Wednesday, December 24, 2014

pk हर पात्र चरित्रहीन, हर कैरेक्टर ढीला

.... लेकिन फिल्म चल पड़ी है मार्केटिंग के सहारे 

pk का हर पात्र चरित्रहीन !  हर कैरेक्टर ढीला  !!

एलियन  (आमिर) -- पहली लड़की देखी, फिदा हो गया; 
जग्गू (अनुष्का) -- एक लड़का मिला, सो गई; 
सरफ़राज़ (सुशांत सिंह) -- एक दिन फिदा, अगले दिन जुदा;
न्यूज़ चैनल  हेड (बोमन ईरानी )  -- फट्टू और बेअक्ल; 
तपस्वी महाराज(सौरभ शुक्ल) --  चोर-ढोंगी;
जग्गू का पिता( परीक्षित साहनी) -- धर्मांध भक्त;
फुलझड़िया (रीमा) -- वेश्या; 
ब्रुगेस का बुड्ढ़ा (राम सेठी) -- 4 डॉलर का चोट्टा, 
भैरोंसिंह (संजय दत्त) -- बेअक्ल.

गानों के नमूने : ''नंगा पुंगा दोस्त''; ''लव इज़  वेस्ट ऑफ टाइम'', ''टर्की छोकरो...''

हिन्दूवादी संगठन फिल्म पीके का जितना विरोध करेंगे उतनी ही उसकी दर्शक संख्या बढ़ेगी। पीके कोई बहुत महान फिल्म है ऐसी तो कोई बात नहीं, लेकिन सही मार्केटिंग के कारण पीके 4 दिन में ही 100 करोड़ के क्लब में पहुंच गई। भारत के लोग धर्मप्राण लोग है और उदार भी। 'जय संतोषी मां' जैसी छोटे से बजट की फिल्म भारत में सुुपर डुपर हिट हो जाती है और 'ओह मॉय गाड' जैसी फिल्म भी चल पड़ती है। ऐसे में 'पीके' का चलना कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। 

धर्म पर बनी फ़िल्में खूब चलती  हैं। धर्म के विरोध  में बनी फ़िल्में भी खूब चलती हैं। लगता है कि धर्म आस्था और विश्वास से ज्यादा मनोरंजन का विषय बन गया है। 

पीके की कामयाबी का सबसे बड़ा कारण उसकी मार्केटिंग रणनीति है। राजकुमार हिरानी, विधुविनोद चौपड़ा और आमिर खान, फिल्म की वितरक यूटीवी मोशन पिक्चर्स की रणनीति के कारण फिल्म को अच्छा बिजनेस मिलना ही था। पीके एक साथ करीब 4 हजार सिनेमाघरों में भारत में और 844 सिनेमाघरों में विदेश में रिलीज हुई। पीवीआर समूह के 80 प्रतिशत सिनेमाघर में पीके एक साथ प्रदर्शित हुई। ये 80 प्रतिशत सिनेमाघर सवा चार लाख सीटों की क्षमता रखते है। इसके अलावा सिनेपोलिस के 110 सिनेमाघरों में यह फिल्म प्रदर्शित की गई। जिसकी क्षमता करीब 100,000 से अधिक है। इस तरह प्रतिदिन के शो में 25,00,000 दर्शक देख सकते है। इसी के साथ यह फिल्म छोटे शहरों में और सिंगल स्क्रीन थिएटरों में भी प्रदर्शित की गई। 


भारत के अलावा यह फिल्म उन 40 देशों में भी प्रदर्शित हुई जहां भारतीय मूल के लोग रहते है। इन 844 सिनेमाघरों में लगने वाली पीके में 10 भाषाओं में सबटाइटल  भी दिए गए थे। मध्यपूर्व, उत्तरीय अमेरिका, ब्रिटेन और नीदरलैण्ड में यह किसी भी भारतीय फिल्म का सबसे बड़ा प्रदर्शन था। सूरीनाम में करीब 500,000 भारतीय मूल के लोग है, जो भोजपुरी बोलते है, उन्होंने इस फिल्म का अच्छा प्रतिसाद दिया। ब्रिटेन में यह फिल्म 198 सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई। ब्रिटेन में पहली बार किसी हिन्दी फिल्म के लिए 3 हफ्ते पहले से एडवांस बुकिंग  शुरू की गई थी। उत्तर अमेरिका में 75 स्थानों के 300 सिनेमाघरों में प्रदर्शित की गई। यहां तक की पाकिस्तान में भी यह फिल्म हिन्दी और अंग्रेजी में 70 सिनेमाघरों में प्रदर्शित की गई। पाकिस्तान में इस फिल्म के शो सुबह 9 बजे से अगले दिन सुबह 5 बजे तक लगातार दिखाए जाते रहे। इस फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत ने पाकिस्तानी प्रेमी युवक का रोल किया है। इसके अलावा आस्ट्रेलिया में 35 सिनेमाघरों में यह फिल्म प्रदर्शित हुई। इस बात का ध्यान रखा गया कि उन्हीं सिनेमाघरों में फिल्म लगे जहां 1000 सीटों से अधिक सीटें उपलब्ध हो। सिंगापुुर जैसे छोटे से देश में पीके 19 सिनेमाघरों में एक साथ रीलिज हुई। सिंगापुर के सबसे बड़े सिनेमाघर शृंखला ‘जीवी’ में पीके दिखाई जा रही है. 



पीके के प्रदर्शन की तैयारी महीनों पहले ही की जा चुकी थी। दिसंबर के महीने में तीसरा हफ्ता चुनने का कारण विद्यार्थियों की छुट्टियों का रहा। फिल्म के प्रचार में भी नए नए तरीके आजमाए गए। 31 जुलाई 2014 को,  फिल्म के रिलीज होने के साढ़े पांच महीने पहले ही आमिर खान का विवादास्पद पोस्टर बाजार में लाया गया। इसे बड़े अखबारों में पूरे पृष्ठ के विज्ञापन के रूप में प्रकाशित किया गया। आमिर खान को जिस ट्रांजिस्टर के साथ दिखाया गया उसकी नीलामी की भी खबरें प्रचारित की गई और यह कहा गया कि उसे डेढ़ करोड़ रुपए में खरीदने की बोली लग चुकी है। उसके बाद आमिर खान के नए-नए पोस्टर बाजार में आए, जिनमें उन्हें कभी बैंड वाले की पोशाक में तो कभी परंपरागत राजिस्थानी पोशाक में दिखाया गया। फिल्म बनी तो उसके सेटेलाइट अधिकार ही 85 करोड़ रुपए में बिक गए। फिल्म का संगीत 15 करोड़ में बिक गया। इस तरह 100 करोड़ रुपए तो फिल्म रिलीज होने के वक्त ही कमा लिए गए थे। 

कई लोगों का मानना है कि इसी विषय पर बनी ओह मॉय गाड (ओएमजी)  इससे बेहतर फिल्म थी। पीके में भले ही दिलचस्प विषय उठाया गया हो, यह बात तय है कि ऐसी फिल्म केवल भारत में ही बन सकती है और हिन्दू देवताओं के बारे में ही बन सकती है। इस फिल्म में कॉमेडी का तड़का इतना ज्यादा हो गया कि कॉमेडी के चक्कर में गंभीर मुद्दा गौण हो गया। फिल्म को देखकर निकले एक दर्शक ने कहा कि यह ऐसी फिल्म है जिसके किसी भी पात्र का कोई वैâरेक्टर नहीं है। यह फिल्म चरित्रहीन पात्रों को लेकर बनाई गई है। इस फिल्म में एलियन (आमिर) है, जो पहली लड़की को देखते ही फिदा हो जाता है। हीरोइन जग्गू (जगत जननी- अनुष्का शर्मा) है। जो किसी नौजवान लड़के से मिलती है और पहले ही दिन बिस्तर पर चली जाती है। सरफराज (सुशांत सिंह) ऐसे बंदा है जो एक दिन फिदा होता है और अगले ही दिन जुदा। चैनल का न्यूज हेड (बोमन ईरानी) डरपोक और बेअक्ल आदमी है। तपस्वी महाराज (सौरभ शुक्ला) एक चोर और ढोंगी है। जग्गू का पिता (परीक्षित सहानी) धर्मांध भक्त है।फुलझड़िया (रीमा) वैश्या है। बुलगारिया के बुग्रेस का बुड्ढा (राम सेठी) ४ डॉलर का चोट्टा है। भैरव सिंह (संजय दत्त) मूर्ख और लंपट व्यक्ति है। फिल्म के गानों की लाइनें भी यह बताती है कि हिन्दी फिल्मों के गीतों से भावनाएं और प्रेम के इजहार की बातें गायब है। एक गाने को बोल है नंगा-पुंगा दोस्त, दूसरा है ठरकी छोकरो और तीसरा है लव इज वेस्ट ऑफ टाइम...।

PK फिल्म का हर पात्र चरित्रहीन है! हर कैरेक्टर ढीला !!
--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
24 दिसंबर 2014 





मदन मोहन मालवीय को भारत-रत्न देने का अर्थ !


                                                                                       
        

    मालवीय जी बीएचयू के संस्थापक न होते तो भी क्या उन्हें भारत-रत्न मिलता? कल 25 दिसंबर को मालवीय जी के जन्मदिन के मौके पर बीएचयू में एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मालवीय जी को भारत रत्न की घोषणा करनेवाले थे, लेकिन एक दिन पहले ही राष्ट्रपति जी के एक ट्विट ने मालवीय जी और अटल बिहारी वाजपेयी को भारत-रत्न की सूचना देकर इस मामले में नया मोड़ दे दिया.
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--मदन मोहन मालवीय ने स्काउट के क्षेत्र में भी कार्य किया और स्काउट से ही प्रेरित होकर उन्होंने सेवा समिति नाम की संस्थाएं बनाई। 

--मदन मोहन मालवीय के पूर्वज मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्र से इलाहाबाद आए थे। इसीलिए उन्हें मालवीय कहा गया। 

--बीएचयू की स्थापना में उन्होंने ७ साल तक कठोर मेहनत की। 

--इंदौर के श्री गौड़ विद्या मंदिर की स्थापना में उनकी प्रमुख भूमिका थी।
--'सत्यमेव जयते' उनका बोधवाक्य था. 

--बीएचयू भारत का ऐसा विश्वविद्यालय है जिसका क्षेत्रफल दो हिस्सों में करीब 4000 एकड़ का है। इस विश्वविद्यालय की अपनी हवाई पट्टी भी है। 

--बनारस के घाट से गंगा नदी का पानी नहर द्वारा विश्वविद्यालय परिसर तक लाया गया. 


