मुहूर्त निकल चुका , पूजा हो चुकी और काम ? वह भी हो ही जायेगा. 

मुहूर्त बतानेवाले कहते हैं कि मुहूर्त का मतलब होता है किसी भी  काम को शुरू करने की सबसे शुभ घड़ी।  यह सबसे शुभ घड़ी ब्रह्म मुहूर्त मानी  गयी है। यह ब्रह्म मुहूर्त दो घड़ियों के बराबर होता है यानी करीब 48 मिनट के बराबर। सूर्योदय से करीब दो घंटे पहले यह घड़ी सुबह सुबह 4  बजकर 24 मिनट से 5 बजकर 12 मिनट पर होती है. दूसरा सबसे अच्छा मुहूर्त माना  गया है  जीव या अमृत मुहूर्त को और यह होता है रात 2 बजे से 2 बजकर 48 मिनट तक। यानि ये दोनों ही घड़ियाँ रात में गुज़र जाती हैं और लोग सोते रह जाते हैं।   फिर जो भी बचता है, उसी में कुछ न कुछ बहाना बनाकर काम शुरू कर देते हैं। 

मेरा निवेदन है कि हर घड़ी शुभ है।  काम शुरू करना ही हो तो।  वरना मुहूर्त तो बहाना होता है। बस। 

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
('वीकेंड पोस्ट' के 19 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)

http://www.prakashhindustani.com/

ये रहे मेरे फेसबुक कमेंट्स

('वीकेंड पोस्ट' के 5 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)


ये रहे मेरे फेसबुक कमेंट्स 

फेसबुकी दोस्तों का सन्देश था कि बहुत दिनों से फेसबुक पर दिखाई नहीं दे रहे हो, क्या सब ठीक तो है? बिलकुल ठीक है भय्या। पर क्या करूँ , दोस्त लोग जैसे फोटो चिपकाते हैं, जैसे कमेन्ट लिखते हैं, अगर मैं उसके जवाब में  मन की बातें लिखने लग जाऊं तो  एक भी मित्र फेसबुक पर बचेगा नहीं।  मैं ये रिस्क लेने से डरता रहा और    गैरहाज़िर रहा।  अब कुछ हिम्मत जुटाकर फिर  आया हूँ। कम लिखे को ज़्यादा समझना .
दो अकाउंट हैं जिनमें मेरे करीब दस हज़ार मित्र हैं फेसबुक पर. हरेक की पोस्ट पर कमेन्ट लिखना संभव नहीं है.  कहीं सच्ची बात न निकल जाए इसलिए भी डरता हूँ।  अपनी सुविधा और सम्मान के लिए मैं यहाँ कुछ कमेन्ट लिख रहा हूँ, कृपया अपनी पसंद और सुविधा के अनुसार यह कमेन्ट कॉपी पेस्ट कर लीजिएगा। फिर मेरी टाइमलाइन में या मैसेज बॉक्स में मत लिखना कि मैं आपसे मुखातिब नहीं।  ये रहे मेरे ईमानदार कमेंट्स, मेरे इन कमेंट्स में से जिसे भी चाहो अपनी पोस्ट के नीचे चिपका लो :

--ये सब टीपा-टीपी का धंधा बन्द  करो यार। 

--तुम घूमने  विदेश गए हो तो मैं क्या करूं बे?

--क्या चीज़ मारी है।  कहाँ से चोरी की?

--हरामी, फर्जी कॉमरेड ! मुझे तेरी औकात मालूम नहीं क्या?

--तू क्या रजनीकांत का बाप है?

--वाह, क्या फोटो है यार! क्या साथ में खड़ी वो सुन्दर सी औरत आपकी बीवी है? नहीं, भाभी जी 
तो नहीं है ये।  कोई चक्कर है क्या?

--फोटो देख लिया।  पता चल गया कि तुमने नयी गाड़ी खरीद ली है। 

--ये गाड़ी क्या तुमने अपनी कमाई से खरीदी है? बाप की कमाई पर कब तक इतरायेगा बच्चू?

