Sunday, January 30, 2011



कराची का घुमक्कड़ 'होम बॉय'

पाकिस्तानी लेखक हुसैन मुर्तजा नक़वी के बारे में हिन्दुस्तान में आज मेरा कालम. कुछ लेखक सोचने को मज़बूर कर देते हैं और कुछ लेखक चकित होने को. ...लेकिन नक़वी दोनों के लिए मज़बूर कर देते हैं. उन्हें हाल ही जयपुर साहित्य महोत्सव में ५० हज़ार डॉलर के अवार्ड के लिए चुना गया.


कुछ लेखक सोचने को मज़बूर कर देते हैं और कुछ लेखक चकित होने को. ...लेकिन पाकिस्तानी लेखक हुसैन मुर्तजा नक़वी दोनों के लिए मज़बूर कर देते हैं. उनके पहले ही उपन्यास 'होम बॉय' को जयपुर साहित्य महोत्सव में ५० हज़ार डॉलर के पहले डीएससी साउथ एशियन लिटरेचर अवार्ड के लिए चुना गया. यह उपन्यास नौ ग्यारह के हमले के बाद अमेरिका में रहकर काम कर रहे युवा मन की पीड़ा और संवेदनाओं को बताता है. इस उपन्यास में रहस्य भी है और रोमांच भी. प्रेम भी है और डर भी. इस उपन्यास के एशियाई, जर्मन, ब्रिटिश और अमेरिकन एडिशन आ चुके हैं और कई भाषों में अनुवाद हो रह है. हफिंगटन पोस्ट ने इसे टॉप टेन पुस्तकों में शुमार किया है न्यूयार्क टाइम्स से लेकर फ़ोर्ब्स तक इसके बारे में कुछ न कुछ छो चुके हैं.

नक़वी पेशे से फाइनेशियल सेक्टर में हैं. लिखने का शौक उन्हें बचपन से था पर मिडिल क्लास के माता पिता को लगता था कि कहीं ये बिगड़ ना जाये. बड़े जतन से उन्होंने परवरिश की और बेटे को पढ़ने विलायत भेजा. बेटा इस्लामाबाद और न्यूयार्क में पढ़कर और नौकरिकर वापस अपने मुल्क पकिस्तान लौट आया और कराची में बस गया, लेकिन दुनिया घूमने का उसका चस्का लगा रहा. वह जगह जगह हो रहे साहित्यिक जलसों में जाता और अपनी कविताएं सुनाता. उर्दू पर उनकी पकड़ अच्छी है और शायरी उनका पहला प्यार. साथ ही वे समकालीन पाकिस्तानी कला, अल्पसंख्यकों की समस्याओं, बलूचिस्तान के हालात पर भी लिखते हैं. ग्लोबल पोस्ट और फ़ोर्ब्स पत्रिकाओं में उनका लेखन ताजातरीन मुद्दों पर होता है. उपन्यास लेखन उन्होंने पाँच साल पहले ही शुरू किया था और उनके खाते में केवल एक ही उपन्यास दर्ज है.

अमेरिकी माहौल में जीने का उनका अनुभव लेखन में काम आया ही, उपन्यास को चर्चित बनाने में भी मददगार साबित हुआ. उनकी यात्राओं में अंग्रेज़ी किताबों के खरीददार सभी प्रमुख देशों के शहर शामिल हैं. अलग अलग देशों में उनके प्रकाशकों ने पब्लिसिटी के लिए भी खासा बजट बना रखा है और वे किसी पोदक्त की लांचिग की ही तरह काम कर रहे हैं. पाकिस्तानी आर्टिस्ट फैज़ा बट से उनके सम्बन्ध है और उन्होंने अपनी किताब का कवर भी उन्हीं से बनवाया है. अमेरिकी एडिशन के लिए कवर पर न्यूयार्क का नज़ारा लिया गया है.