पं. मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न देने की घोषणा सुखद है। उन्होंने शिक्षा, पत्रकारिता, वकालत, स्वाधीनता संग्राम जैसे क्षेत्रों में इतना महत्वपूर्ण कार्य किया है कि अगर उन्हें हरेक क्षेत्र के लिए अलग-अलग भारत रत्न भी दिया जाए, तो कम होगा; पर भारत रत्न एक ही बार दिया जा सकता है। देर से ही सही पंडित मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न देने से भारत रत्न सम्मान की ही गरिमा बढ़ेगी। 

1909 और 1918 में पं. मदन मोहन मालवीय अखिल भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके है। इसलिए कोई यह भी नहीं कह पाएगा कि उन्हें भारत रत्न देने का पैâसला भाजपा की सरकार का दलगत फैसला है। वाराणसी के बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करने में उनका प्रमुख योगदान रहा है। गंगा की सेवा में भी उन्होंने उस दौर में अभियान चलाए है जब कोई गंगा की बात नहीं करता था। बीएचयू में उन्होंने एक विशाल गौशाला की स्थापना की, जो गाये के प्रति उनके धार्मिक और पर्यावरणी योगदान का प्रतीक थी। वे हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के चेयरमैन भी रहे और उन्हीं के प्रयासों से समूह का हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान प्रकाशित होने लगा। पत्रकारिता में उनका योगदान ‘भारत’ अखबार को लेकर भी माना जाता है। 

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना 1916  में हुई थी। लगभग 100 साल से यह विश्वविद्यालय भारत का प्रमुख विश्वविद्यालय है। वे इस विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे और उनके बाद डॉ. एस. राधाकृष्णन भी इस विश्वविद्यालय के कुलपति रहे है। डॉ. राधाकृष्णन बाद में भारत के पहले राष्ट्रपति बने। जिस दौर में पं. मदन मोहन मालवीय ने कार्य किया वह दौर जातिवादी और सांप्रदायिक था। मालवीय जी ने जाति परंपरा को तोड़ने के प्रयास किए और सैकड़ों की संख्या में पिछड़े वर्ग के लोगों को मंदिरों में प्रवेश करवाया।

भारत के राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तम्भ में ‘सत्यमेव जयते’ भी है। पं. मदन मोहन मालवीय ने सत्यमेव जयते को अपना गुरु मंत्र माना  और हमेशा इसी दिशा में कार्य किया। पं. मदन मोहन मालवीय ने कांग्रेस की स्थापना के एक साल बाद ही कांग्रेस में सक्रिय भूमिका निभानी शुरू कर दी थी। कांग्रेस के अधिवेशन में उनके प्रभावशाली भाषण से कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष दादा भाई नौरोजी और राजा रामपाल सिंह बहुत प्रभावित हुए। जिनके प्रेरणा से वे हिन्दी साप्ताहिक हिन्दुस्तान शुरू कर पाए। बाद में यह अखबार दैनिक समाचार पत्र में परिवर्तित हुआ। ढाई साल संपादक रहने के बाद उन्होंने विधि की पढ़ाई शुरू की और इलाहाबाद में पढ़ाई करने लगे, उसी दौरान उन्हें अंग्रेजी दैनिक द इंडियन यूनियन के संपादक का कार्य करने का मौका मिला। 1891 में उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। 1916 में हुए लखनऊ पैक्ट के तहत मुसलमानों को अलग से चुनाव क्षेत्र दिए जाने का उन्होंने विरोध किया। 

वकालत के क्षेत्र में काम करते हुए उनमें संन्यास की भावना जागृत हुई और उन्होंने अपना जीवन समाज सुधार के काम में समर्पित करने का फै सला किया। अपने इस फैसले से वे हटे जब उन्हें पता चला कि अंग्रेजी हुकूमत ने चोरी-चोरा कांड में177 स्वाधीनता सैनानियों को फांसी की सजा सुनाई है। पं. मदन मोहन मालवीय ने स्वाधीनता सैनानियों का केस लड़ा और उनमें से 156 1928 स्वाधीनता सैनानियों को निर्दोष साबित करके अंग्रेजी हुकूमत से मुक्त कराया। कांग्रेस के खिलाफत आंदोलन से वे जुड़े रहे। संतुष्टिकरण की नीति के खिलाफ भी उन्होंने काम किया और असहयोग आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका रही। 

सायमन कमीशन के खिलाफ बगावत करने वालों में मालवीय जी भी प्रमुख थे। 1928 में हुए इस आंदोलन में लाला लाजपत राय और पंडित जवाहर लाल नेहरु के साथ उन्होंने कंधे  से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ी। 1932 में स्वदेशी आंदोलन के भी वे अगुवा रहे। नाफरमानी आंदोलन में वे कांग्रेस के 450 स्वयंसेवकों के साथ जेल भी गए। 
--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
24 दिसंबर 2014 

Monday, December 15, 2014

रजत शर्मा और सुभाष चंद्रा : पत्रकार का मालिक और मालिक का पत्रकार होना

छोटे अखबारों और केबल की दुनिया में यह बात आम है, लेकिन सेटेलाइट चैनलों की दुनिया में इसे अजूबा ही कहा जाएगा कि मालिक, पत्रकार की तरह बनना चाहे और पत्रकार,  मालिक की तरह।

रजत शर्मा का करियर पत्रकार के रूप में शुरू हुआ और आज वे इंडिया टीवी के सर्वेसर्वा है। दूसरी तरफ सुभाष चंद्रा है जिन्होंने बहुुत छोटे से स्तर पर कारोबार शुरू किया और पैकेजिंग की दुनिया से टीवी की दुनिया में आए। रजत शर्मा कभी इनके चैनल पर कार्यक्रम प्रस्तुत किया करते थे। इतने बरसों में यह अंतर आया है कि रजत शर्मा सुभाष चंद्रा की तरह मालिक बन गए और सुभाष चंद्रा रजत शर्मा की तरह टीवी प्रेजेंटर बनने की कोशिश कर रहे है। चैनलों का मालिक होने का फायदा सुभाष चंद्रा को जरूर है, लेकिन इससे वे रजत शर्मा की बराबरी नहीं कर सकते। 


दोनों ही शख्सियतें अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है। कहा जा सकता है कि दोनों ‘सेल्फ मेड’ है। कहते है कि सुभाष चंद्रा ने अरबों रुपए के कारोबार वाले एस्सेल ग्रुप केवल १७ रुपए् की जमापूंजी से शुरू किया था। व्यापार में कामयाबी पाने वाली हर चतुराई वे आजमा चुके है। चावल के निर्यात से लेकर एस्सेल वर्ल्ड  जैसे थीम पार्क का निर्माण और मल्टीप्लेक्स का धंधा भी। अंग्रेजी अखबार भी उन्होंने शुरू किया और एक बाद एक सैकड़ों कम्पनियाँ  बनाकर अपने साम्राज्य को विश्वस्तर पर फैलाया।  अपने व्यवसाय चातुर्य से उन्होंने जी टेलीफिल्मस् लिमिटेड कंपनी  अक्टूबर १९९२ में शुरू की थी, जो भारत की पहली निजी सेटेलाटि चैनल चलाने वाले कंपनी   थी। टीवी के दर्शक दूरदर्शन के एक रस कार्यक्रमों में से हटकर जी टीवी की तरफ आकर्षित हुए। आज सुभाष चंद्र गोयल डॉ. सुभाष चंद्रा बन गए है। जैसे सुब्रत राय सहाराश्री बन गए। वैसे वे चंद्रा बन गए। गोयल शब्द उन्होंने अपने नाम में से हटा लिया। अपने संयुक्त परिवार की मदद से साम्राज्य स्थापित करने के बाद उन्होंने उसे विभाजित कर लिया और अपने भाइयों को अलग तरह के व्यवसाय में स्थापित कर दिया। उनका बड़ा बेचा पुनीत ६ साल से मीडिया का साम्राज्य संभाल रहा है और उससे छोटा अमित इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में काम कर रहा है। इसके अलावा सुभाष चंद्रा आजकल अमेरिका में 'वेलनेस बिजनेस' संभाल रहे है। भारत में सुभाष चंद्रा ने ९ सेक्टर में कारोबार शुरू किया था, जिसमें से २ सेक्टर में वे विफल रहे। एक इंडियन क्रिकेट लीग और दूसरा सेटेलाइट प्रोजेक्ट। दुनिया के अनेक बड़े-बड़े मीडिया संस्थान भारत आ रहे है और भारत का जी मीडिया विदेश जा रहा है। जी टेलीविजन की स्थापना के बाद उन्होंने न्यूज, सिनेमा और अन्य चैनलों के साथ ही केबल और डीटीएच का कारोबार भी शुरू किया। फोब्र्स पत्रिका ने सुुभाष चंद्रा की तुलना धीरूभाई अंबानी से की है। आज जी टीवी का कारोबार ६८ चैनलों के जरिए १६९ देशों में पैâला हुआ है। उनका बनाया हुआ एस्सेलवर्ल्ड भारत का पहला प्रमुख एम्युजमेंट पार्क माना जाता है। सेटेलाइट कम्युनिकेशन, ऑनलाइन गेमिंग, एज्युकेशन, पैकेजिंग आदि के क्षेत्र में उन्होंने भारत को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई। 

सुभाष चंद्रा का मानना है कि वे गीता में बताए गए कर्म में विश्वास करते है। अगर कामयाबी न मिले तो भी वे कभी निराश नहीं होते। अपने जीवन में उन्होंने बहुत बड़े-बड़े थपेड़े खाए। १२वीं के बाद उन्हें अपनी नियमित पढ़ाई छोड़नी पड़ी। परिवार की जिम्मेदारी उनके सिर पर थी और आजकल उनमें एक नया कीड़ा प्रवेश कर गया है और वह कीड़ा है टेलीविजन के कार्यक्रम पेश करने का। इंडिया टीवी वाले रजत शर्मा बरसों तक उनके जी टीवी पर आपकी अदालत कार्यक्रम पेश करते रहे, उन्हें लगता है कि आज रजत शर्मा सत्ता के गलियारों में ज्यादा पहुंच रखते है क्योंकि वे टीवी पर कार्यक्रम पेश करते है जबकि इतने चैनलों के मालिक और खरबपति होने के बावजूद सुभाष चंद्रा की बातों का वो वजन नहीं है, इसलिए उन्होंने जी टीवी पर अपने नाम से ही एक शो शुरू कर दिया। 

रजत शर्मा ने पिछले दिनों जब आपकी अदालत कार्यक्रम की 21वीं सालगिरह बनाई, तब उसमें देश की लगभग सभी प्रमुख हस्तियां मौजूद थी। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री उनके कार्यक्रम में आए। ऐसे मौके दुर्लभ ही होते है जब किसी गैर सरकारी कार्यक्रम में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री एक साथ नजर आए। इसके अलावा इस कार्यक्रम में खेल, फिल्म, कारोबार, राजनीति, समाज सेवा आदि क्षेत्रों से भी लगभग सभी प्रमुख हस्तियां मौजूद थी। फिल्मी दुनिया के तीनों प्रमुख खान शाहरुख, आमिर और सलमान इस कार्यक्रम में नजर आए। इसके पहले यह तीनों धर्मेन्द्र के एक कार्यक्रम में भी नजर आए थे।

