Thursday, February 20, 2014


"तीसरा मोर्चा  भानुमति का कुनबा है, विघ्नसंतोषियों का घोटुल और  भगोरिया पर्व ! वह खुद अपने बूते पर कुछ कर नहीं। तीसरे मोर्चे के कई नेताओं को सपने में प्रधानमंत्री का पद नज़र आता है.… बिना कांग्रेस या भाजपा के तीसरा मोर्चा न कुछ कर पाया है और न कर पाएगा…"


2014 के खट्टे अंगूर (3)

बड़े नेताओं वाले तीसरे मोर्चे के मुगालते

                                                                                                                                               सौ : कीर्तीश

 2014 के चुनाव में तीसरे मोर्चे की आहट  है. इस  तीसरे मोर्चे में बड़े बड़े नेताओं की पार्टियां हैं।  कई राज्यों में इन पार्टियों का क़ब्ज़ा है और लोकसभा की ख़ासी सीटें इनके पास है. इनमें से अनेक नेताओं को  प्रधानमंत्री बनने के सपने आते हैं और कुछ तो यह भी दावा करते नहीं थकते कि उनके बिना इस बार सरकार बन ही नही पाएगी.

मुख्य दावेदार 

इस तीसरे मोर्चे में मुलायमसिंह यादव हैं जिनका बेटा अखिलेश उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री है. इस पार्टी ने गत लोकसभा में 23  सीटें जीतीं थीं और 403  की विधानसभा में 224 सीटें हैं. इस मोर्चे में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं और उनकी पार्टी जेडीयू  लोकसभा में 20  सीटें रखते हैं।  बिहार  विधान सभा में अभी 243  में से 119 सीटें उनके पास हैं।  तीसरे मोर्चे की तीसरी प्रमुख शक्ति हैं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री और एआईएडीएमके की नेता जय ललिता, जिनके पास लोकसभा में  9  सीटें हैं और 234 सीटों की विधानसभा में  158 सीटें हैं। तीसरे मोर्चे में ओडिसा  में नवीन पटनायक हैं जिनकी पार्टी ने गत लोकसभा में 14 सीटें जीती थीं। 147  में से 103 विधायक बीजू जनता दल के हैं।  तीसरे मोर्चे के प्रमुख घटको में वामपंथी पार्टियां हैं जिन्होंने दक्षिण भारत में अपनी अलग पहचान और सत्ता बनाई थी।  गत लोकसभा में सीपीएम ने 16  और सीपीआई ने 4  सीटें जीती थीं। कुछ छोटी पार्टियों  बाद गत चुनाव में तथाकथित तीसरे मोर्चे को कुल 79 और कुछ छोटी पार्टियों सहित समाजवादी पार्टी के चौथे मोर्चे को 27 सीटें मिलीं थीं. 9 निर्दलीय जीते थे और 7 पार्टियों को एक एक सीट मिली  थी।
चौथे  मोर्चे वाली समाजवादी पार्टी अब तीसरे मोर्चे में है। 

तीसरे मोर्चे की ताकत 

आज के हालत में देखें तो उत्तरप्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, ओडिसा के चार राज्यों में ही 180 लोकसभा सीटें हैं, जिनमें से 66 पर तीसरे मोर्चे का अधिकार है। यह इन राज्यों की  एक तिहाई से ज्यादा  है। कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का बोलबाला है।  हिन्दी ह्रदय स्थल वाले कई  राज्यों में भाजपा की एकतरफा बढ़त है और कांग्रेस सभी जगह थोड़ी बहुत है। कांग्रेस को लेकर कहीं भी बहुत अच्छा माहौल है नहीं और खुद कांग्रेस  इस बार आम चुनाव को लेकर बहुत आशान्वित नहीं नज़र आती लेकिन तीसरे मोर्चे को लेकर जो पार्टियां उछलकूद कर रही हैं वह दिलचस्प है। लगता है कि उनके मुगालते भी जल्दी दूर हो जाएंगे।

