Friday, December 31, 2010





गुर्जरों का रेम्बो -- कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला
माता-पिता ने उन्हें करोड़ों में एक मानकर नाम दिया था - किरोड़ी सिंह. वे बैसला हैं यानी गुर्जर. बहादुरी उन के खून में है. स्कूल में टीचर थे, लेकिन फौजी पिता के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए सेना में सिपाही बने. 1962 के भारत - चीन और 1965 के भारत - पाकिस्तान युद्ध में बहादुरी से लड़े. वे राजपुताना राइफल्स में थे और पाकिस्तान के युद्धबंदी भी रहे. सीनियर आर्मी अफसर उन्हें 'जिब्राल्टर की चट्टान' कहते थे. उनके साथी कमांडो फौजी उन्हें 'इन्डियन रेम्बो' कहा करते थे. बहादुरी, शक्ति और मेहनत के कारण वे तरक्की पाते-पाते लेफ्टिनेंट कर्नल के ओहदे तक पहुंचे. रिटायर होने के बाद देश के लिए लड़नेवाला फौजी अपनी जाति के आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलनों का नेतृत्व करने लगा. वह गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति का नेता बनकर रेल और सड़क मार्ग जाम करने लगा. आरक्षण के पक्ष में उनका आन्दोलन इतन तेज और लम्बा चला कि न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा. यह भी माना जाता है कि राजस्थान में बीजेपी की सरकार का पतन भी इसी आन्दोलन के देन था.

माना जाता है कि गुर्जर सूर्यवंशी क्षत्रीय कुल के हैं (जिस कुल के भगवान राम थे). कुछ राज्यों में गुर्जर समुदाय को अनुसूचित जनजाति का माना जाता है पर राजस्थान में नहीं. यही बात कर्नल किरोड़ी सिंह को खटक रही थी और उन्होंने गुर्जरों के लिए पाँच प्रतिशत आरक्षण की मांग कर डाली. शुरू में तो उनकी ही जाति के लोगों ने उन्हें 'सिरफिरा' तक कह डाला लेकिन जब उन्होंने आरक्षण के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक लाभ गिनाये तो उनके समुदाय का एक बड़ा वर्ग उनके साथ आ गया. किरोड़ी सिंह ने गैर राजनैतिक आन्दोलन की रूपरेखा बनाकर राजस्थान के रेल और सड़क मार्गों पर कब्ज़ा कर लिया. पुलिस ने बल प्रयोग किया, सेना बुला ली गयी. 2007 में उनके आरक्षण समर्थक आन्दोलन के कारण 27 और 2008 में 43 लोगों कि मौत हुई.

किरोड़ी सिंह बैसला का कहना था कि राजस्थान में मीणा समुदाय को अनुसूचित जनजाति का माना जाता है जिसके राजस्थान में 225 आईएएस और आईपीएस हैं, जबकि लगभग उतने ही बड़े गुर्जर समुदाय का केवल एक ही अधिकारी आईएएस है. यदि आरक्षण का लाभ मिले तो गुर्जर समुदाय भी तरक्की कर सकता है. किरोड़ी सिंह खुद को नेता की जगह 'सामाजिक कार्यकर्त्ता' कहलाना पसंद करते हैं. उनकी राजनीति मुख्य रूप से 2003 में शुरू हुई जब विधानसभा चुनाव के दौरान उनकी भेंट वसुंधराराजे सिंधिया से हुई. कहते हैं कि वसुन्धराराजे ने चुनाव में जीत के बाद गुर्जर आरक्षण का वादा किया था, जिसके पूरा न होने पर चार साल बाद बैसला ने आन्दोलन की राह पकड़ी. 2007 में आन्दोलन हिंसक हो उठा था लेकिन बैसला ने कहा कि उनका हिंसा से कोई लेना नहीं है.

बैसला पर हिंसा के अनेक मामले दर्ज हो चुके हैं, एक मामला पुलिस कांस्टेबल दुन्गरा राम की हत्या का भी है. बैसला सिरे से सभी आरोपों को नकारते हैं. वे राजस्थानी पगड़ी सर पर बाँधे, जयपुर-आगरा रेल ट्रेक के निकट खटिया पर बैठे कहते हैं कि मुझे यहाँ से केवल दो ही चीज़ें हटा सकती हैं -- या तो बन्दूक कि गोली या गुर्जरों को आरक्षण देने के फैसले का पत्र. पहले के आन्दोलन कोर्ट के आदेश और सरकार से समझौते के बाद ख़त्म हुए थे. लगभग 63 साल के बैसला की शादी 14 की उम्र में हो गयी थी. उनकी एक बेटी सुनीता इन्डियन रेवेन्यु सर्विस में हैं और गोवा में आयकर विभाग में हैं. दो बेटे जय और दौलत सेना में अफसर हैं और एक बेटा निजी टेलीकाम कम्पनी में. उनक्की पत्नी का 1996 में निधन हो चुका है,लेकिन वे बेटों के बजे छोटे से कसबे हिंडौन में रहते है. 11 अप्रेल 2009 को वे जयपुर में बीजेपी की सदस्यता ले चुके हैं.
---प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान
02 जनवरी 2011 को प्रकाशित

3 comments:

Anonymous said...

इनके उग्र रूप को देख कर अन्य समाज के लोग भी इस तरह के आन्दोलन के बारे मैं सोच रहे हैं क्या सही हैं ये? गवर्मेंट का नुकसान आम आदमी को प्रभावित नहीं कर रहे हैं ? इस तरह के आन्दोलन से अगर इनकी मांगे पूरी हो जाती हैं तो दुसरे भी तेयार खड़े हैं.

shripal singh panwar said...

इनके उग्र रूप को देख कर अन्य समाज के लोग भी इस तरह के आन्दोलन के बारे मैं सोच रहे हैं क्या सही हैं ये? गवर्मेंट का नुकसान आम आदमी को प्रभावित नहीं कर रहे हैं ? इस तरह के आन्दोलन से अगर इनकी मांगे पूरी हो जाती हैं तो दुसरे भी तेयार खड़े हैं.

नया सवेरा said...

... gambheer maslaa ... saarthak abhivyakti !!