Sunday, January 15, 2012

जिंदगी में हर जगह है इम्तिहान

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जिंदगी में हर जगह है इम्तिहान


जिनकी मदद से आप कामयाब हुए हैं, उन्हें क्या आपने श्रेय दिया है? सबसे बड़ी बात यह है कि आपमें विजय या कामयाबी के बाद मानवीयता का अंश बढ़ा है या नहीं? अगर सफलता से मानवीयता का अंश नहीं बढ़ता, तो वह उपयोगी नहीं रह जाएगी।


नंदन नीलेकणि फिर परीक्षा दे रहे हैं। संसद की स्थायी समिति ने उस परियोजना को खत्म करने की सिफारिश की है, जिसके तहत देश के हरेक नागरिक के लिए ‘आधार’ नाम से विशिष्ट पहचान प्रणाली के कार्ड दिए भी जा रहे थे। केंद्र सरकार यूनीक आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी ऑफ इंडिया की इस योजना को लोगों को, खासकर गरीबों को मिलने वाली कई सुविधाओं से जोड़ा जाना था।
योजना की तकनीकी जटिलता और इसके लिए इनोवेशन की जरूरत को देखते हुए यह जिम्मेदारी नंदन नीलेकणि को सौंपी गई थी। लेकिन अब इस पर ब्रेक लग गया है। इस झटके के बावजूद वह अपने काम में व्यस्त हैं और भविष्य की योजनाएं बना रहे हैं। नीलेकणि इतनी जल्दी हार मानने वाले नहीं हैं। उनके पास भारत की और उसके भविष्य की एक परिकल्पना है। इन्हें उन्होंने अपनी किताब इमेजिंग इंडिया नाम की किताब में विस्तार से दिया है।
स्पष्ट लक्ष्य, ध्यान निशाने पर
नंदन नीलेकणि मानते हैं कि उनकी कामयाबी का एक प्रमुख कारण यह रहा है कि उन्होंने इन्फोसिस की स्थापना के पहले अपना लक्ष्य तय कर रखा था और उसी पर अपना सारा ध्यान केंद्रित भी कर लिया था। ‘हम सभी इस बात पर एकमत और दृढ़ थे कि हमें किस इंडस्ट्री में जाना है और उसके किस क्षेत्र पर ध्यान टिकाना है। हमारा बिजनेस मॉडल क्या होगा और हम किस वैल्यू सिस्टम को अपनाएंगे। हमारे मुखिया कौन होंगे, उनके क्या अधिकार होंगे और किन बातों का फैसला वह अपने सहयोगियों से पूछे बिना नहीं करेंगे।
...स्पष्ट लक्ष्य के कारण ही इन्फोसिस नास्दाक में लिस्टेड पहली भारतीय कंपनी बनी। अपने कर्मचारियों को स्टॉक ऑप्शन देने वाली पहली कंपनी भी बनी। अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहने के कारण ही केवल दस हजार रुपये और एक फ्लैट के ड्रॉइंग रूम से शुरू होने वाली यह कंपनी 2004 में एक अरब डॉलर के कारोबारी लक्ष्य तक पहुंच सकी।’
जीत के लिए मैदान में होना जरूरी
‘मैदान में डटे रहो, डटे रहो, डटे रहो। जब आप कोई भी महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए मैदान पकड़ते हैं, तो सबसे बड़ी चुनौती होती है मैदान में बने रहने की।कई लोग आपकी स्पर्धा में आ जाते हैं, कई लोगों को आपके काम से बाधा पहुंचती है और कई किसी और को खुश करने के इरादे से आपको नुकसान पहुंचाने के लिए मैदान में आकर खड़े हो जाते हैं। ऐसे में अगर जीत हासिल करना है, तो मैदान में बने रहना जरूरी है। अगर मैदान ही छोड़ दिया, तो जीत की आस ही नहीं रहती। इसलिए आप किसी भी कार्यक्षेत्र में हों, मैदान छोड़कर न हटें।