जी टीवी में कार्यक्रम पेश करते-करते रजत शर्मा को आपकी अदालत कार्यक्रम का महत्व समझ में आ गया था। यह महत्व तो सुभाष चंद्रा को भी मालूम था जब उन्होंने जी टीवी पर इसकी शुरुआत होने दी और कुछ ही साल बाद इस कार्यक्रम की सालगिरह के बहाने अनेक मुख्यमंत्रियों, नौकरशाहों और अनेक महत्वपूर्ण लोगों को बुलाकर उनसे निकटता कायम करने की कोशिश की। शायद वहीं घटना रही होगी कि 21  साल होने पर रजत शर्मा ने उससे कहीं बड़ा और ज्यादा भव्य कार्यक्रम अपने बूते पर किया। इस बार सुभाष चंद्रा उनके बॉस नहीं थे, बल्कि वे खुद अपनी कंपनी के बॉस थे। उनके कार्यक्रम की खूबी यह है कि वे कार्यक्रम में चुटीलापन, हाजिरजवाबी और हल्के-फुल्के सवालों के साथ ही दर्शकों को भी उससे जोड़े रखते है। 

रजत शर्मा ने पत्रकारिता में बहुत पापड़ बेले है। रिपोर्टिंग भी की है और संपादन भी। जब उन्होंने टीवी की दुनिया में प्रवेश किया तब कई लोगों को लगता था कि एक ऐसा व्यक्ति जिसके सिर पर गिने-चुने बाल हो और नाक किसी केरिकेचर की तरह नुकीली; वह टीवी की दुनिया में क्या प्रभाव जमाएगा, लेकिन रजत शर्मा  ने न केवल अपनी पत्रकारिता से बल्कि अपनी व्यवसाय बुद्धि से भी चमत्कार कर दिखाया और इंडिया टीवी जैसी टीआरपी बटोरु चैनल खड़ी कर ली। इंडिया टीवी कई बार विवादों में घिरा रहा। कभी उस पर पक्षपात के आरोप लगे कभी महिला कर्मचारी के व्यवहार को लेकर रजत शर्मा को ही कटघरे में खड़ा किया गया। कभी उनके निजी जीवन पर, उनके वैवाहिक संबंधों पर सवाल खड़े किए गए, लेकिन वे दृढ़ता से अपनी जगह बने रहे। ब्रेविंâग न्यूज नामक उनका दैनिक कार्यक्रम भी बरसों तक चला, लेकिन बाद में से बंद कर दिया गया। 

रजत शर्मा का एक पत्रकार से मीडिया मुगल बनना किसी चमत्कार से कम नहीं। जिस चतुराई से वे इस साम्राज्य के सिंहासन पर बैठे, वह किसी के लिए भी ईष्र्या का विषय हो सकता है और शायद सुभाष चंद्रा के लिए है भी। वरना वे सुभाष चंद्रा शो लेकर अपने चैनल पर नहीं आते। इसमें कहीं न कहीं ईर्ष्यां  की गंध जरूर है। 
Copyright © प्रकाश हिन्दुस्तानी

Saturday, December 13, 2014

अपराधों की रोकथाम में 100 नंबर का योगदान

वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (10 मई 2014)


इंदौर पुलिस के अधिकारियों ने रात्रिकालीन शिफ्ट करने वाले जवान गणपत सिंह को निलंबित कर दिया है। जांच के बाद यह काम किया गया। गणपत सिंह पर आरोप यह था कि उसने अपराधों की रोकथाम में मदद की थी। गणपत सिंह जैसे और भी पुलिसकर्मी हो तो इंदौर में अपराध पूरी तरह खत्म हो सकते है। 

पिछले हफ्ते की बात है। बायपास के पास 60 लाख रुपए की ऑडी में एक शख्स अपनी पत्नी के साथ जा रहा था। रात के करीब डेढ़ बजे थे और उन सज्जन की कार पंक्चर हो गई। उन सज्जन ने वहां से गुजर रहे दो पुलिसकर्मियों को रोकने के कोशिश की, लेकिन वे नहीं रुके, क्योंकि कोई अपराध नहीं हुआ था। थोड़ी देर बाद वहां से 7-8 युवकों का झुण्ड मोटरसाइकिल पर निकला। कार वाले दम्पत्ति को लगा कि उनके साथ लूट हो सकती है। उन्होंने 100 नंबर पर फोन लगाया। पहले तो रिकॉर्डेड संदेश बजा कि इंदौर पुलिस आपका स्वागत करती है, लेकिन जब समस्या बताई गई तब पुलिसवाले ने कहा कि हां, बताइए। 

‘‘मैं बायपास के पास से बोल रहा हूं। मेरी वाइफ मेरे साथ है और मेरी गाड़ी पंक्चर हो गई है।’’ ‘‘तो क्या आपकी गाड़ी में स्टेपनी नहीं है? 8-8, 10-10 लाख गाड़ी में घूमते हो और स्टेपनी नहीं रखते हो?’’ ‘‘स्टेपनी तो है, लेकिन यहां बहुत अंधेरा है और डर भी लग रहा है’’ ‘‘अच्छा, टार्च क्यों नहीं रखते तुम? क्या चाहते हो?’’ ‘‘यहीं चाहते है कि कोई आ जाए तो हम अपनी गाड़ी की स्टेपनी बदल लें’’ ‘‘अच्छा, मैं अभी भेजता हूं, हमारे एसपी को। वह आकर तुम्हारी गाड़ी की स्टेपनी बदल देंगे’’ ‘‘नहीं मेरा मतलब यह नहीं है, यहां हमारे साथ कुछ हो जाए तो...’’ ‘‘नहीं-नहीं, एसपी साहब आ रहे है, स्टेपनी बदल देंगे’’। ‘‘कृपया आप अपना नाम बता दीजिए साहब?’’ ‘‘मेरा नाम जानना है तो 10 रुपए का रेवेन्यू स्टेम्प खरीद लो और सूचना के अधिकार में अर्जी लगा दो पता चल जाएगा। आ जाते है न जाने कहां-कहां से।’’

इस तरह के वार्तालाप के बाद कार चालक महोदय को एहसास हुआ कि वे भारत के इंदौर नामक शहर में है। जहां पुलिस का काम अपराध होने के बाद उसका पंजीकरण करना होता है। बहरहाल वह सज्जन प्रभावशाली थे। उनके मोबाइल में ऑटो रिकॉर्डिंग की व्यवस्था थी। उन्होंने वह रिकॉर्डिंग कुछ पत्रकारों को भेजी जिन्होंने उसके आधार पर खबरें प्रकाशित कर दी। बाद में पुलिस के आला अधिकारियों ने जब रिकॉर्डिंग सुनी तो उन्हें लगा कि पुलिसकर्मी का जवाब न केवल असहयोगात्मक था बल्कि अभद्र और गैरजिम्मेदाराना भी। उसे निलंबित कर दिया गया। 

शिकायतकर्ता के मित्र कहते है कि उन्होंने कई गलतियां की। पहली तो यह कि पुलिस को फोन क्यों किया? क्या उनको यह नहीं पता था कि इंदौर पुलिस का रवैया वैâसा होता है? क्या उनको यह नहीं पता था कि आधी रात को पुलिस मुख्यालय में 100 नंबर के कॉल अटेंड करने वाला जागृत अवस्था और होश में रहता है? उन्होंने 100 नंबर फोन करके सहयोग की अपेक्षा ही क्यों की? वह यह कहते कि मेरे साथ लूट हो रही है, तब शायद पुलिस मामले को गंभीरता से लेती?

१०० नंबर एक ऐसा नंबर है जिसके बारे में गांव-गांव का बच्चा-बच्चा जानता है। अब कोई भी आदमी यहां फोन कर दें तो पुलिस का काम कितना बढ़ जाए। उस पुलिसकर्मी ने ठीक ही किया। अगर आपके पास कार है, तो स्टेपनी रखिए, टार्च भी रखिए। अगर आप का मकान है और आपको चोरी का डर है तो बंदूक रखिए और चौकीदार रखिए। अगर आपके घर में बहु-बेटियां है और उनकी सुरक्षा की चिंता आपको है तो उन्हें पर्दे में रखिए, घर के अंदर रखिए। एक जमाना था जब इंदौर में सराफा बाजार में पूरी रात रोनक रहती थी। अब पुलिस वाले ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे सराफा बंद कराने पहुंच जाते है। दुकान बंद, लोग बाग घरों में। पुलिस का काम आसान। अब अगर सिनेमाघर भी दस बजे बंद हो जाएं, रेले, बसें भी रात को चलना बंद हो जाए, तो पुलिस का काम कितना आसान हो जाएगा। जिसका माल, हिफाजत का जिम्मा उसी का। सीधा सा उसूल है। 
Copyright © प्रकाश हिन्दुस्तानी
वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (12 अप्रैल 2014)

चुनाव और मोहब्बत में सब जायज 

मोहब्बत और चुनाव सत्य है।  शादी तथा सरकार मिथ्या !

चुनाव और मोहब्बत में बहुत समानता है। दोनों के लिए वयस्क होना ज़रूरी है।  दोनों में कामयाबी पाना  आसान नहीं। दोनों में आदमी  संयोग से ही घुसता है।  दोनों में आदमी अपनी इच्छा से नहीं पड़ता, दोनों ही गले पड़नेवाली चीजें हैं; और गले पड़  जाए तो छूटती नहीं। दोनों में लोगों को नींद कहाँ आती है? दोनों में लोग तमाशाई होते हैं, मददगार नहीं। दोनों में सफलता स्थायी  नहीं होती। दोनों में पराजित होकर तो लोग दुखी होते ही हैं, जीतकर भी दुखी होते हैं। दोनों बहुत बड़ी जिम्मेदारी हैं। दोनों में अपने और पराये का भेद समझ में आ जाता है।  दोनों में चाँद तारे तोड़कर लाने की बात होती है  दोनों में वादों और दावों  का जोर होता है।  दोनों में वादाखिलाफी आम बात है। गर्ल फ्रेंड को भी फ़ोकट में मोबाइल चाहिए और वोटर को भी। चुनाव में हाथ की अंगुली पर पक्की स्याही लगाने का चलन है और सुहागन स्त्री की स्याही उसका सिन्दूर होता है जो मस्तक पर लगा रहता है। शादी के बिना मोहब्बत अधूरी और मतदान के बिना चुनाव। मोहब्बत के बाद शादी हो जाए तो घर में झगड़े होना कम्पलसरी होता है; वैसे ही चुनाव में सरकार बनानेवाली पार्टी के अंदर भी जूतमपैजार चलाती रहती है।  दोनों में डिप्लोमेसी चलती है और सबसे बड़ी बात --दोनों में हाँ का मतलब तो हाँ होता ही है; नहीं का मतलब भी हाँ होता है। 