--तू तो स्साले, है ही बड़ा कम्यूनल !

--घुस जा पप्पू के पेंट में। 

--मोहतरमा, आपने कविता किसी और की मारी है और फोटो हीरोइन का चिपका दिया है. कोशिश अच्छी है, किसी बहाने तो लोगों ने लाइक किया। 

--फेसबुक पर आकर प्रवचन लिख रहा है हरामखोर ! क्या मुझे पता नहीं कि तेरी औकात क्या है?

--कितने  रुपये में नेताजी के लिए रोज रोज कमेन्ट लिख है?

--मुझे पता है नेताजी, कि कंप्यूटर और  इंटरनेट  के मामले में आप निहायत गधे हैं, लेकिन दुकान  सजाने की कोशिश में आपने गधों की ही सेवा लेना शुरू कर दी है। 

--मुझे पता है ये फोटो कैटरीना है और तुम जो भी हो कैटरीना कैफ तो नहीं ही हो। अपना असली फोटो लगाने में तेरे को शर्म आती है क्या? या तू सूर्पनखा है?

--मैडम जी, आप ये जो रोजाना फेसबुक पर आकर मर्दों को गरियाती रहती हैं, इसीलिये तो कोई फंसता नहीं तुमसे। तुम तो आजीवन प्यासी आत्मा ही रहोगी। 

--तुम कैसा लेखन करती हो  देवी? मुझे लगता है कि विभूतिनारायण राय ने जो कमेन्ट किया था वो आपके और आप जैसों के लिए ही था. 

--अच्छी नौकरी है, मोटी तनख्वाह है, माल कमा रहे हो, ऐश कर रहे हो और यहाँ आकर ज्ञान बाँट रहे हो?

--मुझे पता है कि तुम एक नंबर के नीच, कमीने, घटिया, तुच्छ, हेय, गिद्द हो. यहाँ फेसबुक पर मुंह मारने  की कोशिश कर रहे हो. तेरे को तो सुअरिया  भी घास न डाले।

--पाखंडी, तेरा सच्चाई और धर्म से क्या लेना देना है?

(फेसबुक के सभी  सच्चे मित्रों से क्षमायाचना सहित )

--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
('वीकेंड पोस्ट' के 12 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)

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Wednesday, October 09, 2013

जो कष्ट उठा उठा कर मरे, वो कस्टमर !!!

मेरा  'एंटी कॉलम' फिर से शुरू  हो  गया 





('वीकेंड पोस्ट' के पहले अंक से मेरे बहुचर्चित रहे स्तंभ 'एंटी कॉलम' की शुरुआत फिर हो गयी . यह कॉलम दैनिक भास्कर में पहले हिन्दी में लिखा करता था बाद में इसे टाइम्स ऑफ इंडिया के इंदौर संस्करण ने लंबे समय तक प्रकाशित किया. दैनिक हिन्दुस्तान के सभी संस्करणों में हर रविवार को 'जीने की राह' शीर्षक से कॉलम लिखने और अन्य कारणों से यह लेखन नहीं हो पा रहा था, लेकिन श्री रमण रावल के संपादन में शुरू हुए 'वीकेंड पोस्ट' में संपादक के आग्रह पर इसे फिर से लिखना शुरू कर दिया है.

 अब आप इसे हर हफ्ते मेरे इस ब्लॉग पर भी देख सकेंगे.)


दीपावली के पहले घर की पुताई शुरू हुई ही थी कि श्रीमतीजी ने कहा  --दीवार पर लगा टीवी सेट उतरवा दो, वर्कर लोग गन्दा न कर दें ; पुताई के बाद फिर लगा देना। आज्ञाकारी पति के रूप में मैंने  तत्काल हाँ भरी और लगा टीवी सेट को उतारने. पर यह क्या, वो तो दीवार में नट - बोल्ट से पक्का फिट किया हुआ था. मैं समझ गया कि अपने बूते की बात नहीं है. मौका मुआयना करने के बाद मैंने जवाब दिया -- बहुत भारी  है, कुछ टूट फूट  गया तो फालतू नुक्सान हो जाएगा,  इलेक्ट्रिकवाले को ही बुलाना पड़ेगा।

