Tuesday, March 18, 2014




वीकेंड पोस्ट के  15 मार्च 2014   के अंक में  मेरा कॉलम

   भगोरिया का इत्ता इंतजार 

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भगोरिया का जित्ता  इंतजार कैमरामैनों को रहता है, उत्ता तो आदिवासियों को भी नहीं रहता होगा। कब होली आए और भगोरिया के फोटो खींचने का मौका मिले।  ताड़ी का मजा ले सकें। और तो और अब तो सरकारी तौर पर भी भगोरिया को प्रचारित किया जाने लगा है और भोपाल-इंदौर से पत्रकारों को भर-भरकर भगोरिया घूमने का चलन है
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भगोरिया का जित्ता  इंतजार कैमरामैनों को रहता है, उत्ता तो आदिवासियों को भी नहीं रहता होगा। कब होली आए और भगोरिया के फोटो खींचने का मौका मिले।  ताड़ी का मजा ले सकें। और तो और अब तो सरकारी तौर पर भी भगोरिया को प्रचारित किया जाने लगा है और भोपाल-इंदौर से पत्रकारों को भर-भरकर भगोरिया घूमने का चलन है। प्रणय पर्व की तरह प्रचारित भगोरिया अब वैसा नहीं है, जैसा प्रचारित किया जाता रहा है। इतिहास बताता है कि राजा भोज के समय लगने वाले हाटों को भगोरिया कहा जाता था। उस समय के दो भील राजाओं कासूमार और बालून ने अपनी राजधानी भागोर में विशाल मेले और हाट का आयोजन करना शुरू किया। धीरे-धीरे आस-पास के भील राजाओं ने भी ऐसा करना शुरू किया जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहना शुरू हुआ। कुछ लोगों ने भगोरिया को आदिवासियों का वैलेंटाइन-डे बताना शुरू कर दिया है। कुछ का मानना है कि भोंगर्या से भगोरिया बना है जिसका अर्थ होता है त्योहार में लगने वाली सामग्री। 

भगोरिया ही नहीं, आदिवासी अंचलों का बहुत कुछ बदल चुका  है। मुश्किल यह है कि गैर आदिवासी समाज यह मानने को तैयार नहीं। आदिवासी जगत के बारे में ऐसी-ऐसी कहानियां गढ़ी जाती हैं कि सवाल आता है कि कौन पिछड़ा है? शहरी तथाकथित सभ्य समाज या आदिवासी?

आदिवासी जगत में बढ़ रही शिक्षा, विकास की बातें, उपलब्धियों पर चर्चा की किसी को फुरसत नहीं। हर कोई भुना लेना चाहता है अपने पूर्वाग्रहों को। अधिकांश पत्रकारों के दिमाग में जो छवि बरसों से है, उसे बदलने की जरूरत कब समझेंगे? अब आदिवासी लंगोट पहनकर नंगे बदन नहीं घूमते, उनकी बहू-बेटियां भी फिल्मी आदिवासियों की तरह अद्र्धनग्न नहीं रहतीं, वे सभी रंग-बिरंगी पोशाकें, चांदी के भारी गहने, बढिय़ा जूते-चप्पल पहनती हैं।  आदिवासी नौजवान अब मोटरसाइकिलों पर भर्राते हुए आते-जाते हैं, कई पढ़े-लिखे संपन्न तो कार भी रखते हैं। इस महत्वपूर्ण समाज का नक्शा बदल रहा है, जो देश की सूरत भी बदल रहा है। हमें यह सब क्यों नहीं दिखता?

सच है कि वे कलरफुल जीवन जीते हैं, बढिय़ा तस्वीरों का कच्चा माल हैं वे। पर इससे ज्यादा भी हैं वे। कई मामलों में तो हमसे भी आगे! 

प्रकाश हिन्दुस्तानी 

वीकेंड पोस्ट के  15 मार्च 2014   के अंक में  मेरा कॉलम


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