जब प्रेमी कहता है - मैं तुम्हें यूं ही जीवन  भर प्रेम करूंगा तब उसका मतलब भी वैसा ही होता है जैसा चुनाव के घोषणा पत्र में लिखा होता है। किया तो किया, नहीं तो क्या कर लोगे? जब प्रेमी कहता है कि मैं तुम्हें ताउम्र  रानी बनाकर रखूंगा तो क्या उसका सचमुच यही मतलब होता है? जब  सरकार बनाने के लिए लाइन में लगी पार्टी कहती है कि है  कि हम  गरीबी हटाएंगे तो क्या उसका यही तात्पर्य होता है? जब कोई पार्टी कहती है कि आचार संहिता के कारण हम  घोषणा नहीं कर पा रहे हैं तो यह वैसा ही है जब लड़केवाले कहते हैं कि हमें दहेज़ में कुछ नहीं चाहिए। चाहते दोनों हैं, पर घोषणा नहीं करते।  यह 'नहीं' ही 'हाँ' होती है। 

चुनाव में उम्मीदवार जहाँ तहां से धन जुटाकर खर्च करता है. मोहब्बत में दीवाना सबके आगे कटोरा लिए खड़ा रहता है और मौका आने पर चोरी से भी बाज़ नहीं आता। चुनाव में कानाफूसी आम है, मोहब्बत में भी। चुनाव में जीत का सेहरा किसी के बजाए किसी और को बांध जाता है; मोहब्बत में यह आम बात है। चुनाव लोकतंत्र के लिए अहम् है और मोहब्बत जिंदगानी के लिए। 


मोहब्बत और चुनाव सत्य है।  शादी तथा सरकार मिथ्या !
Copyright © प्रकाश हिन्दुस्तानी
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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (5 अप्रैल 2014  को प्रकाशित)



ये चुनाव भी कोई चुनाव है लल्लू?

इंदौर में लोकसभा के लिए मतदान में तीन हफ्ते भी हैं, लेकिन अखबार और टीवी चैनल के अलावा कहीं माहौल ही नहीं है। एक वह जमाना था जब चुनाव के महीने-डेढ़ महीने पहले शोर-गुल शुरू हो जाता था। तांगे- ऑटो पर लाउड स्पीकर लग जाते थे, दिन-रात प्रचार चलता रहता था।  जीतेगा भाई जीतेगा...फलानेजी  संघर्ष करो, हम आपके साथ हैं... देश का नेता कैसा हो .... जैसा हो.... जैसे नारे जगह-जगह सुनने को मिलते थे।  बच्चे चुनाव प्रचार में ज्यादा धूम मचाते। तरह-तरह की टोपियां, बिल्ले, चुनाव चिह्न के कटआउट बंटते। घरों पर पार्टियों के झंडे लहराते दिखते। पार्टी कार्यकर्ताओं की इज्जत होती थी, उन्हें किंग मेकर समझा जाता था। पान की दुकानों और चाय की गुमटियों पर राजनैतिक ज्ञान की गंगा बहती रहती। काका जोगिन्दर सिंह (धरतीपकड़), कर्नाटक के एचपी रंगास्वामी, डॉ. सुबुद्धि की चर्चा हर जगह होती। इन महानुभावों ने कभी चुनाव नहीं जीता, उल्टे दर्जनों बार हर चुनाव में जमानत जब्त कराकर नाम कमाया था। जैसे इंदौर में सुमित्रा महाजन ने सात बार से हर बार चुनाव जीतकर रिकॉर्ड बनाया, वैसे ही डॉ. सुबुद्धि ने तो लगातार 23 बार लोकसभा व विधानसभा चुनाव लड़कर हर बार जमानत जब्त कराने का रेकॉर्ड बनाया। उनका चुनाव एजेंडा हर बार एक ही होता था- 60 साल से बड़े नेताओं के चुनाव लडऩे पर रोक और दो जगह से किसी भी उम्मीदवार के लडऩे पर प्रतिबंध।
   अब तो लग ही नहीं रहा कि आम चुनाव होने वाले हैं। चुनाव आयोग ने लाउड स्पीकरों पर प्रचार पहले ही बंद करा दिया था, अब तो हर गतिविधि पर उसकी निगाहें रहती हैं। टीवी देखो या और अखबार पढ़ो तभी लगता है कि चुनाव आने वाले हैं। होर्डिंग पर रोक, प्रचार पर रोक, रैलियों पर नियम, शराब बांटने पर रोक, वोटरों को घुमाने-फिराने पर रोक, अखबारों में विज्ञापनों पर रोक, पार्टी खिलाने पर कंट्रोल... अब क्या खाक मजा बचा चुनाव में? बची-खुची कसर इंदौर में बीजेपी की उम्मीदवार ने पूरी कर दी।  अब ये विरोधी पार्टी वाले उनको चुनाव में टक्कर देने की जगह बलि का बकरा तलाशेंगे तो वोटरों को क्या खाक मजा आएगा? सुमित्रा ताई की जीत तय मानी जा रही है और उधर इंदौर के सट्टा बाजारी मुंह लटकाए बैठे हैं। और तो और बेचारे कार्टूनिस्ट भी बोर हो गए हैं और पिछले चुनाव के कार्टून ही रिपीट कर रहे हैं। जब चुनाव में ही कुछ नया नहीं है तो नया कार्टून क्या बनाना? चुनाव आयोग का नारा है सारा काम छोड़ दो, सबसे पहले वोट दो। आपके वोट से सरकार बनती है। हां भाई बनती है, पर सरकार के लिए विरोधी पार्टी यानी विपक्ष का होना भी तो जरूरी है।  किसको जीतना है, ये तो तय है है फिर काहे को करें मारामारी? चुनाव आयोग ने कितना जनविरोधी काम किया है- मतदान रखवाया है 24 अप्रैल को, यानी गुरुवार को।  शनि या सोम को मतदान होता तो सलंग छुट्टी मिल जाती। 
--प्रकाश हिन्दुस्तानी ©2014
(5 अप्रैल 2014  को प्रकाशित)

ये मतवाले सलाहकार !

वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (21 मई 2014)




कुछ दिन से ज्ञानचंद लोग बहुत बिज़ी हैं. चुनाव के आसपास उनका सीजन रहता है। वे ही सवाल खड़ा करते हैं और वे ही जवाब भी तैयार रखते हैं. जो पहले कहते थे कि एनडीए को बहुमत नहीं मिलेगा, अब कह रहे हैं--देखा ले आये न मोदी अपने  बूते पर भाजपा का बहुमत.
आजकल वे मोदी जी की चिंताओं को लेकर परेशान हैं. आज़ादी के बाद पैदा हुए सांसद ही मंत्री बनेंगे तो हमारी ताई का क्या होगा?  क्या वे स्पीकर के लिए मान  जायेंगी? पर वहां तो लालकृष्ण आडवाणी जी का नाम चल रहा है! अरे! सुषमा  स्वराज का नाम भी स्पीकर के वास्ते चल रहा है? ऐसा करना चाहिए कि पहले आडवाणी जी को स्पीकर बना देना चाहिए और बाद में प्रणब दा की जगह राष्ट्रपति !
अब ये ज्ञानचंद मोदी जी के टेंशन घर तक ले जा रहे हैं.  मोदी को मंत्रीमंडल में किस किस को लेना चाहिए और किस को नहीं. कुछ ज्ञानचंदों ने तो मंत्री बनाकर उनके विभागों का बंटवारा भी कर डाला.  जेटली वित्त मंत्रालय के लायक हैं या नहीं, राजनाथ को होम डिपार्टमेंट ठीक ही है। गडकरी को सडकों का अच्छा अनुभव है, भूतल परिवहन ठीक रहेगा. अमित शाह को यूपी में ही बिठाए रखना चाहिए, बन्दे में दम है.नहीं नहीं, शाह को तो होम मिनिस्टर बना दो
एक और ज्ञानचंद मंडली मोदी के विदेश मंत्रालय की कमान सभाले हुए है। पाकिस्तान के साथ यूं निपटना चाहिए। चीन को सुधारने का रास्ता ये है. ओबामा अबअफी मांगने आया समझो। जापान से तो मोदी जी के पुराने अच्छे सम्बन्ध हैं , पता है कि नहीं?
एक और ज्ञानचंद गंगा की सफाई पर चिंतित है। मोदी जी ने ज्यादा बोल दिया यार. गंगा साबरमती कैसे बन सकती है? गंगा की सफाई करने जायेंगे तो कानपुर के चमड़ा फैक्टरी वाले नाराज हो जायेंगे। वे कहेंगे कि मोदी ने  अल्पसंख्यकों को सताना शुरू कर दिया है। मोदी में  पोलिटिकल विल तो है पर वोट बैंक भी बड़ा मसाला है।
अब 26 को मोदी जी की शपथ हो जाएगी। मंत्री चुन लिए जाएंगे. ज्ञानचंद फिर नया टेंशन लेकर बिज़ी हो जायेंगे. अगली बार, फिर अगली अगली बार मोदी सरकार। बार बार मोदी सरकार।
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Friday, December 12, 2014


कार्निवाल के देश में गुरिल्ला राष्ट्रपति



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जवानी में उन्होंने गुरिल्ला लड़ाई लड़ी, पकड़ी गयीं और सेना के टॉर्चर को सहा. तीन साल जेल में रहीं, रिहा हुई तो पढ़ाई करने की कोशिश की. पीएचडी करना चाही, पर न कर सकीं. अर्थशास्त्र की पढ़ाई की,
पर पीजी की डिग्री भी नहीं ले सकीं. ग्रीक थियेटर और डांस का शौक था, अधूरा रह गया. राजनीति में सक्रिय रहीं. एनर्जी मिनिस्टर बनीं. अच्छा काम किया. पहली दफा राष्ट्रपति पद की दावेदार रहीं और संघर्ष के बाद जीत गयीं. जी हाँ, आपने सही सोचा -- ये हैं ब्राज़ील की डिल्मा रौसेफ़. बुल्गारिया के प्रवासी की बेटी. चौदह की आयु में पिता को खो दिया, सोलह की होते-होते मार्क्सिस्ट एक्टिविस्ट बनीं. बीस की उम्र में शादी कर डाली. माँ बन सकीं तीस में, और शादी चल नहीं सकी. ब्राज़ील में फौजी तानाशाही के खिलाफ संघर्ष में जवानी खर्च कर डाली. तरह-तरह के जुल्म सहें, संघर्ष किये, घर-परिवार दांव पर लगा दिया और अंत में राजनीति में शिखर को छू लिया. वे अब फुटबाल और कार्निवाल, अमेजान और साम्बा के देश ब्राज़ील की पहली महिला राष्ट्रपति के रूप में पहली जनवरी को शपथ लेंगी.