--तो बुला लो।  फिर आदेश। 

मैंने स्कूटर उठाया और निकल गया इलेक्ट्रिकवाले के यहाँ।  पहली दुकान पर ही जवाब मिला -- हम ये काम नहीं करते, लोगबाग बाद में गले पड़  जाते हैं। कोई और जगह ढूंढो। तीन-चार दुकान पर पूछताछ की, पर मुआ कोई भी राजी नहीं हुआ इस छोटे से काम के लिए. इसी बीच घर से मोबाइल  पर पूछताछ हुई कि कहाँ घूम रहे हो, घर में पुताई चल रही है और उस एक कमरे का काम रुका  पड़ा है।  एक ही काम तो कहा था, वह भी   नहीं हो पा रहा है तुमसे.     मैंने सफाई दी कि इलेक्ट्रिकवाले राजी नहीं हो रहे.… झल्लाई हुई आवाज़ आई कि टीवी शोरूम से ही किसी को बुला लो , सौ-दो सौ लेगा,  पर टीवी तो उतारकर लगा देगा।  मैंने हामी भरी और घुमाया स्कूटर  टीवी शो रूम की तरफ़. पर यह क्या! यहाँ तो ताला पड़ा था. पूछताछ की तो पता चला कि आज गणेश विसर्जन हो रहा है, शोरूम बंद है. मैंने कहा --भैया, झांकी तो रात को निकलेगी, अभी  काहे  की छुट्टी? जाहिर है मैं गलत व्यक्ति से गलत बहस कर रहा था. खैर, तीन चार शोरूम के चक्कर लगाने के बाद मुझे टीवी का एक शो रूम खुला मिल ही गया। उसे देख मुझे वैसा ही खुश  हुआ जिसे मुहावरों में 'बांछें खिलना' कहते हैं। 

शो रूम में झटके से घुसते हुए मैंने कहा -- दीवार से टीवी उतारना और लगाना है, क्या कोई  टेक्निकल बन्दा है?

--ओह, टीवी शिफ्ट करना है? कहाँ से कहाँ ले जाना है? किस लोकेशन में?

--कोई लोकेशन वोकेशन नहीं, पुताई हो रही है, पुताई के बाद फिर लगा देना है। 

--मतलब दो विजिट लगाना  पड़ेगी।  एक विजिट के 500, दो के 1000  लगेंगे। 

--1000 रुपये …मेरी आँखें फटी की फटी रह गई -- मैं कोई पुराना टीवी खरीदने नहीं, उसी टीवी को, उसी सामान के साथ, उसी जगह फिट करना है, बस। दीवार पर पुताई होते ही। 

शो रूम मैंनेजर  सज्जन लगा रहा था, मेरे अचरज पर उसे कोई अचरज नहीं हुआ। सामान्य से अंदाज़ में पूछने लगा --कौन सा टीवी है ?

--सोनी कंपनी का ब्राविया।  

--पर ये तो सैमसंग का शो रूम है सर.  सोनी कंपनी के शो रूम में जाइये. 

--आप ये काम नहीं करवा सकते?

--बिलकुल नहीं।  जिस कंपनी का माल खरीदा, सर्विस भी तो उसी की लगेगी ना। 

मैं खिसिया गया. अपनी समझ पर बगैर झेंपे पूछ ही लिया कि  सोनी का शो रूम कहाँ है?

