Tuesday, September 14, 2010


NOSTALGIA :
डायरी के पन्ने : धर्मयुग के वे दिन

--प्रकाश हिन्दुस्तानी

...वह हिंदी दिवस था और 'धर्मयुग' में उप संपादक के रूप में मेरा पहला दिन. मेरे पास पैसे नहीं थे, नईदुनिया के साथी शेखर खांडेकर ने अपने फ्लेट में पनाह दी थी. शेखर तब इंडियन एक्सप्रेस में थे और ससून गोदी में उन का फ्लैट था. धर्मयुग में मेरे साथी थे--अशोक कुमार (इण्डिया टुडे) और अजंता चौधरी (अब देव). अजंता जी कुछ ही दिन में मुंबई छोड़ गयीं और काका हरिओम का साथ मिला.

डॉ. धर्मवीर भारती धर्मयुग के संपादक थे,बब्बर शेर की तरह. श्री मनमोहन सरल और श्री गणेश मंत्री सहायक संपादक. श्री राम मूर्ती, श्री राजन गाँधी मुख्य उप संपादक. वरिष्टों में थे सर्वश्री ओमप्रकाश, अवधकिशोर पाठक, आलोक जी .....'टाइम्स' ऑफ़ इन्डिया बिल्डिंग की चौथी मंजिल पर धर्मयुग था. एक तरफ इलेस्ट्रेटेड वीकली, दूसरी तरफ फ़िल्म पत्रिका 'माधुरी'. सामने 'फेमिना' और 'फिल्मफेयर'. तीसरी मंजिल पर 'नभाटा' था जिसमें विश्वनाथ जी, रामकृपाल, कमर वहीद नक़वी, विजय भास्कर सिंह...कुछ ही दिनों में आरके (रामकृपाल), नक़वी, सुहैला कपूर और हेमा (फेमिना),मुकुल पंड्या और डीवी हेगड़े (ईटी) से जमने लगी. हमने अपना एक स्टडी ग्रुप बनाया था. हफ्ते में एक बार कहीं बैठते और किसी एक किताब की चर्चा करते. कभी घूमने भी जाते, खंडाला-लोनावाला, इगतपुरी, या कहीं भी. बाद में मुकुल और हेमा ने शादी कर ली और युएस चले गए. डीवी हेगड़े ने अपने कंपनी बना ली, सुहैला ने फिल्मों-सीरियलों में काम शुरू किया और फेमिना छोड़ दिया. मैं 'नभाटा' में शिफ्ट हुआ. वहां आरके और नक़वी का साथ था ही, संजय पुगलिया भी आ गया. ....'धर्मयुग' के दिनों में एसपी सिंह, उदयन शर्मा, रवींद्र कालिया, नंदन जी, के योगेन्द्रकुमार लल्ला जी के खूब किस्से सुने-सुनाये जाते थे. राजीव शुक्ला कानपुर से धर्मयुग में इंटरव्यू देने आया था, लेकिन चुना नहीं जा सका. लिखित परीक्षा और तीन साक्षात्कार के दौरान राजीव से अच्छी दोस्ती हो गयी थी. बरसों बाद उस से मुलाकात हुई, तब तक राजीव बहुत बड़ा आदमी बन चुका था लेकिन वह दिल खोलकर मिला तो अच्छा लगा. उसने न पहनाने का कोई अभिनय नहीं किया, जैसा दीपक जैसे लोग करते रहते हैं.

..मैं 'धर्मयुग' में सब एडिटर पद का इंटरव्यू देने गया था. तब भारती जी ने पूछा--क्या क्या पढ़ते हो? मैने कहा--सभी कुछ. गुलशन नंदा से लेकर धर्मवीर भारती तक. अगला सवाल था --गुलशन नंदा कैसे लगते हैं? मैने कहा--दिलचस्प! मेरा चयन हो गया था. शायद मेरी साफ़गोई के कारण, बाद में मुझे गुलशन नंदा का इंटरव्यू करने का मौका भी मिला, वह 'दिनमान' में छापा भी था.
...
बाकी बातें फिर कभी....

Friday, September 03, 2010


मीडिया में भी 'आइटम'

-- प्रकाश हिन्दुस्तानी --
जकल मीडिया में भी 'आइटम' का चलन हो गया है ! आप के आस पास भी पत्रकार कम और 'आइटम' ज़्यादा होंगे। ज़रा गौर से देखें और अगर ना पहचान सकें तो ये रही उनकी पहचान :



--फिल्मों में 'आइटम' इसलिए डाले जाते हैं कि जनता फिल्म देखने आए. मीडिया में 'आइटम' इसलिए डाले जाते हैं कि एड. की भरमार हो सके.


--फिल्मों में 'आइटम' आम तौर पर नवागत नई-नई हीरोइनें करती हैं. मीडिया में 'आइटम' नये नये पत्रकार करते हैं, ज़रूरी नहीं की वह स्त्री ही हो, क्योंकि वहाँ सभी तरह के लोग 'आइटम' के लिए मौजूद हैं


--फिल्मों में 'आइटम' में जनता सिक्के उछालती है, मीडिया में 'आइटम' देख एड. देनेवाला गड्डियाँ उछालता है।
--फिल्मों में 'आइटम' से प्रोड्यूसर मालामाल होता है, मीडिया में 'आइटम' मीडिया का मालिक !

--फिल्मों में 'आइटम' एक या दो ही हो सकते हैं. मीडिया में 'आइटम' की ज़रूरत शाश्वत हो चली है. पूरा शो ही 'आइटम' होता है.

--फिल्मों में 'आइटम' करनेवाले 'भी' ठीकठाक कमा लेते हैं, मीडिया में 'आइटम' करनेवाले 'ही' ठीकठाक कमा पाते हैं.

--हरेक फिल्म में 'आइटम' करनेवाले नहीं होते / होतीं, जबकि हर मीडिया में 'आइटम' करनेवाले होने लगे हैं........
और अंत मे : --- फिल्मों के 'आइटम' में हीरोइन को कपड़े उतारने पड़ते हैं, मीडिया में 'आइटम' में कपड़े नहीं, चरित्र उतारना पड़ता है. फिल्मी 'आइटम' में चरित्र उतरने की मज़बूरी नहीं होती.
---प्रकाश हिन्दुस्तानी



3सितम्बर 2010
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