Friday, December 31, 2010





गुर्जरों का रेम्बो -- कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला
माता-पिता ने उन्हें करोड़ों में एक मानकर नाम दिया था - किरोड़ी सिंह. वे बैसला हैं यानी गुर्जर. बहादुरी उन के खून में है. स्कूल में टीचर थे, लेकिन फौजी पिता के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए सेना में सिपाही बने. 1962 के भारत - चीन और 1965 के भारत - पाकिस्तान युद्ध में बहादुरी से लड़े. वे राजपुताना राइफल्स में थे और पाकिस्तान के युद्धबंदी भी रहे. सीनियर आर्मी अफसर उन्हें 'जिब्राल्टर की चट्टान' कहते थे. उनके साथी कमांडो फौजी उन्हें 'इन्डियन रेम्बो' कहा करते थे. बहादुरी, शक्ति और मेहनत के कारण वे तरक्की पाते-पाते लेफ्टिनेंट कर्नल के ओहदे तक पहुंचे. रिटायर होने के बाद देश के लिए लड़नेवाला फौजी अपनी जाति के आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलनों का नेतृत्व करने लगा. वह गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति का नेता बनकर रेल और सड़क मार्ग जाम करने लगा. आरक्षण के पक्ष में उनका आन्दोलन इतन तेज और लम्बा चला कि न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा. यह भी माना जाता है कि राजस्थान में बीजेपी की सरकार का पतन भी इसी आन्दोलन के देन था.

माना जाता है कि गुर्जर सूर्यवंशी क्षत्रीय कुल के हैं (जिस कुल के भगवान राम थे). कुछ राज्यों में गुर्जर समुदाय को अनुसूचित जनजाति का माना जाता है पर राजस्थान में नहीं. यही बात कर्नल किरोड़ी सिंह को खटक रही थी और उन्होंने गुर्जरों के लिए पाँच प्रतिशत आरक्षण की मांग कर डाली. शुरू में तो उनकी ही जाति के लोगों ने उन्हें 'सिरफिरा' तक कह डाला लेकिन जब उन्होंने आरक्षण के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक लाभ गिनाये तो उनके समुदाय का एक बड़ा वर्ग उनके साथ आ गया. किरोड़ी सिंह ने गैर राजनैतिक आन्दोलन की रूपरेखा बनाकर राजस्थान के रेल और सड़क मार्गों पर कब्ज़ा कर लिया. पुलिस ने बल प्रयोग किया, सेना बुला ली गयी. 2007 में उनके आरक्षण समर्थक आन्दोलन के कारण 27 और 2008 में 43 लोगों कि मौत हुई.

किरोड़ी सिंह बैसला का कहना था कि राजस्थान में मीणा समुदाय को अनुसूचित जनजाति का माना जाता है जिसके राजस्थान में 225 आईएएस और आईपीएस हैं, जबकि लगभग उतने ही बड़े गुर्जर समुदाय का केवल एक ही अधिकारी आईएएस है. यदि आरक्षण का लाभ मिले तो गुर्जर समुदाय भी तरक्की कर सकता है. किरोड़ी सिंह खुद को नेता की जगह 'सामाजिक कार्यकर्त्ता' कहलाना पसंद करते हैं. उनकी राजनीति मुख्य रूप से 2003 में शुरू हुई जब विधानसभा चुनाव के दौरान उनकी भेंट वसुंधराराजे सिंधिया से हुई. कहते हैं कि वसुन्धराराजे ने चुनाव में जीत के बाद गुर्जर आरक्षण का वादा किया था, जिसके पूरा न होने पर चार साल बाद बैसला ने आन्दोलन की राह पकड़ी. 2007 में आन्दोलन हिंसक हो उठा था लेकिन बैसला ने कहा कि उनका हिंसा से कोई लेना नहीं है.

