Wednesday, April 29, 2015

अमेरिका में हिन्दी का परचम लहराते अशोक ओझा


हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित कराने के अभियान में जुटे है अशोक ओझा। अमेरिका में न्यू जर्सी के एडिसन निवासी अशोक ओझा मूलत: पत्रकार है। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में पत्रकारिता और मुंबई में फिल्में बनाने के बाद वे अमेरिका में बस गए। पत्रकारिता का दौर जारी रहा। इसी के साथ उन्होंने बीड़ा उठाया हिन्दी के शिक्षण का। अपने पत्रकारी और फिल्म निर्माण के अनुभव को उन्होंने हिन्दी के विकास से जोड़ा और केन विश्वविद्यालय में स्टार टॉक नाम का कार्यक्रम शुरू किया।  उनका हिन्दी स्टार टॉक प्रोग्राम बेहद लोकप्रिय है। सैकड़ों स्वूâलों के विद्यार्थी इस माध्यम से हिन्दी सिख रहे है।अशोक ओझा के प्रयास ही है कि केन विश्वविद्यालय के अलावा मिड्डलसेक्स काउंटी के कॉलेजों और स्वूâलों में हिन्दी पढ़ाने का अभियान शुरू हुआ है। वे अमेरिकी अखबारों में नियमित रूप से लेखन भी करते है और हिन्दी के लिए अनेक शैक्षणिक योजनाओं को मूर्त रूप देने का काम भी कर रहे है।

