Wednesday, February 11, 2015

फॉर्मूला एक ही है , कि कोई फॉर्मूला नहीं होता



दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत के बाद मीडिया के हर सेक्टर में उसकी समीक्षाएं की जा रही है। इन समीक्षात्मक टिप्पणियों के शीर्षक मजेदार है। जैसे- आप की जीत के 10 कारण, आप की जीत के 7 कारण, इन कारणों से जीती आम जनता पार्टी, वे पांच कारण जिन्होंने भाजपा को डुबाया, आम आदमी पार्टी की जीत का कारण सोशल मीडिया, किरण बेदी को लाना भाजपा को महंगा पड़ा आदि-आदि। 

दिल्ली चुनाव के नतीजों के साथ ही लगभग सभी प्रमुख न्यूज चैनल पर चुनाव परिणामों की समीक्षा में विशेषज्ञ बैठे थे। चर्चा का मकसद था नतीजों की समीक्षा करना। सभी विद्वान अपने-अपने तरीके से समीक्षा में लग गए थे। अधिकांश की राय थी कि किरण बेदी को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रस्तुत करना बीजेपी के लिए महंगा पड़ा। यह भी राय थी कि नरेन्द्र मोदी का जादू उतर रहा है। कुछ का कहना था कि केजरीवाल ने जिस तरीके से चुनाव प्रचार किया, वह उनके लिए फायदेमंद रहा। आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों का सरल व्यवहार और सकारात्मक प्रचार उन्हें जीत दिला गया। कईयों ने आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों की आरएसएस वाली शैली की सराहनाह की, जिसमें वे दर-दर घूमे और बार-बार मतदाताओं के सम्पर्वâ में रहे। कुछ लोगों की राय यह भी रही कि भाजपा पहले से ही हार रही थी इसीलिए तुरुप के इक्के के रूप में किरण बेदी को पेश किया गया। यह भी राय रही कि अगर आप की जगह भाजपा को बहुमत मिलता तब भी क्या लोग ऐसी ही बातें करते। 

इस तरह के विषयों से मन नहीं भरा तब कुछ समीक्षात्मक टिप्पणियों के शीर्षक तो इस तरह भी सामने आए- भाजपा खुद चाहती थी कि वह चुनाव हार जाए, दिल्ली चुनाव में हारना भाजपा के लिए जरूरी था, सोची-समझी रणनीति के तहत भाजपा चुनाव हारी आदि-आदि।

कुछ बुद्धिजीवियों ने आम आदमी पार्टी की जीत के पीछे महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यक वोटों का समर्थन बताया। यह भी कहा गया कि मोदी का  अहंकार उन्हें ले डूबा। नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली चुनाव को राष्ट्रीय मुद्दे के तौर पर लड़ने की कोशिश की, जो लोगों को पसंद नहीं आया। विधानसभा चुनाव में हो रही देरी को भी लोगों ने जिम्मेदार बताया। बीबीसी के विश्लेषण के मुताबिक आम आदमी पार्टी की जीत का एक प्रमुख कारण जनाधार खोने के बाद कांग्रेस का अप्रत्यक्ष समर्थन आप पार्टी को रहा। यानि कांग्रेस ने जो वोट खोए वो आप की झोली में गए। आम आदमी पार्टी के आशुतोष के अनुसार आप ने दिल्ली चुनाव पर पूरा फोकस किया था और पार्टी की सभी इकाइयों को मजबूत बनाकर हर एक विधानसभा क्षेत्र पर ध्यान दिया, इससे फायदा हुआ। आम आदमी पार्टी ने ‘डेल्ही डायलॉग’ के रूप में डॉक्टरों, इंजीनियरों, वकीलों आदि से अलग-अलग संपर्वâ किया, इसका भी फायदा मिला। विधानसभा भंग करने में देरी के कारण आप पार्टी को तैयारी करने का बहुत वक्त मिला। भाजपा ने जिस तरीके से किरण बेदी को पेश किया, उससे भारतीय जनता पार्टी में अंदरुनी कलह मच गई। आम आदमी पार्टी ने सिर्पâ दिल्ली पर ध्यान दिया और भाजपा इस अहंकार में डूबी रही कि वह तो विजय रथ पर सवार है ही। आम आदमी पार्टी का भ्रष्टाचार मुक्त बनाने का वादा, मुफ्त पानी, सस्ती बिजली, प्रâी वाईफाई जैसे वादों का भी लाभ मिला। अरविन्द केजरीवाल ने अपन गलतियों के लिए मतदाताओं से खुलकर माफी मांगी और अपनी विनम्रता का परिचय दिया। दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के वोटों को आकर्षित करने के लिए आप ने उनसे लगातार सम्पर्वâ बनाए रखा, लेकिन जब इमाम ने उन्हें समर्थन देने की घोषणा की तब आम आदमी पार्टी ने उसे गरिमापूर्ण तरीके से अस्वीकार कर अपना कद और बढ़ा दिया। 

चुनाव की घोषणा होने से पहले ही आम आदमी पार्टी ने भाजपा पर काफी दबाव बना लिया था। जब सतीश उपाध्याय को मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने की बात आई तब आम आदमी पार्टी ने उनके कथित घपले उजागर कर भाजपा की भद करा दी। ठेले, गुमटी वालों पर भी आप की निगाह रही और रिक्शा वालों पर भी। दिल्ली की ५ लाख झोपड़ पट्टियों में रहने वाले लोगों को आम आदमी पार्टी ने अपनी ओर आकर्षित करने के लिए काफी जतन किए। आम आदमी पार्टी ने पूरे अभियान में कभी भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला, जबकि नरेन्द्र मोदी लगातार केजरीवाल और उनके पार्टी पर निशाना बनाते रहे। जब किरण बेदी को अचानक मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया गया, तभी आम आदमी पार्टी को लग गया कि भाजपा में भीतरी खलबली मची हुुई है। आम आदमी पार्टी ने अल्पसंख्यक मतदाताओं को यह विश्वास दिलाने में सफलता पा ली कि वही एक मात्र पार्टी है जो भाजपा के विजय रथ को रोक सकती है। 

भारतीय जनता पार्टी को पूरे चुनाव अभियान के दौरान इस बात का एहसास ही नहीं हो पाया कि दिल्ली के मतदाता क्या चाहते है। भाजपा को लगा की जिस विजय रथ पर वह पिछले १४ महीने से सवार है वह अपराजय है। भाजपा इस भ्रम में भी रही कि आम मतदाता केवल विज्ञापनों, रोड शो, तामझाम और टीवी पर हो रहे प्रचार से प्रभावित होता है। भाजपा को अपने आनुशंगिक संगठनों पर भी भरोसा है। वोटों के विभाजन का भी उसे विश्वास था और इसी इरादे से नरेन्द्र मोदी अपनी हर सभा में आम आदमी पार्टी के बजाय कांग्रेस को निशाना बनाते रहे। 

भारतीय जनता पार्टी ने जो भी आरोप आम आदमी पार्टी पर लगाए आम आदमी पार्टी के नेता उससे ज्यादा चतुरता से उन आरोपों से बचकर निकलते रहे। ४९ दिन की सरकार का मजाक उड़ाने का जवाब पांच साल केजरीवाल के नारे से दिया गया। भाजपा ने जितने नेताओं को प्रचार में झोंका था, उसके विरोध में और अपने पक्ष में आम आदमी पार्टी ने माहौल बनाया। आम आदमी पार्टी हमेशा कहती रही कि हम राजनीति में नौसिखिए है और भाजपा के नेता अनुभवी। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की भारत यात्रा को भाजपा ने चुनाव में भुनाने की कोशिश की उसे भी आम आदमी पार्टी  ने चतुुराई से खारिज कर दिया। भाजपा ने नरेन्द्र मोदी की वैश्विक उपलब्धियों को भुनाने की कोशिश भी की, लेकिन यहां भी दांव उल्टा पड़ा। केजरीवाल की सबसे बड़ी कमी यह बताई गई कि वह भगोड़े और अराजक है। इसे भी आम आदमी पार्टी ने विनम्रता पूर्वक नकारा। इसके ठीक विपरित विकासपुरुष कहे जाने वाले नरेन्द्र मोदी के विकास के नारे को आम आदमी पार्टी ने अपनाया। भाजपा जब-जब केजरीवाल पर आक्रमण करती रही तब-तब केजरीवाल लाइव लाइट में आते रहे और उन्होंने उसका भरपूर फायदा उठाया। कांग्रेस की कमजोरी का फायदा भी आम आदमी पार्टी को मिला। 

दिल्ली चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करें तो यह बात साफ है कि भाजपा को मिले वोटों में केवल एक प्रतिशत का बदलाव हुआ है। सारा का सारा नुकसान कांग्रेस और अन्य दलों को हुआ है। कुछ विश्लेषकों का मन का कहना है कि कांग्रेस ने जान बूझकर इस चुनाव में अपने आप को पीछे कर लिया था, ताकि वह वोटों का बंटवारा रोक सके। स्वाभाविक सा प्रश्न है की कोई भी पार्टी आखिर जीतने के लिए ही तो मैदान में होती है। हो सकता है यह कांग्रेस की स्वाभाविक स्थिति हो। 

दिल्ली के चुनाव ने यह बात साबित कर दी कि मोहब्बत की तरह चुनाव में भी पसंद नापसंद का कोई फॉमूला नहीं होता। कब किस पर दिल आ जाए कहा नहीं जा सकता। मतदान केन्द्र में बटन दबाते-दबाते वोटर का मन कहां फिसल जाए, कहा नहीं जा सकता। इतनी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी, इतना बड़ा संगठन, इतना शानदार अतीत, धन-बल, बाहुबल सबकुछ होते हुए भी कब कौन गच्चा खा जाए कहा नहीं जा सकता। चुनाव, चुनाव होते है। यहां एक ही फॉर्मूला चलता है- कि कोई फॉर्मूला नहीं चलता। 
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