Saturday, February 28, 2015



क्यों की गई बांग्लादेश में सोशल मीडिया एक्टिविस्ट अविजित रॉय की हत्या 




 मुक्तो मोनो 

ऐसा लगता है कि बांग्लादेश  भी अफ़ग़ानिस्तान और ईराक के कट्टर पंथियों की राह पर चल पड़ा है. 26 फ़रवरी को ब्लॉगर, लेखक, अनीश्वरवादी बुद्धिजीवी अविजित रॉय की हत्या यही बता रही  है. लगता है कि  बांग्लादेश में अब धर्मनिरपेक्ष,  विज्ञानसम्मत, स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति पर ख़तरा और बढ़ गया है.  




सोशल मीडिया एक्टिविस्ट अविजित रॉय की ढाका में हत्या कर दी गई.  वे अटलांटा,  यूएसए में रहते थे और 15  फ़रवरी को ही ढाका आए थे. उनकी दो किताबों का विमोचन ढाका के पुस्तक मेले मे हुआ था. वे रोजाना पुस्तक मेले में जाते  थे और मेला ख़त्म होने तक वहीं रुकते थे. 26 फ़रवरी की रात करीब साढ़े 8 बजे  वे अपनी पत्नी रफीदा  अहमद बोन्ना  के साथ पुस्तक मेले से लौट रहे थे. दोनो पति-पत्नी सायकल रिक्शा पर से उतरकर घर के पास वाले फुटपाथ पर जा  रहे थे कि  दो हमलावरों ने कसाइयों वाले बड़े धारदार छुरे से हमला कर दिया.  हमलावर अनुभवी हत्यारे रहे होंगे क्योंकि उन्होंने बहुत सोच समझकर वार किए थे.





हत्या की ज़िम्मेदारी बांग्लादेश के मुस्लिम अतिवादी संगठन जमाते इस्लामी ने ली है. बीती 9 फ़रवरी को ही अविजित रॉय को फेसबुक पर किसी शफी उर रहमान ने धमकी दी थी कि अविजित रॉय को छोड़ेंगे  नहीं. अविजित रॉय के पहले भी बांग्लादेश में सोशल मीडिया एक्टिविस्ट ब्लॉगर  अहमद रज़ीब हैदर और प्रोफ़ेसर हुमायूँ आज़ाद की हत्या की जा चुकी है.

अविजित 45 साल थे।  हत्यारों के निशाने पर उनकी 35 वर्षीय  पत्नी भी थी, और उन पर भी जानलेवा वार किये गए थे।  मौत से उनकी लड़ाई अभी जारी है और वे जीवन के लिए संघर्ष जारी  हैं। 

अविजित ने  8  किताबें लिखी हैं।  इनमें  से दो सबसे चर्चित रही 'बिस्वासेर वायरस' (विश्वास के वायरस) और  'ओबेशेर दर्शन' ( अविश्वास का दर्शन) . इन  किताबों  से कट्टरपंथियों को बहुत मिर्ची लगी   और वे उन्हें जान से मारने की धमकियाँ दे रहे थे. उनका संदेश भी था कि यहाँ  बांग्लादेश आओ, तुम्हें देख लेंगे. अविजित ने मैकेनिकल इंजीनियर की डिग्री ली थी. उन्होंने सिंगापुर  पीएच-डी भी  की थी। वे अमेरिकी नागरिक थे. 

अविजित के सहयोगी बांग्लाभाषी ब्रिटिश लेखक अहसान अक़बर का कहना है कि अविजित लोगों की भावनाओं को समझते थे और उसकी कद्र भी करते थे. अपने लेखन में उन्होंने सीधे सीधे किसी भी धर्म पर हमला नहीं किया लेकिन लोगों को जागरूक करने के लिए वे हमेशा लेखन का इस्तेमाल करते थे.

प्रकाश हिन्दुस्तानी 

अविजित रॉय की बांग्ला वेबसाइट   :   http://mukto-mona.com/bangla_blog/



फेसबुक पर  अविजित रॉय का लिंक  :  https://www.facebook.com/pages/Avijit-Roy/1541857766102588






अविजित रॉय का ट्विटर अकाउंट  लिए यहाँ  क्लिक करें :
 https://twitter.com/search?q=%23Avijit%20Roy&src=typd&mode=users





अविजित रॉय का एक रीट्वीट :














Wednesday, February 25, 2015

केवल किसानों की जमीन ही क्यों?

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 सरकार को अधिग्रहण के लिए केवल गरीब किसानों की ही जमीन नजर आती है। बड़े-बड़े उद्योग घरानों और उनके द्वारा हथियाई गई जमीन पर सरकार की निगाह नहीं जाती।
पर्ल ग्रुप के पास करीब एक लाख एकड़ जमीन है। मुकेश अंबानी की कम्पनियों के पास करीब 70 हजार एकड़ जमीन है। गौतम अडानी 20 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन पर कब्जा रखते है और दस हजार 600 एकड़ का इजाफा होने वाला है।  सहारा समूह की एम्बी वैली करीब 25 हजार एकड़ की है। इसके अलावा 217 शहरों में सहारा समूह के पास औसतन 100 एकड़ जमीन हर शहर में है।  टाटा समूह के पास देशभर में कितनी जमीने है, इसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। बिड़ला समूह, अडानी ग्रुप, अनिल अग्रवाल ग्रुप, एस्सार, नुस्ली वाडिया, गोदरेज, वाडिया ग्रुप, दिनशा ग्रुप, बिलिमोरिया परिवार, ठाकुर परिवार, हिरजी भाई दिनशा परिवार, बैरामजी जीजी भाई परिवार, वीके लाल परिवार, मोहम्मद युसूफ खोट ट्रस्ट, अंसल परिवार, कृष्णपाल सिंह परिवार, नंदा परिवार जैसों के पास कुल कितनी जमीन है, यह हिसाब लगाना मुश्किल है।
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धीरूभाई अंबानी को लेकर एक किस्सा याद आता है, जो उन्होंने अपने सहयोगी से कहा था- हम कहां उद्योग धंधा लगाएं, यह बात पहले तय करते है और फिर उसके बाद जमीन कबाड़ते है। जमीन भी हमारे लिए एक तरह का रॉ-मटेरियल ही है। 

आज अधिकांश कार्पोरेट यही कर रहे है, जो यह नहीं कर पा रहे है वे ऐसा ही करने की कोशिश कर रहे है। इसके अलावा एक बहुत बड़ा खेल कार्पोरेट जगत कर रहा है और वह है ‘लैंड बैंक’ बनाने का। लगभग सभी बड़े घरानों की अपनी लैंड बैंक है। वे उसका इस्तेमाल नहीं कर रहे है और इंतजार कर रहे है कि कब वह जमीन और महंगी हो और वे उसका उपयोग ज्यादा व्यावसायिक तरीके से करें। 

यह बात सही है कि विकसित होते हुए भारत के लिए नए एयरपोर्ट, बंदरगाह, रेल लाइनें, हाइवेज, उद्योग धंधे आदि के लिए जमीन की जरूरत हैे और यह सब जमीन पर ही बन सकते है हवा में नहीं। जमीन अधिग्रहण को लेकर सरकार का इरादा है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सेना के हथियारों के उद्योग बड़े विद्युतीकरण प्रोजेक्ट्स और गरीबों को घर देने की परियोजनाओं के लिए ही भूमि अधिग्रहण करेगी। सुनने में यह बात अच्छी लगती है, लेकिन व्यवहार में ऐसा होता नहीं है। सरकार को अधिग्रहण के लिए केवल गरीब किसानों की ही जमीन नजर आती है। बड़े-बड़े उद्योग घरानों और उनके द्वारा हथियाई गई जमीन पर सरकार की निगाह नहीं जाती। वास्तव में सरकार को पहले ऐसी जमीनें अपने नियंत्रण में लेनी चाहिए। 


जमीन अधिग्रहण कानून को लेकर पक्ष और विपक्ष में बहुत तर्वâ हो रहे है। मैं पिछले एक महिने से यह जानने की कोशिश में लगा हूं कि इस देश के सबसे बड़े भूमि स्वामी कौन है? मैं अभी तक यह जानकारी प्राप्त नहीं कर सका, क्योंकि यह जमीने अलग-अलग कार्पोरेट घरानों ने अलग-अलग नामों से हथिया रखी है। ये कार्पोरेट घराने संख्या में कम होते हुए भी ज्यादा पॉवरपुâल है क्योंकि इनके पास पैसे की ताकत के अलावा कानून को अपने हिसाब से मैनेज करने वाले लोग भी है। आंध्रप्रदेश को ही देखे, वहां विजयवाड़ा के पास २९ गांवों की एक लाख एकड़ जमीन अधिग्रहित करने की कोशिश की जा रही है, ताकि वहां नई राजधानी बनाई जा सवेंâ। यह सारी जमीन किसानों की है। किसी उद्योगपति के लैंड बैंक से एक एकड़ जमीन भी कम होने वाली नहीं है। मरेंगे केवल गरीब किसान। मध्यप्रदेश के महेश्वर के नर्मदा घाटी पर बनाए जाने वाले बांध को ही लें। 1962 में इस परियोजना का विचार हुआ। 1994 में इसे पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत मंजूरी दी गई। अभी तक इसका काम जारी है और एक यूनिट बिजली भी इसमें पैदा नहीं हुई। इसके लिए करीब 70 हजार किसानों की जमीन डूब में आई। 61 गांव तबाह हो गए। 500 करोड़ की यह परियोजना साढ़े चार हजार करोड़ से भी ज्यादा हो गई। बांध बनाने वाले निजी वंâपनी ने कोई भी पुर्र्नवास का काम पूरा नहीं किया। इस वंâपनी ने सरकारी बैंकों और अन्य संस्थाओं से अरबों रुपए का कर्ज ले लिया और उस पैसे को दूसरे धंधों में लगा दिया। गरीब किसान दर-दर की ठोकरें खा रहे है। सरकारी बैंकों का अरबों रुपया डूब गया और नतीजा रहा सिफर।

बड़े कार्पोरेट घराने देश की बेशकीमती जमीन पर अपने कब्जे की कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं करते। पर्ल ग्रुप के पास करीब एक लाख एकड़ जमीन है। मुकेश अंबानी की वंâपनियों के पास करीब 70 हजार एकड़ जमीन है। गौतम अडानी 20 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन पर कब्जा रखते है और दस हजार 600 एकड़ का इजाफा होने वाला है। अडानी की ज्यादातर जमीनें एसईझेड अथवा पीपीपी मॉडल के तहत हथियाई गई है। सहारा समूह की एम्बी वैली करीब 25 हजार एकड़ की है। इसके अलावा 217 शहरों में सहारा समूह के पास औसतन 100 एकड़ जमीन हर शहर में है। सहारा समूह ने ही लखनऊ में गरीब लोगों को मकान देने के नाम पर 600 एकड़ जमीन लीज पर ले रखी थी, जिस पर समूह के संचालकों के महलनुमा आवास बने है। टाटा समूह के पास देशभर में कितनी जमीने है, इसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। बिड़ला समूह, अडानी ग्रुप, अनिल अग्रवाल ग्रुप, एस्सार, नुस्ली वाडिया, गोदरेज, वाडिया ग्रुप, दिनशा ग्रुप, बिलिमोरिया परिवार, ठाकुर परिवार, हिरजी भाई दिनशा परिवार, बैरामजी जीजी भाई परिवार, वीके लाल परिवार, मोहम्मद युसूफ खोट ट्रस्ट, अंसल परिवार, कृष्णपाल सिंह परिवार, नंदा परिवार जैसों के पास कुल कितनी जमीन है, यह हिसाब लगाना मुश्किल है। बेशक सबसे ज्यादा जमीनों की मिल्कियत तो सरकार के पास ही है और आम तौर पर राजशाही वाहे देशों में यह जमीन सरकार की निजी मानी जाती है। ाqब्रटेन की महारानी इस हिसाब से दुनिया की सबसे बड़े जमीनदार है। मुंबई में ही कोलाबा से लेकर दहिसर तक की जमीनों में 6600 एकड़ जमीन पर केवल ९ परिवारों का कब्जा है। यह हाल मुंबई का है जहां लाखों लोग झोपड़ पट्टियों में रहते है और एक कमरे का मकान होना भी खुशनसीबी मानी जाती है। 