बैसला पर हिंसा के अनेक मामले दर्ज हो चुके हैं, एक मामला पुलिस कांस्टेबल दुन्गरा राम की हत्या का भी है. बैसला सिरे से सभी आरोपों को नकारते हैं. वे राजस्थानी पगड़ी सर पर बाँधे, जयपुर-आगरा रेल ट्रेक के निकट खटिया पर बैठे कहते हैं कि मुझे यहाँ से केवल दो ही चीज़ें हटा सकती हैं -- या तो बन्दूक कि गोली या गुर्जरों को आरक्षण देने के फैसले का पत्र. पहले के आन्दोलन कोर्ट के आदेश और सरकार से समझौते के बाद ख़त्म हुए थे. लगभग 63 साल के बैसला की शादी 14 की उम्र में हो गयी थी. उनकी एक बेटी सुनीता इन्डियन रेवेन्यु सर्विस में हैं और गोवा में आयकर विभाग में हैं. दो बेटे जय और दौलत सेना में अफसर हैं और एक बेटा निजी टेलीकाम कम्पनी में. उनक्की पत्नी का 1996 में निधन हो चुका है,लेकिन वे बेटों के बजे छोटे से कसबे हिंडौन में रहते है. 11 अप्रेल 2009 को वे जयपुर में बीजेपी की सदस्यता ले चुके हैं.
---प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान
02 जनवरी 2011 को प्रकाशित

Friday, December 24, 2010




ना कानून से ऊपर, ना नीचे -- डॉ. मोहम्मद हनीफ़
आस्ट्रेलिया की सरकार ने भारतीय डॉक्टर मोहम्मद हनीफ़ को आतंकवाद समर्थक आरोपों से बरी करके साबित कर दिया कि कोई भी कानून से ऊपर कोई नहीं है और न ही कानून से नीचे. आस्ट्रेलिया ने डॉ. हनीफ़ को मुआवज़े के रूप में भी करीब दस लाख डॉलर दिए हैं और माफ़ी भी मांगी है. यह मामला उतना सीधा है नहीं, जितना नज़र आता है. डॉ. हनीफ़ को आस्ट्रेलियाई सरकार ने बिना किसी कानूनी दस्तावेजों के 2 जुलाई से 27 जुलाई 2007 तक, यानी 25 दिन बिना किसी सबूत के गिरफ्तार किये रखा, जो आस्ट्रेलिया के इतिहास की सबसे लम्बी बिना कारण, बिना सबूत गिरफ्तारी थी. वे पहले इंसान थे, जिन्हें आस्ट्रेलिया में 2005 के आतंक विरोधी क़ानून के तहत पकड़ा गया था और उनकी गैरकानूनी गिरफ्तारी के 48 घंटों के भीतर ही वहां के पूर्व प्रधानमंत्री जान हार्वर्ड उनके पक्ष में सक्रिय हो उठे थे. पूरा भारत और यहाँ का तंत्र उनके साथ खड़ा था. 27 जुलाई को उन्हें रिहा करके 29 जुलाई को जबरन भारत रवाना कर दिया गया, जब उन्होंने भारत आने के पहले वहां पत्रकार वार्ता करनी चाही तो रोड़ा डाला. लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद उन्हें 13 महीने बाद 30 अगस्त २००८ को निर्दोष करा दिया गया. करीब ढाई साल बाद आस्ट्रेलिया की सरकार ने माफ़ी मांगी. डॉ. हनीफ़ के साथ ज्यादती करने के बाद डॉ साल में करीब 30 हजार भारतीय विद्यार्थियों ने आस्ट्रेलिया में पढाई छोड़ दी जिससे आस्ट्रेलिया को करोड़ों डॉलर की आर्थिक चपत लगी.

