Wednesday, April 29, 2015

अमेरिका में हिन्दी का परचम लहराते अशोक ओझा


हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित कराने के अभियान में जुटे है अशोक ओझा। अमेरिका में न्यू जर्सी के एडिसन निवासी अशोक ओझा मूलत: पत्रकार है। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में पत्रकारिता और मुंबई में फिल्में बनाने के बाद वे अमेरिका में बस गए। पत्रकारिता का दौर जारी रहा। इसी के साथ उन्होंने बीड़ा उठाया हिन्दी के शिक्षण का। अपने पत्रकारी और फिल्म निर्माण के अनुभव को उन्होंने हिन्दी के विकास से जोड़ा और केन विश्वविद्यालय में स्टार टॉक नाम का कार्यक्रम शुरू किया।  उनका हिन्दी स्टार टॉक प्रोग्राम बेहद लोकप्रिय है। सैकड़ों स्वूâलों के विद्यार्थी इस माध्यम से हिन्दी सिख रहे है।अशोक ओझा के प्रयास ही है कि केन विश्वविद्यालय के अलावा मिड्डलसेक्स काउंटी के कॉलेजों और स्वूâलों में हिन्दी पढ़ाने का अभियान शुरू हुआ है। वे अमेरिकी अखबारों में नियमित रूप से लेखन भी करते है और हिन्दी के लिए अनेक शैक्षणिक योजनाओं को मूर्त रूप देने का काम भी कर रहे है।