ब्राज़ील की राष्ट्रपति चुनी जानेवाली डिल्मा रौसेफ़ के बारे में उनके विरोधी कहते हैं कि तानाशाही के खिलाफ लड़नेवाली वे खुद तानाशाह जैसी हैं. --''वे बेहद लोकतांत्रिक हैं अगर आप उनसे सौ फीसदी सहमत रहें!'' यह कहा है उनके एक करीबी राजनैतिक सहयोगी ने. उनके मूड के बारे में कहा जाता है कि वे पल में तोला, पल में माशा हो जाती हैं. ''ऐसा लगता है कि वे हर हफ्ते अपने दिमाग की डिस्क की फार्मेटिंग करती है". तभी तो उन्होंने ब्राज़ील के अबोर्शन कानूनों का समर्थन किया, लेकिन कहा कि मैं 'प्रो-लाइफ' एक्टिविस्ट हूँ. उन्होंने 'गे मैरेज' का विरोध किया, लेकिन कहा कि वे समलैंगिक सिविल राइट्स की हिमायत करती हैं क्योंकि यह मानव अधिकारों से जुदा मामला है!

एकॉनमिस्ट के रूप में डिल्मा रौसेफ़ की चुनौतियां भी कम नहीं. अर्थ व्यवस्था मज़बूत करना है. जीडीपी ऊपर ले जाना है, गरीबी-अमीरी की खाई कम करना है, ब्राज़ील में भी बिजली की भारी कमी है, चीनी महंगी हैं, स्लम्स बढ़ गए हैं, शिक्षा-स्वास्थ्य-शांति की दरकार है. देशी-विदेशी क़र्ज़ का बोझ है, अपराध बहुत ज्यादा हैं. सरकार में अभी वे एकछत्र नेता नहीं हैं. पूरा चुनाव ही उन्होंने 'गरीब, कामगार और युवा' वोटरों को रिझाते हुए लड़ा और जीता है, अब वे उनकी ओर आस लगाये हैं.

डिल्मा रौसेफ़ का चुनाव लड़ना भी दिलचस्प रहा. उन्होंने युवा वोटरों को रिखाने के लिए सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स का जमकर उपयोग किया. रोजाना लाखों ट्विट्स उन के पक्ष में होते रहे. टेलीफोन पर वियतनाम वार पर फ़िल्म बनानेवाले अमेरिकी फिल्मकार ओलिवर स्टोन सहित अनेक देशों के पत्रकार, कलाकार, लेखक प्रचार में मदद करते रहे. ओलिवर स्टोन की टेप की गयी आवाज़ लोगों को डिल्मा रौसेफ़ के पक्ष में वोट डालने की अपील कर रही थी.

१४ दिसंबर १९४७ को जन्मी डिल्मा रौसेफ़ ने जीवन में कभी हार नहीं मानी. वे एक बेटी की माँ और बच्चे की नानी हैं. परिवार की चाहत में उन्हें दो बार शादी करना पड़ी. जीवन के उत्तरार्ध में उन्हें एक्सीलर लिम्फोमा नामक कैंसर से भी लड़ना पड़ा. कीमोथेरेपी के कारण उन्हें महीनों इलाज कराना पड़ा. जिस कारण उनके सर के बाल झड़ गए और वे विग के सहारे काम चलाती रहीं. हेयर रिप्लेसमेंट और कॉस्मो डेन्टेस्ट्री करानेवालीं डिल्मा रौसेफ़ का दिल फौलाद का है और यही उनकी खूबी है.
---प्रकाश हिन्दुस्तानी

(दैनिक हिन्दुस्तान, 07 नवंबर 2010 को प्रकाशित)

Tuesday, December 02, 2014

देश का सबसे अक्ल (दौलत) मंद टाइम्स मीडिया समूह

देश की सबसे ज्यादा कमाऊ मीडिया कंपनी  है  - बैनेट, कोलमैन एंड कंपनी । यह कंपनी टाइम्स ऑफ इंडिया, इकॉनोमिक्स टाइम्स, महाराष्ट्र टाइम्स, नवभारत टाइम्स, फेमिना, फिल्मफेयर जैसे अनेक प्रकाशनों के अलावा भी कई धंधों में है। 

टाइम्स ऑफ इंडिया जो काम करता है,  उसी की नकल देश के दूसरे प्रमुख प्रकाशन समूह भी करते है। यह कंपनी अनेक भाषाओं के दैनिक अखबार छापना शुरू करती है, तो दूसरे अखबार मालिक भी नकल शुरू कर देते है। दैनिक भास्कर समूह, दैनिक जागरण समूह, अमर उजाला समूह, राजस्थान पत्रिका समूह जैसे ग्रुप ‘फॉलो द लीडर’ फॉर्मूले के तहत चलते है। टाइम्स ने मुंबई टाइम्स शुरू किया, भास्कर ने सिटी भास्कर चालू कर दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया ने जैकेट एड चालू किए, दूसरे अखबारों ने भी कर दिए। टाइम्स ऑफ इंडिया ने  8  की बजाय 10 कॉलम शुरू किए। दूसरे अखबारों ने भी विज्ञापनों में 10  कॉलम चालू कर दिए। टाइम्स ऑफ इंडिया रंगीन हुआ, तो दूसरे अखबार भी रंग-बिरंगे हो गए। टाइम्स ऑफ इंडिया ने क्लासीफाइड सेक्शन के फोन्ट का साइज छोटा किया तो दूसरे अखबारों ने भी नकल शुरू कर दी। टाइम्स ऑफ इंडिया ने जितने पुलआउट शुरू किए है, धीरे-धीरे हिन्दी के प्रमुख अखबारों ने भी किसी न किसी रूप में उससे मिलते-जुलते पुलआउट शुरू कर दिए। टाइम्स ऑफ इंडिया ने टीवी चैनल, इंटरनेट संस्करणों, नए पोर्टल, मोबाइल एप, रेडियो आदि शुरू किए, तो सब की निगाहें इस तरफ चली गई। टाइम्स ऑफ इंडिया देश के तमाम मीडिया घरानों के लिए ‘प्रॉफिट मेकिंग मीडिया कंपनी का मॉडल’ है। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के हिन्दी अखबारों में भाषा की दुर्गति शुरू हुई, तो दूसरे हिन्दी प्रकाशनों ने भी उसे अपना लिया। टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रिंट और इंटरनेट संस्करणों में सेमी पोर्नो कंटेंट शुरू हुआ, तो सभी ने इसे सक्सेसफुल  बिजनेस फॉर्मूले की तरह अपना लिया। 

मैंने 15 साल से भी ज्यादा इस समूह में काम किया है। दावे से कह सकता हूं कि नौकरी करने के लिए इससे अच्छी कंपनी अभी तक नहीं मिली। यहां सरकारी कानूनों का अधिकतम पालन होता है। पत्रकारों को दूसरे जगह की तुलना में ज्यादा आजादी है। वेतन के बारे में इतना कहना ही काफी होगा कि इस कंपनी के 100  प्रतिशत कर्मचारी आयकर दाता है। टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह में काम करने वाले चपरासी भी आयकर दाता है। एक जमाना था जब यह ग्रुप टाइम्स आई फाउंडेशन के नाम से एक संस्था चलाता था और नेत्रदान को बढ़ावा देने का काम करता था। पुस्तकों के विज्ञापन इसके प्रकाशनों में 50  प्रतिशत छूट पर छपते थे। विधवा महिलाओं के वैवाहिक विज्ञापन नाम मात्र की कीमत पर छापे जाते थे। अब न तो टाइम्स आई फाउंडेशन की गतिविधियां है और न ही पुस्तकों को बढ़ावा देने की कोई पहल। भारतीय ज्ञानपीठ के पीछे इसी समूह का प्रमुख योगदान रहा है।

अब जो टाइम्स ऑफ इंडिया या बैनेट, कोलमैन एंड कंपनी बची है, वह ऐसी कंपनी के रूप में जानी जाती है, जिसका एक मात्र और केवल एक मात्र लक्ष्य अधिक से अधिक मुनाफा कमाना है। इस कंपनी के वार्षिक मुनाफे का आकार हजार करोड़ से ऊपर है। अभी भी इसके प्रकाशन मुनाफा कमाने की दृष्टि से शीर्ष प्रकाशन की श्रेणी में रखे जा सकते है। इस कंपनी की चेयरमैन है श्रीमती इंदु जैन। जो एक परम विदुषी महिला है और जिनका दुनियाभर में बहुत सम्मान है। उनके बड़े बेटे समीर जैन इस कंपनी के वाइस चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। समीर के छोटे भाई विनीत जैन इस कंपनी के एमडी हैं। इसके अलावा समीर जैन की बेटी-दामाद भी कंपनी के डायरेक्टरों में शामिल हैं। भारत की इस सबसे कमाऊ मीडिया कंपनी के सर्वे-सर्वा इन दिनों जमकर माल कूट रहे हैं। कंपनीज एक्ट 1956 के सेक्शन 217 (2ए) के अनुसार किसी भी कंपनी के उन सभी कर्मचारियों और डायरेक्टरों के नाम उजागर करना आवश्यक है, जिनका वेतन 5 लाख रुपए या उससे अधिक प्रतिमाह है। 

बैनेट, कोलमैन एंड कंपनी की सालाना 2013-14  की रिपोर्ट में बताया गया है कि कंपनी 81 लोगों को इस श्रेणी में रखती है, जो पांच लाख रुपए प्रतिमाह से अधिक पाते है। दिलचस्प बात यह है कि इन 81 लोगों में से तीन लोग ऐसे है जो इसका आधे से भी ज्यादा हिस्सा पा रहे है। ये तीन लोग 58 प्रतिशत राशि पा रहे है और बचे हुए 78 लोग 46 प्रतिशत। इन बचे हुए 78 लोगों में से भी कंपनी के वाइस चेयरमैन विनित जैन की बेटी तृष्ला जैन और उनके पति सत्यन गजवानी भी शामिल है। 



सन् 2013-14 में कंपनी की चेयरमैन श्रीमती इंदु जैन ने 15 करोड़ 53 लाख रुपए मेहनताना पाया। उनके बड़े बेटे और वाइस चेयरमैन समीर जैन ने 37 करोड़ 52 लाख रुपए पाए। इन दोनों से ज्यादा कमाई कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर विनीत जैन की रही जिन्होंने 31 मार्च 2014 को खत्म हुए वित्तीय वर्ष में 46 करोड़ 38 लाख रुपए वेतन पाया। विनीत जैन को इसके अलावा 17 करोड़ 50 लाख रुपए ‘वन टाइम स्पेशल बोनस’ रुपए भी दिए गए। इस तरह विनीत जैन की कमाई 63 करोड़ 88 लाख रुपए रही। समीर जैन की बेटी ने इस वित्तीय वर्ष में 69 लाख रुपए पाए। जबकि उनके पति ने 51 लाख। बैनेट, कोलमैन एंड कंपनी पब्लिक लिमिटेड कंपनी है, जिसे अपनी रिपोर्ट सार्वजनिक करना ही पड़ती है, जबकि टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की कई कंपनियां ऐसी है जो प्रायवेट लिमिटेड कंपनी है। 