नक़वी कहते है कि उनके हाथ में ही खुजली है और वे बिना लिखे नहीं रह सकते. उर्दू में कवितायें लिखना उनका शगल है और उपन्यास लिखना जुनून. उन्हें 'एडल्ट टाइप' उपन्यास लिखना तो क्या, पढ़ना भी नागवार है. कोई उनकी जातीय ज़िन्दगी में दखल दे, यह पसंद नहीं. अपना पूरा नाम वे कहीं नहीं लिखते, अपने ब्लॉग पर भी नहीं. अपनी वेबसाइट में उन्होंने अपने लेखन से जुडी हर टिप्पणी को महत्त्व दिया है. वे एक शायर के रूप में गोष्ठियों में तो जाते है पर मंचीय शायर के रूप में मुशायरों में शिरकत नहीं करते.

मध्यवर्गीय परिवार के तीन बेटों में सबसे बड़े हुसैन मुर्तजा का जन्म 1974 में हुआ था. उन्होंने पकिस्तान में शुरूआती पढ़ाई की और फिर जोर्ज टाउन यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र और अंग्रेज़ी में डिग्री ली. पढाई के बाद अमेरिका में ही नौकरी कराने के बाद वे 2007 में वापस पकिस्तान लौट आये.

प्रकाश हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तान
30 जनवरी 2011

Friday, January 21, 2011



देवबंद से बदलाव की बयार मौलाना वस्तनवी

अगर आप हमेशा पीछे ही देखते रहेंगे तो आगे कैसे जायेंगे? इसी विचार से दारुल उलूम के मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तनवी की भूमिका का पता चलता है. वे 145 साल पुराने दारुल उलूम, देवबंद के पहले कुलपति है जो उत्तरप्रदेश के बाहर के हैं. वस्तनवी के पद संभालते ही वे लोग सक्रिय हो गए जो पीछे और केवल पीछे ही देखना पसंद करते हैं. वस्तनवी गुजरात के वस्तन गाँव के रहने वाले हैं जो सूरत के पास है. वे पद संभालते ही विवादों में आ गए, क्योंकि उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री को गालियाँ नहीं दीं, जैसा कि चलन में है और इसीलिये वस्तनवी की निंदा हो रही है.

वस्तनवी खास हैं. वे मौलाना हैं पर फेसबुक में उनके नाम का पेज है, उनके नाम के ब्लोग्स भी हैं. वे ऐसे फतवे जारी नहीं करते कि दवा में अल्कोहल का इस्तेमाल हराम है; कि औरतों को नौकरी नहीं करनी चाहिए; कि वन्दे मातरम गाना गलत है; कि कैमरेवाले मोबाइल गैर इस्लामी हैं; कि वोट धर्म के नाम पर ही देना चाहिए; कि लडके-लड़कियों की पढाई साथ नहीं होना चाहिये ; कि टेस्ट ट्यूब बेबी इस्लाम विरोधी है आदि आदि. वस्तनवी प्रगतिशील हैं और जानते हैं कि आजादी की लड़ाई में देवबंद ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई थी. वस्तनवी के होते दारुल उलूम का नाम अलग कारणों से लिया जायेगा. यह भ्रम दूर होगा कि वहां केवल उर्दू, अरबी और फारसी ही सिखाई जाती है. वे खुद एमबीए हैं और दारुल उलूम के अन्य राज्यों के संस्थानों में मेडिकल, इंजीनियरिंग और कंप्यूटर की भी पढाई होती है. वे यह भ्रम तोड़ सकते हैं कि मुस्लिम मुख्य धारा से कटे हैं. दारुल उलूम के कई फतवे इस बात के सबूत हैं -- जैसे मुस्लिम किसी को भी वोट देने को आज़ाद हैं, वे चाहें तो वन्दे मातरम गा सकते हैं, ईद पर गाय की कुर्बानी करना उचित नहीं आदि.

वस्तनवी ने पद संभालने के बाद यह बात साफ़ की कि अब फतवे विस्तृत रूप से जरी किये जायेंगे. मीडिया ने कई बार फतवों की गलत व्याख्या की है और इससे गलतफहमियां फ़ैली हैं. हर फतवा किसी न किसी सन्दर्भ के साथ, किसी की याचिका पर जारी होता है, उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिये. हर फतवा सामान्य आदेश नहीं होता. हम ऐसा कोई आदेश जारी नहीं करनेवाले, जो समाज के लिए नुकसानदेह हो. अगर हमें फतवे को जारी करने के लिए इंटरनेट की जरूरत पड़ी, तो उसका भी उपयोग करने से नहीं हिचकेंगे.

गुजरात में जन्में वस्तनवी का जीवन शिक्षा के क्षेत्र में ही समर्पित रहा है. उन्होंने अपनी एमबीए की डिग्री महाराष्ट्र के से प्राप्त की और वहीं उन्होंने अनेक शैक्षणिक संस्थाओं का संचालन भी किया. पढ़ाई के बाद उन्होंने आदिवासी इलाकों में सेवा कार्य को चुना. महाराष्ट्र के नंदूरबार जिले के अक्कलकुआ में उन्होंने जामिया इस्लामिया इशातुल उलूम कायम किया जो शिक्षा का केंद्र बना. यहाँ जीवन की हर विधा की शिक्षा दी जाती है. उन्हीं की मेहनत का फल है कि अक्कलकुआ शिक्षा का केंद्र बन गया और यहाँ से १४ कालेज और १० स्कूलों का संचालन होने लगा.

शिक्षाविद होने के साथ ही वस्तनवी कुशल संगठक भी हैं. पूरे पश्चिमी भारत में मदरसों का नेटवर्क खड़ा करने में उनकी बड़ी भूमिका रही है. वे मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड और महाराष्ट्र वक्फ बोर्ड के सदस्य भी हैं. वे महाराष्ट्र का प्रतिष्ठित मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अवार्ड से भी नवाजे जा चुके हैं. अब मौलाना वस्तनवी के सामने नयी ज़िम्मेदारी है और वे नयी शुरूआत करने जा रहे हैं.
प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिंदुस्तान
23 जनवरी 2011

Monday, January 17, 2011


अमेरिकी गवर्नर बनी अमृतसर की बेटी


उन्होंने पढाई तो की है अकाउंट्स के लेखन की, पारिवारिक धंधा है कचरे का प्रबंधन, उन्हें सम्मान मिला है 'फ्रेंड्स ऑफ़ टैक्स पेयर्स' का, रिकार्ड बनानेवाली टी पार्टी का आन्दोलन चलने में उनकी भूमिका भी रही है, वे हैं अमेरिका की मशहूर इंडियन, जिन्होंने साउथ कैरोलिना प्रान्त की 116वीं गवर्नर की शपथ ली हैं. उनके पहले भारतीय मूल के पीयूष अमृत जिंदल अमेरिकी गवर्नर बन चुके हैं, जो बॉबी जिंदल के नाम से मशहूर हैं. अब अमृतसर की बेटी ने नम्रता रंधावा गवर्नर बनी हैं, जो वहां शादी के बाद निक्की बेली बन गयी हैं. वे वर्तमान में अमेरिका की सबसे कम उम्र की गवर्नर भी हैं.

निक्की ने अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी की राजनीति में बहुत काम किया है. पार्टी में उन्होंने सक्रिय रहकर स्थानीय मेडिकल, सैन्य, म्युनिसिपल अफेयर्स कमेटियों में जूतियाँ घिसी हैं. टैक्स पेयर्स की समस्याओं की लड़ाइयाँ लड़ीं हैं, वहां के व्यावसायिक संगठनों में महत्वपूर्ण काम किया है लेकिन गवर्नर पद पर निक्की की उम्मीदवारी का वहां के मीडिया ने बहुत मजाक उड़ाया था. जब उनका चुनाव प्रचार अभियान ज़ोरों पर था तभी एक स्थानीय प्रमुख अखबार ने पहले पेज पर हेडिंग था -- निक्की? कौन ?? अब उन लोगोने को जवाब मिल गया है -- निक्की, द गवर्नर. और अब उन्हें यह भी इखाना पड़ रहा है कि आगामी प्रेसिडेंशियल इलेक्शन में भी निक्की का रोल बहुत ही महत्वपूर्ण रहनेवाला है क्योंकि एशियाई मूल के वोटर उनसे काफी प्रभावित हैं.