 ये एयर कंडीशंड   शो रूम वाले बड़े ही सज्जन प्रोफेशनल लोग होते हैं बेचारे।  काम करें या न करें , बोलते बहुत अच्छा है,  उन्होंने विनम्रता से पता बताया , यह भी कहा कि हमारे लायक कोई सेवा हो तो बताएं।  हमारे ग्राहक होते तो तत्काल सेवा देने की 'सोचते', वगैरह वगैरह।  मैंने भी शरीफ ग्राहक की तरह धन्यवाद दिया और  ढूँढते-ढूँढते  सोनी टीवी शो रूम पहुंचा।  जान में जान आई। अपनी मूर्खता पर तरस भी आया कि जिस कंपनी का टीवी खरीदा उसी कंपनी के पास जाना था ना। इतना सा कॉमन सेन्स तो होना ही चाहिए। सोनी के शो रूम में  जाकर मैंने  फिर अपना टेप बजाया। टीवी दीवार से उतारना और फिर फिट करना है आदि आदि। 

मैंने पहले  ही लिखा है न कि  ये एयर कंडीशंड  शो रूम वाले बड़े ही सज्जन प्रोफेशनल लोग होते हैं बेचारे।  काम करें या न करें , बोलते बहुत अच्छा है, मैनेजर ने  विनम्रता से कहा -- हो जाएगा, पर आप शो रूम आ गए हैं , आपको हमारे सर्विस सेंटर पर जाना पड़ेगा जो ए बी रोड पर है, इंडस्ट्री हाउस के पास. उन्होंने मेरा ज्ञान यह कहकर भी बढ़ाया कि सोनी बहुत ही बढ़िया और बड़ी कंपनी है और आफ्टर सेल्स सर्विस भी लाजवाब देती है. क्वालिटी मेंटेन करने के लिए और मुझ जैसे दुखियारों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहती है।  


थोड़ा  दुखी, थोड़ा क्षुब्ध और थोड़ा विचलित मैं सोनी सर्विस सेंटर की तरफ रवाना  हुआ। वहां पहुंचकर देखा कि हाट  बाजार जैसा नज़ारा था. कोई किसी को नहीं पूछ रहा था. कुछ लोग थे, जो बहुत बिजी थे. कुछ लडके-लड़कियाँ टाइप कर्मचारी भी थे, जो हंसी- ठठ्टा कर रहे थे, एसएमएस, फेसबुक, वाट्सअप में संघर्ष कर रहे थे और दिखावा कर रहे थे कि वे भी बिज़ी हैं। खैर किसी तरह मुझे एक कर्मचारी ने समय दिया।  मैंने फिर अपनी पूरी बात उससे कही। वह मुस्कराया और फिर बोला -- सर, आप यहाँ क्यों आये? आपका काम तो एक फोन से ही हो जाता।  आपको यहाँ आने की  ज़रुरत ही नहीं थी।  मेरा मनोबल टूट सा गया, बहुत स्मार्ट समझते हो अपने आप को, मैंने मन ही मन खुद को कोसा. इतना सा भी नहीं पता कि अंतर्राष्ट्रीय  स्तर की सेवा कैसी होती है !

फिर उस कर्मचारी में मुझे एक विजिटिंग कार्ड दिया और ज्ञान बढ़ाया  कि इस पर एक टोल फ्री नंबर है -- 1800 103 7799 .मैंने पूछा  कि क्या मोबाइल  से यहाँ कॉल हो सकता है? मेरी नासमझी पर वह मुस्कराया और बोला -- हाँ, हो सकता है.  उसने यह भी दोहराया कि  इस नंबर  पर फोन कर देने मात्र से ही काम हो जाता है. पैसे भी नहीं लगते फोन के. मैंने उससे पूछा कि मेरा टीवी दीवार से कब तक उतार दिया जाएगा ? उसने कहा --इस टोल फ्री नंबर पर कॉल कर दीजिए। मैंने कहा -- सर्विस सेंटर पर आ ही गया हूँ तो कॉल की क्या ज़रुरत?