विनीत जैन का मेहनताना कंपनी ने लगातार बढ़ाया है। 2010-11 की तुलना में 2013-14 में उन्होंने 184 प्रतिशत ज्यादा वेतन पाया है। 2010-11 में समीर जैन सबसे ज्यादा तनख्वाह पाने वाले संचालक थे, जिन्होंने 18 करोड़ 70 लाख रुपए कमाए थे। उनके छोटे भाई विनीत ने 16 करोड़ 30 लाख और उनकी माता श्रीमती इंदु जैन ने 15 करोड़ 39 लाख रुपए मेहनताना पाया था। 2010-11 में समीर जैन के दामाद सत्यन गजवानी ने 93 लाख रुपए वेतन पाया था, तब वे कंपनी के सीईओ रवीन्द्र धारीवाल के एक्जीक्यूटिव आसिस्टेंट थे। 

यह जरूरी नहीं कि इस रिपोर्ट में दिखाया गया धन ही  सी2सी (यानि कॉस्ट टू कंपनी) हो। बैनेट, कोलमैन एंड कंपनी में करीब 11 हजार कर्मचारी काम करते है। जिनमें सबसे ज्यादा वेतन पाने वाले गैर जैन अधिकारी है। कंपनी के सीईओ रवीन्द्र धारीवाल। उन्हें कुल मिलाकर 2013-14 में पांच करोड़ 58 लाख रुपए मिले। 4 साल पहले उनका वेतन 3 करोड़ 8 लाख रुपए था। इस कंपनी के अन्य हाइली पैड अधिकारियों में अरुणाभदास शर्मा (ईडी एंड प्रेसीडेंट) है. जिन्हें 3 करोड़ 66 लाख वेतन मिला है। सीओओ श्रीजीत मिश्रा को 2 करोड़ 91 लाख, आर. सुन्दर को 2 करोड़ 64 लाख, जॉय चक्रवर्ती को 2 करोड़ 29 लाख रुपए वेतन मिला। 

इन 81 उच्चतम वेतन पाने वालों में संपादकीय विभाग के 10 लोग भी नहीं है। 11वें नंबर पर टाइम्स ऑफ इंडिया के एडिटोरियल डायरेक्टर जयदीप बोस है, जिन्हें 1 करोड़ 94 लाख रुपए मिले, जबकि सन 2010-11 में उनका वेतन 4 करोड़ 24 लाख रुपए था। इस बारे में बताया गया है कि उनका मेहनताना लगभग आधा नहीं किया गया, बल्कि पूर्व के वेतन भत्तों में से कुछ एडजस्ट किया गया है। इकोनॉमिक्स टाइम्स के एडिटोरियल डायरेक्टर राहुल जोशी, इकोनॉमिक्स टाइम्स के ही आर. श्रीधरण, निकुंज डालमिया सीनियर एडिटर, शैलेन्द्र स्वरूप भटनागर चीफ एडिटर मार्केट एंड रिसर्च, संतोष रामचंद्र मेनन असिस्टेंट एक्जीक्यूटिव एडिटर, बोधीसत्व गांगुली डेप्यूटी एक्जीक्यूटिव एडिटर, ओमर कुरैशी सीनियर वीपी और नबील मोहिद्दीन उन लोगों में शामिल है, जिन्हें कंपनी ने सबसे ज्यादा वेतन पाने वालों में गिना है। इन 81 लोगों में हिन्दी-मराठी के किसी भी प्रकाशन का कोई भी व्यक्ति नहीं है। 


यह कोई छोटी बात नहीं है कि जब दुनियाभर में अखबार प्रकाशित करने वाली कंपनियां मुनाफे के लिए संघर्ष कर रही है, तब टाइम्स ऑफ इंडिया समूह  देश का सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाले समूह के रूप में अपनी धाक जमा रहा है। इस पूरी कंपनी पर जैन परिवार का ही नियंत्रण है। कंपनी की वित्तीय स्थितियों के बारे में जानकारियां कम ही बाहर आ पाती है। अब इस कंपनी के शेयर देश के शेयर बाजारों में लिस्टेड है। इस समूह में बैनेट, कोलमैन एंड कंपनी के अलावा 63 कंपनियां शामिल है। 

इस कंपनी की तरक्की की तेजी की शुरूआत 1987 में हुई जब अशोक कुमार जैन से उनके बेटे समीर जैन ने कामकाज संभाला। समीर जैन ने आक्रामक तरीके से समूह के कारोबार को फैलाया आदर्शवादी नीति को उन्होंने दरकिनार कर दिया और मुनाफे, केवल मुनाफे पर ध्यान केन्द्रित किया। वे सारे प्रकाशन, जो समूह के कुल मुनाफे का 2 प्रतिशत या उससे कम देते थे, बंद कर दिया गया। इलेस्ट्रेटेट वीकली ऑफ इंडिया, इवनिंग न्यूज ऑफ इंडिया, धर्मयुग, पराग, सारिका, यूथ टाइम्स, दिनमान,  टाइम्स ईयर बुक आदि बंद कर दिए गए।

अपने दृष्टिहीन युवा बेटे की मृत्यु के बाद समीर जैन कुछ-कुछ आध्यात्मिक हो गए और हरिद्वार में एक कोठी बनवाकर गंगा किनारे काफी समय बिताने लगे, लेकिन वे आध्यात्मिक तभी होते है जब उनका ठिकाना हरिद्वार में हो। हरिद्वार छोड़ते ही वे एकदम हार्डकोर बिजनेसमैन बन जाते है। अब उम्र के छह दशक पूरे करने वाले समीर जैन ने अपने छोटे भाई विनीत को प्रमुख जिम्मेदारियां सौंप दी है। विनीत जैन भी बिजनेस के मामले में अपने पिता या मां पर नहीं, बड़े भाई पर गए है। 

समीर जैन से भी ज्यादा आक्रामक और तेजी से फैसले लेने वाले विनीत जैन ने एक अमेरिकी पत्रिका को इंटरव्यू में कहा कि हम कोई मीडिया या न्यूज के बिजनेस में नहीं है, हम है विज्ञापन के बिजनेस में। अगर हमारी इनकम का 90 प्रतिशत हिस्सा विज्ञापनों से आता है तो हमें यह कहने में हर्ज नहीं होना चाहिए कि हम विज्ञापन की दुनिया के लोग हैं। 

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Thursday, November 27, 2014

धंधा, भीख मांगने और वेश्यावृत्ति का

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एच.एल. दत्तू ने कहा है कि भीख मांगने और वेश्यावृत्ति करने को अपराध मानना ठीक नहीं। इसका अर्थ यहीं हुआ कि भीख मांगना और वेश्यावृत्ति करने को कानूनी रूप से मान्यता मिल जाए और यह भी एक धंधा मान लिया जाए। कहा जाता है कि कोई भी व्यक्ति मजबूरी में ही यह धंधे करने के लिए बाध्य होता है। अब यह बात अलग है कि यह दोनों ही धंधे मुनापेâ के धंधे बन गए है। अच्छे खासे ह्रष्ट-पुष्ट लोग भीख मांगते या मंगवाते पाए गए है और वेश्यावृत्ति भी योग्यता से अधिक आसानी से कमाई का जरिया बन चुकी है।
शुक्र है कि दत्तू साहब ने यह नहीं कहा कि इन धंधों के लिए सरकारी बैंकों से कम ब्याज पर लोन मिलना चाहिए। जरा कल्पना तो कीजिए कि इन दोनों को धंधा बना लिया जाए और सरकारी बैंकों के आदेशित किया जाए कि इन धंधों के लिए आसान शर्तों और कम ब्याज दरों पर लोन दिया जाए। ताकि इस धंधे का कल्याण हो सवेंâ। अगर ऐसा हुआ तो सरकारी बैंकों के दरवाजे पर कर्ज लेने वालों की भारी भीड़ जमा हो जाएगी। हो सकता है कि भिखारियों को दिया गया पैसा कभी वापस न आए और वेश्यावृत्ति के लिए दिया गया पैसा कम पड़ जाए।
सरकारी बैंकों में इन कर्जों के लिए अलग से विभाग खोले जा सकते है। इन विभागों को जो आवेदन मिल सकते है वे भी कोई कम दिलचस्प नहीं होंगे। जैसे भिक्षावृत्ति के लिए दिए गए आवेदनों में तमाम यह जानकारी हो सकती है कि उसके कितने बच्चे है और वह कितने बच्चे और पैदा करने की वूâवत रखता है। उन बच्चों को को इस धंधे में लगाकर कितना पैसा कमाया जा सकता है। नए बच्चों को कौन-कौन सी शारीरिक विकलांगता पैदा की जाएगी, ताकि लोग द्रवित होकर ज्यादा भीख दे सके। हो सकता है कि आवेदक के लिए एक कॉलम यह भी हो कि वह किस क्षेत्र में भिक्षावृत्ति करेगा और क्या उसके लिए उसने स्थान बुक कर रखा है। यह स्थान पुâटपॉथ, मंदिर के सामने या आजू-बाजू की जगह, शहर का व्यस्त इलाका अथवा मॉल के सामने की जगह इस धंधे में कितनी फायदेमंद हो सकती है। हो सकता है कि इस मुद्दे को लेकर राजनीति भी गरमा जाए और अलग-अलग जातियों के लोग अपनी जाति के लिए अधिक से अधिक आरक्षण कराने के लिए संघर्ष करने लगे। जिसका नतीजा हो सकता है चुनाव परिणामों पर भी पड़े। 
वेश्यावृत्ति के लिए कर्ज मांगने वाले अपने आवेदन में बता सकता है कि उनके परिवार में कितनी लड़कियां या महिलाएं है, जो इस धंधे को आगे बढ़ाने में योगदान दे सकती है। हो सकता है कि सौंदर्य स्पर्धाओं की तरह यहां भी आवेदन के साथ शरीर से संबंधित विभिन्न फिगर्स लिखे जाएं। अलग-अलग एंगल से लिए गए फोटो आवेदकों को चिपकाना पड़ेंगे, जिसका उपयोग बैंक के अधिकारी कर्ज देते वक्त कर सवेंâगे। हो सकता है कि यहां बैंक के अधिकारियों को रिश्वत तो मिले, लेकिन वह नकद रुपयों में न हो। अगर ज्यादा आवेदन आए तो बैंकों के भीतर भी अराजकता हो सकती है, क्योंकि तमाम अधिकारी इस विभाग में आने के लिए तिकड़में भिड़ा सकते है। 
बहुत सारे बुद्धिजीवियों को इसमें कोई आपत्ति नजर नहीं आती। उनका कहना है कि जब सरकार भिक्षावृत्ति और वेश्यावृत्ति को खत्म नहीं कर पा रही है, तो उसे कानूनी रूप दे देने में क्या बुराई है। उन लोगों के लिए एक यहीं तर्वâ काफी है कि सरकार रिश्वतखोरी, चोरी, डवैâती, बलात्कार जैसे अपराधों को भी रोकने में कामयाब नहीं हो पा रही है, तो क्या इसका अर्थ यह कि इन सब अपराधों को कानूनी मान्यता दे दी जाए। रिश्वत के रेट तय कर दिए जाए, चोरी-डवैâती को रोजगार मान लिया जाए। जिन चीजों को सरकार नहीं रोक पा रही है, उन्हें रोकने की कोशिश तो जरूर करनी चाहिए। यहां बात सही और गलत की है। क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए, इसकी है। अपराध रुक नहीं पा रहे है, तो उन्हें कम से कम होने देने की कोशिश करना प्राथमिकता होनी चाहिए। यह बात वैâसे हो सकती है कि अगर अपराधों पर अंकुश नहीं लगा सके तो उन्हें वैध कर दिया जाए।
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27 nov.2014

