Monday, August 25, 2014

39 साल से धधक रहे हैं शोले


वीकेंड पोस्ट (23 अगस्त  2014)
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15 अगस्त1975 को रिलीज हुई शोले ढाई साल में बनी। 3 अक्टूबर1973 से इस फिल्म की शूटिंग शुरु हुई थी और यह अपने समय की सबसे महंगी फिल्मों में शामिल थी। उस समय इस फिल्म की लागत करीब ३ करोड़ रुपए आई थी और इसने रिकॉर्ड कारोबार किया। पांच साल तक एक ही थिएटर में लगातार प्रदर्शन का रिकॉर्ड भी इस फिल्म के नाम है। इस फिल्म के कई कलाकार अब इस दुनिया में नहीं है। कई कलाकारों के बच्चे फिल्मी दुनिया पर राज कर रहे है। कई कलाकारों ने इस फिल्म से पहचान बनाई और कई कलाकार केवल इस फिल्म के कारण ही जाने-पहचाने जा रहे है।

हर फिल्म की तरह शोले की भी अलग कहानी है। यह कहानी फिल्म की कहानी नहीं बल्कि इस फिल्म के निर्माण की कहानी है। अंग्रेजी से अनेक फिल्मों से प्रेरित इस फिल्म की कहानी बेहद दिलचस्प है और इसकी खास बात यह है कि फिल्म का हर चरित्र अपने आप में बेमिसाल है। यह फिल्म अपने संवादों के कारण तो चर्चा में रही ही है। हिंसा, कॉमेडी और ट्रेजडी के दृश्यों के लिए भी यादगार मानी जाती है। डाकूप्रधान फिल्म होते हुए भी इसमें रोमांस का पुट था। शोले को अंग्रेजी की फिल्में वन्स ए टाइम इन द वेस्ट, द गुड द बेड एण्ड द अगली, ए फिस्ट फुल ऑफ डॉलर्स, फॉर ए फ्यू डॉलर्स आदि से प्रेरित बताया जाता है। कुल मिलाकर यह फिल्म चूँ चूँ का मुरब्बा थी, जिसे बेहतरीन निर्देशन, अभिनय, डायलॉग, गीतों और प्रस्तुति ने यादगार बना दिया। 

बहुत छोटी-सी कहानी थी इस फिल्म की। रामगढ़ के ठाकुर बलदेव सिंह ने एक डाकू सरगना को पकड़ जेल में डलवाया, जो जेल से फरार होने के बाद ठाकुर परिवार को बर्बाद करने पर आमादा था। उसने ठाकुर के परिवार के पुरुष सदस्यों को जान से मार दिया और खुद ठाकुर के दोनों हाथ काट दिए। ठाकुर डाकू से बदला लेने के लिए दो चोरों की मदद लेता है और अंत में डावूâ को पुलिस के हवाले करने में सफल होता है।

शोले की जो मूल कहानी लिखी गई थी उसमें ठाकुर पुलिस इंस्पेक्ेटर न होकर सैनिक अधिकारी रहता है और वह अपने परिवार पर हुए हमले का जवाब दो रिटायर्ड फौजी जवानों की मदद से देता है, लेकिन इस कहानी और फिल्म बनाने में दिक्कत थी, क्योंकि फौजियों के दृश्य शूट करना मुश्किल काम था और इसके लिए बहुत सी अनुमतियां जरुरी थी। मूल कहानी मेंं अंत में ठाकुर डावूâ को तड़पा-तड़पा कर मार डालता है। शोले में भी यहीं क्लाइमेक्स शूट किया गया था, लेकिन सेंसर बोर्ड की आपत्ति के कारण डावूâ गब्बर को पुलिस के हवाले कर दिया जाता है। विदेश में प्रदर्शित फिल्म शोले भारत में प्रदर्शित फिल्म से थोड़ी अलग थी, क्योंकि वहां गब्बर की मौत के दृश्य फिल्म में दिखाए गए थे। 