निक्की के लिए गवर्नर के पद तक की राह कोई आसान नहीं रही. अनिवासी और वह भी सिख होने के नाते रुकावटें बहुत ज़्यादा थी. माइकल हेली से शादी के कारण उन्होंने ईसाई धर्म अपनाया तो सिख नाराज़! ईसाइयों ने उन्हें अपने धर्म का नहीं माना. हर अनिवासी के प्रति जो नज़रिया वहाँ रहता है, वही निक्की से प्रति भी रहा. कभी उनके विवाहेतर संबंधों को लेकर तरह-तरह की अफवाहें उडाई गयी, तो कभी उनके दोनों भाई निशाने पर रहे जो पगड़ी नहीं बांधते. चरित्र हत्या और लांछन के विरोधियों के हथियार भी उनके सामने नाकाम रहे क्योंकि उनके पति उनके साथ थे, दोनों भाई और बहन भी चुनाव प्रचार में जुटे थे. उनके पिता और माँ ने भी चुनाव प्रचार में सक्रिय मदद की थी. चुनाव प्रचार के दौरान जब किसी ने पूछा कि क्या वे जीतने की आशा रखती हैं तो उन्होंने कहा था कि मैं कोई भी काम अधूरा नहीं छोड़ती. अगर मुझे जीतना है ती जीतना ही है. शपथ लेते ही उन्होंने कहा है कि वे चाहेंगी कि सरकार का कामकाज में मितव्ययिता बरती जाए.

निक्की तीन बार हाउस ऑफ़ रिप्रे. का चुनाव जीत चुकी थी.पिचले चुनाव में छः भारतवंशी उम्मीदवार मैदान में थे, जिनमे से केवल निक्की ही जीत सकीं. लम्बी चुनाव प्रक्रिया के दौरान वहां कई उतार चढ़ाव आये और वे हरेक को पार करती गयी. अपनी जीत के बारे में वे शुरू से ही मुतमईन थीं. गवर्नर का चुनाव जीतने के बाद उन्होंने पंजाबी स्टाइल के भव्य आयोजन अपने खर्च से किये, जिनमें किसी भी प्रान्त का कोई भी शामिल हो सकता था. मतलब साफ़ है कि उनकी निगाहें आगे भी कुछ देख रही हैं.

इसी हफ्ते 20 जनवरी को निक्की अपना चालीसवाँ बर्थ डे मनाएँगी. उनके पिता केमेस्ट्री के प्रोफ़ेसर डॉ अजीत रंधावा अमृतसर से अमेरिका जाकर बसे गये थे. निक्की की माँ raaj रंधावा ने कारोबार शुरू किया था, जिसमें वे काफ़ी कामयाब रहीं. नम्रता कौर रंधावा ने मेथादिस्त चर्च और गुरुद्वारे, दोनो में शादी की और आज भी प्रार्थना के लिए दोनों में जाती हैं, लेकिन आधिकारिक तौर पर उन्होने अपना धर्म ईसाई घोषित किया है. वे एक बेटे और एक बेटी की माँ हैं. उनका एक भाई २० साल से अमेरिकी फौज में है.