Friday, November 21, 2014

इंदौर के ट्रैफिक रूल्स और बाकी इंडिया के

वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (03 मई 2014)

इंदौर इंडिया का अनूठा शहर है। यह वैसे तो इंडिया में ही है, लेकिन यहां के अपने ट्रैफिक रूल्स हैं। अगर आपको नहीं मालूम हों तो कृपया नोट कर लें या इस कॉलम को काटकर अपने पर्स में रख लें। 


अगर आपने अपनी गाड़ी पर 'प्रेस' नहीं लिखवाया है तो अभी लिखवा लें।  इससे कोई फायदा-वायदा नहीं होता, पर यहां पर यही चलन में है। अगर आप ऑटो रिक्शा, टेम्पो या ट्रक भी चलाते हैं, तो यह लिखवाने में कोई हर्ज नहीं। 90 प्रतिशत वाहनों पर यह लिखा होता है। 

यहां सबसे ज्यादा जल्दी में मोटरसाइकिल चालक होते हैं। इंदौर में उनके लिए यातायात का कोई भी नियम लागू नहीं है। वे चाहें तो तीन या चार लोगों को बैठाएं, अकारण हॉर्न बजाएं, प्रेशर हॉर्न फिट करा लें, दुपहिया को ट्रक बनाकर सामान लाद लें, गलत लेन में चलें, कैसे भी ओवरटेक करें,  सड़कों पर बाइक से स्टंट करें, पान-गुटका ऐसे थूकें कि दूसरों के मुंह पर जाकर गिरे, दोनों कानों में ईयरफोन लगाकर घूमें आदि-आदि की छूट घोषित की गई है। हेल्मेट की खोज अभी नहीं की गई है उनके लिए। 

इंदौर में अंध गति से केवल कारें, बसें, ट्रक, डम्पर आदि ही चलते हैं। कभी भी  मीडिया में खबर देखी है कि अंध गति से आ रही मोटरसाइकल टकरा गई।

पूर्ण स्वराज इंदौर में केवल ऑटो रिक्शा वालों को ही प्राप्त है। वे यात्री को कहीं लेकर जाएं, न जाएं, उनकी मर्जी। मनमाना भाड़ा मांगें,  उनकी मर्जी। कहीं भी सांई बाबा का मंदिर बनाने का कॉपीराइट उन्हीं के पास है। उनकी मर्जी कि कहां गाड़ी लगाएं। अगर आपके पास मोबाइल है (जैसा कि हरेक के पास है ही) तो उसका उपयोग वाहन चलाते समय ही करें, क्योंकि फोन ही मोबाइल है! अगर वाहन चलाते समय मोबाइल का उपयोग  नहीं करेंगे तो कब करेंगे।

वन वे बने ही इसलिए हैं कि कोई भी रांग साइड का  उपयोग करके शार्ट काट मार सके।  जो लोग नियमों का पालन करते हैं वे निहायत ही मूर्ख हैं। 

इंदौरियों का नियम है कि वे नौकरी ऐसे करते हैं मानो उनके लिए रुपया बिलकुल जरूरी नहीं, सड़कों पर डांस ऐसे करते हैं मानो डीआईडी के लिए नाच रहे हों और वाहन ऐसे चलाते हैं जैसे उनका इस संसार में कोई है ही नहीं। 

और अंतिम नियम -आप खुद भी कोई नियम बना सकते हैं। आजाद देश के आजाद नागरिक हैं आप!
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चुनाव की आपाधापी में भूले एक जन्मदिन

वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (17 मई 2014)
11 मई को मदर्स डे मनाया गया था और 12 मई को नौ चरणों वाले लोकसभा चुनाव का आख़िरी दिन का मतदान था और फिर शुरू हो गये एक्ज़िट पोल और उनका विश्लेषण. ऐसी आपाधापी में भी पत्रकार अपनी भूमिका कैसे भूल जाते? ज़्यादा नहीं तो एक अख़बार ने तो पहले पेज पर ऐसी खबर छापी, जिससे मन को अपार सुकून मिला. विश्वास हो गया कि गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, राजेंद्र माथुर आदि महान पत्रकारों की परंपरा अवश्य जारी रहेगी. खबर भी यहाँ-वहाँ नहीं, बल्कि पहले पेज पर. वह भी चित्र सहित! पूरी खबर एक झटके में पढ़ गया. खबर क्या थी पूरी जीवनी ही थी, महान शख्सियत की उपलब्धियों का बयान भी था.


खबर में लिखा था--उन्होंने आज 13 मई के दिन ही  1981 में जन्म लिया था. बचपन से हॉकी खेलने का शौक था,  आइस स्केटिंग में भी उनकी रूचि थी. यह भी बताया गया था  कि  उन्होंने अपना करीयर एक बेकरी से शुरू किया था. साथ ही यह भी लिखा था कि केवल 11 साल की उम्र में उन्होंने पहला चुंबन लिया था और 16 साल की उम्र में उन्होने एक बॉस्केटबॉल खिलाड़ी के लिए अपनी वर्जीनिटी खो दी थी. वे मॉडल हैं, पॉर्न स्टार हैं और बिजनेस वूमन हैं.  अख़बार ने उस महान आत्मा का फोटो भी छापा था, इसलिए किसी को भी खबर का मर्म समझने में दिक्कत नहीं हुई होगी. शीर्षक भी था ही -   सनी लिओनी का जन्मदिन आज। 

पत्रकारिता में महान योगदान के लिए देश उस अख़बार का आभारी रहेगा. अगर वह खबर नहीं छापता तो? क्या देश को पता चल पाता कि नग्नता की साक्षात मूर्ति श्रीमती सनी लिओनी का बर्थ डे आज है. अख़बार ने यह नहीं बताया कि 13 मई के इस  पावन पर्व पर देश भर में अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं; जैसे मदर टेरेसा, इंदिरा गाँधी आदि के जन्मदिन मनाते  हैं. लोग उनके बताए मार्ग पर चलने का संकल्प लेते हैं. कसमें खाई जाती है महान हस्तियों के नाम पर. लेकिन यह क्या? इतनी महान शख्सियत की खबर तो पहले पेज पर, लेकिन उनकी जलाई मशाल को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं ! धिक्कार है इस देश की अहसानफ़रमोश जनता पर. बेचारी ने कितने बड़े बड़े त्याग किए है. 11 साल की होते ही त्याग शुरू हो गये, जो आज तक चल रहे हैं .

मुझे तो लगा कि बिग बॉस दिखानेवाला चैनल इस हस्ती पर स्पेशल प्रोग्राम दिखाएगा. उनकी तमाम धार्मिक फिल्मों के अंश दिखाए जाएँगे. कुछ नहीं दिखाया सालों ने. अख़बार से प्रेरणा ले लेते थोड़ी तो! नहीं ली कम्बख़्तों ने. और तो और महेश भट्ट भी उनको हार फूल चढ़ाने  नहीं गये. उनकी पिक्चर की हीरोइन थी. इतना फ़र्ज़ तो बनता ही  था.  पर क्या किया जाये इन अवसरवादियों का? 

किसी ने इस हस्ती  में 
के बारे में लिखा था कि  वे पॉर्न स्टार हैं , कोई प्रास्टीट्यूट नहीं. उन्होंने भी 
कहीं 

 इंटरव्यू में कहा था कि मैं कोई ऐसी वैसी नहीं हूँ. मेरी 'तमाम फिल्मों' में मैने अपने पति के साथ ही काम किया है.!

ऐसी महान पतिव्रता का जन्मदिन केवल एक ही अख़बार ने मनाया, इसका मुझे दुख है. अगले साल फिर 13 मई को उनकी जयंती आएगी. तब कृपया ध्यान रखिएगा !!! 

पत्रकारिता के उसूलों को मत भूलना .
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Saturday, November 15, 2014

‘चुम्बनिस्टों’ का अखिल भारतीय गाल सलाम

'वीकेंड पोस्ट' में मेरा कॉलम ((15 नवंबर  2014) 





पिछले हफ्ते पूरे देश में ‘किस ऑॅफ लव’ के चर्चे रहे। केरल के कोच्चि शहर में आपस में चुम्मा-चाटी करते हुए युवक-युवती को पीटने वाले लोगों के खिलाफ यह अभियान था। इस अभियान को चलाने वाले लोगों का मानना है कि उन्हें चुम्मा-चाटी करना पसंद है और वे इसे खुलेआम करना बुरा नहीं मानते। इन लोगों का कहना है कि चूमना एक निजी प्रक्रिया है और इससे किसी को कोई खतरा नहीं है। नफरत पैâलाने वालों को रोकना चाहिए, मोहब्बत करने वालों को नहीं। ये लोग आईपीसी के अनुच्छेद २९४(ए) के तहत अभद्र हरकतों में चूमने को नहीं मानते। इन लोगों का कहना है कि सोशल पोलिसिंग के बहाने आरएसएस के लोग युुवाओं को तंग करते है। गुस्से में इन लोगों ने पेâसबुक पर पेज बना डाला और देशभर में चुम्बन प्रेमियों को यह संदेश दे डाला कि मोहब्बत खतरे में है। लिहाजा देशभर के नौजवान आरएसएस के खिलाफ लामबंद हो गए और अंतत: उन्होंने दिल्ली के झंडेवालान स्थित आरएसएस कार्यालय के सामने खुलेआम चुम्मा-चाटी की। पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। इन लोगों की आत्मा को शांति मिली। अब ये आगे और भी बड़े कार्यक्रम की योजना बना रहे है। 

