Friday, May 06, 2011

हर सफ़र का अपना मज़ा है

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यदि आपने बहुत दौलत कम भी ली है और उसका मज़ा लेना चाहते हैं तो उसे किसी के साथ शेयर करे. ये लोग आपके कर्मचारी, शेयर होल्डर, समाज के दूसरे लोग -- कोई भी हो सकते हैं. यही हमारा धर्म और दर्शन भी है.


सफलता के सूत्र / नारायण मूर्ति

हर सफ़र का अपना मज़ा है

तीस साल पहले 1981 में छह मित्रों और केवल दस हज़ार रुपये की पूंजी से एन आर नारायण मूर्ति ने जिस इन्फोसिस कंपनी की स्थापना की थी, उसका कारोबार बीते साल करीब 30 ,000 करोड़ रुपये था. उन्होंने एक ऐसी कंपनी की नींव डाली, जिसे दुनिया की बेहतरीन कंपनियों में माना जाता है. 33 देशों में सवा लाख से भी ज्यादा लोग उनके साथ काम करते हैं. उनकी कंपनी को सर्वश्रेष्ठ नियोक्ता सहित अनेक सम्मान मिल चुके हैं. एक अरब डॉलर कारोबार का आंकड़ा छूनेवाली यह पहली साफ्टवेयर कंपनी रही है. नारायण मूर्ति की तारीफ अमेरिका के राष्ट्रपति सहित अनेक दिग्गज कर चुके हैं.देश - विदेश में अनेक सम्मान पा चुके नारायण मूर्ति पहले पद्मश्री और बाद में पद्मभूषण से नवाजे जा चुके हैं. दुनियाभर के आई टी क्षेत्र में भारत की छवि चमकानेवाले नारायण मूर्ति की सफलता के कुछ सूत्र :

अनुभव से सीखने का महत्त्व
आप कोई भी बात कैसे सीखते हैं? अपने खुद के अनुभव से या किसी और से? आप कहाँ से और किस से सीखते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि आपने क्या सीखा और कैसे सीखा. अगर आप अपनी नाकामयाबी से सीखते हैं तो यह आसान है. सफलता से शिक्षा लेना आसान नहीं होता क्योंकि हमारी हर सफलता हमारे कई पुराने फैसलों के पुष्टि करती है. अगर आपमें नया सीखने की कला है, जल्दी से नए विचार अपना लेते हैं और उसे काम में अपना लेते हैं तभी सफल हो सकते हैं.

परिवर्तन को स्वीकारें
हमें सफल होने के लिए नए बदलावों को स्वीकार करने की आदत होनी चाहिए. मैंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढाई के बाद किसी हायड्रो पॉवर प्लांट में नौकरी की कल्पना की थी. पढाई के दौरान एक वक्ता के भाषण ने मेरी जिन्दगी बदल दी जिन्होंने कंप्यूटर और आई टी क्षेत्र को भविष्य बताया था. मैंने मैसूर में इंजीनियरिंग की पढाई की. फिर आईआईटी कानपुर में पीजी किया. आईआईएम अहमदाबाद में चीफ सिस्टम्स प्रोग्रामर के नौकरी की. पेरिस में नौकरी की और पुणे में इन्फोसिस की स्थापना की. बंगलुरु में कंपनी का कारोबार बढाया. जो जगह जहाँ मुफीद लगे, वहीं काम में जुट जाओ.

संकट की घड़ी को समझें
कभी कभी संकट सौभाग्य नज़र आता है. ऐसे में धीरज ना खोएं. आपकी कामयाबी इस बात में भी छुपी है कि ऐसा वक्त आने पर आप कैसे अपनी प्रतिक्रिया देते हैं? इन्फोसिस की स्थापना १९८१ में हम सात लोगों ने की थी और १९९० में मेरे सभी साथी चाहते थे कि हम यह कंपनी बेच दें क्योंकि ९ साल की मेहनत के हमें दस लाख डॉलर मिल रहे थे. यह मेरे लिए सौभाग्य नहीं, संकट था. मैं इस कंपनी का भविष्य जानता था. तब मैंने और केवल मैंने अपने साथियों को संभाला था और इन्फोसिस को बेचने से रोका था.