फिल्मों के अलावा कोई भी चमत्कार मिनट या घंटों में नहीं होता, उसके लिए संघर्ष व साधना करनी पड़ती है। इन्फोसिस को ही लें, उसे पब्लिक कंपनी बनाने में 12 वर्ष लग गए। एक अरब डॉलर का कारोबारी लक्ष्य पाने में 23 वर्ष लग गए, पर एक बार अगर आपने लक्ष्य को पा लिया तो, अगला लक्ष्य पाना आसान होता है। एक अरब डॉलर तक पहुंचने में भले 23 साल लगे हों, दस अरब डॉलर का लक्ष्य पाने में 23 महीने भी नहीं लगे।’
झटकों से घबराएं नहीं
‘आप जीवन में कुछ भी करें, झटके लगना लाजिमी है। याद रखिए, कामयाबी का सफर हमेशा ही सुखकर नहीं होगा। उसमें झटके आएंगे व नाकामियां भी मिलेंगी। सारा सफर हाइवे-सा ही हो, जरूरी नहीं। कोई भी कार्य करने के पहले संतुष्ट हो जाएं कि इसे करने में कुछ न कुछ दिक्कतें आनी ही हैं। इससे निपटने का बढ़िया तरीका यह है कि हर झटके से सबक सीखते रहें, ताकि अगली बार वैसा ही झटका न सहना पड़े। यह भी जरूरी है कि आप हर झटके के लिए मानसिक तैयारी रखें। हर झटके के बाद की शिक्षा को गांठ बांधना न भूलें।
सबसे बड़ी बात यह कि सफर छोड़े नहीं। अगर मंजिल तक पहुंचना है, तो सफर जारी रखना एकमात्र उपाय है। अपनी नाकामी के लिए किसी और को जिम्मेदार मत ठहराइए, क्योंकि आपकी विफलता के लिए कोई और जिम्मेदार हुआ, तो आपकी सफलता का श्रेय भी उसे ही देना होगा। अपनी नाकामी का जिम्मा लें और कामयाबी का जश्न मानते चलें।’
सफलता में दिमाग ठीक रखें
‘खुद को उन लोगों में शुमार होने से बचाएं, जो कामयाबी हजम नहीं कर पाते। ...तेनजिंग नोर्गे ने एवरेस्ट पर, नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर झंडा गाड़ा, तो क्या वे वहीं बस गए? याद रखिए, जो ऊपर जाता है, कभी न कभी नीचे भी आता है। सफलता स्थायी नहीं होती। अत: उसे कभी दिमाग खराब मत करने दो। याद करो कि क्या किया, जो सफल रहे और अगली बार उसे किस तरह दोहराओगे कि फिर सफलता मिले। विफल होनेवालों का उपहास न करो, उनकी नाकामी की भी समीक्षा करो। जिस कार्य के लिए आप सफल हुए हैं, जरा सोचो कि क्या उसका कोई और बड़ा लक्ष्य भी हो सकता है। जिन लोगों की मदद से आप कामयाब हुए हैं, उन्हें क्या आपने श्रेय दिया है? सबसे बड़ी बात यह है कि आपमें विजय या कामयाबी के बाद मानवीयता का अंश बढ़ा है या नहीं? अगर सफलता से मानवीयता का अंश नहीं बढ़ता, तो वह उपयोगी नहीं रह जाएगी।’
नए नजरिये की जरूरत
नीलेकणि मानते हैं कि 60 व 70 के दशक में हम आबादी को चिंता के रूप में देखते थे। आज हमें लगता है कि वह मानव संपदा है। ‘आज चीन व जापान सहित दुनिया के कई देशों में बुजुर्गों की संख्या बहुत ज्यादा है। भारत ही ऐसा देश है, जो युवाओं का देश है। हम उद्यमियों को अब शंका की निगाह से नहीं, विकास के सारथी के रूप में देखते हैं। अब हम अंग्रेजी को साम्राज्यवाद की भाषा नहीं कहते, बल्कि दुनिया से जुड़ने का औजार मानते हैं। आजादी के बाद बरसों तक हम अपने अधिकारों के प्रति उतने सजग नहीं थे, पर आज हैं। टेक्नोलॉजी ने हमें पूरी तरह बदलकर रख दिया है।
जरा देखिए तो, देश के करोड़ों लोगों ने टेलीफोन का उपयोग नहीं किया था, पर आज वे मोबाइल क्रांति का लाभ ले रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल भी एक क्रांतिकारी कदम है। आज भारत का जो वैश्विक नजरिया है, कितने लोगों ने इसकी कभी कल्पना की थी?’

प्रकाश हिन्दुस्तानी

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