      हिन्दी के पत्रकार  और  शिक्षक होने के  साथ ही टेलीविजन के प्रोग्राम डायरेक्टर के रूप में सक्रिय अशोक ओझा से मिलना अपने आप में सुखकर अनुभव रहा। अनेक मुद्दों पर उनसे खुलकर चर्चा हुई। उन्होंने हर विषय पर सिलसिलेवार और खुलकर जवाब दिए। पेश है उसी की एक बानगी :
प्रश्न : मुंबई में पत्रकारिता और फिल्म निर्माण करते-करते आप अमेरिका कैसे आ गए?
उत्तर : मैंने जो भी काम किया, वह जुनून के साथ किया। पत्रकारिता में था तब भी एक जुनून था। लघु फिल्मों का निर्माण किया, वह भी जुनून के साथ। एक शिक्षक के रूप में काम किया तो वहां भी यह जुनून बरकरार रहा। पत्रकारिता मेरे लिए एक अच्छा अवसर था। मैंने वहां बहुत कुछ सीखा। वह मुझे यहां काम आ रहा है, लेकिन पत्रकारिता कभी भी मेरे जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं रहा। 
प्रश्न : अमेरिका आकर वैâसा लगा? क्या-क्या व्यावसायिक चुनौतियां आपके सामने थीं?
उत्तर : जब मैं अमेरिका आया, तब पाया कि यहां हर चीज एक निश्चित सांचे में ढली हुई है। यहां आकर मैंने पाया कि अंग्रेजी पत्रकारिता आज जिस जगह खड़ी है, वहां हिन्दी की पत्रकारिता नहीं है। इसके बहुत से कारण है, उस पर मैं यहां अभी चर्चा करना नहीं चाहता, लेकिन यहां आकर मैंने अंग्रेजी पत्रकारिता की। पत्रकारिता का क्रॉफ्ट मैं टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में सीख चुका था। यहां मैं विविध लोगों से मिला। उनसे अनेक बातें सीखी और उसी का योगदान है कि आज मैं इस मुकाम पर हूं। मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया में रिपोर्टिंग और फिल्म रिव्यू किए थे, लेकिन यहां आकर मैं एक संस्थान में ऑनलाइन रिव्यू एडिटर के तौर पर काम करने लगा। मेरी अंग्रेजी पहले ही अच्छी थी इसलिए मुझे बहुत दिक्कत नहीं हुई, लेकिन काम जरूर नया था। यहां आकर अंग्रेजी को एक अलग भाषा के रूप में देखने समझने का विचार भी मेरे मन में आया। 
प्रश्न : क्या अंतर है भारत और यहां की पत्रकारिता में?
उत्तर : जैसा मैंने आपको बताया कि यहां पत्रकारिता एक निश्चित ढांचे में होती है। हर कोई आदमी उस सांचे में फिट नहीं हो सकता। यहां आप केवल इसलिए पत्रकार नहीं बन सकते कि आपको पत्रकारिता का शौक है। यहां पत्रकार बनने के लिए आपको पत्रकारिता की पढ़ाई करनी होगी। इसके बाद पत्रकारिता का प्रशिक्षण लेना होगा और उसके बाद आपको पत्रकारिता का अवसर मिल सकेगा। यहां हर विषय और हर क्षेत्र में एक व्यवस्था बनी हुई है। यहां अगर आपको कहानी लिखना हो, उपन्यास लिखना हो, साहित्यकार बनना हो तो उसके लिए भी पढ़ाई करनी होगी। यहां आप यह नहीं कह सकते कि मेरे पिता या मेरी मां एक खास जाति या धर्म की है, इसलिए मुझे पहले अवसर दिया जाए। यहां योग्यता पर निर्भरता ज्यादा है, सिफारिश पर नहीं। आपकी योग्यता ही आपकी सिफारिश है। यह बात यहां अच्छा लगी और फिर मैं यहीं का हो गया।
प्रश्न : आपने हिन्दी की जो संस्थाएं खड़ी कीं, उनका उद्देश्य क्या रहा?
उत्तर : मेरा निजी कोई उद्देश्य नहीं है। मस्तिष्क में केवल यहीं बात रही कि अमेरिका भी हिन्दी का गढ़ बन जाए। हिन्दी बोलने वालों के मन में गर्व की भावना हो। कुछ लोगों में हिन्दी को लेकर हीन भावना भी है। वह हीन भावना खत्म हो। गैर भारतीय समाज हिन्दी भाषियों को पूरे सम्मान की नजर से देखे। 
प्रश्न : हिन्दी शिक्षण से वैâसे जुड़ गए?
उत्तर : हिन्दी और अंग्रेजी में एक बुनियादी अंतर है। हिन्दी भाषी व्यक्ति कोई भी बात कहने के पहले अपनी भावनाएं, अपने विचार व्यक्त कर देता है और काम की बातें सबके अंत में कहता है। यहां अंग्रेजी भाषी सबसे पहले अपने काम की बात कहते है और उसके बाद अपने मनोभाव व्यक्त करते है। यह बात मुझे अच्छी लगी। हम हिन्दी भाषी अपनी बात साफ-साफ कहने में क्यों हिचकते है? मूल मुद्दे पर आकर चर्चा क्यों नहीं करते? मुझे लगा अगर बच्चों को हिन्दी सिखाई जाए तो हम हिन्दी का ज्यादा भला कर पाएंगे। यहां आकर हिन्दी भाषी लोग अंग्रेजी बोलना सीखते है, लेकिन जब अंग्रेजी भाषी लोग भारत जाते है, तब वे वहां गालियां सीख कर आते है। यह बात बहुत चुभती है। ऐसा कुछ करना चाहता हूं कि आने वाली पीढ़ी गर्वान्वित हो। आज हमारे समाज में मंदिर बनाने के लिए दान देने वाले बहुत है, लेकिन हिन्दी के लिए सहयोग करने वाले बहुत कम। 
प्रश्न : यहां आकर एक हिन्दी शिक्षक के रूप में आपकी चुनौतियां क्या रहीं?
उत्तर : सवाल भाषा का नहीं है, भारतीयता का है। हम कोई भी भाषा बोले, हम रहेंगे तो भारतीय ही। दो तीन पीढ़ी के बाद यहां बसे हुए लोगों में भारतीयता का प्रभाव कम हो जाता है। यह नहीं होना चाहिए। मुझे यही बहुत बड़ी चुनौाती लगती है। 
प्रश्न : आपका कोई निजी एजेंडा?
उत्तर : नहीं, मेरा कोई निजी एजेंडा नहीं है। दिली इच्छा है कि हिन्दी में भी सभी सुविधाएं ऑनलाइन उपलब्ध हो। युवा हिन्दी संस्थान और हिन्दी संगम जैसी संस्थाएं अपना कार्य विश्व स्तर पर पैâलाएं। हिन्दी शिक्षण के कार्य में गति आए। अमेरिका की सरकार हिन्दी को हैरिटेज लेंग्वेज मानती है। सरकारी प्रयासों से ही यहां विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। जिसे अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है। भारतीय मूल के छात्र तो हिन्दी सिख ही रहे है। गैर भारतीय लोग भी हिन्दी के प्रति आकर्षित है। भारत के साथ बढ़ती नजदीकी के साथ-साथ हिन्दी का आभामंडल भी और बढ़ेगा। 
प्रश्न : आप इस आयोजन में नेताओं को, सेलेब्रिटीज को क्यों नहीं बुलाते? इससे आयोजन को लाभ हो सकता है।
उत्तर : नेताओं को बुलाएंगे तो विषय बदल जाएगा। अभी हमें जो लोग सहयोग देते है वे वास्तव में हिन्दी के लिए कार्य करना चाहते है। भारतीय विद्या भवन हमें बहुत सहयोग दे रहा है। भारतीयता का और हिन्दी का काम बहुत अच्छे से कर रहे है। यहां स्थित भारतीय प्रदूतावास के अधिकारी, खास तौर पर श्री ध्यानेश्वर मुले की प्रेरणा से हमारे दोनों आयोजन हो पाए। पिछले साल हमने न्यू यॉर्वâ विश्वविद्यालय के सहयोग से आयोजन किया था। अब रटगर्स विश्वविद्यालय आगे भी इस आयोजन में सहभागी बनना चाहता है। यह खुशी की बात है।

No comments: