Saturday, February 21, 2015

अमर्त्य सेन अपनी राजनीति बंद करें


एक खत, अमर्त्य सेन के नाम

आदरणीय अमर्त्य सेन साहब. आप भारत रत्न, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हैं, मैं एक नाचीज़ आपको यह खत लिख रहा हूँ. गुस्ताख़ी की माफी पहले ही माँग रहा हूँ. आपकी नाराज़गी हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी से रही है और आप उसे समय समय पर व्यक्त भी करते रहे हैं. यह भी सच है कि आप विकास के गुजरात मॉडल की तारीफ भी करते रहे हैं. लेकिन अभी आप नालंदा विश्वविद्यालय के चांसलर (कुलाधिपति) पद से हटने को लेकर जो क्षुद्र राजनीति कर रहे हैं, वह मेरी समझ से परे है.

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक आपने नालंदा विश्वविद्यालय के गवर्निंग बोर्ड को लिखे पत्र में कहा है --" एक महीने पहले मेरे नाम की सिफारिश किए जाने के बावजूद मेरा नाम सरकार की तरफ से आगे नहीं दिया जा रहा है। इसके कारण राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की तरफ से आपके नाम को मंजूरी नहीं मिल रही है. नालंदा विश्वविद्यालय के कुलाधिपति के तौर पर मेरे कार्यकाल की समाप्ति चाहती है और तकनीकी तौर पर उसे करने का ऐसा कोई अधिकार नहीं है। इसलिए मैंने फैसला किया है कि मुझे जुलाई के बाद भी इस पद पर बनाए रखने की सर्वसम्मत सिफारिश और गवर्निंग बोर्ड के अनुरोध के बावजूद नालंदा विश्वविद्यालय की बेहतरी के लिए मेरे नाम को हटा लिया जाना चाहिए। सरकार की मंजूरी के बिना राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी बोर्ड के सर्वसम्मत चयन पर अपनी संस्तुति देने की स्थिति में नहीं हैं।"

माननीय अमर्त्य सेन साहब, आपको एक ऐसे महान संस्थान को फिर से जीवित करने का दायित्व सौंपा गया था, जिसमें मुझ जैसे आम आदमी की उम्मीदें टिकी थीं. इससे बिहार का नाम एक बार फिर दुनिया में छा सकता था.  इन उम्मीदों को  आपने धूल में मिला दिया.  इसके लिए मुझ जैसे करदाता का खून पसीने का पैसा लगा था.

हम प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की कई बातों से सहमत हैं और कई से नहीं हैं. लेकिन यहाँ उन पर आरोप लगाकर आप जो राजनीति कर रहे हैं वह शोभनीय नहीं है.

सरकार स्पष्ट कर चुकी है कि आपके कार्यकाल को सीमित करने के कोई प्रयास नहीं किए गए। इस बारे में जो निर्णय लेना है वह राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को लेना है। उन्होंने स्थिति को और स्पष्ट करते हुए कहा कि जीबीएनयू ने 13 फरवरी को मिनट्स के ड्राफ्ट प्रेषित किए थे। सरकार को अपनी टिप्पणी दो हफ्ते में देनी थी। जिसकी अवधि 27 फरवरी को खत्म हो रही है।

माननीय,  तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ ए पी जे कलाम साहब ने 28 मार्च 2006 को इस विश्व विद्यालय का प्रस्ताव रखा था. संसद के दोनों सदनों की मंज़ूरी के बाद अधिनियम बना और  नालंदा विश्वविद्यालय, 25 नवंबर, 2010 को अस्तित्व में आया. आप इस महान संस्था के परामर्श मंडल में सर्वोच्च स्थान पर रखे गये. आप इसके परामर्श मंडल की बैठकें करते रहे. ये बैठकें न्यूयॉर्क, सिंगापुर, टोक्यो, दिल्ली आदि में हुई और उन पर केवल 211,00,000 :00 ( दो करोड़ ग्यारह लाख रुपये) का मामूली खर्च हुआ!

2007 में अनुमान था कि यह विश्व विद्यालय 1005 करोड़ में खुल जाएगा. अगले 12 साल में इसमें 2727 करोड़ रुपये लगाने की योजना बनी. बिहार के राजगीर में सरकार ने किसानों की 446 एकड़ ज़मीन लेकर विश्व विद्यालय को सौंपी. जब से यह विश्व विद्यालय अस्तित्व में आया है, सैकड़ों करोड़ खर्च हो चुके हैं और इसमें अध्ययन का काम सितमबर 2014 से शुरू हुआ. विद्यार्थी कितने हैं? पंद्रह ! जी हाँ 15 !



इस पूरी योजना के सूत्रधार डॉ कलाम आपकी हरकतों से इतने दुखी हुए कि उन्होंने इससे खुद को अलग कर लिया. यह उनका बड़प्पन ही था कि उन्होंने कभी भी न तो अपनी नाराज़गी खुलकर जाहिर की लेकिन आर टी आई के एक जवाब में उनकी व्यथा खुलकर सामने आ गई थी.

अजीबोगरीब बातें :
  • नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए जो परामर्श मंडल बना था, वही उसकी गवर्निंग बॉडी बन गई और इस तरह नालंदा विश्वविद्यालय के चांसलर (कुलाधिपति) बने आप यानी डॉ अमर्त्य सेन ! डॉ अमर्त्य सेन का काकस बना दिल्ली और पटना में. दिल्ली में आप डॉ मनमोहन सिंह के साथ थे और पटना में नीतीश कुमार के साथ. दिल्ली में मोदी आए और पटना में मांझी तो आपकी नाव डोलने लगी. आप शहादत की भूमिका बनाने लगे.
  • नालंदा विश्वविद्यालय के चांसलर के रूप में आपको बिहार में रहना था, आप चले गये दिल्ली आर के पुरम में !
  • आप इतने बड़े अर्थशास्त्री हैं 3 साल तक आपने नालंदा विश्वविद्यालय के लिए कोई ब्लू प्रिंट नहीं बनाया और न ही बनाने का जिम्मा किसी को सौंपा. क्यों? वेतन-सुविधा-भत्ते सब तो लेते रहे आप?
  • आपने गोपा सबरवाल को उप कुलपति बना दिया. वे क्या थे? रीडर ही थे ना? उनका वेतन था 5,06,513 हर महीने.  सबरवाल जी ने अपनी शिष्या दिल्ली की असोसिएट प्रोफ़ेसर अंजना शर्मा  को ओ एस डी बना दिया 3,30,000 रुपये महीने में! इत्ती तनख़्वाह तो भारत मे कुलपतियों को भी आम तौर पर नहीं मिलती.
  • विदेशी मामलों का विभाग कोई विश्वविद्यालय चलाता है क्या? क्या यह विभाग किसी विश्व विद्यालय का मलिक हो सकता है? क्या कोई कोई अग्रीमेंट साउथ एशियन विश्व विद्यालयों से हुआ है?
  • इस बारे में राज्यसभा में सांसद अनिल माधव दवे सवाल कर चुके हैं, अनेक आर टी आई लग चुकी हैं, अख़बारों में स्पेशल रिपोर्ट्‌स आ चुकी हैं, क्या आपने कभी कोई खंडन किया?


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