उसने कहा--ज़रुरत है। आप यहाँ कॉल करके केस दर्ज कराएँगे फिर हमें यहाँ से ईमेल आएगा फिर ही हम काम कर सकते हैं। हम यहाँ अपनी मर्ज़ी से कोई सर्विस नहीं दे सकते. हर काम का हिसाब रखना पड़ता है. हर काम का शुल्क तय है। 

मेरी नैतिकता जवाब दे गयी थी।  मैंने कहा --यार, तुम टीवी दीवार से उतरवा दो, जो भी शुल्क है, ले लेना।  बिल वगैरह की हमें ज़रुरत नहीं।  

 -- ऐसा कैसे हो सकता है? उसने भी यह कहकर मुंह फेर लिया कि सोनी बहुत ही बढ़िया और बड़ी कंपनी है और आफ्टर सेल्स सर्विस भी लाजवाब देती है. क्वालिटी मेंटेन करने के लिए और मुझ जैसे ग्राहकों  की सेवा के लिए हमेशा तैयार रहती है।  

झल्लाया सा मैं सर्विस सेंटर से बाहर आया. सोचा था कि फोन ही करना है तो बाहर से फोन करके शिकायत दर्ज करा देनी चाहिए। इसी बीच श्रीमती जी का फोन बार बार आ यहाँ था, जिसने झल्लाहट और बढ़ा  दी थी। इतने से काम के लिए इतने घंटे लगा दिये. खरी खोटी सुनाने के मूड में आकर मैंने  टोल फ्री नंबर  -- 1800 103 7799 पर फोन लगाया।  सोचा था सर्विस मैनेजर से बात करके सारी दिक्कतें बताकर ही दम लूँगा।  मैंने कॉल किया उधर से काफी देर बाद जवाब आया --वेल्कम टु सोनी कस्टमर सर्विस सेंटर। थैंक यू फॉर कालिंग। योर कॉल में बी रेकार्डेड फॉर बेटर  सर्विसेस।   इफ यू आर कस्टमर, डॉयल वन, इफ यू आर डीलर, डॉयल टू. 

मैंने 1 प्रेस किया। फिर आवाज़ आई --फॉर इंग्लिश, प्रेस 1, फॉर हिन्दी प्रेस 2, फॉर बांग्ला प्रेस 3 …… मैंने  2  नंबर दबाया. सोचा --अब हड़का कर ही दम लॊङ्ग. हिंदी में मुंहजोरी की आदत भी है ही। इधर से फिर टेप बजा --डीलर का पता जानने के लिए 1 , तकनीकी सेवा के लिए 2 ,  डेमो रजिस्ट्रेशन के लिए 3 , उत्पादों की जानकारी के लिए 4 , दुबारा  विकल्प जानने  के लिए 5  और मेन  मैन्यु में जाने के लिए 6  डायल करे. मैं भी बहुत स्मार्ट हूँ, मैंने  तकनीकी सेवा के लिए  फट से 2  नंबर डायल कर दिया। फिर टेप चालू ---वायवो नोट के लिए फलाना, हैंडीकैम के लिए फलाना, होम थियेटर के लिए फलाना, प्ले स्टेशन के लिए फलाना, एल सी डी के लिए फलाना, कोई भी उत्पाद के लिए  फलाना , दुबारा विकल्प सुनाने के लिए फलाना और मेन मैन्यु में आने के लिए ढिकाना नंबर प्रेस करें। 

आठ-दस मिनिट संघर्ष के बाद मैं किसी तरह सम्बंधित विभाग में बात कर पाया। उस ऑपरेटर ने कहा कि  आप गलत जगह पर जुड़ गए हैं लेकिन चिंता की बात नहीं, मैं आपकी  सही विभाग में सही व्यक्ति से बात करा रहा हूँ. वह भी यह बताना नहीं भूला कि  सोनी बहुत ही बढ़िया और बड़ी कंपनी है और आफ्टर सेल्स सर्विस भी लाजवाब देती है. क्वालिटी मेंटेन करने के लिए और मुझ जैसे दुखियारों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहती है। 

उसने कृपा की।  मैं सही व्यक्ति से जुड़ गया था. मैंने खीजते हुए पूछा --मुझे मेरा वाल माउंटेड  टीवी दीवार से उतारना है, उतरवा दोगे ?