एसईझेड के नाम पर भी जमीनों के भारी घोटाले हुए है। अनेक राज्य सरकारों ने एसईझेड के लिए किसानों की जमीनें अधिग्रहीत की और वे जमीनें उद्योगों को दी गई। अधिकिांश उद्योगपतियों ने उस जमीन का आंशिक उपयोग भी किया और बाकी जमीन अपनी भावी परियोजनाओं के लिए आरक्षित कर ली। केन्द्र सरकार कहती है कि किसी भी परियोजना के लिए जमीन की अड़चन नहीं आने दी जाएगी। अच्छी बात है, लेकिन यह जमीन आएगी कहां से? किसकी होगी यह जमीन? क्या इन उद्योगपतियों और भूस्वामियों से सरकार जमीन ले सकती है? पीपीपी परियोजनाओं के नाम पर जमीनें किस तरह बंट रही है। यह भी किसी से छुपा नहीं है। किसानों की सहमति के बिना उनकी जमीन लेना कतई उचित नहीं कहा जा सकता। दूसरा किसी भूमिग्रहण का सामाजिक असर क्या होगा, इसे आप नर अंदाज नहीं कर सकते। खेती पर हमारे वे लोग निर्भर है जो बहुत पढ़े लिखे नहीं है। उनके पास संस्थानों की भी कमी है, लेकिन फिर भी वे जमीन के सहारे किसी तरह अपनी आजीविका चला लेते है। जमीन अधिग्रहण के वक्त उसका मूल्य तय करने का फार्मूला भी उचित नहीं कहा जा सकता। उद्योगपति किसी भी जमीन को कम दामों में ले सकते है, क्योंकि यहां आधार होगा उस जमीन की रजिस्ट्री की डीड निकालना। स्टाम्प ड्यूटी से बचने के लिए आमतौर पर किसान मूल कीमत से कम कीमत पर रजिस्ट्री करवाते है। गैर कृषि योग्य जमीन का अधिग्रहण एक सीमा तक उचित कहा जा सकता है, लेकिन खेती वाली जमीन, खासकर एक से अधिक फसलें देने वाली जमीनों का अधिग्रहण अगर होगा, तो 1965 के बाद वाले हालात फिर से आ सकते है, जब देश में खाद्यान्न की कमी जैसी स्थिति पैदा हो जाए। 

अधिग्रहण के खिलाफ जनआंदोलन चलाने वालेपी. वी. राजगोपाल का कहना है कि कोई भी सरकार गरीबों और किसानों से ही चलती है। पूंजीपतियों ने कभी कोई सरकार नहीं चलाई। सरकार को चाहिए कि वह अनुपयोगी भूमि अपने कब्जे में ले और बेघर किसानों को बांट दे। जंगल में रहने वाले आदिवासियों को उसी जंगल का हक मिले। 
कॉपीराइट © 2015 प्रकाश हिन्दुस्तानी

Saturday, February 21, 2015

अमर्त्य सेन अपनी राजनीति बंद करें


एक खत, अमर्त्य सेन के नाम

आदरणीय अमर्त्य सेन साहब. आप भारत रत्न, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हैं, मैं एक नाचीज़ आपको यह खत लिख रहा हूँ. गुस्ताख़ी की माफी पहले ही माँग रहा हूँ. आपकी नाराज़गी हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी से रही है और आप उसे समय समय पर व्यक्त भी करते रहे हैं. यह भी सच है कि आप विकास के गुजरात मॉडल की तारीफ भी करते रहे हैं. लेकिन अभी आप नालंदा विश्वविद्यालय के चांसलर (कुलाधिपति) पद से हटने को लेकर जो क्षुद्र राजनीति कर रहे हैं, वह मेरी समझ से परे है.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक आपने नालंदा विश्वविद्यालय के गवर्निंग बोर्ड को लिखे पत्र में कहा है --" एक महीने पहले मेरे नाम की सिफारिश किए जाने के बावजूद मेरा नाम सरकार की तरफ से आगे नहीं दिया जा रहा है। इसके कारण राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की तरफ से आपके नाम को मंजूरी नहीं मिल रही है. नालंदा विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के तौर पर मेरे कार्यकाल की समाप्ति चाहती है और तकनीकी तौर पर उसे करने का ऐसा कोई अधिकार नहीं है। इसलिए मैंने फैसला किया है कि मुझे जुलाई के बाद भी इस पद पर बनाए रखने की सर्वसम्मत सिफारिश और गवर्निंग बोर्ड के अनुरोध के बावजूद नालंदा विश्वविद्यालय की बेहतरी के लिए मेरे नाम को हटा लिया जाना चाहिए। सरकार की मंजूरी के बिना राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बोर्ड के सर्वसम्मत चयन पर अपनी संस्तुति देने की स्थिति में नहीं हैं।"

माननीय अमर्त्य सेन साहब, आपको एक ऐसे महान संस्थान को फिर से जीवित करने का दायित्व सौंपा गया था, जिसमें मुझ जैसे आम आदमी की उम्मीदें टिकी थीं. इससे बिहार का नाम एक बार फिर दुनिया में छा सकता था.  इन उम्मीदों को  आपने धूल में मिला दिया.  इसके लिए मुझ जैसे करदाता का खून पसीने का पैसा लगा था.

हम प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की कई बातों से सहमत हैं और कई से नहीं हैं. लेकिन यहाँ उन पर आरोप लगाकर आप जो राजनीति कर रहे हैं वह शोभनीय नहीं है.

सरकार स्पष्ट कर चुकी है कि आपके कार्यकाल को सीमित करने के कोई प्रयास नहीं किए गए। इस बारे में जो निर्णय लेना है वह राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को लेना है। उन्होंने स्थिति को और स्पष्ट करते हुए कहा कि जीबीएनयू ने 13 फरवरी को मिनट्स के ड्राफ्ट प्रेषित किए थे। सरकार को अपनी टिप्पणी दो हफ्ते में देनी थी। जिसकी अवधि 27 फरवरी को खत्म हो रही है।

माननीय,  तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ ए पी जे कलाम साहब ने 28 मार्च 2006 को इस विश्व विद्यालय का प्रस्ताव रखा था. संसद के दोनों सदनों की मंज़ूरी के बाद अधिनियम बना और  नालंदा विश्वविद्यालय, 25 नवंबर, 2010 को अस्तित्व में आया. आप इस महान संस्था के परामर्श मंडल में सर्वोच्च स्थान पर रखे गये. आप इसके परामर्श मंडल की बैठकें करते रहे. ये बैठकें न्यूयॉर्क, सिंगापुर, टोक्यो, दिल्ली आदि में हुई और उन पर केवल 211,00,000 :00 ( दो करोड़ ग्यारह लाख रुपये) का मामूली खर्च हुआ!

2007 में अनुमान था कि यह विश्व विद्यालय 1005 करोड़ में खुल जाएगा. अगले 12 साल में इसमें 2727 करोड़ रुपये लगाने की योजना बनी. बिहार के राजगीर में सरकार ने किसानों की 446 एकड़ ज़मीन लेकर विश्व विद्यालय को सौंपी. जब से यह विश्व विद्यालय अस्तित्व में आया है, सैकड़ों करोड़ खर्च हो चुके हैं और इसमें अध्ययन का काम सितमबर 2014 से शुरू हुआ. विद्यार्थी कितने हैं? पंद्रह ! जी हाँ 15 !



