Saturday, December 28, 2013

वीकेंड पोस्ट के 28   दिसंबर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम


डर के आगे जीत है... किसकी जीत?
विज्ञापन कहता है - डर के आगे जीत है। काहे की जीत भैया? दाल पतली है एकदम! मैं आजकल बहुत डरा हुआ हूं। डर का आलम यह है कि मैं कुछ भी नहीं करता। किसी को कुछ नहीं कहता।  
-फारुख अब्दुल्ला से इत्तेफ़ाक रखने के बाद भी कुछ कमेंट नहीं करता, कहीं मुझे भी माफी नहीं मांगनी पड़ जाए। 
-दफ्तर में किसी को काम नहीं करने या खराब काम के लिए डांटता-डपटता नहीं। कहीं कोई यौन प्रताडऩा का आरोप न      लगा दे। 
-किसी को अच्छे काम के लिए सराहना के बोल नहीं बोलता, क्योंकि कहीं कोई मुझे दक्षिणपंथी करार न दे दे। 
-कहीं भाषण देने जाना हो तो भाषण लिखकर ले जाता हूं, कहीं कुछ अलग बात निकल जाए तो कोई वामपंथ विरोधी न कह दे, क्योंकि प्रगतिशीलता की यही शाश्वत निशानी है कि वामपंथ से नाता जुड़ा रहे। 
- किसी की भी बात को अनसुना नहीं करता, क्योंकि मुझ पर अल्पसंख्यकों की अनसुनी का इल्जाम लग चुका है। 
-मैंने ऑरकुट से अकाउंट यह कहकर  डीलीट कर दिया है। वास्तव में वहां कई लड़कियां और महिलाएं मेरी दोस्त थीं और मुझे आजकल बेहद डर लगा रहता था उनसे। किसी का प्रोफाइल विजिट करने का आरोप न लग जाए। 
-आजकल फेसबुक पर अपना स्टेटस नहीं लिखता, क्या पता किसी स्त्री की  भावनाएं आहत हो जाएं और वह छेड़छाड़ का आरोप लगा दे। फेसबुक पर किसी फ्रेंड को अनफ्रेंड नहीं करता, क्या पता कब वह मुझ पर जात-पात का आरोप लगाकर थाने चला जाए !
-व्हाट्स अप्प पर कोई कमेंट नहीं लिखता क्योंकि मुझे बताया गया है कि उस पर पुलिस की निगरानी  है। 
-राजेंद्र यादव की सहयोगी ज्योति कुमारी का मामला हो या तरुण तेजपाल का, खुर्शीद अनवर की आत्महत्या हो या मधु किश्वर के भाई का मामला, मैं एकदम चुप रहता हूं। आसाराम पर कुछ कहा, न नारायण सांई पर। 
-जब बड़े-बड़े नेता गे-लेस्बियन के पक्ष में बोल रहे थे, तब भी मैंने नहीं कहा कि मैं लौंडेबाजी का समर्थन नहीं करता, वरना वे मुझे दकियानूसी समझते। 
आप पार्टीवालों की नौटंकी पर लानत भेजना चाहता हूं, पर भेजूं कैसे? वे मुझे अबुद्धिजीवी कह देंगे तो? राहुल गांधी के नेक इरादों पर कुछ कहना यानी कांग्रेसी कहलाने का फतवा और मोदी की तारीफ की तो फासिस्ट! यह कहूं कि भारत के इतिहास में दंगा केवल गुजरात में ही हुआ तो मैं सही? जीवन में इतने सारे अगर, मगर, किन्तु, परन्तु, यदि जैसे शब्द आ गए हैं कि सही बात कहने की हिम्मत जुटा पाना कठिन  लगता है। मेरे लिए घोषणा कर पाना कठिन है कि मैं पुरुषवादी हूं या स्त्रीवादी? वामपंथी हूं या दक्षिणपंथी? प्रगतिशील हूं या गैर प्रगतिशील? आधुनिकता का पक्षधर हूं या अपनी महान परम्पराओं का? सच कहो तो लानत, झूठ बोलना मुश्किल! 
मैं देश के हजारों कानूनों और प्रचार तंत्र के बोझ से डरा हुआ विवश भारतीय हूं, जिसकी अहमियत यही है कि उसके लिए नारे बनाए जाते हैं - डर के आगे जीत है!
-प्रकाश हिन्दुस्तानी
वीकेंड पोस्ट के 28   दिसंबर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम

1 comment:

Anonymous said...

bahut badiya likha aapne.. badhaai..
baat bas itni si hai ki jis din apne darr pe kaabu ho jaaye us din hi jeet hai :)

Nav-Varsh ki shubhkamnayein..
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