      हिन्दी के पत्रकार  और  शिक्षक होने के  साथ ही टेलीविजन के प्रोग्राम डायरेक्टर के रूप में सक्रिय अशोक ओझा से मिलना अपने आप में सुखकर अनुभव रहा। अनेक मुद्दों पर उनसे खुलकर चर्चा हुई। उन्होंने हर विषय पर सिलसिलेवार और खुलकर जवाब दिए। पेश है उसी की एक बानगी :
प्रश्न : मुंबई में पत्रकारिता और फिल्म निर्माण करते-करते आप अमेरिका कैसे आ गए?
उत्तर : मैंने जो भी काम किया, वह जुनून के साथ किया। पत्रकारिता में था तब भी एक जुनून था। लघु फिल्मों का निर्माण किया, वह भी जुनून के साथ। एक शिक्षक के रूप में काम किया तो वहां भी यह जुनून बरकरार रहा। पत्रकारिता मेरे लिए एक अच्छा अवसर था। मैंने वहां बहुत कुछ सीखा। वह मुझे यहां काम आ रहा है, लेकिन पत्रकारिता कभी भी मेरे जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं रहा। 
प्रश्न : अमेरिका आकर वैâसा लगा? क्या-क्या व्यावसायिक चुनौतियां आपके सामने थीं?
उत्तर : जब मैं अमेरिका आया, तब पाया कि यहां हर चीज एक निश्चित सांचे में ढली हुई है। यहां आकर मैंने पाया कि अंग्रेजी पत्रकारिता आज जिस जगह खड़ी है, वहां हिन्दी की पत्रकारिता नहीं है। इसके बहुत से कारण है, उस पर मैं यहां अभी चर्चा करना नहीं चाहता, लेकिन यहां आकर मैंने अंग्रेजी पत्रकारिता की। पत्रकारिता का क्रॉफ्ट मैं टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में सीख चुका था। यहां मैं विविध लोगों से मिला। उनसे अनेक बातें सीखी और उसी का योगदान है कि आज मैं इस मुकाम पर हूं। मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया में रिपोर्टिंग और फिल्म रिव्यू किए थे, लेकिन यहां आकर मैं एक संस्थान में ऑनलाइन रिव्यू एडिटर के तौर पर काम करने लगा। मेरी अंग्रेजी पहले ही अच्छी थी इसलिए मुझे बहुत दिक्कत नहीं हुई, लेकिन काम जरूर नया था। यहां आकर अंग्रेजी को एक अलग भाषा के रूप में देखने समझने का विचार भी मेरे मन में आया। 
प्रश्न : क्या अंतर है भारत और यहां की पत्रकारिता में?
उत्तर : जैसा मैंने आपको बताया कि यहां पत्रकारिता एक निश्चित ढांचे में होती है। हर कोई आदमी उस सांचे में फिट नहीं हो सकता। यहां आप केवल इसलिए पत्रकार नहीं बन सकते कि आपको पत्रकारिता का शौक है। यहां पत्रकार बनने के लिए आपको पत्रकारिता की पढ़ाई करनी होगी। इसके बाद पत्रकारिता का प्रशिक्षण लेना होगा और उसके बाद आपको पत्रकारिता का अवसर मिल सकेगा। यहां हर विषय और हर क्षेत्र में एक व्यवस्था बनी हुई है। यहां अगर आपको कहानी लिखना हो, उपन्यास लिखना हो, साहित्यकार बनना हो तो उसके लिए भी पढ़ाई करनी होगी। यहां आप यह नहीं कह सकते कि मेरे पिता या मेरी मां एक खास जाति या धर्म की है, इसलिए मुझे पहले अवसर दिया जाए। यहां योग्यता पर निर्भरता ज्यादा है, सिफारिश पर नहीं। आपकी योग्यता ही आपकी सिफारिश है। यह बात यहां अच्छा लगी और फिर मैं यहीं का हो गया।
प्रश्न : आपने हिन्दी की जो संस्थाएं खड़ी कीं, उनका उद्देश्य क्या रहा?
उत्तर : मेरा निजी कोई उद्देश्य नहीं है। मस्तिष्क में केवल यहीं बात रही कि अमेरिका भी हिन्दी का गढ़ बन जाए। हिन्दी बोलने वालों के मन में गर्व की भावना हो। कुछ लोगों में हिन्दी को लेकर हीन भावना भी है। वह हीन भावना खत्म हो। गैर भारतीय समाज हिन्दी भाषियों को पूरे सम्मान की नजर से देखे। 
प्रश्न : हिन्दी शिक्षण से वैâसे जुड़ गए?
उत्तर : हिन्दी और अंग्रेजी में एक बुनियादी अंतर है। हिन्दी भाषी व्यक्ति कोई भी बात कहने के पहले अपनी भावनाएं, अपने विचार व्यक्त कर देता है और काम की बातें सबके अंत में कहता है। यहां अंग्रेजी भाषी सबसे पहले अपने काम की बात कहते है और उसके बाद अपने मनोभाव व्यक्त करते है। यह बात मुझे अच्छी लगी। हम हिन्दी भाषी अपनी बात साफ-साफ कहने में क्यों हिचकते है? मूल मुद्दे पर आकर चर्चा क्यों नहीं करते? मुझे लगा अगर बच्चों को हिन्दी सिखाई जाए तो हम हिन्दी का ज्यादा भला कर पाएंगे। यहां आकर हिन्दी भाषी लोग अंग्रेजी बोलना सीखते है, लेकिन जब अंग्रेजी भाषी लोग भारत जाते है, तब वे वहां गालियां सीख कर आते है। यह बात बहुत चुभती है। ऐसा कुछ करना चाहता हूं कि आने वाली पीढ़ी गर्वान्वित हो। आज हमारे समाज में मंदिर बनाने के लिए दान देने वाले बहुत है, लेकिन हिन्दी के लिए सहयोग करने वाले बहुत कम। 
प्रश्न : यहां आकर एक हिन्दी शिक्षक के रूप में आपकी चुनौतियां क्या रहीं?
उत्तर : सवाल भाषा का नहीं है, भारतीयता का है। हम कोई भी भाषा बोले, हम रहेंगे तो भारतीय ही। दो तीन पीढ़ी के बाद यहां बसे हुए लोगों में भारतीयता का प्रभाव कम हो जाता है। यह नहीं होना चाहिए। मुझे यही बहुत बड़ी चुनौाती लगती है। 
प्रश्न : आपका कोई निजी एजेंडा?
उत्तर : नहीं, मेरा कोई निजी एजेंडा नहीं है। दिली इच्छा है कि हिन्दी में भी सभी सुविधाएं ऑनलाइन उपलब्ध हो। युवा हिन्दी संस्थान और हिन्दी संगम जैसी संस्थाएं अपना कार्य विश्व स्तर पर पैâलाएं। हिन्दी शिक्षण के कार्य में गति आए। अमेरिका की सरकार हिन्दी को हैरिटेज लेंग्वेज मानती है। सरकारी प्रयासों से ही यहां विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। जिसे अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है। भारतीय मूल के छात्र तो हिन्दी सिख ही रहे है। गैर भारतीय लोग भी हिन्दी के प्रति आकर्षित है। भारत के साथ बढ़ती नजदीकी के साथ-साथ हिन्दी का आभामंडल भी और बढ़ेगा। 
प्रश्न : आप इस आयोजन में नेताओं को, सेलेब्रिटीज को क्यों नहीं बुलाते? इससे आयोजन को लाभ हो सकता है।
उत्तर : नेताओं को बुलाएंगे तो विषय बदल जाएगा। अभी हमें जो लोग सहयोग देते है वे वास्तव में हिन्दी के लिए कार्य करना चाहते है। भारतीय विद्या भवन हमें बहुत सहयोग दे रहा है। भारतीयता का और हिन्दी का काम बहुत अच्छे से कर रहे है। यहां स्थित भारतीय प्रदूतावास के अधिकारी, खास तौर पर श्री ध्यानेश्वर मुले की प्रेरणा से हमारे दोनों आयोजन हो पाए। पिछले साल हमने न्यू यॉर्वâ विश्वविद्यालय के सहयोग से आयोजन किया था। अब रटगर्स विश्वविद्यालय आगे भी इस आयोजन में सहभागी बनना चाहता है। यह खुशी की बात है।

न्यू जर्सी में अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन पर एक रिपोर्ट

न्यू जर्सी में हुए अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में न्यू जर्सी क्षेत्र में हिन्दी के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय केन्द्र की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। इसका उद्देश्य होगा हिन्दी के साथ-साथ सांस्कृतिक और शैक्षणिक गतिविधियों को बढ़ावा देना। इस केन्द्र की स्थापना के लिए न्यू यॉर्वâ स्थित भारतीय काउंसल जनरल श्री ध्यानेश्वर मूले ने पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया। अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के आयोजक और हिन्दी संगम फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी श्री अशोक ओझा के अनुसार यह केन्द्र हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए कार्य करेगा। श्री मूले ने आशा व्यक्त की कि यह केन्द्र हिन्दी सिखने वालों के लिए काफी मददगार होगा और दुनियाभर के हिन्दी केन्द्रों और विश्वविद्यालयों से मिलकर हिन्दी के विकास के लिए कार्य करेगा।

अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर हिन्दी संगम फाउंडेशन के डॉक्टर वेद चौधरी ने इस अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी केन्द्र की स्थापना की रूपरेखा रखी। श्री चौधरी के अनुसार यह केन्द्र न्यू जर्सी के आसपास होना चाहिए। जहां रटगर्स विश्वविद्यालय भी है। इस पर करीब ४० लाख डॉलर (करीब २५ करोड़) लागत आने का अनुमान है। 
न्यू जर्सी में अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का आयोजन रटगर्स विश्वविद्यालय, हिन्दी संगम फाउंडेशन, टीवी एशिया, भारतीय विद्या भवन, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया आदि के सहयोग से किया गया। इस आयोजन का ध्येय था हिन्दी के विकास के लिए संभावनाओं और चुनौतियों पर चर्चा। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न चर्चा सत्र रखे गए थे। जिनमें २५० से अधिक शिक्षाविद, हिन्दीेसेवी, सामाजिक कार्यकर्ता और भाषाविद शामिल हुए। सम्मेलन में शामिल होने वाले अनेक विद्वान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर चुके है। 
रटगर्स विश्वविद्यालय परिसर में सम्पन्न हुए इस आयोजन में विद्यार्थियों ने भी प्रमुख भूमिका निभाई। आयोजन के दौरान हिन्दी के अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों ने अपने विचार व्यक्त किए और हिन्दी की महत्ता को प्रतिपादित किया। विद्यार्थियों ने हिन्दी में कविता, कहानी और नृत्य तथा नाट्य प्रस्तुतियां भी दी और हिन्दी के प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन किया। इस बात पर भी चर्चा हुई कि हिन्दी में तकनीकी, वैज्ञानिक और उच्च शिक्षा को बढ़ावा वैâसे दिया जाए। इसी के साथ उद्योग वाणिज्य व्यवसाय के उद्यमों, साहित्य आदि के क्षेत्र में भी किस तरह हिन्दी को आगे लाने का प्रयास किया जाए। आयोजन में भारत सरकार और दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ टेव्नâोलॉजी, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों ने भी हिस्सा लिया। हिन्दी के विकास को लेकर कोई भी विषय अछूता नहीं रहा। आयोजन की संरचना ही इस तरह की गई थी कि उसमें कोई भी कमी ना रहे। इसी के साथ आयोजन के अंत में प्रस्ताव पारित करके अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी केन्द्र की स्थापना का समर्थन इस आयोजन की सार्थकता साबित करता है। पूरे आयोजन का वेब प्रसारण भी किया गया। जिसे दुनियाभर के हजारों हिन्दी प्रेमी लोगों ने देखा। 
चर्चाओं के सत्र की शुरुआत हिन्दी का उपयोग उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ाने के बारे में मंथन के साथ हुई। इसके बाद व्यवसायिक प्रयोग क्षेत्रों में भाषा के संतुलन को बनाने पर गहन चिंतन-मनन हुआ। दुनियाभर के देशों में हिन्दी का शिक्षण और प्रशिक्षण वैâसे हो इस पर भी चर्चा हुई। हिन्दी शिक्षण के आयाम और उसकी रूपरेखा पर अनेक वक्ताओं ने प्रकाश डाला। 
‘टेव्नâोलॉजी और हिन्दी’ चर्चा सत्र की शुरुआत प्रकाश हिन्दुस्तानी ने हिन्दी इंटरनेट की भाषा विषय से शुरू की। दिल्ली विश्वविद्यालय की डॉ. हर्षबाला शर्मा ने हिन्दी शिक्षण की तकनीक पर चर्चा की और तेजू प्रसाद ने हिन्दी के अध्ययन और अध्यापन के ऐप्स के बारे में जानकारी दी। इस सत्र का संचालन अनुप भार्गव ने किया, जिनपर हिन्दी कविता को ऑनलाइन प्रस्तुत करने का श्रेय जाता है। इसी के साथ उच्च शिक्षा में हिन्दी पर चर्चा हुई, जिसमें विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों के शिक्षाविदों ने अपने विचार रखें। हिन्दी के समकालिन साहित्य पर भी चर्चा हुई, जिसमें अनेक भारतीय और प्रवासी भारतीय साहित्यकार शामिल थे। रटगर्स विश्वविद्यालय के हिन्दी के छात्रों ने ‘हम हिन्दी क्यों सिख रहे है’ विषय पर चर्चा की। हिन्दी में अनुवाद और हिन्दी लेखन के अंग्रेजी अनुवाद पर भी एक पूरा सत्र हुआ और विश्वविद्यालयों ने हिन्दी शिक्षण के प्रबंधन को लेकर भी खुलकर चर्चा हुई। हिन्दी सिखने के नए-नए तरीकों पर वक्ताओं ने प्रकाश डाला। समापन सत्र में हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए हिन्दी केन्द्र की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। जिसे सर्व सम्मति से पारित किया गया।

अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में प्रकाश हिन्दुस्तानी का वक्तव्य एवं प्रस्तुति





















