वीकेंड पोस्ट के 8 फ़रवरी 2014 के अंक में मेरा कॉलम
मज़ा कैसे आता है ?
..." अखबार खरीदा जाता है खबरों के लिए, विचारों के लिए। कैसे मज़ा आता है तुम्हें? और मज़े के लिए पेपर क्यों खरीदते हो यार? अखबार कोई मज़े के लिए खरीदता है क्या ? मज़े के लिए तो शराब पीते हैं, बैंकाक जाते हैं, कैबरे देखते हैं, औरतों के पास जाते हैं और तुम साले गधे, मज़े के लिए अखबार खरीदते हो? एक रुपये का अखबार जो तुम्हारे घर रोज सुबह बिना नागा किये तुम्हारे घर पहुँच जाता है, जिसे पढ़ा जाता है, फिर अनेक उपयोग के बाद रद्दी में भी बेच दिया जाता है , उससे तुम मज़े कैसे ले सकते हो? क्या अखबार में कोई गारंटी छपी रहती है कि एक रुपये में मज़े की गारंटी? तुम जैसे लोगों को 'मुगले आज़म' देखकर भी मज़ा नहीं आता ! क्या पचास रुपये में मधुबाला को बेडरूम में नचवाओगे? एक रुपये में क्या संपादक तुम्हारी लंगोट धोये-सुखाये-प्रेस करे?"
उन दिनों 'नवभारत टाइम्स' में था। एक पुराने मित्र आये और कहने लगे --''यार, तुहारे पेपर में मज़ा नहीं आ रहा है। ''
मैंने पूछा --"क्या बड़ी ख़बरें चूक रहे हैं?''
''नहीं।''
क्या सम्पादकीय ठीक नहीं है? छपाई खराब है? निष्पक्षता नहीं है?
''नहीं''
''फिर क्या काग़ज़ ख़राब लग रहा है? स्याही से बदबू आती है? क्या पेपर के अक्षर छोटे हैं? वक़्त पर पेपर नहीं मिलता?''
''वो बात भी नहीं है''
''फिर क्या बात है? पेपर निष्पक्ष है, खबरें नहीं चूकता, सबकी और सारी खबरे देता है, सम्पादकीय भी ठीक है, छपाई अच्छी है, फोटू- वोटू भी ठीक हैं, काग़ज़- स्याही ठीक है। अखबार लेट भी नहीं होता तो फिर क्या दिक्कत है भाई? क्या अखबार घर पर नहीं आ रहा?''
''नहीं , ऐसा भी नहीं है। हर रोज़ मेरे उठने से पहले ही सात बजे तक आ जाता है।''
नवभारत टाइम्स उन दिनों एक रुपये का बिकता था फिर भी मैंने पूछ लिया --''कितने का है नवभारत टाइम्स?''
वे बोले -''एक रुपये का''
अब बारी मेरी थी, मैंने कहा -''आप एक रुपये का अखबार लेते हो, जो रोज़ सुबह तुम्हारे घर पहुँच जाता है। खबरों, लेखों, काग़ज़, छपाई किसी से आप को शिकायत नहीं है। फिर क्या बात है ?''
वे बोले --''यार, मज़ा नहीं आ रहा पेपर में?''
मैं भन्ना उठा -''क्या करें कि तुम्हें मज़ा आने लगे?''
वे बोले -''पता नहीं, पर मज़ा नहीं आ रहा। ''
--''तो क्या तुम्हारे घर आकर रोज कैबरे डांस करें कि तुम्हें मज़ा आ जाए? एक रुपये में पान का पत्ता नहीं आता, जूते की पॉलिश नहीं हो सकती? एक कंडोम नहीं आता एक रुपये में। पानी की बोतल नहीं खरीद सकते एक रुपये में तुम! बड़े आये 'मज़ा नहीं आ रहा' कहनेवाले? ? अखबार खरीदा जाता है खबरों के लिए, विचारों के लिए। कैसे मज़ा आता है तुम्हें? और मज़े के लिए पेपर क्यों खरीदते हो यार? अखबार कोई मज़े के लिए खरीदता है क्या ? मज़े के लिए तो लोग शराब पीते हैं, बैंकाक जाते हैं, कैबरे देखते हैं, औरतों के पास जाते हैं और तुम साले गधे, मज़े के लिए अखबार खरीदते हो? एक रुपये का अखबार जो रोज सुबह बिना नागा किये तुम्हारे घर पहुँच जाता है, जिसे पढ़ा जाता है, फिर अनेक उपयोग के बाद रद्दी में भी बेच दिया जाता है , उससे तुम मज़े कैसे ले सकते हो? क्या अखबार में कोई गारंटी छपी रहती है कि एक रुपये में मज़े की गारंटी? तुम जैसे लोगों को 'मुगले आज़म' देखकर भी मज़ा नहीं आता ! क्या पचास रुपये में मधुबाला को बेडरूम में नचवाओगे? एक रुपये में क्या संपादक तुम्हारी लंगोट धोये-सुखाये-प्रेस करे?''
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… अब वह मेरा मित्र नहीं रहा इसलिए पता नहीं, मज़े के लिए वह क्या करता है? लेकिन कहीं आप भी मज़े के लिए तो अखबार नहीं खरीदते हैं न?
---प्रकाश हिन्दुस्तानी
(वीकेंड पोस्ट के 8 फ़रवरी 2014 के अंक में मेरा कॉलम)
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