Sunday, November 06, 2011

बिरले को मिलती है ऐसी कामयाबी

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज (6नवंबर 2011) पर मेरा कॉलम



अर्जुन की आँखोंवाले अभिनव बिंद्रा
लेफ्टिनेंट कर्नल के मानद पद से सम्मानित अभिनव बिंद्रा प्रथम भारतीय हैं जिन्होंने 112 साल के ओलिम्पिक इतिहास में व्यक्तिगत श्रेणी में पहला स्वर्ण पदक जीता. वे अब तक तीन ओलिम्पिक में निशानेबाजी आजमा चुके हैं और अब लन्दन में होनेवाले ओलिम्पिक की तैयारी में जुटे हैं. उन्हें अपनी 'तथाकथित प्रतिभा' का दंभ नहीं है और वे सहजता से कह देते हैं हैं कि मैं साधारण खिलाड़ी हूँ, लेकिन मैंने अपनी लगन, मेहनत, निष्ठा और योजनाबद्ध प्रयासों से लक्ष्य को पा लिया है. अगर मैं यह कर सकता हूँ तो आप भी अपने लक्ष्य पा सकते हैं. वे 18 की उम्र में अर्जुन अवार्ड पा चुके हैं, १९ की उम्र में राजीव गाँधी खेल रत्न पा चुके हैं. वे 29 के हैं और उन्हें पद्मभूषण मिल चुका है, उनकी आत्मकथा बाज़ार में छपकर आ चुकी है और वे लाखों युवकों के लिए प्रेरणा के केंद्र हैं. बचपन में 11 साल की उम्र तक खेलों से नफ़रत करनेवाले और फिर निशानेबाजी में स्वर्पदक पानेवाले अभिनव बिंद्रा की सफलता के कुछ सूत्र :
खेल से नफ़रत मत करो
अभिनव ने 11 साल की उम्र तक कोई खेल नहीं खेला. यहाँ तक कि उन्हें खेलों से नफ़रत थी, लेकिन दून स्कूल के होस्टल में उन्हें हर दूसरे दिन पिता मंजीत सिंह की चिट्ठी मिलती, जिसमें लिखा होता कि बेटा, अगर पढ़ाई में मन न लगे तो कोई बात नहीं, लेकिन खेलों की अनदेखी मत करना. अभिनव ने टेनिस में आजमाइश की, पर जमा नहीं, गोल्फ पर भी हाथ आजमाया, लेकिन वहां भी मज़ा नहीं आया. अभिनव के पिता की घर के पिछवाड़े में इंडोर शूटिंग रेंज थी, जहाँ उनके पिता के दोस्त लेफ्टिनेंट कर्नल जेएस ढिल्लों ने उनकी संभावनाओं को खोजा. वे ही उनके पहले कोच बने और फिर उनकी प्रतिभा को संवारा डॉ अमित भट्टाचार्य ने, वे आज भी अभिनव के साथ पूरी दुनिया में जाते हैं. केवल 16 साल से भी कम की उम्र में वे कामनवेल्थ गेम्स में अपना निशाना आजमा चुके थे. 2000 के ओलिम्पिक में उन्हें 590 अंक मिले थे और वे ग्यारहवे नंबर पर थे. वे क्वालिफाय नहीं कर पाए क्योंकि शुरू के आठ में नहीं थे, लेकिन बाद में उन्होंने जो कुछ पाया, वह इतिहास है.
उतार-चढ़ाव में रखें हिम्मत
ओलिम्पिक में क्वालिफाय न कर पाना दिल तोड़ने वाली घड़ी थी, लेकिन अभिनव ने अगले ही साल विभिन्न अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में छह स्वर्ण पदक बटोरे. उन्हें इसी साल देश का सबसे बड़ा खेल सम्मान राजीव गाँधी खेल रत्न मिला. 2002 के कामनवेल्थ खेलों में युगल श्रेणी में स्वर्ण और सिंगल्स में रजत पदक जीता. 2004 के एथेंस ओलिम्पिक के लिए उन्होंने जी-जान लगा दी थी, और क्वालिफाइंग राउंड में 597 का स्कोर लाकर वे तीसरे स्थान पर पहुंचे थे, लेकिन फायनल में वे पिछड़कर सातवें पायदान पर जा पहुंचे. एथेंस ओलंपिक के फाइनल में पहुंचने के बाद पदक नहीं मिलने पर वे टूट गए थे। निराशा में उन्होंने यहां तक कहा कि वह कभी टेलेंटेड शूटर नहीं रहे। लेकिन फिर अपने आप को सहेजा और हिम्मत के साथ जुट गए. उनके अभिभावक, मित्र, कोच सभी उनके साथ थे ही.
कड़ी मेहनत भी प्रतिभा है
अभिनव बिंद्रा का विचार है कि कड़ी मेहनत करना भी प्रतिभाशाली होने का लक्षण है. कड़ी मेहनत कोई भी कर सकता है और कामयाबी पा सकता है. सफल होने का सबसे सरल फार्मूला है कड़ी मेहनत करना. लेकिन योजना बनाकर कड़ी मेहनत करने के और भी अच्छे परिणाम हो सकते हैं. अभिनव बिंद्रा ने अपनी कामयाबी का ब्ल्यू प्रिंट बनाया, उसमें निशाना था बीजिंग में होनेवाले ओलिम्पिक खेल. लक्ष्य आसान नहीं था, और इसी बीच वे चोटग्रस्त हो गए. लेकिन हिम्मत नहीं हारी. लक्ष्य पर निगाहें ऐसे ही थीं जैसी अर्जुन की रही होंगी. उन्होंने फिजीकल और मेंटल ट्रेनिंग सहित सभी पहलुओं को चुनौती के रूप में लिया। कभी वे खुद सोचते कि खेल में आप हमेशा नहीं जीत सकते, लेकिन अगले ही पल मन में संकल्प करते कि हर खेल जीतने के लिए ही होता है, हर स्वर्ण पदक पर किसी न किसी का नाम लिखा ही होता है, तो मेरा नाम क्यों नहीं? उन्हें यह बात कचोटती कि ओलिम्पिक खेलों में भारत को कोई भी स्वर्ण पदक क्यों नहीं मिला? उन्होंने खेल और जीवन में संतुलन बनाये रखा और वह हर तरीका अपनाया जिससे उनकी जीत की संभावना प्रबल होती.