जब शोले रिलीज हुई थी तब शुरु के तीन-चार दिनों में दर्शकों का रिस्पांस अच्छा नहीं था। फिल्म के निर्माता निर्देशक रमेश सिप्पी चिंता में पड़ गए। लगा कि 70 एमएम का प्रचार, करोड़ों की फिल्म, मल्टी स्टार कास्ट, फिल्म के संवादों के कैसेट्सकी बिक्री, पूरे देश में धुआंधार प्रचार आदि के बाद भी फिल्म को रिस्पांस नहीं मिला, तो जरूर कुछ गड़बड़ रही होगी। 1975 में ही लगी अमिताभ बच्ची की दीवार सुपरहिट रही थी। दीवार फिल्म में अमिताभ बच्चन की मौत हो जाती है और शोले में भी। सिप्पी साहब को लगा कि शायद दर्शकों को अमिताभ की मौत पसंद नहीं आई। विचार किया गया कि फिल्म का क्लाइमेक्स बदला जाए और अमिताभ बच्चन को अंत तक जीवित ही दिखाया जाए। जब इस बारे में फिल्म के लेखक सलीम और जावेद से बात की गई तो पहले वे नहीं माने, लेकिन बाद में किसी तरह तैयार हुए। फिल्म की शूटिंग आनन-फानन में करके फिल्म का अंत बदलने की योजना बनी, लेकिन उस पर अमल हो पाता इसके पहले ही बॉक्स ऑफिस पर भीड़ जुटने लगी और इससे फिल्म के निर्माता, निर्देशक का हौंसला बढ़ा। फिल्म का क्लाइमेक्स बदलने का इरादा टाल दिया गया और ाqफर जो कुछ भी हुआ वह इतिहास है। 

शोले को फिल्मफेअर के 9 अवॉर्ड एकसाथ मिले। बीबीसी इंडिया ने शोले को शताब्दी की महान फिल्म करार दिया। साथ ही इसे बॉलीवुड की टॉप 10 फिल्मों में शामिल किया। पंचासवें फिल्म पेâयर अवार्ड समारोह में 50 वर्ष की फिल्मों में से एक सबसे चर्चित फिल्म को ईनाम दिया गया और वह फिल्म थी शोले। एचएमवी  ने शोले फिल्म के संवादों की वैâसेट बेचकर लाखों रुपए कमाए। इसके पहले किसी फिल्म के संवादों केकैसेट्स इस तरह न तो बने और न बिके। शोले को कितने अवार्ड मिले इसका हिसाब लगाना ही एक कठिन काम है। इस फिल्म में हर विधा में अवार्ड जीते है। 

कर्नाटक में बैंगलोर के पास रामनगर में आज भी पर्यटकों को घूमाने ले जा रहे गाइड यह बताने से नहीं हिचकते कि रामनगर की इन्हीं पहाड़ियों में शोले फिल्म की शूटिंग हुई थी। शोले का रामगढ़ रामनगर के पास ही बसाया गया था। शूटिंग के लिए रामगढ़ तक सड़क बना दी गई थी। शोले में दिखाए गए जेल के दृश्य मुंबई के राजकमल स्टुडियों में फिल्माए गए। रामनगर के फिल्मी सेट को लोग अब तक सिप्पी नगर के रूप में याद करते है। जिन चट्टानों के आसपास गब्बर सिंह का डेरा था उसे लोग शोले रोक्स के नाम से जानते है। 

शोले फिल्म का पहला शॉट अमिताभ बच्चन और जया बच्चन के साथ फिल्माया गया था। तब जया बच्चन गर्भवती थी और श्वेता उनके पेट में थी। इसीलिए जया के लिए ऐसे दृश्य लिखे गए थे जिनमें उन्हें ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़े और कैमरा  उनके चेहरे पर ज्यादा समय केन्द्रित रहे। शोले में राधा बनी जया बच्चन के दो दृश्य है जिनमें वे शाम होने पर लालटेन जलाती है। इन दो दृश्यों को फिल्माने में निर्देशक को 20 दिन लग गए, क्योंकि रात होने के पहले लालटेन जलाना जरूरी था और दिन में लालटेन जलाई नहीं जा सकती थी। निर्माता व निर्देशक ने परफैक्ट  बनाने के लिए दृश्यों पर बहुत मेहनत की। जैसे पांच मिनिट का गाना ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे तीन सप्ताह में फिल्माया गया। गब्बर बने अमजद खान द्वारा इमाम बने एके हंगल की हत्या का दृश्य 21 दिन में फिल्माया गया। फिल्म में दिखाया गया शुरुआती ट्रेन लूटने का दृश्य मुंबई-पुणे रेलवे रूट पर पनवेल के पास फिल्माया गया, जिसमें7 सप्ताह लगे। 