इस पूरी योजना के सूत्रधार डॉ कलाम आपकी हरकतों से इतने दुखी हुए कि उन्होंने इससे खुद को अलग कर लिया. यह उनका बड़प्पन ही था कि उन्होंने कभी भी न तो अपनी नाराज़गी खुलकर जाहिर की लेकिन आर टी आई के एक जवाब में उनकी व्यथा खुलकर सामने आ गई थी.

अजीबोगरीब बातें :
  • नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए जो परामर्श मंडल बना था, वही उसकी गवर्निंग बॉडी बन गई और इस तरह नालंदा विश्वविद्यालय के चांसलर (कुलाधिपति) बने आप यानी डॉ अमर्त्य सेन ! डॉ अमर्त्य सेन का काकस बना दिल्ली और पटना में. दिल्ली में आप डॉ मनमोहन सिंह के साथ थे और पटना में नीतीश कुमार के साथ. दिल्ली में मोदी आए और पटना में मांझी तो आपकी नाव डोलने लगी. आप शहादत की भूमिका बनाने लगे.
  • नालंदा विश्वविद्यालय के चांसलर के रूप में आपको बिहार में रहना था, आप चले गये दिल्ली आर के पुरम में !
  • आप इतने बड़े अर्थशास्त्री हैं 3 साल तक आपने नालंदा विश्वविद्यालय के लिए कोई ब्लू प्रिंट नहीं बनाया और न ही बनाने का जिम्मा किसी को सौंपा. क्यों? वेतन-सुविधा-भत्ते सब तो लेते रहे आप?
  • आपने गोपा सबरवाल को उप कुलपति बना दिया. वे क्या थे? रीडर ही थे ना? उनका वेतन था 5,06,513 हर महीने.  सबरवाल जी ने अपनी शिष्या दिल्ली की असोसिएट प्रोफ़ेसर अंजना शर्मा  को ओ एस डी बना दिया 3,30,000 रुपये महीने में! इत्ती तनख़्वाह तो भारत मे कुलपतियों को भी आम तौर पर नहीं मिलती.
  • विदेशी मामलों का विभाग कोई विश्वविद्यालय चलाता है क्या? क्या यह विभाग किसी विश्व विद्यालय का मलिक हो सकता है? क्या कोई कोई अग्रीमेंट साउथ एशियन विश्व विद्यालयों से हुआ है?
  • इस बारे में राज्यसभा में सांसद अनिल माधव दवे सवाल कर चुके हैं, अनेक आर टी आई लग चुकी हैं, अख़बारों में स्पेशल रिपोर्ट्‌स आ चुकी हैं, क्या आपने कभी कोई खंडन किया?


कॉपीराइट © 2015 प्रकाश हिन्दुस्तानी

Wednesday, February 18, 2015

कार्पोरेट घरानों और बड़ी पार्टियों का नैन-मटक्का


चंदे और दान के नाम पर अरबों की फंडिंग 

  • सात साल में कार्पोरेट घरानों ने 4 हजार 662 करोड़ रुपए पार्टियों को दान दिए।
  •  भारतीय जनता पार्टी को 2014 में कुल 363 करोड़ का चंदा मिला। 2014 में कांग्रेस को मिले चंदे की राशि 59 करोड़ रुपए रहीं.
  • कुछ कार्पोरेट घरानों ने भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को बराबर चंदा दे दिया। 
  • 2013 में हालात एकदम बदल गए। कांग्रेस को चंदे में 11 करोड़ 72 लाख रुपए मिले, जबकि भाजपा को इससे 7 गुना से भी ज्यादा चंदा मिला 
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जब भी आम चुनाव आते है भारत में कारोबार बढ़ जाता है। मरणासन न्यूूज चैनलों को नया जीवन मिल जाता है। छोटे-मोटे अखबार भी खासी कमाई करने लगते है। पार्टी कार्यकर्ता से लेकर छोटे-मोटे दुकानदार तक रोजगार में लग जाते है। इस कारोबार में घोषित और अघोषित दोनों तरह के लेन-देन होते है। चुनावों को पारदर्शी बनाने के लिए बहुत सारे प्रयास किए गए, लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। भारत के कंपनी कानूनों के मुताबिक कोई भी कंपनी अपने तीन वर्ष के मुनाफे के औसत का साढ़े सात प्रतिशत राजनैतिक पार्टियों को दान दे सकती है। 

दिलचस्प बात यह है कि जो बड़े घराने राजनैतिक दलों को चंदा देते है वे एक हद तक ही पारदर्शिता दर्शाते है। उसके आगे-पीछे भी कुछ न कुछ लेन-देन होता रहता है। यह लेन-देन नकद के बजाय सौजन्य पर निर्भर है। इस तरह के सौजन्य योगदान में नेताओं को हवाई जहाज उपलब्ध करवाने से लेकर बड़ी मात्रा में झंडे पैनल उपलब्ध कराना, वाहनों के काफिलों का इंतजाम आदि शामिल है। चुनावी चंदे को चैनलाइज करने के लिए बनाए गए ट्रस्टों में सत्या ट्रस्ट सबसे बड़ा ट्रस्ट है। हाल ही में इस ट्रस्ट की रिपोर्ट आई तो पता चला कि भारतीय जनता पार्टी को 2014 में कुल 363 करोड़ का अधिकाधिक चंदा मिला। 2014 में कांग्रेस को मिले चंदे की राशि 59 करोड़ रुपए रहीं। बीते वित्तीय वर्ष में भारतीय जनता पार्टी को 20 हजार रुपए या उससे अधिक चंदा देने वाले 1480 लोग थे। जबकि कांग्रेस को केवल 710 ऐसे चंदे मिले जिसकी राशि 20 हजार या उससे अधिक थी। कानून के मुताबिक 20 हजार रुपए से कम चंदा देने वालों के विवरण रखना जरूरी नहीं है और पार्टियां इसी का फायदा उठाकर ब्लैकमनी को व्हाइट करने का काम करती है। 

भारतीय जनता पार्टी को 2014 में मिले चंदे में सबसे बड़ा योगदान भारती ग्रुप (एयरटेल) के सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट का रहा है। जिसने 41 करोड़ 37 लाख रुपए भारतीय जनता पार्टी की झोली में डाले। 33 कंपनियों और 1 ट्रस्ट ने भारतीय जनता पार्टी को एक करोड़ रुपए से ज्यादा का चंदा दिया, जिसमें महिन्द्रा लाइफ स्पेस, हीरो साइकिल्स, भारत फोर्ज, टोरेन्ट पॉवर, कैडिला हेल्थकेयर, वीडियोकॉन इंडस्ट्री, बिरला कार्पोरेशन और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया प्रमुख है। 
 दक्षिण मुंबई टाइम्स 19 फ़रवरी 20015

भाजपा को मोटा चंदा देने वाले भारती ग्रुप के सत्या ट्रस्ट ने कांग्रेस को भी 36 करोड़ 50 लाख रुपए का चंदा दिया था। इस ट्रस्ट ने भाजपा को 41 करोड़ 37 लाख तो उसे संतुलित करने के लिए कांग्रेस की झोली में भी अच्छा खासा रुपया डाल दिया। कुछ कार्पोरेट घराने इतने बुद्धिमान निकले कि विवादों से बचने के लिए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को बराबर चंदा दे दिया। एवी पाटिल फाउंडेशन ने 5 करोड़ कांग्रेस को दिए तो 5 करोड़ भाजपा को दिए। भारत फोर्ज ने भी कांग्रेस और भाजपा को ढाई-ढाई करोड़ रुपए दिए। महिन्द्रा लाइफ स्पेस ने भी कांग्रेस को एक करोड़ दिए थे। 

भारत के प्रमुख बड़े औद्योगिक घरानों में अनिल और मुकेश अंबानी की रिलायंस कंपनियों, अनिल अग्रवाल की वेदांता, कोटक, महिन्द्रा, केके बिडला और मुरुगप्पा समूह राजनैतिक दलों को दान देने के लिए आगे आते रहे है। भारती जनता पार्टी चाहे सत्ता में रही हो या ना रही हो उसे इन कार्पोरेट घरानों का नियमित चंदा मिलता रहा है। सन् 2005 से लेकर 2012 तक भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस की तुलना में कार्पोरेट घरानों से ज्यादा चंदा मिला है। भारतीय जनता पार्टी कार्पोरेट घरानों से चंदा लेने में हमेशा आगे रही है। इस अवधि में जहां कांग्रेस को केवल 418 चंदे मिले, वहीं भारतीय जनता पार्टी ने 1334 चंदे के चेक हासिल किए। भारतीय जनता पार्टी को चंदा देने वालों में मेन्यूफैक्चरिंग और रियलटी सेक्टर आगे रहा है, जबकि कांग्रेस को चंदा देने वालों में कंस्ट्रक्शन कंपनियां और खदान समूह हमेशा आगे रहते है। 

बिजनेस स्टेण्डर्ड अखबार के एक विश्लेषण के अनुसार भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस की तुलना में दो गुने से भी ज्यादा चंदा कार्पोरेट घरानों से मिला। चुनाव आयोग ने राजनैतिक पार्टियों को चंदा देने के लिए जो पहल की थी उसकी गाइड लाइन के अनुसार अनेक कार्पोरेट घराने ट्रस्ट बनाने के लिए आगे आए। इन घरानों ने ट्रस्ट बनाकर राजनैतिक पार्टियों को दान देने की शुरुआत की, ताकि चुनाव के खर्चे में काले धन पर अंकुश लगाया जा सके। बिजनेस स्टेण्डर्ड के अनुसार कांग्रेस को 70 करोड़ 28 लाख ट्रस्ट और समूह कंपनियों से, खदान, कंस्ट्रक्शन और इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट सेक्टर से 23 करोड़ 7 लाख रुपए मिले, जबकि भारतीय जनता पार्टी को उत्पादन सेक्टर से 58 करोड़ 18 लाख, ऊर्जा और तेल सेक्टर से 17 करोड़ 6 लाख और रियलटी सेक्टर से 17 करोड़ 1 लाख रुपए मिले। रियलटी सेक्टर और मेन्यूफैक्चरिंग घरानों का योगदान राजनैतिक पार्टियों को चंदा देने में हमेशा आगे रहा है। 2005 से लेकर 2012 तक कांग्रेस को चंदा देने वालों में आदित्य बिडला ग्रुप ने 36 करोड़ 41 लाख, टोरेंट पॉवर ने 11 करोड़ 85 लाख और भारती समूह के सत्या ट्रस्ट ने 11 करोड़ रुपए दिए थे। इसी अवधि में आदित्य बिडला ग्रुप ने भारतीय जनता पार्टी को 26 करोड़ 57 लाख, टोरेंट ग्रुप ने 13 करोड़ और एशियानेट होर्डिंग्स ने 10 करोड़ रुपए दिए। 

2013 में हालात एकदम बदल गए। कांग्रेस को चंदे में 11 करोड़ 72 लाख रुपए मिले, जबकि भारतीय जनता पार्टी को इससे 7 गुना से भी ज्यादा चंदा मिला। आदित्य बिडला ग्रुप जो कांग्रेस का परंपरागत भामाशाह था, भारतीय जनता पार्टी की ओर झुका। 2012-13 में 7 करोड़ 50 लाख रुपए भारतीय जनता पार्टी को दिए। जबकि कांग्रेस को कुछ भी नहीं दिया। 

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म संस्था ने जो आंकड़ों का विश्लेषण किया है उसके अनुसार सत्या ट्रस्ट द्वारा भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और एनसीपी को कुल चंदे का 48.44 प्रतिशत हिस्सा मिला। चुनावी चंदे के लिए 15 घरानों ने अपने-अपने ट्रस्ट बनाए है। जिनमें वेदांता ग्रुप का जनहित, रिलायंस ग्रुप का पीपुल्स, महिन्द्रा ग्रुप का महिन्द्रा ट्रस्ट, टाटा समूह का प्रोग्रेसिव, एमपी बिडला ग्रुप का परिवर्तन, बजाज ग्रुप का बजाज ट्रस्ट, कोटक समूह का जनता निर्वाचक ट्रस्ट, लोढ़ा ग्रुप का जागृति, केके बिडला ग्रुप का समाज, जैन ग्रुप का गौरी वेलफेयर ट्रस्ट प्रमुख है। इनमें से अधिकांश ट्रस्ट की कोई जानकारी चुनाव आयोग के पास नहीं है। पुराने आंकड़ों पर जाए तो 2004 से लेकर 2011 तक सात साल में कार्पोरेट घरानों ने 4 हजार 662 करोड़ रुपए पार्टियों को दान दिए। यह राशि किसी भी बड़े कार्पोरेट घरानों के कारोबार से मेल खाती है। 