डॉ. हनीफ़ को 2 जुलाई 2007 को ब्रिसबेन एयर पोर्ट पर भारत आते वक्त गिरफ्तार किया गया था. इलजाम थे कि उन्होंने ग्लासगोव इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर ३० जून 2007 को हुए हमले के आरोपियों की मदद की थी. ये भी कि हमलावर उनके रिश्तेदार थे. सबूत ये लगाया कि डॉ. हनीफ़ बिना रिटर्न टिकट के भारत क्यों जा रहे थे? उनके मोबाईल की सिम कहाँ हैं? डॉ. हनीफ ने कहा कि उनकी पत्नी ने 6 दिन पहले ही सीजेरियन के जरिये बेटी को जन्म दिया है और उनके खाते में डॉलर नहीं है कि वे रिटर्न टिकट ले सकें. डॉ. हनीफ़ ने ये भी कहा कि उनकी मंशा पत्नी और बेटी को लाने की है और बेटी का पासपोर्ट बना नहीं है, तब भी जांच अधिकारी नहीं माने. उन्होंने आस्ट्रेलियाई सरकार को मानसिक वेदना देने, प्रताड़ना करने, बिना कारण जेल में निरुद्ध रखने, योग्य रोजगार के हक से वंचित रखने, पेशे में भारी आर्थिक हानि आदि का ज़िम्मेदार बताया था. अब वहां की सरकार कहती है कि अगर डॉ. हनीफ चाहें तो वापस आस्ट्रेलिया में नौकरी या प्रेक्टिस कर सकते हैं. लम्बी लड़ाई के बाद हनीफ ने आस्ट्रेलिया के बजाय दुबई में जाकर प्रेक्टिस कराना बेहतर समझा.

डॉ. हनीफ के मामले में जांच एजेंसियों की सारी पोल खुल गयी. उनके हर बयान की रेकार्डिंग की गयी थी, जिसमें उन्होंने सारी बातें सच सच बयान की थी, लेकिन अधिकारियों ने यही कहा कि हमारे पास सारे सबूत उनके खिलाफ हैं. असलियत ये थी कि कोई आरोप साबित ही नहीं हुआ. ना डायरी, ना सिम, ना ही टिकट सबूत बन पाया. धर्म के आधार पर उन्हें सताया गया था. भारत के विदेश मंत्री ने इस पर तीखी टिप्पणी की थी और आस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री को फोन पर चेताया था.

कर्नाटक के चिकमंगलुरु जिले के रहनेवाले डॉ. हनीफ के पिता स्कूल शिक्षक थे. 29 सितम्बर 1979 को जन्मे हनीफ 18 साल के थे, तब एक सड़क हादसे में उनकी मौत हो गयी थी. हनीफ ने कड़ी मेहनत से मेडिसिन की पढाई जारी रखी प्रथम श्रेणी में डिग्री ली. 2006 में वे आस्ट्रेलिया गए और साल भर बाद ही वे झूठे मामले में फंस गए जिससे बरी होने और मुआवजा पाने में उन्हें तीन साल से भी ज्यादा लगे. अगर भारत में किसी पर ऐसे आरोप लगते तो शायद पूरी जिन्दगी भी दोषमुक्त होने में कम पड़ जाती.
--- प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान
२६ दिसम्बर २०१०

Sunday, December 19, 2010



संक्रामक 'फेसबुक' के जनक मार्क जुकेरबर्ग
टाइम पत्रिका ने इस बार 'पर्सन ऑफ दी ईयर' ऐसे व्यक्ति को माना है, जो केवल 26 साल का है. खरबपति है. जिसने डिग्री नहीं ली और बीच में पढ़ाई छोड़ दी. जिसके जीवन से प्रेरित हॉलीवुड फीचर फिल्म बना चुका है. जिसका बचपन कंप्यूटर गेम खेलने में नहीं, बनाने में बीता. जो १६ की उम्र में अंगेजी के साथ फ्रेंच, हीब्रू, लेटिन, ग्रीक भी बोल-पढ़ लेता था. हार्वर्ड में पढ़ाई के दौरान उसने लोगों को जोड़नेवाली सोशल नेटवर्क वेबसाइट बनाई, जिसके 55 करोड़ सदस्य हैं. अगर इन सदस्यों का कोई देश होता तो चीन और भारत के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश होता. आज अमेरिका के 70 प्रतिशत लोग उससे जुड़े हैं. कई देशों में इस साइट पर रोक है. जी हाँ, हम फेसबुक के जनक मार्क जुकेरबर्ग की बात कर रहे हैं.