आज जिस भाषा को हम हिन्दी कहते है। वह आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप है। आर्यों की प्राचीनतम भाषा वैदिक संस्कृत रही है, जो साहित्य की भाषा थी। वेद, संहिता और उपनिषदों व वेदांत का सृजन वैदिक भाषा में हुआ था। इसे संस्कृत भी कहा जाता है। अनुमान है कि ईसा पूर्व आठवीं सदी में संस्कृत का प्रयोग होता था। संस्कृत में ही रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ रचे गए। संस्कृत का साहित्य विश्व का सबसे समृद्ध साहित्य माना जाता है, जिसमें वाल्मीकि, व्यास, कालीदास, माघ, भवभूती, विशाख, मम्मट, दण्डी, अश्वघोष और श्री हर्ष जैसी महान विभूतियों ने योगदान दिया।
 संस्कृत की भाषा धीरे-धीरे बदलती चली गई और कालांतर में इसे पाली कहा गया। महात्मा बुद्ध के समय में लोकभाषा पाली ही थी। महात्मा बुद्ध के उपदेश पाली में ही प्रचारित-प्रसारित किए गए। यहीं पाली आगे जाकर प्राकृत भाषा हुई। आगे जाकर यहीं प्राकृत भाषा अलग-अलग रूप में अपभ्रंश के रूप में प्रतिष्ठित हुई। माना जाता है कि 500 से 1000 ईसवी तक ये भाषाएं अपना रूप बदलती रही। माना जाता है कि करीब 1000 साल पहले आधुनिक आर्य भाषाओं के अपभ्रंश से ही हिन्दी का जन्म हुआ। यह भी माना जाता है कि हिन्दी साहित्य की रचना का काम 1150 ईसवी के आसपास आरंभ हुआ।
हम जिसे हिन्दी कहते है वो फारसी भाषा का शब्द है। जिसका अर्थ है हिन्द से संबंधित। हिन्दी शब्द बना है सिंधु-सिंध से। ईरानी भाषा में स का उपचारण ह किया जाता था। वास्तव में सिंधु शब्द का प्रतिरूप हिन्दु हुआ और हिन्द की भाषा हिन्दवी या हिन्दी बनी।
इस हिन्दी में तमाम भाषाओं के शब्द आते गए और नदी के प्रवाह की तरह हिन्दी भी प्रवाह मान रही। क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द भी है, अंग्रेजी के शब्द भी आए, अरबी-फारसी के शब्द भी आए और हिन्दी में उन सभी को अंगीकार कर लिया। हिन्दी की अनेक बोलियाँ (उपभाषाएँ) हैं। इनमें से कुछ में अत्यंत उच्च श्रेणी के साहित्य की रचना भी हुई है। ऐसी बोलियों में ब्रजभाषा और अवधी प्रमुख हैं। ये बोलियाँ हिन्दी की विविधता हैं और उसकी शक्ति भी। वे हिन्दी की जड़ों को गहरा बनाती हैं। हिन्दी की बोलियाँ और उन बोलियों की उपबोलियाँ हैं जो न केवल अपने में एक बड़ी परंपरा, इतिहास, सभ्यता को समेटे हुए हैं वरन स्वतंत्रता संग्राम, जनसंघर्ष, वर्तमान के बाजारवाद के खिलाफ भी उसका रचना संसार सचेत है।[4]
हिन्दी की बोलियों में प्रमुख हैं- अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, झारखंडी, कुमाउँनी, मगही आदि। किन्तु हिंदी के मुख्य दो भेद हैं - पश्चिमी हिंदी तथा पूर्वी हिंदी। इन भाषाओं के शब्द और मुहावरे हिन्दी में आए और लोगों ने उन मुहावरों को अपना लिया। हिन्दी में मिलकर ये मुहावरे भी हिन्दी के हो गए। इसीलिए हिन्दी का स्वरूप अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न मिलता है। उत्तरप्रदेश में हिन्दी के जैसे मुहावरे प्रचलित है वैसे मुहावरे राजस्थान में कम चलन में है। राजस्थान में जैसे शब्द आम तौर पर उपयोग में लाए जाते है वैसे शब्द हिमाचल प्रदेश में नहीं लाए है। यहीं विविधता हिन्दी की शक्ति भी है और कमजोरी भी। विशाल भारत देश में ही जब हिन्दी के इतने स्वरूप प्रचलित है, तब अनिवासी भारतीयों में उसका स्वरूप अलग होना स्वाभाविक ही है। अनिवासी भारतीयों ने हिन्दी मेंं अंग्रेजी के साथ-साथ प्रेंâच, स्पेनिश, जर्मन, पोर्तुगीस आदि भाषाओं के शब्द भी अपनी सुविधा से समाविष्ट कर लिए है। इन सब कारणों से हिन्दी एक ऐसी भाषा बन गई जिसका विशाल शब्द संसार यह भाषा अनेक बोलियों और उप बोलियों की कहावतों और मुहावरों से संपन्न है।
हिन्दी शब्दावली में मुख्य रूप से दो वर्ग हैं-
तत्सम शब्द- ये वो शब्द हैं जिनको संस्कृत से जस का तस अपना लिया गया है जैसे अग्नि, दुग्ध दन्त, मुख।
तद्भव शब्द- ये वो शब्द हैं जिनका जन्म संस्कृत या प्राकृत में हुआ था, लेकिन उनमें काफ़ी ऐतिहासिक बदलाव आया है। जैसे— आग, दूध, दाँत, मुँह।
इसके अतिरिक्त हिन्दी में कुछ देशज शब्द भी हैं। देशज यानी - 'जो देश में ही उपजा या बना हो'। जो न तो विदेशी हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना है। ऐसा शब्द जो न संस्कृत हो, न संस्कृत का अपभ्रंश हो और न किसी दूसरी भाषा के शब्द से बना हो, बल्कि किसी प्रदेश के लोगों ने बोल-चाल में जों ही बना लिया हो। जैसे- खटिया, लुटिया। इसके अलावा हिन्दी में कई शब्द अरबी, फ़ारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी आदि से भी आये हैं। इन्हें विदेशी शब्द कह सकते हैं।
जिस हिन्दी में अरबी, फ़ारसी और अंग्रेज़ी के शब्द लगभग पूरी तरह से हटा कर तत्सम शब्दों को ही प्रयोग में लाया जाता है, उसे "शुद्ध हिन्दी" कहते हैं।