जब शोले बनना शुरू हुई थी, तब किसी को अंदाज नहीं था कि यह एक ऐतिहासिक फिल्म होगी। इस फिल्म को लेकर कलाकारों के मन में भी एक जैसा उत्साह नहीं था। कहते है कि केवल अमिताभ बच्चन ही इस फिल्म की कामयाबी के बारे में आश्वस्त थे और अमिताभ ने काफी तिकड़में करने के बाद इस फिल्म का रोल पाया था। इस फिल्म में बने गब्बर सिंह का रोल अमजद खान के बजाय डेनी डेंग्जोप्पा को दिया गया था, लेकिन वे फिरोज खान की फिल्म धर्मात्मा की शूटिंग में अफगानिस्तान में व्यस्थ थे और उन्हें लगा कि धर्मात्मा शोले से बेहतर और सफल फिल्म साबित होगी। धर्मेन्द्र को इस फिल्म में ठाकुर का रोल दिया गया था और संजीव कुमार को धर्मेन्द्र की जगह वीरू बनना था। धर्मेन्द्र किसी भी कीमत पर वीरू का रोल छोड़ना नहीं चाहते थे। आखिर उन्होंने किसी तरह वीरू का रोल पा लिया। जय की भूमिका में अमिताभ की जगह शत्रुघ्न सिन्हा का नाम था। यहां अमिताभ ने किसी तरह यह रोल अपनी झोली में डाला, यहां शत्रुघ्न सिन्हा ने बहुत उत्साह नहीं दिखाया था। शोले के पहले मुझे जीने दो नामक डावूâ प्रधान फिल्म बहुप्रचारित की गई थी, लेकिन उसे दर्शकों का रिस्पांस नहीं मिला। शत्रुघ्न सिन्हा को लगा कि यह भी डावूâ की ही एक ओर फिल्म होगी। इस फिल्म में खलनायक प्राण के लिए भी  एक रोल रखा गया था। पहले यह माना गया कि ठाकुर का रोल प्राण बेहतर कर पाएंगे, लेकिन संजीव कुमार ने किसी तरह यह भूमिका अपने खाते में की। ठाकुर की भूमिका महत्वपूर्ण इसलिए थी कि इसमें एक्टिंग के जौहर दिखाने का पूरा मौका था। दोनों हाथ कटे ठाकुर को जो कुछ कहना था अपने चेहरे के हाव-भाव से ही कहना था। संजीव कुमार इस भूमिका में एकदम खरे उतरे। ठाकुर का रोल एक उम्रदराज व्यक्ति का रोल था और यहीं कारण था कि हेमा मालिनी के पीछे लट्टू हुए धर्मेन्द्र ने ठाकुर के बजाय वीरू का रोल पाने में पूरी ताकत लगा दी थी। 

शोले फिल्म को दर्शकों ने बहुत पसंद किया। शोले के साथ ही एक ही फिल्म को बार-बार देखने का ट्रेंड चला। ऐसे लाखों दर्शक है जिन्होंने शोले को कई-कई बार देखा। लाखों दर्शकों को शोले के डायलॉग जस के तस याद है। निर्देशक ने भी एक-एक प्रेâम को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। डाकूप्रधान फिल्म होते हुए भी इस फिल्म में नाटक, रोमांस, ट्रेजडी, कॉमेडी और हिंसा का पुट मिलता है। फिल्म के एक दृश्य को फिल्माने के लिए निर्देशक रमेश सिप्पी ने 19 दिन तक मेहनत की। यह दृश्य था इमाम की हत्या का। हत्या के पाशविक दृश्य में पृष्ठभूमि में बनी मस्जिद से अजान की ध्वनि सुनाई देती है जो उस पूरे दृश्य का प्रभाव कई-कई गुना बढ़ा देती है। परपेâक्शन की कोशिश में ३ शब्दों का एक डायलॉग ‘कितने आदमी थे?’ 40 रीटेक के बाद फायनल किया गया। फिल्म में संजीव कुमार, धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, जया बच्चन, अमजद खान आदि के तो मुख्य रोल थे ही। सहयोगी कलाकार के रूप में सचिन, जगदीप, लीला मिश्रा, असरानी, मेकमोहन, विजू खोटे, केस्ट्रो मुखर्जी आदि ने भी अपनी भूमिका में जान डाल दी। 