हार्वर्ड में पढ़ाई के दौरान कुछ छात्रों ने डेटिंग वेबसाइट की योजना बनाई थी. कनेक्टयू, डेटमेश, फेसस्मेश, मेशेबल नाम पर भी चिंतन हुआ. फाइनल हुआ कनेक्टयू. कैमरून विन्कलेवास और टेलर विन्कलेवास नामक दो भाई और भारतीय मूल के दिव्य नरेंद्र ने भी इसमें साथ दिया था. छात्रों में साइट खूब पसंद की गई. हाल ये हो गया कि लोड के कारण सर्वर जवाब देने लग जाता. आख़िर मार्क ने पढ़ाई छोड़कर 2 फ़रवरी 2004 को साइट लांच कर दी. नाम दिया गया फेसबुक. 6 साल में ही इस सोशल नेटवर्किंग साइट ने संक्रामक प्रसिद्धी पा ली. 55 करोड़ सदस्य, 75 भाषाएँ, 1600 कर्मचारी, वेल्युएशन में अरबों का मूल्यांकन. (जो हर रोज़ बढ़ता जाता है). फेसबुक को इसी साल 'बेस्ट इम्प्लायर' का सम्मान भी मिला है और फ़ोर्ब्स पत्रिका ने उन्हें दुनिया के सबसे धनी लोगों के साथ ही सबसे पावरफुल व्यक्तियों में शुमार किया है.

फेसबुक की लोकप्रियता के बाद मार्क पर कई आरोप लगे. कॉलेज के साथी विन्कलेवास बंधुओं ने आइडिया चुराने का मुकद्दमा लगा दिया, जिसमें कोर्ट के बाहर समझौता कर के 12 लाख शेयर और दो करोड़ डॉलर का भुगतान करना पड़ा. ये भी आरोप लगे कि इस साइट से गोपनीयता का हनन होता है. हैकर्स ने भी साइट पर डाका डाला. उन पर अनुचित आचार व्यवहार का इलज़ाम भी लगा. कुछ लोगों ने मार्क की तुलना बिल गेट्स से की तो किसी ने कहा कि कहा बिल गेट्स और कहाँ मार्क? किसी ने उन्हें स्टाइल आयकॉन माना तो किसी ने पूर्व प्रेमिका को बिच कहे जाने पर मार्क की धज्जियाँ बिखेरी. किसी ने कहा कि मार्क ने डोनेशन के नाम पर बड़ी धनराशि इधर-उधर की है. हालत ये हो गयी कि मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही उनकी एशियन मूल की प्रेमिका पर भी लोग तंज़ करने से बाज़ नहीं आए जो चार माह से उन्हीं के साथ, उन्हीं के घर में रह रही हैं. एक अक्तूबर को रिलीज़ होनेवाली हॉलीवुड फिल्म 'दी सोशल नेटवर्क' ने भी उनकी छवि को धक्का लगाया जिसमें इंगित किया गया था कि युवतियों की चाह में सोशल नेटवर्क साइट शुरू की गयी थी. मार्क को इस बारे में सफाई देनी पड़ी. 2009 में फेसबुक ने अपना नया डिज़ाइन किया गया होम पेज लांच किया था जिसका शीर्षक था ''आपके मन में क्या है?'' कहा जाता है कि यह स्टाइल ''ट्विटर से उड़ाया गया था.
बिल गेट्स और रिचर्ड ब्रोन्सन की तरह मार्क जुकेरबर्ग भी मानते हैं कि मालदार होने का पढ़ाई या डिग्री से कोई ताल्लुक नहीं. यहूदी परिवार में 14 मई 1984 को जन्मे मार्क ने फेसबुक पर अपने प्रोफाइल में लिखा है कि उनकी दिलचस्पी लोगों को आपस में जोड़ने में है. वे खुलेपन के हिमायती हैं और यही खुलापन लोगों को जोड़ता है. मार्क की तीन बहनों में से सबसे बड़ी बहन उन्हीं की कंपनी में कंज़्यूमर मार्केटिंग हेड हैं. फ़ोर्ब्स की अरबपतियों की सूची में मार्क का नाम 212 नंबर पर है और उनकी संपत्ति चार अरब डॉलर से ज़्यादा की आँकी गयी है.
- प्रकाश हिन्दुस्तानी-
Daily hindustan
19.12.2010