-- प्रकाश हिन्दुस्तानी

(हिन्दुस्तान,
16 जनवरी 2011)

Sunday, January 09, 2011


आतंक के खिलाफ खड़ा एक सिंह


भले ही उन्होंने अपने नाम के मध्य से 'सिंह' हटा लिया हो, लेकिन वे हैं सिंह ही, तभी तो गत 13 नवम्बर को यूएस में ह्यूस्टन एअरपोर्ट पर जब उन्हें तलाशी के लिए रोका गया तो उन्होंने सिंह की तरह हुंकार कर कहा -- कोई भी मेरी पगड़ी को छूने की जुर्रत मत करना. उनकी गर्जना का असर हुआ और अमेरिकी आव्रजन अधिकारी ठिठके. तभी उन्होंने आव्रजन के नए नियम उन अफसरान को बताये जो उन्हें नहीं मालूम थे. वरिष्ठ अफसरों से इसकी पुष्टि कराने तक उन्हें बीस- पच्चीस मिनिट वहां रुकना पड़ा, लेकिन बात का हल्ला इतना मचा कि अमेरिकी विदेश विभाग को उनसे माफी माँगनी पड़ी. जब ये घटना घटी तब वे संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि थे. अब उन्हें ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की आतंक निरोधक समिति का प्रमुख बनाया गया है. श्री पुरी का कहना है कि सुरक्षा परिषद् में आतंक विरोधी फैसलों का असर जल्दी ही सामने आने लगेगा.

कूटनीतिक फैसलों का असर आने में वक़्त लगता है. यों भी भारत 19 साल बाद सुरक्षा परिषद् में हाजिर हो पाया है और वहां 'राखी का इन्साफ' जैसा काम नहीं होता. हरप्रीत पुरी को भरोसा है कि इस वर्ष के अंत या अगले वर्ष की शुरूआत तक सुरक्षा परिषद् में आतंकवाद के खिलाफ कोई बड़ी कार्यवाही का आरम्भ हो सकता है. संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देश आतंकवाद के खिलाफ एक्शन प्लान पर काम शुरू कर सकते हैं. अल कायदा और तालिबान के खिलाफ कोई अभियान चलाया जा सकता है और आतंकियों की फंडिंग रोकने का कोशिश के साथ ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत को स्थायी सदस्यता भी मिल सकती है. श्री पुरी की प्रमुख भूमिकाओं में प्रमुख है सुरक्षा परिषद् को और भी मज़बूत बनाना और भारतीय उपमहाद्वीप में आतंक को रोकना. अभी तो परिषद् के तीन चौथाई एजेंडे पर अफ्रीकी देशों के मुद्दे ही भरे रहते हैं.

हरप्रीत पुरी 1974 की बैच के आईएफएस हैं. वे कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर चुके हैं. ब्राजील में भारतीय राजदूत रहते हुए उन्होंने दोनों देशों के संबंधों को बेहतर बनाया, जिसका नतीजा है कि भारत - ब्राजील कारोबार बढ़ा. वहां हो रहे राजनैतिक बदलावों के बाद भी उन्होंने संबंधों पर आंच नहीं आने दी और भारतीय हितों की रक्षा की. ब्राजील से रिश्तों की महत्ता इसलिए भी है कि वह हमारे परमाणु संसाधनों को जुटाने में मददगार है. कूटनीति में कोई भी स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, स्थायी होता है हमारे अपने देश का हित ! गत अप्रेल में ही उन्होंने निरूपम सेन की जगह यूएन में स्थाई भारतीय प्रतिनिधि का पद संभाला था. वे विदेश मंत्रालय में आर्थिक मामलों के सचिव भी रह चुके हैं.

हरप्रीत पुरी भी मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया की तरह अर्थशास्त्र के जानकार हैं और विश्व व्यापार संगठन के साथ हुए समझौतों में उन्होंने महती भूमिका निभाई थी. आप समझौते से असहमत हो सकते हैं लेकिन वैश्विक दबावों के सामने बेहतर से बेहतर कार्य की ही उम्मीद की जा सकती है. अब उनकी भूमिका आतंकवाद से निपटने की रणनीति बनने की है और वह रणनीति केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए होगी. वे एक कूटनीतिज्ञ हैं और जब राजनीतिक हदें ख़त्म होती हैं तक कूटनीति आगे बढ़ती है.
--प्रकाश हिन्दुस्तानी

दैनिक हिन्दुस्तान
08 जनवरी 2010