धर्मनिरपेक्षता का वायरस 

तीसरे मोर्चे में एक से बढ़कर एक नेता हैं, जिन्हें राजनीति की खासी समझ है. लेकिन अपने घोषित उसूलों से हटे हुए ये नेता बार बार के राजनैतिक हनीमून में ही लगे रहते हैं। नीतीश कुमार इसके प्रमुख नमूने हैं। नीतीश कुमार के लिए 2005 तक भाजपा मज़बूरी थी.  भाजपा के बिना उनका मुख्यमंत्री बनाने का सपना पूरा नहीं हो सकता था। 2010  तक मोदी भी बुरे नहीं लगते थे, लेकिन 242 में से 115 पर सीधी जीत हासिल करते ही सेक्युलरिज्म का वायरस आ धमका। भाजपा के साथ मिलकर उन्होंने पिछला चुनाव लड़ा था, अब तलाक़ हो चुका है।  तिकड़म करके वे बिहार के मुख्यमंत्री तो बन सकते हैं लेकिन प्रधानमंत्री कतई नहीं।  हो सकता है कि इस बार उनकी रही सही ताकत  भी जाती रहे. दिल्ली विधानसभा में उन्होंने बहुत ज़ोर मारा था लेकिन केवल एक विधानसभा सीट पर ही संतोष करना पड़ा उन्हें। बीजू जनता दल के नेता ओडिसा के मुख्यमंत्री  नवीन पटनायक को भी उनके स्वर्गीय पिता पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक की तरह प्रधानमंत्री बनाने के सपने आते हैं।  मुलायमसिंह यादव को सपने की पुरानी  बीमारी है, जिसके चलते उन्होंने अपने बेटे को उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री पद सौंप दिया ताकि वे अपने  सपने को  पूरे करने  का वक़्त निकाल सकें। एच डी  देवे गौड़ा किसके साथ थे? धर्मनिरपेक्षता का वायरस नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, मुलायम सिंह यादव, जय ललिता, आदि में समय समय पर आ जाते हैं।  याद कीजिए पहले  शरद पवार की एनसीपी, अब्दुल्लाओं की कस्मीर की एनसी, नीतीश की जेडीयू, ममता की तृणमूल किसके साथ कब कब रही  और किन हालत में वे सेक्युलर हो गई। 

बार बार कुट्टी, बार बार चुम्मी 

तीसरे मोर्चे के नेताओं की खूबी यह है कि वे कभी भी कुट्टी कर बैठते हैं और कभी भी चुम्मा लेने लगते हैं। एक विचित्र बात यह है कि तीसरे मोर्चे के नेता आपस में ही तू-तू मैं-मैं करते रहते हैं।  ममता कहती हैं कि जहाँ लेफ्टवाले होंगे, मैं नहीं जाऊंगी। लालू कहते हैं कि जहाँ नीतीश होंगे, मेरा क्या काम? मायावती कहती हैं कि जहाँ लालू वहाँ मैं  क्यों जाऊं ?  सेक्युलरिज्म के बहाने वे आसानी से एनडीए से कन्नी कट सकते हैं और मुस्लिम वोटों को प्रभावित कर सकते हैं। लालू बिहार में कांग्रेस से समझौता कर चुके हैं और शरद पवार की एनसीपी तो महाराष्ट्र में सीटों का बंटवारा भी कर चुकी है। असम, नागालैंड, सिक्किम, हरियाणा, केरल की छोटी पार्टियां तेल की धार  देख कर फैसला करती हैं। हिंदूवादी शिव सेना और अकाली खुद को भाजपा से जुड़ा पाते हैं और तमाम मुस्लिम समर्थक और वामपंथी विचारधारा की पार्टियां यूपीए के करीब खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं।  यह हनीमून हर पांच  साल में अलग अलग पार्टनर के साथ चलता रहता है। 

तीसरे मोर्चे का उदय 

गैर कांग्रेसी  मोर्चे को  पहली कामयाबी इमरजेंसी के बाद 1977 में मिली थी, जब मोरारजी भाई देसाई जनता पार्टी के नेतृत्व वाले जन मोर्चा के प्रधानमंत्री बने थे। अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री और लाल कृष्ण आडवाणी सूचना  प्रसारण मंत्री बने।  (भारतीय जनता पार्टी 1980 में गठित हुई थी). आर एस एस के मुद्दे पर, दोहरी सदस्यता के बहाने संजय गांधी और इंदिरा गांधी ने खेल खेल और मोरारजी की सरकार गिरवा दी। 1979 में   संजय गांधी ने चौधरी चरण सिंह को कहा कि अगर वे आगे बढ़ें तो कांग्रेस  उन्हें प्रधानमंत्री  पद के लिए समर्थन दे सकती हैं।  चौधरी चरणसिंह झांसे में आ गए और फिर एक बार गैर कांग्रेसी सरकार, कांग्रेस के समर्थन से बन गई. छह महीने के भीतर ही कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और 1980 में फिर चुनाव घोषित हो गए। 1980 में कांग्रेस मोर्चे को 374 सीटें मिलीं, जिसमें से 351 कांग्रेस की अपनी सीटें थीं। 