Friday, December 10, 2010





शीला की जवानी' देख लोग 'मुन्नी की बदनामी' भूल जाएँगे ? कैटरीना ने इस बेली डांस में अश्लीलता का सहारा नहीं लिया है. वैसे कैट अंग प्रदर्शन में कंजूसी नहीं करतीं. चालीस पार के हीरो उन्हें बैसाखी के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. वे फिल्मों में कामयाबी के शिखर पर जाने के लिए मौजूद हर सीढ़ी की महत्ता जानती हैं और किसी भी सीढ़ी का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करतीं.


बॉर्बी डॉल जैसी कैटरीना की 'युवावस्था'


यह कहना गुस्ताख़ी होगी कि कैटरीना कैफ़ 'आयटम' गर्ल हैं. बॉर्बी डॉल जैसी कैट आजकल एक्टिग भी करने लगी हैं. उन्हें फिल्मफेअर को छोड़कर तमाम पुरस्कार मिल चुके हैं--स्टारडस्ट, ज़ी, स्क्रीन, आइफ़ा, गोल्डन कला आदि-आदि. वे 2010 की ख़ास न्यूज़मेकर हैं. महिला निर्देशिका फरहा ख़ान के डायरेक्शन में उन्होंने 'शीला की जवानी' गीत 'धक धक' गर्ल माधुरी दीक्षित को समर्पित किया है. हाल ये है कि 'मुन्नी की बदनामी' को भूल लोग 'शीला की जवानी' पर फिदा हैं. फिल्म इंडस्ट्री का ध्यान बॉक्स ऑफिस पर है और खुद मिस बॉर्बी को अपने करीयर में अच्छे दौर की उम्मीद है. ये कहना मुनासिब है कि 'तीसमार ख़ान' की असली हीरो वे ही हैं. (अक्षय की बीवी ट्विंकल इसकी को-प्रोड्यूसर हैं). फिल्म डायरेक्टर फरहा ख़ान का कहना है कि इस गाने में सौंदर्यबोध का ध्यान रखा गया है; कैटरीना का बेली डांस देख लोग शकीरा को भूल जाएँगे. कैट के लिए ब्राज़ील से खास ट्रेनर आए थे और महीनों वे शरीर शौष्ठव में लगीं रहीं. यह भी दावा है कि इस गाने में भौन्डापन नहीं है, कैट सुंदर, आकर्षक और प्यारी लगी हैं. कैमरा एंगल ऐसे हैं कि उनके डांस का हर स्टेप साफ़ नज़र आता है. (शीला तमिल फिल्मों की हॉट अभिनेत्री हैं.)
कैटरीना कैफ़ अंग प्रदर्शन में वे कंजूसी नहीं करतीं. पर्दे पर उनकी मौजूदगी का अर्थ है बॉक्स ऑफिस पर भीड़. चालीस पार के तमाम हीरो उन्हें बैसाखी के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. उनकी देहयष्टि, सौंदर्य और हिन्दी बोलने की अदा के दर्शक दीवाने हैं. डायरेक्टरों की आज्ञाकारी हैं. एक्शन सीन भी करने में डरती नहीं, इस कारण दुर्घटनाओं का शिकार भी होती हैं. कोमलांगी हैं सो सेट पर ही बीमार भी हो जाती हैं. डॉयलाग के अलावा कम बोलती हैं और दूसरों पर टीका नहीं करतीं. मीडिया से पर्याप्त दूरी रखती हैं. फिल्मों में कामयाबी के शिखर पर जाने के लिए मौजूद हर सीढ़ी की महत्ता जानती हैं और किसी भी सीढ़ी का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करतीं.