सलीम और जावेद के लिखे ये डायलॉग शोले में यादगार रहे।
- अरे ओ साम्भा, कितने आदमी थे?
- वो दो थे और तुम दिन, फिर भी खाली हाथ लौट आए।
- कितना ईनाम रखे है सरकार हम पर?
- यहां से 5- -50 कोस दूर, गांव में जब बच्चा रोता है, तो मां कहती है सो जा बेटा नहीं तो गब्बर आ जाएगा।
- बहुत नाइंसाफी है।
- बहुत याराना लगता है, क्यों?
- इतना सन्नाटा क्यों है भाई?
- बसंती, तेरा नाम क्या है रे?
- वहीं तो कर रहा हूं भैय्या जो मजनू ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के लिए किया था, रोमियों ने जूलियट के लिए किया था... सुसाइड।
- साला नौटंकी, घड़ी-घड़ी ड्रामा करता है।
- अब तेरा क्या होगा रे कालिया?
- यह हाथ नहीं फांसी का पंâदा है।
- यह हाथ मुझे दे दे ठाकुर।
- तेरे लिए तो मेरे पैर ही काफी है।
- बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना।
- हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर है।
- आधे दाएँजाओ, आधे बाएँ  बाकी मेरे पीछे आओ।

सलीम जावेद ने इस फिल्म के डायलॉग लिखते समय इस बात का ध्यान रखा कि सभी प्रमुख कलाकारों को महत्वपूर्ण डायलॉग बोलने का मौका मिले। एके हंगल से लेकर असरानी तक को इस फिल्म में अच्छे डायलॉग बोलने का मौका मिला। डायलॉग लिखने पर इतनी बारीकी से काम किया गया कि असरानी का प्रसिद्ध डायलॉग ‘हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं अहा’ का ‘अहा’ तक डायलॉग के रूप में शामिल था। अंग्रेजों के जमाने के जेलर के रूप में असरानी का गेटअप वैâसा होगा यह भी स्क्रिप्ट में लिखा गया था। असरानी को जेलर के रूप में हिटलर जैसी आधी मूछें रखने का सुझाव स्क्रिप्ट में ही था। 

फिल्म की स्क्रिप्ट में हिंसा के साथ ही रोमांस और कॉमेडी के लिए भी पूरी जगह थी। धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी ने रोमांस के दृश्यों को वास्तविक दृश्यों में बदल दिया था। अंग्रेजों के जमाने के जेलर के रूप में असरानी ने बेहतरीन कॉमेडी की थी। साथ ही अमिताभ बच्चन का जय के रूप में वीरू बने धर्मेन्द्र के लिए बसंती यानि हेमा मालिनी का हाथ मांगने जाना दर्शकों को आज भी गुदगुदाता है। धर्मेन्द्र ने भी टंकी पर चढ़कर सुसाइड की धमकी वाले दृश्य में कॉमेडी के जलवे बिखेरे। बंदूकों की धाय धाय और घोड़े  और तांगे की रेस ने रोमांच के दृश्य भी निर्मित किए। अमजद खान ने डावूâ के रूप में खूंखार छवि पेश की। उसके एक-एक डायलॉग और हरकत को सलीम-जावेद ने लिपीबद्ध कर रखा था। गब्बर कब खैनी बनाएगा, कितने देर हथैली पर रगड़ेगा, जुबान के नीचे किस तरह चुटकी में खैनी रखेगा और कब थूकेगा। एक-एक बात बारीकी से लिखी गई थी। धर्मेन्द्र के बचकाने हास्य प्रसंग, बसंती की बक-बक, गब्बर का दहाड़ मारकर चीखना-चिल्लाना और हंसना, जय का वीरू पर तन्ज कसना, सब अपने आप में विलक्षण था। 