हिन्दी में इंटरनेट के प्रादुर्भाव के साथ ही हिन्दी के मानकीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा। देवनागरी लिपि के कारण इसमें कुछ बाधाएं थीं तो कुछ सुविधाएँ भी . इसमें फॉण्ट की समस्या प्रमुख थी.
रघु नामक युनिकोड फॉण्ट प्रो.रघुनाथ कृष्ण ने विण्डोज के लिए तैयार किए.हरिराम पंसारी(इण्डिक कंप्युटिग),अभिषेक और डॉ.श्वेता चौधरी(हिंदवी सिस्टम),अलोका कुमार(देवनागरी नेट),कुलप्रीत सिंह(शून्य इन),रवि रतमाली(लिनक्स)विनाय जैन(हाइट्रॉस)ऐसे अनेक नाम है.जिनके कारण हिंदी भाषा का संगणकीय प्रणाली में विकास हुआ. ऐसे अनेक ब्लॉग है,सिस्टमस हैं,सॉफ्ट्वेअरर्स हैं जो आज मानक हिंदी वर्तनी का संगणकीय प्रणाली में प्रयोग कर रहें है. “विंडीक यह एक सॉफ्टवेयर प्रोग्राम है, जो प्रयोग में बेहद आसान है.इस में अंग्रेजी के अलावा हिंदी,तमिल,गुजराती और मराठी में काम किया जा सकता है.यह बहुभाषी स्प्रेड्सीट अनुप्रयोग है,जिसमें आप भारतीय भाषाओं में व्यावसायिक आंकडों को व्यवस्थित कर सकते है, व्यावसायिक उपयोग के दस्तावेज भारतीय भाषाओं में बना सकते है. ”6 कहना आवश्यक नहीं कि कंप्युटिग हिंदी में अनेक सुविधाएँ उपलब्ध होने के कारण हिंदी की संगणकीय प्रणाली में लोकप्रियता तथा संभावनाएँ बढ रही है.माइक्रोसॉफ्टऑफिस हिंदी में जारी करने के कारण मानक हिंदी वर्तनी का विकास संगणकीय प्रणाली में और अधिक गतिशील बना.
वर्तमान में हिंदी का मानका रूप ही संगणक प्रणाली में दृष्टिगोचार होता है.डॉस, इस्की,इनस्र्किप्ट कुंजीपटल के साथ - साथ युनिकोड, संपूर्ण भारतीय भाषी साफ्टवेयर,लीप ऑफिस2000,डायनैमिक फॉन्ट,हिंदी लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम,विण्डोज की एक्स.पी. ,विस्ता संस्कारण,श्रुतलेखन सॉफ्टवेयर,गुगल ने तो अनेक सुविधाएँ हिंदी में उपलब्ध करायी.वर्तमानकालीन संगणकीय हिंदी भाषा का अध्ययन करने से पता चलता है कि इसमें अनेक त्रुटियॉं है लेकिन मानक हिंदी वर्तनी का प्रयोग दिन- ब- दिन सही तरीके से हो रहा है.इसे मानना होगा. हिंदी की संगणकीय प्रणाली में लोकप्रियता तथा संभावनाएँ बढ रही है.माइक्रोसॉफ्टऑफिस हिंदी में जारी करने के कारण मानक हिंदी वर्तनी का विकास संगणकीय प्रणाली में और अधिक गतिशील बना.वैश्वीकरण के इस दौर में हिंदी भाषा ‘बाजार’से अछूती नहीं रही है.बाजारवाद के इस दौर में हिंदी अपना अलग वैश्वीकमंच तैयार कर आने वाले दशक में मानक हिंदी वर्तनी का विकसनशील संगणकीय परिदृश्य संपूर्णतः विकसित होगा. इस में दो राय नहीं.
न्दी कम्प्यूटरी, हिन्दी टाइपिंग, कम्प्यूटर और हिन्दी, हिन्दी कम्प्यूटिंग का इतिहास, मोबाइल फोन में हिन्दी समर्थन और अन्तरजाल पर हिन्दी के उपकरण (सॉफ्टवेयर)
कम्प्यूटर और इन्टरनेट ने पिछ्ले वर्षों मे विश्व मे सूचना क्रांति ला दी है। आज कोई भी भाषा कम्प्यूटर (तथा कम्प्यूटर सदृश अन्य उपकरणों) से दूर रहकर लोगों से जुड़ी नही रह सकती। कम्प्यूटर के विकास के आरम्भिक काल में अंग्रेजी को छोडकर विश्व की अन्य भाषाओं के कम्प्यूटर पर प्रयोग की दिशा में बहुत कम ध्यान दिया गया जिससे कारण सामान्य लोगों में यह गलत धारणा फैल गयी कि कम्प्यूटर अंग्रेजी के सिवा किसी दूसरी भाषा (लिपि) में काम ही नही कर सकता। किन्तु यूनिकोड (Unicode) के पदार्पण के बाद स्थिति बहुत तेजी से बदल गयी।
इस समय हिन्दी में सजाल (websites), चिट्ठे (Blogs), विपत्र (email), गपशप (chat), खोज (web-search), सरल मोबाइल सन्देश (SMS) तथा अन्य हिन्दी सामग्री उपलब्ध हैं। इस समयअन्तरजाल पर हिन्दी में संगणन के संसाधनों की भी भरमार है और नित नये कम्प्यूटिंग उपकरण आते जा रहे हैं। लोगों मे इनके बारे में जानकारी देकर जागरूकता पैदा करने की जरूरत है ताकि अधिकाधिक लोग कम्प्यूटर पर हिन्दी का प्रयोग करते हुए अपना, हिन्दी का और पूरे हिन्दी समाज का विकास करें।
देवनागरी लिपि आधारित अन्य भारतीय भाषाओं जैसे कि बोडो, डोगरी, कोंकणी, मैथिली, मराठी, नेपाली और सिंधी आदि के साथ भी यही बात थी। । मानक हिंदी से संबंधित ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनके उत्तर किसी पुस्तक में नहीं मिल सकते हैं। भाषा गतिशील होती है और बदलती सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों के साथ भाषा का स्वरूप भी बदलता रहता है। अनुवादकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे भाषा के मानक रूप का प्रयोग करें, मगर ऐसा करना हमेशा आसान नहीं होता है। दिक्कत तो तब आती है जब एक शब्द के अनेक रूप प्रचलित होते हैं और हमारे लिए उस शब्द का "मानक" रूप चुनना लगभग असंभव हो जाता है। कई बार व्याकरण और विरामादि चिह्नों के प्रयोग को लेकर भी मतैक्य नहीं हो पाता है। इंटरनेट के विकास के साथ ही इसके व्यावसायिक पक्ष पर जोर दिया जाने लगा। जब व्यावसायिक पक्ष प्रमुख हो गए तब यह जरूरी हो गया था कि उससे अधिक से अधिक मुनाफा कमाया जाए। इसलिए इंटरनेट का विस्तार विकसित देशों में ज्यादा तेजी से किया गया। इंटरनेट की सारी खोजें, सभी तकनीकी विकास उन देशों की ओर प्रवृत्त हो गए जो पहले से ही विकसित थे।