संसाधनों से बड़ा होता है जज्बा

इन्फोसिस के भी 5 साल पहले नारायण मूर्ति ने आई टी में देशी ग्राहकों को ध्यान में रखकर सॉफ्ट्रानिक्स नाम की कंपनी खोली थी, जो बंद कर देनी पड़ी. 2 जुलाई 1981 को इन्फोसिस रजिस्टर्ड हुई लेकिन उनके पास कंप्यूटर तो दूर, टेलीफोन तक नहीं था. उन दिनों टेलीफोन के लिए लम्बी लाइन लगती थी. कंपनी शुरू करने के एक साल बाद उन्हें टेलीफोन और दो साल बाद कंप्यूटर उपलब्ध हो सका था. जब इन्फोसिस अपना आईपीओ लेकर आई तब भी उसे बाज़ार में अच्छा रेस्पांस नहीं मिला था. पहला इश्यु केवल एक रुपये के प्रीमियम पर यानी ग्यारह रुपये प्रति शेयर जारी हुआ था. मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधारों के बाद १९९३ में इन्फोसिस का शेयर ८६ रुपये के प्रीमियम पर बिका.

किसी एक के भरोसे मत रहो

1995 में इन्फोसिस के सामने एक बड़ा संकट पैदा हो गया था जब एक ऐसी विदेशी कंपनी ने उनकी सेवाओं का मोलभाव एकदम कम करने का फैसला किया. वह ग्राहक इन्फोसिस का करीब 25 प्रतिशत बिजनेस देता था. उसकी शर्तें मानना कठिन था क्योंकि जिस कीमत पर वह सेवा चाहता था, वह बहुत ही कम थी और उस ग्राहक को खोने का सीधा मतलब था, अपना एक चौथाई बिजनेस खो देना. तभी तय किया गया कि बात चाहे टेक्नॉलॉजी की हो या अप्लीकेशन एरिया की, किसी भी देश की हो या एम्प्लाई की, कभी भी किसी एक बड़े ग्राहक पर निर्भर कभी भी मत रहो. आपका कामकाज इतना फैला हो कि कोई भी आप को आदेश ना दे सके.

आप केवल कस्टोडियन हैं
जो भी सम्पदा आपके पास है वह केवल आपकी देखरेख के लिए हैं. आप उसके अभिरक्षक हैं. वह भी अस्थायी तौर पर. बस. यह ना मानें कि वह सारी सम्पदा केवल आप और आप ही भोगेंगे. किसी भी सम्पदा का असली आनंद आप तभी उठा सकते हैं जब उसका उपभोग पूरा समाज करे.यदि आपने बहुत दौलत कम भी ली है और उसका मज़ा लेना चाहते हैं तो उसे किसी के साथ शेयर करे. ये लोग आपके कर्मचारी, शेयर होल्डर, समाज के दूसरे लोग -- कोई भी हो सकते हैं. यही हमारा धर्म और दर्शन भी है.

कुर्सी से ना चिपके रहें

साठ साल के होते ही नारायण मूर्ति ने अपनी कंपनी के चेयरमैन का पद छोड़ दिया और नॉन एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर बन गए. आम तौर पर कर्मचारियों को तो साठ साल में रिटायर कर दिया जाता है लेकिन डायरेक्टर अपने पद पर डटे रहते हैं. नारायण मूर्ति ने सभी को यह सन्देश दिया कि अगर किसी भी कंपनी को लगातार आगे बढ़ाना है तो उसमें नए खून की निर्णायक भूमिका रहनी चाहिए. नए खून में ही नयी बातों को स्वीकार करने की हिम्मत होती है और नए आइडियाज़ अपनाने में युवाओं को कोई हिचक नहीं होती.

मंजिल से ज्यादा मज़ा सफ़र में
जीवन में कोई भी लक्ष्य पा लेने में बहुत मज़ा आता है. हमें संतोष मिलता है कि हमने यह लक्ष्य प्राप्त कर लिया. लेकिन जीवन जीना हो तो उसका असली मज़ा सफ़र जारे रखने में है. कभी भी जीवन में संतुष्ट होकर ना बैठ जाएँ कि बस, बहुत हो चुका. जब आप एक मैच जीत जाते हैं तो अगले मैच की तैयारी शुरू कर देते हैं. कोई भी मैच जीतने की अपनी खुशी होती है और खेलने का अपना मज़ा है. सागर में चलते रहना और खेल में खेलते रहना बहुत मजेदार होता है.

प्रकाश हिन्दुस्तानी


हिन्दुस्तान
8 मई 2011

2 comments:

shripal said...

bilkul sahi

Jitendra Richhariya said...

dada, esee tarah likhte rahen aur hum sabko prerit karte rahen.