पराजय से नफ़रत
अभिनव बिंद्रा को पराजय से नफ़रत हो गयी थी और इसने उन्हें स्वर्ण पदक दिलाने में प्रमुख भूमिका निभायी थी. बीजिंग ओलिम्पिक में भाग लेते वक़्त यह बात उन्हें बिलकुल नहीं जम रही थी कि हमें खेलने में विश्वास करना है, जीत-हार तो लगी रहती है. जीतें या हारें, खेलना लक्ष्य रहे, यह तर्क उन्हें बेमानी लग रहा था, खेल में सर्वोच्च शिखर को छूना ही लक्ष्य होना चाहिए. ओलिम्पिक में दस मीटर एयर रायफल शूटिंग में क्वालिफाइंग राउंड में चौथे स्थान पर थे, लेकिन अंतिम राउंड के बाद वे सबसे आगे थे. 1980 में मास्को ओलिम्पिक के बाद भारत ने यह पहला गोल्ड मैडल जीता था और ओलिम्पिक इतिहास में यह किसी एक भारतीय खिलाड़ी का जीता पहला स्वर्ण पदक. उन्हें पुरस्कार के रूप में तीन करोड़ से भी ज्यादा नकद मिले थे.
सही मार्गदर्शन का महत्व
बिना उचित मार्गदर्शन के सफलता आसान नहीं होती. हालाँकि अभिनव संपन्न परिवार के हैं और पंजाब में उनके अपने घर में ही निजी शूटिंग रेंज भी है, लेकिन उनके पहले कोच लेफ्टिनेंट कर्नल ढिल्लों और डॉ अमित भट्टाचार्य के सहयोग के बिना वे आज यह मुकाम नहीं पा सकते थे. वे हमेशा अपने कोच और परिवार का आभार मानते हैं और उनके लिए दुआएं करते हैं. डॉ भट्टाचार्य साए की तरह उनके साथ हर टूर्नामेंट में जाते हैं चाहे सिडनी हो या एथेंस, बीजिंग हो या मोंट्रियल. वास्तव में भट्टाचार्य उनके मेंटल ट्रेनर हैं और जब अभिनव 13 साल के थे, तब से ही वे हर वक्त उनके साथ जाते हैं और उन्हें समझाइश देते रहते हैं कि वे अपने मनोबल को कैसे बनाये रखें. अभिनव बिंद्रा की वर्तमान कोच स्विट्ज़रलैंड की गेब्रियला बुह्लमन हैं जो 1988 से 2004 के पाँच ओलिम्पिक खेलों में शूटिंग स्पर्धाओं में जा चुकी हैं.
प्रतिस्पर्धी का सम्मान करें
श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कहा था कि विजयी को विनयी रहना चाहिए. इसे अभिनव नारंग ने पूरी तरह आत्मसात कर लिया है. वे शूटिंग रेंज में भी अपने स्पर्धी को पूरा सम्मान देते हैं और उसका मनोबल बनाये रखने का प्रयास करते हैं. यहाँ तक कि ओलिम्पिक खेलों में भी वे अपने प्रतिस्पर्धियों का हौसला बढ़ते नज़र आये. उनका मानना है कि हर खिलाड़ी हमेशा ही जीते, यह संभव नहीं, लेकिन अगर उसका हौसला बरकरार रहे हो उसके लिए अगली जीत का मार्ग आसान हो सकता है.
समाज को वापस लौटाएं
आप इस समाज के अंग हैं और अगर आप इससे केवल लेते ही रहेंगे तो कम कैसे चलेगा? अभिनव बिंद्रा की कोशिश रहती है कि इस समाज से उन्हें जो कुछ भी मिल रहा हैं, वह वापस लौटाते जाएँ. वे नए खिलाड़ियों को सिखाते हैं कि अभ्यास, निरंतर अभ्यास और कड़ा अभ्यास ही सबसे बड़ी प्रतिभा है. इसके लिए वे युवा खिलाड़ियों को संसाधन मुहैया करा रहे हैं. वे खुद अगले साल होनेवाले लन्दन ओलिम्पिक की तैयारी में जुटे हैं और अपने से युवा खिलाड़ियों को मार्गदर्शन भी दे रहे हैं. खेल संगठनों के कामकाज को वे सुधारना चाहते हैं और इस बारे में निडर होकर अपनी बात भी कहते हैं. मैंने व्यक्तिगत रूप से पहला स्वर्ण पदक जीता है, लेकिन और भी स्वर्ण पदक हमें जीतने हैं.
प्रकाश हिन्दुस्तानी


दैनिक हिन्दुस्तान (6 नवंबर 2011) के अंक में प्रकाशित

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