आज अंग्रेजी भाषा के 58.4 प्रतिशत लोगों तक इंटरनेट की पहुंच है, जबकि हिन्दी में यह संख्या बहुत ही कम है। यह संख्या इतनी कम है कि अंग्रेजी और चीनी भाषा के बाद तीसरी सबसे बड़ी भाषा होते हुए भी हिन्दी इंटरनेट की 10 प्रमुख भाषाओं में शामिल नहीं है।
भारत में विकास के बढ़ते कदम और हिन्दी भाषी समाज की सक्षम आर्थिक स्थिति के आगे इंटरनेट प्रदाताओं को यह लगने लगा कि अगर विशाल हिन्दी भाषी समाज इंटरनेट को अपनाएगा, तो उनका कारोबार और तेजी से बढ़ेगा। देवनागरी लिपि आधारित अन्य भारतीय भाषाओं जैसे कि बोडो, डोगरी, कोंकणी, मैथिली, मराठी, नेपाली और सिंधी आदि में भी इस डोमेन का उपयोग किया जा सकता है।गूगल के अनुसार भारत में अंग्रेजी भाषा समझने वालों की संख्या करीब २० करोड़ है और इनमें से ज्यादातर लोग इंटरनेट से जुड़ चुके है। लगभग 16 प्रतिशत अंग्रेजी के जानकार होने के बावजूद भी इंटरनेट पर मौजूद 55.8 प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में है। अनुमान है कि पूरी दुनिया में 21 प्रतिशत लोग ही हिन्दी समझ सकते है। इंटरनेट प्रदाताओं को लगता है कि इस भाषाई समस्या के कारण उनका कारोबार थम सा गया है। यह हालात तब है जब अंग्रेजी को अपनी प्रथम भाषा मानने वाले लोग केवल पांच प्रतिशत है।
इंटरनेट पर हिन्दी को महत्वूर्ण स्थान देने की कोशिश इसलिए जरूरी है कि इसके बिना इंटरनेट प्रदाताओं को कारोबार और फल पूâल नहीं सकता, लेकिन उनके सामने समस्या है हिन्दी के ही मानकीकरण की। तकनीकी चुनौतियां अपने सामने है, साथ ही भाषा के मानकीकरण की चुनौती भी मुंह बाये खड़ी है, क्योंकि जैसी भाषा लोग जोधपुर में बोलते है, वैसी भाषा मुजफ्फरपुर में नहीं बोलते। जिन शब्दों और मुहावरों का इस्तेमाल इंदौर में होता है जरूरी नहीं कि वैसे ही मुहावरें नागपुर में प्रचलित हो। इंटरनेट को हिन्दी के क्षेत्रों में लोकप्रिय बनाने के लिए मानकीकरण की जो कोशिश की जा रही है। उसमे हिन्दी की विविधता में और स्थानीय स्वरूप को पीछे छोड़ दिया गया है और एक ऐसी भाषा गढ़ने की कोशिश की जा रही है जो सभी के लिए सहज और सरल हो। जिसे कोई अनिवासी भारतीय भी आसानी से पढ़ और समझ सवेंâ। इस भाषा में शब्दों का लालित्य और भाषा की रवानी से ज्यादा महत्वपूर्ण है उसकी संप्रेषण की क्षमता। क्योंकि इंटरनेट की हिन्दी वैश्विक हिन्दी है। अगर हिन्दी के क्लिष्ट शब्द आए तो उन शब्दों को किसी भी दूसरी भाषा में लिखने में कोई संकोच नहीं किया जाए। भारत में ही 40 करोड़ से ज्यादा ऐसे लोग है जो अंग्रेजी के बजाय हिन्दी आसानी से समझते है और उससे अपनत्व भी रखते है। इन 40 करोड़ लोगों के बीच इंटरनेट को लोकप्रिय बनाने का सबसे अच्छा तरीका उनकी पसंद विषय वस्तु उनकी भाषा में उपलब्ध कराना। पिछले चार वर्षों में भारत के जीडीपी में इंटरनेट का योगदान तीस अरब डॉलर से बढ़कर 100 अरब डॉलर हो गया है। आगामी तीन वर्षों में भारत में दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट के उपभोक्ता होंगे और वे हिन्दी या दूसरी भारतीय भाषाओं का उपयोग करेंगे। हिन्दी में सर्च इंजन बनाने की कोशिशें भी की गई, लेकिन उनके लिए जितना बड़ा निवेश जरूरी था, वह नहीं किया गया। हिन्दी के इन सर्च इंजन में भारत की स्थानीयता को ध्यान में रखा गया। अब जो तकनीके उपयोग मेंं लाई जा रही है। उसके अनुसार इंटरनेट का उपयोग करने के लिए किसी भी भाषा को जानने की अनिवार्यता नहीं रहेगी। गूगल की स्पीच रेकग्निशन तकनीक पर आधारित वाइस सर्च शुरू हो गई है और यह आशा है कि इस तकनीक के बाद वे लोग भी इंटरनेट को अपनाएंगे जो अंग्रेजी नहीं जानते।
इंटरनेट का कारोबार करने वालों के लिए हिन्दी एक बाजार मात्र है। उन्हें हिन्दी के मानकीयकरण या मौलिकता से कोई मतलब नहीं है। हिन्दी की शुद्धता और अशुद्धता भी उनके लिए अर्र्थहीन है। हिन्दी उनके लिए एक बाजार है। इसीलिए गूगल ने हिन्दी वेब.कॉम नाम की सेवा शुरू की है, जिसका उद्देश्य है हिन्दी में उपलब्ध सम्पूर्ण सामग्री को एक ही स्थान पर ले आना। लक्ष्य है कि 2017 तक तीस करोड़ लोगों को इंटरनेट से जोड़ना। चाहे वे स्मार्ट फोन से जुड़े या टेबलाइट के माध्यम से। इंटरनेट से हिन्दी का मानकीकरण थोड़ा ही सही है, पर कुछ तो हुआ। हिन्दी के मानकीकरण के साथ ही हिन्दी की मौलिकता और विविधता बनी रहे और उसका विस्तार हो, इसके लिए हिन्दी के विद्यार्थियों शिक्षकों और कार्यकर्ताओं को ही कार्य करना होगा, अगर वे इंटरनेट पर सही हिन्दी को महत्व देंगे तभी हिन्दी सही स्वरूप में आगे बढ़ेगी अन्यथा हिन्दी लोकप्रिय भले ही हो जाए इंटरनेट के उपभोक्ताओं की पसंद में महत्वपूर्ण स्थान पा लें अपना मूल रूप नहीं बचा पाएगी।
कॉपीराइट © 2015 प्रकाश हिन्दुस्तानी