कैटरीना हिन्दी के अलावा मलयालम, तमिल और तेलुगु फिल्मों में भी अभिनय करती हैं. उनकी आनेवाली फिल्मों में तीस मार ख़ान, रॉकस्टार, दोस्ताना2, मेरे ब्रदर की दुल्हन, मैं कृष्णा हूँ, ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा और प्रभु देवा की एक तमिल फिल्म है. फिल्मों में उन्होंने यादगार रोल किए हैं, चाहे राजनीति की इंदु प्रताप हों या न्यू यार्क की माया, मैने प्यार क्यों किया और सींग इज़ किंग की सोनिया, रेस की सोफी हों या नमस्ते लंदन की जस्मीत मल्होत्रा, वेलकम की संजना या पार्टनर की प्रिया. उन्होंने कॉमेडी, एक्शन और रोमांटिक सभी तरह के रोल कामयाबी से किए हैं.

ग्रीक नाम कैटरीना का अर्थ है पवित्र. कश्मीरी पिता और ब्रिटिश माँ की सात बेटियों में से एक कैटरीना की पैदाइश 16 जुलाई 1984 को हांगकांग में हुई. माता पिता में अलगाव के बाद उनका बचपन हवाई और फिर लंदन में बीता. चौदह की उम्र में मॉडलिंग से शुरुआत की. डायरेक्टर केज़ाद गुस्ताद ने उन्हें बूम के लिए साइन किया और 2003 में 19 की कैट मुंबई आ गयीं. सलमान के परिवार के साथ रुकीं. फिल्में, मॉडलिंग, एड, लाइव शो, बॉर्बी डॉल लांचिंग जैसे सभी काम किए और फिर धीरे धीरे सलमान से दूरी बना ली. गासिप वालों की मानें तो सलमान कैट के साथ शादी का इंतज़ार कर रहे हैं. अभी भी कैट के मोबाइल बिल सलमान ख़ान के घर आते हैं और उनका पेमेंट भी सलमान की ओर से होता है.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान
12-12.2010

Sunday, December 05, 2010

अजीम प्रेमजी ने 8846 करोड़ का दान दिया. अजीब शख्स है !!! IPL टीम नहीं खरीदी, हवाई जहाज़ बेड़ा नहीं लिया, कैलेंडर नहीं छापे, फिल्में नहीं बनाईं, किसी आईलैंड की मिल्कियत नहीं चाही, मीडिया टायकून नहीं बना.... ढाई करोड़ दे पामेला एंडरसन से घर की झाड़ू भी नहीं लगवाई....क्या दूसरे धंधेबाज़, साहूकार, शराब व्यवसायी, भू माफ़ि...या शिक्षा लेंगे?

भारतीय बिल गेट्स अजीम प्रेमजी
विप्रो के प्रमुख अजीम प्रेमजी माइक्रोसाफ्ट के बिल गेट्स के रास्ते पर हैं. दो दिन बाद, 7 दिसंबर से प्रेमजी की संपत्ति में से 8, 846 करोड़ रुपये के बराबर संपत्ति अजीम प्रेमजी फाउंडेशन नामक दान खाते में ट्रांसफर होना शुरू हो जायेगी. विप्रो के उनके परिवार के 79.36 प्रतिशत हिस्से में से 8.6 प्रतिशत हिस्सा कम हो जाएगा. इससे शिक्षा की बेहतरी के लिए काम होगा. उनका मानना है कि दान ह्रदय की प्रक्रिया है, दिमाग या हाथों की नहीं. एक अच्छा काम सौ सलाहों से बढ़कर होता है और वे यह काम किसी मीडिया अटेंशन के लिए नहीं कर रहे. बिल गेट्स के 27 अरब डॉलर और वारेन बफेट के 31 अरब डॉलर दान के मुकाबले यह दस प्रतिशत भी नहीं है, लेकिन भारत में अभी तक इस से बढ़कर कोई दान नहीं हुआ.