दूसरी बार तीसरा मोर्चा 

दूसरी बार तीसरा मोर्चा नेशनल फ्रंट के नाम से 1989 में आया। त्रिशंकु (हंग) लोकसभा थी।  किसी मोर्चे को साफ बहुमत नहीं था. कांग्रेस 197 सीट, वीपी सिंह का जनता दल 143 और भाजपा 85 सीट।   सीपीएम 33 और सीपीआई 12, एआईडीएमके 11. 19 छोटी पार्टियों को 33 सीटें मिली थीं और 12 निर्दलीय थे।  बोफोर्स को कोस कोस कर भाजपा और  कम्युनिस्टों के समर्थन से विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए थे (143+85 +33 +12+अन्य =बहुमत). 11 महीने बाद भाजपा ने टेका हटा लिया और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार  ढह गई.  गैर कांग्रेसी सरकार  का प्रयोग चालू रहा और वह भी कांग्रेस के सहयोग-समर्थन से। भाजपा हटी तो कांग्रेस ने  शेखर को समर्थन देकर प्रधानमंत्री बनवा दिया। भाजपा अलग- थलग पड़  गई।  मज़ेदार बात यह हुई कि चन्द्र शेखर ने मौके का तत्काल फायदा उठाया और 64 सांसदों के साथ जनता दल छोड़कर समाजवादी जनता दल बना डाला जिसे कांग्रेस ने समर्थन दे दिया। चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने. मौके का लाभ लेनेवाले नेताओं में देवी लाल, जनेश्वर मिश्र, देवे गौड़ा, मेनका गांधी, सुबोधकांत सहाय, ओमप्रकाश चौटाला,चिमनभाई पटेल, मुलायम सिंह यादव, अशोक कुमार सेन, हुकम सिंह, संजय सिंह, यशवंत सिन्हा,विद्याचरण शुक्ल आदि शामिल थे. इनमें से ज्यादातर मंत्री बन गए। 

तीसरी बार तीसरा मोर्चा 

1996 में भी किसी को साफ़ बहुमत नहीं मिला  था। जनता दल वाले यूनाइटेड फ्रंट ने 192 सीटें जीती और भाजपा के मोर्चे ने 187. कांग्रेस के नेतृत्व वाला मोर्चा 140 पर सिमट गया। कोई भी  सरकार बना ही नहीं सकता था। कांग्रेस ने पहले देवे गौड़ा को प्रधानमंत्री बनवाया और फिर इंद्रकुमार गुजराल को। तीसरा मोर्चा हमेशा ही भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए बनता है या कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के लिए। यह भानुमति का कुनबा है, विघ्नसंतोषियों का घोटुल और  भगोरिया पर्व ! वह खुद अपने बूते पर कुछ कर नहीं।   हर बार उसे कांग्रेस या भाजपा की बैसाखियों की ज़रूरत  पड़ती है। 

2014 में क्या हो सकता है 

2014 में भी तीसरा मोर्चा ज़ोर मारेगा। उसके भाग से छींका टूटा तो वह भाजपा या कांग्रेस की बैसाखियों से  सर्वोच्च पद पर बैठेगा, भारी  जूतमपैजार करेगा।  या फिर भाजपा अथवा कांग्रेस के लिए सिंहासन सजाएगा। ब्लैकमैल करना उसकी मजबूरी भी रहेगी और आवश्यकता भी।  सिद्धांतों  और सेक्युलरिज्म की बातें तो उसे करनी ही है। सत्ता में आने के लिए कांग्रेस और भाजपा को पानी पी पी कर कोसना उसका धर्म है। 

बेशक, इस मोर्चे में बड़े बड़े नेता हैं और उनकी साख दांव पर लगी है। देखें, चुनाव किस तरह के रंग दिखता है। 

© प्रकाश हिन्दुस्तानी 
19. 02. 2014

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