Saturday, September 13, 2014

सेलेब्रिटी लोगन का आइस बकेट का 'खेल' !

वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (13 सितम्बर   2014)

आम अमेरिकी खुद को मस्त मौला और लोगों की मदद करनेवाला दिखाता है, लेकिन ऐसा है नहीं। भारतीयों ने उनके 'आइस बकेट चैलेन्ज' को 'राइस बकेट चैलेन्ज ' बनाकर इस फर्जी सेवा अभियान की हवा निकाल दी। ए. एल. एस. ( अम्योट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस ) नामक बीमारी के खिलाफ अभियान चलाने के नाम पर  'एएलएस  आइस बकेट' की धूम मच रही थी। पिछले साल तक 'कोल्ड वाटर बकेट' नाम  चल रहा था जिसका मकसद कैंसर रोगियों की मदद का था पर 30 जून 2014 से यह खेल मीडिया के प्रभाव में आकर आइस वाटर बकेट बन गया।  

खेल  का नियम यह था कि  कोई भी शख़्स खेल को खेलने ( अपने सर पर बर्फीले  पानी की बाल्टी उंडेलने) की चुनौती स्वीकार करेगा और उसका वीडियो रेकार्ड बनाकर सोशल मीडिया पर शेयर कर किसी दूसरे को चुनौती देगा कि वह  ऐसा ही करे। चुनौती स्वीकारी तो 10 डॉलर और नहीं स्वीकारी तो 100 डॉलर के बराबर धनराशि अमेरिका के  एएलएस फाउंडेशन को दान देगा। बिल गेट्स, मार्क जकरबर्ग, माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला,  हॉलीवुड अभिनेता रॉबर्ट डाउनी जूनियर, टेनिस खिलाड़ी नोवाक जोकोविच, लेडी गागा,  जस्टिन बीबर और फुटबॉलर रोनाल्डो जैसी हस्तियां जब यह कर चुकी तो हमारे यहाँ भी नक़ल होने लगी.  सनी लिओनी, सानिया मिर्ज़ा, महेश भूपति, रितेश देशमुख, युवराज सिंह, अक्षय कुमार, अभिषेक बच्चन, सिद्धार्थ मल्होत्रा, पुलकित सम्राट आदि  ने यह खेल खेला। जब दक्षिण भारत  के कुछ युवाओं को इसकी सचाई पता चली तब उन्होंने इसे 'राइस बकेट' नाम देकर चावल दान देना शुरू कर दिया।  'आइस बकेट' की हवा निकल गयी। 

'आइस बकेट चैलेन्ज' के नाम पर अब तक 100 मिलियन डॉलर (10 करोड़ डॉलर अथवा 600 करोड़ रुपए से अधिक) जमा हो चुके हैं. 

यह सारी धनराशि  एएलएस फाउंडेशन को मिली है।  लेकिन  सोच रहे  हैं कि इसका लाभ  एएलएस मरीजों को होनेवाला है, तो आप गलत हैं। अमेरिकी एनजीओ भी फैशन और दिखावे पर  खर्च ज्यादा करते हैं। इस पूरे धन का  चौथाई यानी 27 प्रतिशत ही बीमारी के लिए जाएगा, 73 प्रतिशत दूसरे मद में खर्च होंगे। 

31 जनवरी 2014 को समाप्त हुए वर्ष में एएलएस फाउंडेशन का  खर्च चौंकानेवाला है। इस संस्था ने  73 प्रतिशत धन गैर चिकित्सा  लगाया है। जितना धन इसने मरीजों के लिए खर्च किया लगभग उतना ही (21 प्रतिशत) प्रशासकीय और धन संग्रह के मद में उड़ा  दिया। कम्युनिटी सेवा के नाम पर 19 प्रतिशत और शिक्षा व जागृति के बहाने 32 प्रतिशत धन हवा कर दिया। इसके सीईओ को 2 करोड़ सालाना दिए जा रहे हैं और उसके  बाद के 10 अधिकारीयों को  75 लाख से 125 लाख रुपए मिल रहे हैं। इनके नीचे सैकड़ों कर्मचारी हैं, जिनमें से कई तो शायद ही कोई काम करते हों, लेकिन वेतन के नाम पर लाखों वसूल रहे हैं। पी आर, फाइनेंस, प्लानिंग, पब्लिसिटी, लीगल आदि विभाग हैं, जिनके दफ्तर का खर्च करोड़ों में है। 

भारत का हाल तो हमें पता ही है, लेकिन अमेरिका में भी हाल अच्छा  नहीं है। यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल ऐड और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने ऐसे भ्रष्टाचार को रोकने के लिए एंटी फ्रॉड ऑनलाइन सेवा शुरू की है. इसकी ज़रुरत पड़ी होगी? भारत में ऐसे करीब 15 एनजीओ हैं जिन्हें 60 करोड़ से 230 करोड़ की मदद हर साल विदेश से मिलती है। इनमें ज्यादातर केरल, तमिलनाडु, सीमांध्र, पश्चिम  बंगाल और दिल्ली के हैं। ऐसा लगता है की सेवा के नाम पर मेवा खानेवाले पूरी दुनिया में बराबरी से फैले  हैं। 
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वीकेंड पोस्ट में मेरा कॉलम (13 सितम्बर   2014)

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