--बिल्कुल सर। कौन सा टीवी है?
--सोनी का ही है. 
--वो तो सही है, एल सी डी है या डी  वी दी ?
--एल सी डी है. 
--कितने साइज़ का है? कौन सा मॉडल  है?
--३२ इंच का है, मॉडल पता नहीं 
--कहाँ से खरीदा था ?
--यहीं, इंदौर से ही.
--डीलर कौन था?
--सोनी का टीवी है है तो  सोनी के ही डीलर से लिया होगा। 
--वो तो ठीक है कब खरीदा था?
मेरा पारा चढ़ गया ---कब खरीदा, पता नहीं, किससे खरीदा पता नहीं, बिल कहाँ है पता नहीं। …. --क्या मेरा काम हो सकता है?
उसने फिर पुलिसिया अंदाज़ में पूछताछ शुरू की -- आपका नाम , कहाँ रहते हैं, वगैरह वगैरह। 
खीजकर मैंने कहा की मेरा नाम ये है, पता ये, पिता का नाम, डेट ऑफ़ बिर्थ ये, पेन कार्ड-ड्राइविंग लाइसेंस आदि का नंबर पता नहीं।  …और भी कुछ पूछना  है --मेरी हाईट, मेरे बच्चों के बर्थ डे ? मज़ाक बना दिया आपने यार ?

--नाराज़ न हों, अगर वारंटी या गारंटी पीरियड में हो तो बेहतर होता।  कोई बात नहीं, हमारा सर्विस इंजीनियर आपका काम कर देगा. उसकी फीस होगी 400  रुपये प्लस सर्विस टैक्स। करीब 500 रुपये का खर्च आयेगा. 
--कितना भी आये, काम तो कर ही दो।  दे देंगे 500  रुपये और। 
उसने मुझे एक नंबर बताया जो 15728278 था।  उसने यह भी कहा कि यह मेरा 'कस्टमर सर्विस रिक्वेस्ट नंबर' है. उसी के विजिटिंग कार्ड पर मैंने उधार के पेन से नंबर नोट किया फिर शराफत से पूछा --- काम कब होगा?
--जैसे ही हमारा सर्विस  इंजीनियर फ्री होगा, लेकिन आप श्योर रहें 48 घंटे के भीतर हो जाएगा। 
--48 घंटे और वह भी 500  खर्च के बाद?
--कोशिश करेंगे की कल रात तक आपका काम हो जाए; उसने एहसान करने के अंदाज़ में कहा. 
--प्लीज़ जल्दी करा दीजिए।  मैंने कहा। मेरे सामने बेबसी थी।  इंटरनेशनल ब्रांड का माल वापरनेवाले की.  इसी  दौरान श्रीमती जी के कॉल बार-बार आते रहे. मैंने रिसीव नहीं किये. सोचा --घर जाकर ही अपनी कामयाबी की दास्तान बताऊंगा।   

…तेज़ गति से गाड़ी दौड़ाता हुआ मैं घर पहुंचा। श्रीमती जी बोलीं -- कहाँ उलझ गए थे? तुमसे तो एक  छोटा सा काम भी नहीं होता…. कब से छुट्टे के लिए परेशान हो रही हूँ।  50 रुपये मनीष को देना है। 
-कौन मनीष?
-- इलेक्ट्रिशियन।  इसी को बुलावा लिया और इसी ने  टीवी दीवार से उतारा है और फिर लगा भी देगा. आप तो पता नहीं कहाँ गायब थे। 

मैं अवाक खड़ा रह गया।  इंटर नॅशनल ब्राण्ड के सर्विस इंजीनियर का काम इस मनीष ने कर दिया।  50 रुपये में।  मेरी चिंता यह थी कि सोनी कंपनी के इंजीनियर को मैं क्या जवाब दूंगा ? उनके टोल फ्री नंबर पर दुबारा  कॉल करने की   हिम्मत अब मुझमें नहीं बची थी। 
---प्रकाश हिन्दुस्तानी 
('वीकेंड पोस्ट' के 5 अक्तूबर 2013 के अंक में प्रकाशित)

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