चुनाव आयोग के अनुसार राष्ट्रीय पार्टियों में एनसीपी ही ऐसी पार्टी है जिसने नियमित रूप से अपना हिसाब-किताब पेश नहीं किया। क्षेत्रीय पार्टियों में केवल पांच ऐसी है, जो नियमित रूप से आयकर विभाग के सामने अपना रिकॉर्ड रखती है। इनमें समाजवादी पार्टी, एआईएडीएमके, जनता दल यूनाइटेड, शिवसेना और तेलगु देशम पार्टी शामिल है। 18 क्षेत्रीय पार्टियां तो ऐसी है, जिन्होंने कभी भी अपने चंदे का हिसाब बताने की जेहमत नहीं उठाई। भारतीय जनता पार्टी ने अपना हिसाब-किताब नियमित तारीख के दो महिने बाद पेश की। बहुजन समाज पार्टी एक मात्र पार्टी है जिसने यह ऐलान किया कि उसे किसी ने भी 20 हजार रुपए से ज्यादा चंदा दिया ही नहीं, इसलिए वह दान-दाताओं के नाम बताने के लिए बाध्य नहीं है। बहुजन समाज पार्टी के नेता मायावती कुछ वर्ष पहले विवादों में घिर गई थी, जब उन्होंने अपनी पार्टी के सांसदों और विधायकों से कहा था कि उन्हें सांसद या विधायक कोटे से कार्य कराने के लिए जो राशि मिलती है उसका एक निश्चित प्रतिशत पार्टी फंड में जमा करना जरूरी है। 
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Wednesday, February 11, 2015

पर्यटन नहीं, प्रकृति के बीच जीना


इंदौर में युवाओं का एक समूह है, जो प्रकृति के बीच जीना सिखाता है। पर्यटन केन्द्रों के नाम पर  सुविधाएं इकट्ठा कर ली, लेकिन लोगों को प्रकृति के बीच जीना नहीं आया। पर्यटन विकास का अर्थ हमारे यहां यह है कि आवागमन की सुविधाएं हो, खाने-पीने की व्यवस्था उपलब्ध हो और मौज-मस्ती का तमाम सामान एक जगह मुहैया हो जाए। इस सबका बुरा परिणाम यह है कि लोग पर्यटन केन्द्रों पर जाते है गंदगी   करके  है और लौट आते है। पर्यटन केन्द्रों पर स्वच्छता का जो स्तर होना चाहिए वह नहीं होता। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि पर्यटन के नाम पर सरकार भी केवल कारोबार को बढ़ावा दे रही है। इंदौर के युवाओं का यह समूह इस सोच के खिलाफ एक अभियान है। 







 चित्र सौजन्य : राकेश जैन,  दीप्ति शर्मा  ,अरुणिमा रावत,        सभी चित्र बड़वाह के करीब 'चिड़िया भड़क' के 



आउटडोर एडवेन्चर ग्रुप नाम का यह समूह युवाओं को प्रकृति के बीच जीना सिखाता है। आप प्रकृति के करीब जाए और उसे जीवन में उतारे, यह इस समूह का लक्ष्य है। यह समूह युवाओं को ट्रैविंâग पर ले जाता है। उन्हें एडवेंचर के तमाम खेलों से अवगत कराता है। चाहे वह ट्रैविंâग के अलग-अलग रूप हो या जंगल में लगने वाली प्रकृति की पाठशाला। रॉक क्लाइमिंग हो या रेपलिंग। रिवर क्रासिंग हो या पैरासेलिंग। यह समूह युवाओं को प्रकृति के करीब ले जाता है और उन्हें बताता है कि आप प्रकृति को वैâसे जी सकते है और उसका स्वाभाविक आनंद उठा सकते है।


इस समूह से जुड़ने के लिए कोई बंधन नहीं रखा गया है। आप इस समूह के साथ प्रकृति को जीना चाहते है तो प्रकृति की इज्जत करना जरूरी है। प्रकृति की इज्जत करने का अर्थ यह है कि हमें प्रकृति ने जो कुछ भी उपलब्ध कराया है उसे उसी रूप में स्वीकार करना। इस समूह के सदस्यों को प्राकृतिक स्थानों पर जाकर गंदगी करने पर रोक है। पूरा समूह जब एडवेन्चर के बाद लौटता है तब कागज का एक टुकड़ा भी प्रकृति के बीच छोड़कर नहीं आता। कोई इस बात का एहसास ही नहीं कर सकता कि इस प्राकृतिक स्थान पर दर्जनों लोग आकर गए है। प्रकृति को समझने और महसूस करने के साथ ही यह समूह आपस में परस्पर सहयोग की शिक्षा भी देता है। प्रकृति यात्रा के दौरान सदस्य खेलते, खाते, गाते तो हैं, प्रकृति का भरपूर मजा भी उठाते है, लेकिन प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना। 

हजारों लोग इस समूह से जुड़कर प्रकृति के साथ अपने अनुभव को सम्पन्न कर चुके है। सबसे महत्वपूर्ण बात है इस समूह के सदस्यों और संचालकों का व्यवहार और आचरण। कभी अवसर मिले तो आप भी इस समूह से जुड़ सकते है। इस समूह की वेबसाइट है  www.outdoorindia.org.

Office: 501, Mahasagar Corporate, 10/4 Manormaganj,
           Geeta Bhawan Main Road, Indore - 452001 (MP), India
Phone: +91 731 4095901
Mobile: 09425077008, 09303592323
          rakeshjain22@gmail.com

फॉर्मूला एक ही है , कि कोई फॉर्मूला नहीं होता



दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत के बाद मीडिया के हर सेक्टर में उसकी समीक्षाएं की जा रही है। इन समीक्षात्मक टिप्पणियों के शीर्षक मजेदार है। जैसे- आप की जीत के 10 कारण, आप की जीत के 7 कारण, इन कारणों से जीती आम जनता पार्टी, वे पांच कारण जिन्होंने भाजपा को डुबाया, आम आदमी पार्टी की जीत का कारण सोशल मीडिया, किरण बेदी को लाना भाजपा को महंगा पड़ा आदि-आदि। 

दिल्ली चुनाव के नतीजों के साथ ही लगभग सभी प्रमुख न्यूज चैनल पर चुनाव परिणामों की समीक्षा में विशेषज्ञ बैठे थे। चर्चा का मकसद था नतीजों की समीक्षा करना। सभी विद्वान अपने-अपने तरीके से समीक्षा में लग गए थे। अधिकांश की राय थी कि किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रस्तुत करना बीजेपी के लिए महंगा पड़ा। यह भी राय थी कि नरेन्द्र मोदी का जादू उतर रहा है। कुछ का कहना था कि केजरीवाल ने जिस तरीके से चुनाव प्रचार किया, वह उनके लिए फायदेमंद रहा। आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों का सरल व्यवहार और सकारात्मक प्रचार उन्हें जीत दिला गया। कईयों ने आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों की आरएसएस वाली शैली की सराहनाह की, जिसमें वे दर-दर घूमे और बार-बार मतदाताओं के सम्पर्वâ में रहे। कुछ लोगों की राय यह भी रही कि भाजपा पहले से ही हार रही थी इसीलिए तुरुप के इक्के के रूप में किरण बेदी को पेश किया गया। यह भी राय रही कि अगर आप की जगह भाजपा को बहुमत मिलता तब भी क्या लोग ऐसी ही बातें करते। 