शोले की एक खूबी उसके गाने भी थे। इन गानों में भावनात्मक बातें भी थी और मजाकिया बातें भी। उत्तेजना के दृश्य भी थे और भाव प्रणयता के भी। होली के दिन दिल मिल जाते है, ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे और जब तक है जान जाने जहां मैं नाचूंगी जैसे गाने दर्शकों को मन को छू लेते थे। तो कोई हसीना जब रुठ जाती है और मेहबूबा-मेहबूबा जैसे गाने आम दर्शकों की पसंद को ध्यान में रखकर तैयार किए गए थे। आनंद बक्षी ने इस फिल्म के गाने लिखे थे और एक दिलचस्प कहानी है कि शोले के बनने के भी कई साल पहले उन्होंने कोई हसीना जब रुठ जाती है तो और भी हसीन हो जाती है गाना लिखा था। जब वे यह गाना लेकर जीपी सिप्पी से मिले तब जीपी सिप्पी ने इस गाने का मजाक उड़ाया और आनंद बक्षी को विदा कर दिया। बरसों बाद जब शोले के गाने लिखने की बात हुई तब आनंद बक्षी ने फिर वही गाना पेश कर दिया। शोले की सिच्युएशन ऐसी थी कि गाना पसंद आ गया। शोले का महबूबा-महबूबा गाना राहुल देव बर्मन ने खुद गाया। इसे हेलन और जलाल आगा पर फिल्माया गया था। १९७५ की बिनाका गीतमाला में यह गाना २४वें पायदान पर था जो १९७६ में पांचवें पायदान पर आ गया। बिनाका गीतमाला उन दिनों श्रीलंका रेडियो का सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम माना जाता था और इस कार्यक्रम में शोले के दो और गाने जबर्दस्त हिट रहे। ये दोनों गाने है कोई हसीना जब रुठ जाती है तो और ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे। दूसरा वाला गाना ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे किशोर कुमार ने दो बार गाया एक बार खुशी के मौके पर एक बार गमगीन मौके पर। 

जय का वीरू के लिए बसंती का हाथ मांगना, बसंती के लिए वीरू का पानी की टंकी पर चढ़ना, हेलन का मेहबूबा-मेहबूबा गाने को फिल्माने के दृश्य ऐसे है जो आज भी किसी न किसी रूप में फिल्मों में घुमा फिराकर दिखाए जाते है। दिलचस्प बात यह है कि खूंखार डावूâ का रोल करने वाले अमजद खान को भी लोगों ने उतना ही प्यार दिया जितना इमाम बने एके हंगल को। इस फिल्म में जय बने अमिताभ बच्चन ने दर्शकों को सबसे ज्यादा रिझाया। उनकी जेब में दो सिक्कों को घीसकर आपस में चिपकाकर बनाया गया एक सिक्का, जिसके दोनों तरफ हेड था, दर्शकों के दिल को छू गया। इस सिक्के का उपयोग जय अपनी जरुरत के हिसाब से करता था। इस फिल्म में मैकमोहन ने एक ही डायलॉग बोला था और इस एक डायलॉग के बूते ही वो फिल्म में छा गए। 

शोले भारतीय फिल्म इतिहास की पहली फिल्म है जिसने100 से ज्यादा सिनेमा घरों में सिल्वर जुबली मनाई। मुंबई के मिनरवा टॉकिज में इस फिल्म ने लगातार 5 साल का रिकॉर्ड बनाया। अगर आज के दौर में रुपए और उसकी कीमत की तुलना की जाए तो यह फिल्म 1500 करोड़ से भी ज्यादा का व्यवसाय कर चुकी है। 
 प्रकाश हिन्दुस्तानी
वीकेंड पोस्ट (23 अगस्त  2014)

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