भारतीय नहीं, लेकिन हिन्दी की ताकत

न्यू जर्सी के अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में ऐसे अनेक हिन्दी सेवियों से संपर्क हुआ, जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है। इनमें से कोई बेल्जियम में जन्मा, तो कोई अमेरिका में। लेकिन हिन्दी के प्रति उनका अनुराग उल्लेखनीय महसूस हुआ। इन अनूठे हिन्दी सेवियों से मिलकर वास्तव में खुशी और गर्व का अहसास हुआ, क्योंकि इनमें से कई तो ऐसे थे जो न कभी भारत आए और न ही उनका पेशा हिन्दी से जुड़ा था।
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डॉ. क्रिस्टी मेरिल भारतीय दलित साहित्य की शोधकर्ता और अनुवादक हैं. उन्होंने प्रेमचंद और चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी 'के साहित्य का शाब्दिक और मर्म का अनुवाद किया हैं. वैसे तो वे मिशिगन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं लेकिन उनकी हिन्दी और भारतीय समाज के प्रति समझ हमारे ही कई प्राध्यापकों से बेहतर है.
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अशेर घर्टनेर हिन्दी के अध्येता हैं. जयपुर और दिल्ली में हिन्दी की पढाई कर चुके है. रटगर्स विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र के निदेशक, लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के स. प्राध्यापक रह चुके है. अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के आयोजन में खास सहयोगी रहे। आजकल पर्यावरण पर काम कर रहे हैं. दिल्ली की झोपड़पट्टी वालों के संघर्ष पर शोध कर चुके हैं और अब कुछ ही महीने में इनकी किताब प्रकाशित होनेवाली है.
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बेल्जियम मूल की डॉ. गेब्रिएला निक इलिएवा से मिलते ही दिल बाग़ बाग़ हो जाता है. वे वेदों में महिलाओं की स्थिति पर पीएच-डी कर चुकी हैं और हिन्दी के विद्यार्थी उनके दीवाने हैं. जादूगरनी जैसी हैं, न्यू यॉर्क विश्वविद्यालय में मध्य एशिया और इस्लाम विषयक अध्ययन के विभाग में हिन्दी और उर्दू कार्यक्रमों की संयोजिका है. शानदार हिन्दी बोलती हैं और गज़ब के उत्साह से हमेशा सराबोर रहती हैं.
g5रटगर्स विश्वविद्यालय की एसोसियेट डीन डॉ. मैरी करन का कहना था कि हम अंग्रेजी माध्यम से हिन्दी पढ़ाते हैं. हिन्दी की पढ़ाई एक निश्चित फ्रेमवर्क में ही करनी होती है. कक्षाओं का प्रबंधन, योजनाएं और शिक्षकों का प्रशिक्षण हमारी प्राथमिकताओं में है.
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ये सज्जन हैं ब्रैडली रुबिन्टन. 100 डॉलर खर्च करके हिन्दी पर हो रही चर्चा सुनने वास्ते पंजीकरण करानेवाले ये सज्जन न्यू यॉर्क क्षेत्र के 6 हवाई अड्डों के प्रभारी अधिकारी हैं.
उन्होंने न्यू यॉर्क बुलाया है!

हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी को प्रभावी बनाने की चर्चा

न्यू  जर्सी। तीन दिन के अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का आगाज़ हिन्दी को लोकप्रिय, व्यावहारिक और प्रभावी बनाने की चर्चा के साथ शुरू हुआ था और समापन न्यूजर्सी इलाके में लगभग 4 मिलियन डॉलर के एक हिन्दी केन्द्र की स्थापना के प्रस्ताव और संकल्प के साथ। इन तीन दिनों में हिन्दी के लगभग हर पहलू पर चर्चा हुई। हिन्दी के साथ ही उर्दू की स्वीकार्यता पर भी मंथन हुआ। भारत के न्यूयॉर्क स्थित काउंसल जनरल ज्ञानेश्वर मुले उद्घाटन और समापन सत्र में मौजूद रहे। (ये वही ज्ञानेश्वर मुले हैं जिन्होंने यूएन में भारतीय प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के पहले हिन्दी भाषण का लेखन किया था)


वेबदुनिया द्वारा शुरू की गई पहल की जब भी चर्चा हुई, तालियों से उसका अभिनंदन किया गया। रटगर्स, कोलंबिया, न्यूयॉर्क, पेंसिल्वेनिया और वाशिंगटन विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों और अनेक हिन्दी शिक्षकों ने बताया कि वे हिन्दी के विद्यार्थियों को वेबदुनिया पोर्टल पढ़ने की सलाह देते हैं और वेबदुनिया के माध्यम से आसानी से हिन्दी पढ़ाते समझाते हैं।
सम्मेलन में भारत में हिन्दी की स्थिति पर भी चर्चा हुई और दुनिया के अन्य देशों में हिन्दी के उपयोग पर भी। मॉरीशस में हिन्दी की जगह अंग्रेजी और फ्रेंच को बढ़ावा देने की नीति का विरोध हुआ और यूएसए में हिन्दी को बढ़ावा और बजट देने की सराहना की गई। फिजी, सेशेल्स, गुयाना में हिन्दी में हो रहे अध्ययन-अध्यापन की भी चर्चा हुई।

सम्मेलन में हिन्दी का व्यवहार बढ़ाने पर चर्चा हुई। हिन्दी का शिक्षण कैसे बढ़े, हिन्दी का उपयोग कारोबार, प्रशासन, मनोरंजन, साहित्य आदि में कैसे बढ़े, इस पर 15 से ज़्यादा सत्रों में विषयवार चर्चा हुई। हिन्दी के बढ़ते संसार की चुनौतियों का मुकाबला करने और संभावनाओं की तलाश करने के क्रम में विचारकों ने सूक्ष्म से सूक्ष्मतम बिंदुओं तक को छुआ। विदेश में रह रहे भारतीय कैसे अपने बच्चों को और अच्छी हिन्दी के लिए प्रेरित करें, बैंकिंग, कारोबार, मनोरंजन में हिन्दी कैसे बढ़े और इन क्षेत्रों के विशेषज्ञों के अनुभव क्या रहे, यह चर्चा के सत्र रहे। अनुवाद के सत्र में साहित्य अनुवाद से लेकर गज़ट के अनुवाद और फिल्मों की डबिंग पर भी चर्चा हुई।


हिन्दी और तकनीक सत्र की शुरुआत इंटरनेट की हिन्दी विषय पर हुई जिसमें प्रकाश हिन्दुस्तानी ने अनुभव और शोध के निष्कर्ष बताते हुए हिन्दी के तथाकथित मानकीकरण के नाम पर हिंग्लिश का व्यवहार बढ़ाने की आलोचना की। हिन्दी के ऑनलाइन शिक्षण की सुविधाओं और प्रयोगों पर दिल्ली विश्वविद्यालय की डॉ. हर्षबाला शर्मा ने अनुभव बताए। हिन्दी सिखानेवाले ऐप पर तेजू प्रसाद ने प्रस्तुति दी और अपने बनाए ऐप का प्रदर्शन किया।
सम्मेलन में विदेशी मूल के विद्यार्थियों ने हिन्दी में अपने विचार रखे। उनमें से कई विद्यार्थी भारत की यात्रा हिन्दी सीखने के लिए भी कर चुके हैं। समापन शंकर शेष के नाटक रक्तबीज की नाट्य प्रस्तुति से हुआ, जिसे इंदौर की संस्था प्रयोग की यूएस इकाई के अमेय मेहता ने निर्देशित किया था।