इस तरह के विषयों से मन नहीं भरा तब कुछ समीक्षात्मक टिप्पणियों के शीर्षक तो इस तरह भी सामने आए- भाजपा खुद चाहती थी कि वह चुनाव हार जाए, दिल्ली चुनाव में हारना भाजपा के लिए जरूरी था, सोची-समझी रणनीति के तहत भाजपा चुनाव हारी आदि-आदि।

कुछ बुद्धिजीवियों ने आम आदमी पार्टी की जीत के पीछे महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यक वोटों का समर्थन बताया। यह भी कहा गया कि मोदी का  अहंकार उन्हें ले डूबा। नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली चुनाव को राष्ट्रीय मुद्दे के तौर पर लड़ने की कोशिश की, जो लोगों को पसंद नहीं आया। विधानसभा चुनाव में हो रही देरी को भी लोगों ने जिम्मेदार बताया। बीबीसी के विश्लेषण के मुताबिक आम आदमी पार्टी की जीत का एक प्रमुख कारण जनाधार खोने के बाद कांग्रेस का अप्रत्यक्ष समर्थन आप पार्टी को रहा। यानि कांग्रेस ने जो वोट खोए वो आप की झोली में गए। आम आदमी पार्टी के आशुतोष के अनुसार आप ने दिल्ली चुनाव पर पूरा फोकस किया था और पार्टी की सभी इकाइयों को मजबूत बनाकर हर एक विधानसभा क्षेत्र पर ध्यान दिया, इससे फायदा हुआ। आम आदमी पार्टी ने ‘डेल्ही डायलॉग’ के रूप में डॉक्टरों, इंजीनियरों, वकीलों आदि से अलग-अलग संपर्वâ किया, इसका भी फायदा मिला। विधानसभा भंग करने में देरी के कारण आप पार्टी को तैयारी करने का बहुत वक्त मिला। भाजपा ने जिस तरीके से किरण बेदी को पेश किया, उससे भारतीय जनता पार्टी में अंदरुनी कलह मच गई। आम आदमी पार्टी ने सिर्पâ दिल्ली पर ध्यान दिया और भाजपा इस अहंकार में डूबी रही कि वह तो विजय रथ पर सवार है ही। आम आदमी पार्टी का भ्रष्टाचार मुक्त बनाने का वादा, मुफ्त पानी, सस्ती बिजली, प्रâी वाईफाई जैसे वादों का भी लाभ मिला। अरविन्द केजरीवाल ने अपन गलतियों के लिए मतदाताओं से खुलकर माफी मांगी और अपनी विनम्रता का परिचय दिया। दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के वोटों को आकर्षित करने के लिए आप ने उनसे लगातार सम्पर्वâ बनाए रखा, लेकिन जब इमाम ने उन्हें समर्थन देने की घोषणा की तब आम आदमी पार्टी ने उसे गरिमापूर्ण तरीके से अस्वीकार कर अपना कद और बढ़ा दिया। 

चुनाव की घोषणा होने से पहले ही आम आदमी पार्टी ने भाजपा पर काफी दबाव बना लिया था। जब सतीश उपाध्याय को मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने की बात आई तब आम आदमी पार्टी ने उनके कथित घपले उजागर कर भाजपा की भद करा दी। ठेले, गुमटी वालों पर भी आप की निगाह रही और रिक्शा वालों पर भी। दिल्ली की ५ लाख झोपड़ पट्टियों में रहने वाले लोगों को आम आदमी पार्टी ने अपनी ओर आकर्षित करने के लिए काफी जतन किए। आम आदमी पार्टी ने पूरे अभियान में कभी भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला, जबकि नरेन्द्र मोदी लगातार केजरीवाल और उनके पार्टी पर निशाना बनाते रहे। जब किरण बेदी को अचानक मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया गया, तभी आम आदमी पार्टी को लग गया कि भाजपा में भीतरी खलबली मची हुुई है। आम आदमी पार्टी ने अल्पसंख्यक मतदाताओं को यह विश्वास दिलाने में सफलता पा ली कि वही एक मात्र पार्टी है जो भाजपा के विजय रथ को रोक सकती है। 

भारतीय जनता पार्टी को पूरे चुनाव अभियान के दौरान इस बात का एहसास ही नहीं हो पाया कि दिल्ली के मतदाता क्या चाहते है। भाजपा को लगा की जिस विजय रथ पर वह पिछले १४ महीने से सवार है वह अपराजय है। भाजपा इस भ्रम में भी रही कि आम मतदाता केवल विज्ञापनों, रोड शो, तामझाम और टीवी पर हो रहे प्रचार से प्रभावित होता है। भाजपा को अपने आनुशंगिक संगठनों पर भी भरोसा है। वोटों के विभाजन का भी उसे विश्वास था और इसी इरादे से नरेन्द्र मोदी अपनी हर सभा में आम आदमी पार्टी के बजाय कांग्रेस को निशाना बनाते रहे। 

भारतीय जनता पार्टी ने जो भी आरोप आम आदमी पार्टी पर लगाए आम आदमी पार्टी के नेता उससे ज्यादा चतुरता से उन आरोपों से बचकर निकलते रहे। ४९ दिन की सरकार का मजाक उड़ाने का जवाब पांच साल केजरीवाल के नारे से दिया गया। भाजपा ने जितने नेताओं को प्रचार में झोंका था, उसके विरोध में और अपने पक्ष में आम आदमी पार्टी ने माहौल बनाया। आम आदमी पार्टी हमेशा कहती रही कि हम राजनीति में नौसिखिए है और भाजपा के नेता अनुभवी। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा को भाजपा ने चुनाव में भुनाने की कोशिश की उसे भी आम आदमी पार्टी  ने चतुुराई से खारिज कर दिया। भाजपा ने नरेन्द्र मोदी की वैश्विक उपलब्धियों को भुनाने की कोशिश भी की, लेकिन यहां भी दांव उल्टा पड़ा। केजरीवाल की सबसे बड़ी कमी यह बताई गई कि वह भगोड़े और अराजक है। इसे भी आम आदमी पार्टी ने विनम्रता पूर्वक नकारा। इसके ठीक विपरित विकासपुरुष कहे जाने वाले नरेन्द्र मोदी के विकास के नारे को आम आदमी पार्टी ने अपनाया। भाजपा जब-जब केजरीवाल पर आक्रमण करती रही तब-तब केजरीवाल लाइव लाइट में आते रहे और उन्होंने उसका भरपूर फायदा उठाया। कांग्रेस की कमजोरी का फायदा भी आम आदमी पार्टी को मिला। 