अजीम प्रेमजी भारत की तीसरी सबसे बड़ी साफ्टवेयर कंपनी विप्रो (पुरानी वेस्टर्न इंडिया प्रोडक्ट्स) के प्रमुख हैं. उनका नाम भारत के सबसे मालदार लोगों में शुमार है, फ़ोर्ब्स ने उन्हें दुनिया के सबसे धनी 50 लोगों में शामिल किया है, एशियावीक उन्हें विश्व के सबसे पावरफुल लोगों में गिनता है. अपने पिता की 'साबुन तेल' कंपनी को 1980 में उन्होंने नए ज़माने की कंपनी में तब्दील कर दिया. ऐसी कंपनी, जिसने दुनिया का पहला 'एसईआई - सीएमएम (पीपल केपेबिलिटी मेच्योरिटी मॉडल) लेवल फाइव' हासिल किया. जो कंपनी अल्काटेल, नोकिया, सिस्को, एरिक्सन, नोर्टल जैसी कम्पनियों के साथ काम करती है और जीई के साथ मेडिकल सिस्टम्स के क्षेत्र में नयी-नयी खोजों में लगी है.

अजीम प्रेमजी गल्फ के शेख नहीं हैं, जिन्होंने तेल बेचकर खरबों कमाए हों. उन्होंने अपनी योग्यता से यह मंजिल हासिल की. बीते साल विप्रो का मुनाफा 4,593 करोड़ से ज्यादा का था. वे चाहते तो आईपीएल की टीम खरीदने, फ़िल्में बनाने, हवाई जहाजों का बेड़ा खरीदने, मीडिया टायकून बनने में 'कुछ' हिस्सा झौंक सकते थे, लेकिन उन्होंने शिक्षा का स्तर उठाने के लक्ष्य को चुना. यों भी वे दिखावे से दूर रहते हैं. हवाई जहाज में यात्रा करनी हो तो इकानॉमी (कैटल ?) क्लास में आते-जाते हैं. रुकने के लिए महंगे फाइव स्टार होटल स्युइट्स के बजाय अपनी ही कंपनी का गेस्ट हाउस चुनते हैं. वे ऐसे उद्यमी हैं, जिन्होंने साफ़-साफ़ कहा था कि मेरा बेटा मेरा उत्तराधिकारी नहीं हो सकता, उसमें अनुभव की कमी है. मंदी के दौर में उन्होंने अपना वेतन दस प्रतिशत घटाया, लेकिन दूसरे डाइरेक्टरों का वेतन कम नहीं किया.

अजीम प्रेमजी को बहुत बुरा लगा जब उन्हें वाल स्ट्रीट जर्नल ने 'दुनिया का सबसे धनी मुस्लिम इंटरप्रेन्योर' लिखा. उन्होंने आपत्ति की कि कभी भी किसी को सबसे धनी हिन्दू, सिख, यहूदी या बौद्ध नहीं कहा जाता. अमेरिका में आतंकी हमले के बाद अमेरिकी दूतावास ने उनसे अनुरोध किया गया कि वे 'इस्लामिक स्कूलों में आधुनिकता' का ज्ञान देने की पहल करें. उन्होंने साफ़ कहा कि सभी को क्यों नहीं; शिक्षा ही है जो सभी को आगे ले जा सकती है और यह सभी को मिलनी चाहिए. पद्मभूषण से सम्मानित प्रेमजी विप्रो को वैश्विक कंपनी के रूप में देखना चाहते हैं और चाहते है कि कम से कम टॉप टेन में तो उस का शुमार हो ही.

24 जुलाई 1945 को जन्मे अजीम प्रेमजी के पिता व्यवसाय में थे. उनके दादा का बड़ा कारोबार था और वे बर्मा में 'राईस किंग' माने जाते थे. देश विभाजन के वक़्त उनके दादा को पकिस्तान में केबिनेट मंत्री बनाने का प्रस्ताव खुद जिन्ना ने रखा था, लेकिन वे पकिस्तान नहीं गए. मुंबई में स्कूली पढ़ाई के बाद अजीम ने स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिग्री के लिए एडमिशन लिया था, लेकिन पिता के निधन के कारण वापस आना पड़ा. यह डिग्री उन्होंने बाद में हासिल की. मानद डी. लिट. सहित कई डिग्री उनके पास है, लेकिन उनका असली लक्ष्य है प्राइमरी शिक्षा को बेहतर बनाना. देखते हैं. अब कौन उनका अनुसरण करता है?
--प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान
5 दिसंबर 2010