कुछ साल पहले तक फिल्मों में चुम्बन के दृश्यों की इजाजत नहीं थी। चुम्बन की जगह अठखेलियां करते दो पूâलों को साथ-साथ दिखाकर काम चला लिया जाता था। जब से फिल्मों में चुम्बन की अनुमति मिली है तब से चुम्बन पर गाने भी आने लगे है। हिन्दी में ‘जुम्मा-चुम्मा दे दे’ और ‘एक चुम्मा तु मुझको उधार दे दे’ जैसे गाने चल पड़े, तो भोजपुरी में चुम्मा गीतों की बहार आ गई। इन्तेहा यह हो गई कि भोजपुरी में ‘लहंगा उठा के चुम्मा ले जा राजाजी’ जैसे गाने तक चल पड़े। बॉलीवुड वालों की तो हिम्मत ही नहीं है कि वे उसकी नकल कर सवेंâ। वैसे बॉलीवुड में अब श्लील-अश्लीलता की कोई सीमा बची नहीं है और फिल्में समाज का दर्पण है इसलिए आप आम जन-जीवन में भी ऐसे दृश्य देख सकते है। 

आमतौर पर एयरपोर्ट इलाके में और मुंबई के मेरिन ड्राइव, बांद्रा रिक्लेमेशन, वर्ली सी पेâस और दिल्ली के लोधी गार्डन जैसे इलाकों में प्रेमी-प्रेमिकाओं को गलबहिया और चुम्बन करते आसानी से देख सकते है। मध्यप्रदेश जैसे पिछड़े इलाकों में ऐसे नजारे देखने हो तो सुनसान पार्वâ में जाना पड़ता है। ‘चुम्बनिस्टों’ ने जनता की भावना को समझा है और उनके दीदार के लिए यह सुविधा अखिल भारतीय स्तर पर उपलब्ध कराने की ठानी है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। 

अभी भी भारत के कई इलाके बहुत पिछड़े है। लोगों की सोच आगे नहीं बढ़ रही। दोनों प्रेमी-प्रेमिका हैं और वे किस करना चाहते है तो करने दो। उनको भी मजे लेने दो और आप भी मजे लो। लेकिन नहीं। यह विघ्नसंतोषी लोग मोहब्बत के दुश्मन बने है। इनकी छाती पर क्यों सांप लौटता है? यह बात जगजाहिर है कि इन विघ्नसंतोषियों में से अधिकतर अविवाहित है और भारतीय संस्कृति का झंडा लेकर चल रहे है। 

ऐसा नहीं है कि ‘किस ऑफ लव’ जैसे अभियानों के पहले भारत में कोई और ‘शालीन’ आंदोलन नहीं हुए है। लोकतंत्र का पूरा मजा भारत के लोग उठा रहे है। पहले भी पब जाने वाले युवक-युवती ‘पिंक चड्डी’ आंदोलन कर चुके है। तहलका वाली निशा सूजन इस आंदोलन की अगुवाई कर चुकी है और तहलका के संपादक किस दौर से गुजर रहे है यह तो किसी को बताने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा देशभर में जगह-जगह ‘बेशर्मी मोर्चा’ के आंदोलन भी हो चुके है। महिला आजादी की दीवानी औरतें ब्रा जलाने के अभियान भी चौराहों-चौराहों पर कर चुकी है। आजादी के यह अभियान अभी महानगरों तक ही सीमित है। 

आप किसी से प्रेम करते हो यह अच्छी बात है, लेकिन इसका दिखावा करना कौन-सी शान की बात है? कोई भी मां अपने बच्चे से बेइंतेहा मोहब्बत करती है तो क्या यह जरूरी है कि वो उसका सार्वजनिक प्रदर्शन करें? लोग अपने पालतू जानवरों से भी बेपनाह प्यार करते है। कई लोग उसका दिखावा भी करते है। निश्चित ही यह एक निजी मामला है, लेकिन अगर प्यार करना ही है तो उन लोगों से करो, जो शोषित-उपेक्षित हैं। उन बेजुबानों से करो जो यहां-वहां भटक रहे है और कोई उन्हें देखने वाला नहीं। अंत में यहीं कहना चाहूंगा कि सभी ‘चुम्बनिस्टों’ को गाल सलाम। 
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Friday, November 07, 2014

15 लाख की प्लॉनिंग

'वीकेंड पोस्ट' में मेरा कॉलम ((08 नवंबर  2014) 
एक साल से 15 लाख रुपए की प्लॉनिंग कर रहा हूं। 15 लाख कहां-कहां खर्च हो
सकते है, इससे किस-किस का कर्जा पटाया जा सकता है, घर में क्या सामान आ
सकता है, बीवी को कितने गहने दिला सकता हूं, बच्चों को कौन-सी गाड़ी सूट
करेगी, बुढ़ापे के लिए कितने पैसे बचाकर रखना मुनासिब होगा आदि-आदि में
उलझा हुआ हूं। मुझ जैसे मध्यवर्गीय आदमी के लिए 15 लाख बहुत मायने रखते
हैं। कभी 15 लाख रुपए इकट्ठे देखे नहीं। हां, बैंक में जरूर देखे है,
लेकिन वो अपने कहां। अने १५ लाख नगद हो तो बात ही क्या। कुछ न करो 15 लाख
रुए खाते में ही रखे रहने दो, तो 12 - 13  हजार रुपए के आसपास ब्याज ही आ
जाएगा। एक तरह से पेंशन समझो और मूल धन तो अपना है ही। यह पंद्रह लाख
रुपए तो मेरे अपने है। बीवी, बच्चों सबके अपने-अपने पंद्रह लाख होंगे पर
बीवी बच्चों के पैसे पर मैं निगाह क्यों डालूं। मेरा अपना भी तो
स्वाभिमान है।


लोकसभा चुनाव के पहले जब यह पता चला कि विदेश में भारत का इतना काला धन
जमा है कि अगर वह भारत लाया जाए तो हर आदमी को 15 लाख रुपए मिल सकते है।
मेरे घर में कुल 5 सदस्य है, तो इस हिसाब से मेरे घर के लोगों को मिलाकर
75 लाख रुपए होते है। पर मैं ठहरा लोकतांत्रिक आदमी। बीवी, बच्चों को
करने दो उनका हिसाब-किताब। मैं तो अपने 15 लाख पर ही अडीग रहूंगा। न किसी
को पैसा दूंगा, न किसी से पैसा लूंगा।


हिसाब लगा-लगाकर कई रजिस्टर फाड़ चुका हूं। 3-4 लाख रुपए की एक कार आ
जाएगी। 1 लाख रुपए से घर का सामान खरीद लूंगा। 50 हजार रुपए में अपने लिए
शानदार वार्ड रोब बनवाउंगा। डिजाइनर घड़ी 20-25 हजार की। 50 हजार रुपए का
शानदार मोबाइल। 1 लाख रुपए घर की रंगाई-पुताई पर खर्च। इस सब के बाद भी
अच्छा खासा पैसा बचा रहेगा। बचे हुए पैसे को अगर में बैंक में रख दूं और
उसके ब्याज से काम चलाऊं, तो भी ज्यादा तकलीफ नहीं होने वाली। 


बीवी से इन सब बातों पर चर्चा करने का कोई मतलब है नहीं क्योंकि वह ठहरी बचत की
प्रवृत्ति वाली। जिंदगी जीना उसे कहां आता है? पाई-पाई का हिसाब तो पूछती
रहती है। पर मैं उससे उसके पंद्रह लाख रुपए के बारे में कुछ भी नहीं
पूछुंगा। लोकतंत्र है सबको अपने पैसे खर्च करने का हक है और मैं कोई इतना
गयागुजरा नहीं कि दूसरे के पैसे पर नजर डालूं। इतना डरपोक भी नहीं कि
अपने पैसे किसी और को उड़ाने दूं।
रजिस्टर पर रजिस्टर, डायरी पर डायरी भरी पड़ी है। कईयों को तो फाड़-फाड़कर
पेंâक चुका हूं। रोज रात को सपने में 15 लाख रुपए दिखाई देते है। सुबह
पंद्रह लाख रुपए की कल्पना में बीत जाती है। आते-जाते सोते-उठते गरीबी
दूर होने का विचार ही जिंदगी को नई ऊर्जा से भर देता है। जिंदगी में इतनी
खुशियां पहले कभी नहीं देखी। अब जाकर जीवन धन्य हुआ है।
कई नासमिटे कहते है कि पंद्रह लाख तो मिलेंगे, पर उसमें से टीडीएस कट
जाएगा। भई आपको इतने पैसे मिलेंगे, तो सरकार का भी हक है कि उससे इनकम
टैक्स काट लें। अधिकतम इनकम टैक्स है 30 प्रतिशत। अब अगर सरकार ये मानें
कि हम ३० प्रतिशत के ब्रेकेट में है, तो भी 4.50 लाख काटकर 10 लाख 50
हजार रुपए तो बनते ही है। वैसे अपन 30 प्रतिशत के ब्रेव्रेâट में नहीं
है, पर अगर सरकार चाहें तो देश के लिए साढ़े चार लाख रुपए का सहयोग करने
के लिए भी तैयार है। एक जागरुक नागरिक होने के नाते हमें पता है कि हमारे
पैसे से ही सरकार चलती है। मंत्रियों के हवाईजहाज हमारे टैक्स के पैसे से
उड़ते है। करोड़ों के शपथ समारोह में हमारे खून-पसीने की कमाई उड़ाई जाती
है। सब ठीक है। खूब घूमो हवाईजहाज में, ताजपोशी के शानदार प्रोग्राम करो,
महंगी-महंगी कारों में घूमो, सेवन स्टार होटलों में ऐश करो, कोई बात
नहीं। बस हमारे15 लाख रुपए हमें लौटा दो। चाहो तो उसमें से भी टैक्स काट
लो।


हिसाब बनाते-बनाते काफी वक्त बीत गया है। एक सीए कह रहे है कि यह 15 लाख
रुपए सरकारी खजाने में जमा हो जाएंगे। आपको एक पैसा भी मिलेगा नहीं। आपने
जब कमाया ही नहीं है, तो सरकार आपको यह पंद्रह लाख रुपए क्यों दें। राहु
लगे ऐसे सीए को। हमारे पैसे हमको देने में उसकी नानी मर रही है। सीए न
हुआ, अरुण जेटली हो गया। हमारा पूरा पैसा ही खाने के मूड में है। पर वह
खा नहीं पाएंगे। हमारी बद्दुआ लगेगी। चुनाव के पहले इतना ज्ञान देते थे
कि भैया हमारा इतना पैसा विदेश के बैंकों में है कि हरेक को पंद्रह लाख
रुपए मिल सकते है। 5-10 प्रतिशत कम ज्यादा कर लो, पर पैसे तो लौटाओ।
भरोसा है कि अगले चुनाव तक मेरे 15 लाख रुपए का हिसाब हो जाएगा।


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