दिल्ली चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करें तो यह बात साफ है कि भाजपा को मिले वोटों में केवल एक प्रतिशत का बदलाव हुआ है। सारा का सारा नुकसान कांग्रेस और अन्य दलों को हुआ है। कुछ विश्लेषकों का मन का कहना है कि कांग्रेस ने जान बूझकर इस चुनाव में अपने आप को पीछे कर लिया था, ताकि वह वोटों का बंटवारा रोक सके। स्वाभाविक सा प्रश्न है की कोई भी पार्टी आखिर जीतने के लिए ही तो मैदान में होती है। हो सकता है यह कांग्रेस की स्वाभाविक स्थिति हो। 

दिल्ली के चुनाव ने यह बात साबित कर दी कि मोहब्बत की तरह चुनाव में भी पसंद नापसंद का कोई फॉमूला नहीं होता। कब किस पर दिल आ जाए कहा नहीं जा सकता। मतदान केन्द्र में बटन दबाते-दबाते वोटर का मन कहां फिसल जाए, कहा नहीं जा सकता। इतनी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी, इतना बड़ा संगठन, इतना शानदार अतीत, धन-बल, बाहुबल सबकुछ होते हुए भी कब कौन गच्चा खा जाए कहा नहीं जा सकता। चुनाव, चुनाव होते है। यहां एक ही फॉर्मूला चलता है- कि कोई फॉर्मूला नहीं चलता। 
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Monday, February 02, 2015

नसीबवाले ऐसे बनें

(सभी आदरणीय लोगों से अग्रिम हार्दिक क्षमा याचना के साथ)

मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी जी ने नसीब की जो बात कही है, सच ही है. 



आ. ताई सुमित्रा महाजन जी ने गत भाई दूज पर मुझे भोजन कराया था, आज वे लोकसभा की स्पीकर हैं!  कैलाश विजयवर्गीय जी ने घर पर कई बार डिनर कराया,  वे लगातार मप्र के केबिनेट मंत्री हैं और मलाईदार पदों पर हैं.  आइएएस एसके मिश्र ने भोपाल के होटल पलाश में लंच खिलाया था,  लोकायुक्त की तमाम जांच के  बावजूद  आज वे मध्यप्रदेश के सीएम के खासमखास हैं.  आ. विधायक मालिनी गौड़ ने एक बार भोपाल में चाय-नाश्ता कराया था, टिकट मिला और 4 जनवरी को इंदौर की महापौर बनने ही वाली हैं. जनक पल्टा दीदी ने सोनवाय के फार्म में बुलाकर मिठाई खिलवाई, आज 'पद्मश्री' हैं. दादा शेखर सेन का आइआइएम में प्रोग्राम था, मुझे न्योता दिया, वे भी आज 'पद्मश्री' हैं. ये ही हैं वो शेखर सेन दादा, जिन्होंनें मेरे फेसबुक स्टेटस को  लायक किया था, देखिए संगीत नाटक अकादमी के प्रमुख हो गये. मेरे बेटे ने मुझे शानदार जैकेट गिफ्ट की, वह आज जर्मनी में घूमने गया है. एबीपी न्यूज़ के प्रोग्राम में कुमार विश्वास ने मुझे बेस्ट ब्लॉगर का सम्मान दिया था, उसके बाद बरकत आ गई उनकी कविताओं में ! पता है कुमार विश्वास ने पिछले साल 58 लाख रुपये तो इनकम टैक्स जमा कराया था !!… और इस साल वह टैक्स  और भी ज़्यादा होगा. 

इससे अलग कुछ लोगों का हाल देखिए -- राहुल गाँधी इंदौर आए, मैं दिल्ली जाता रहा पर उन्होंने पूछा नहीं, आज क्या हाल हो गया, सबको पता है. सोनिया गाँधी जी ने भी कभी तवज्जो नहीं दी;   चुनाव के नतीजों में कांग्रेस का हाल देख लो भाई! शीला दीक्षित जी लगातार मुख्यमंत्री रहीं, पर मुझे चाय पानी तक के  लिए कभी नहीं पूछा --  तो देखो  इतना काम करने के बाद भी आज खुद बेभाव हैं। 

धीरूभाई अंबानी ने जीते जी मुझे महत्व नहीं दिया, उनके गुजर जाने के बाद बेटों में झगड़ा टन्टा हो गया. मुकेश अंबानी ने भी मेरी अनदेखी की, नतीजा?   नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री  होते हुए भी कृष्णा-गोदावरी  डी6 बेसिन मामले में करीब 60 करोड़ डॉलर (लगभग केवल साढ़े तीन हज़ार करोड़ रुपए ) की पेनल्टी ठुक गई!   मुनाफ़ा कमाने में टीसीएस ने रिलायंस जैसे हाथी को पीछे छोड़ दिया. और इतना ही नहीं, केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने देश की आला खुफिया एजंसी रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रा) से कहा है कि वह रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड से जुड़े घोटालों को देखने वाले पंचाट के स्वाभाविक मध्यस्थ और कंपनी के वकीलों के बीच कथित सांठगांठ की जांच करे।   सुब्रत रॉय सहारा अरबपति-खरबपति थे, मैं उनकी कंपनी में ब्यूरो चीफ़! मेरा तबादला करने के बहाने मुझे प्रताड़ित करके हटा दिया -- आप सब जानते हैं वह आज कहाँ है! कितना कर्ज़ा चढ़ गया है, लेनदार गली गली में घूम रहे हैं, संपत्तियाँ खरीदने तो क्या, गिरवी रखनेवाले तक नहीं मिल रहे हैं!

इसीलिए मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी जी ने नसीब की जो बात कही है, सच ही है. 

आप सभी मित्र अपने नसीब को जागृत करने के लिए मुझे अच्छे अच्छे गिफ्ट दें, फ़ाइव स्टार में लंच-डिनर खिलाएँ, बरकत आने लगेगी क्योंकि मैं सचमुच 'निर्मल आत्मा' हूँ. आपकी भलाई का द्वार तभी खुलेगा, जब आप मेरी भलाई करेंगे. इतने उदाहरणों के बाद भी अगर आपके प्रज्ञा चक्षु न खुलें तो दोष मुझे न देना.

(नमूना देखना हो तो मेरी इस पोस्ट की तारीफ करो, तो दिन में ही भाग्य बदल जाएगा. नेगेटिव कमेंट लिखनेवालों की राहु की महादशा बिगड़ जाएगी, जिस कारण उनके बाल जल्दी सफेद भी होंगे और गिरने भी लगेंगे. इस पोस्ट को लाइक करनेवालों को भी ज़्यादा लाइक्स मिलेंगे!)
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