Thursday, October 29, 2009


मेरे संपादक :

डॉ कन्हैया लाल नंदन ; बहुमुखी व्यक्तित्व

डा। कन्हैयालाल नंदन उन सम्पादकों में से हैं, जिन्हें उनकी योग्यता और मेहनत के काम से वह मान-सम्मान नहीं मिला है, वे जिसके हकदार है।

उत्तरप्रदेश के फतेहपुर जिले के तिवारी परिवार में जन्मे कन्हैयालाल नंदन ने कानपुर से बी।ए।, इलाहाबाद से एम।ए। और भावनगर यूनिवर्सिटी से पीएच.डी. की उपधियाँ ली। १ जुलाई १९३३ में जन्मे श्री नंदन ने मुम्बई विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कॉलेजों में चार सल तक अध्यापन कार्य किया। १९६१ से १९७२ तक वे धर्मयुग में सहायक सम्पादक रहे। फिर १९७२ से दिल्ली से क्रमशः पराग, सारिका और दिनमान में संपादक रहे। फिर तीन वर्ष तक नवभारत टाइम्स में फीचर संपादक भी रहे। बाद में वे ६ साल तक 'संडे मेल' में सम्पादक रहे और फिर टीवी की दुनिया में इंडसंइड मीडिया के डायरेक्टर बने। पद्मश्री, नेहरू फैलोशिप आदि से सम्मानित श्री नंदन की पत्रकारिता, साहित्य, कला, फिल्म आदि क्षेत्रों में गहरी समझ और पहचान है। कई नामी कलाकारों से उनका घरोपा रहा है। उनकी खूबी है कि बडे से बडे और छोटे से छोटे आदमी को मिनटों में अपना बना लेते हैं।

नंदनजी की प्रमुख किताबों में जरिया-नजरिया, गीत संचानन, अमृता शेरगिल, आग के रंग, घाट-घाट का पानी, त्रुकुआ का शाहनामा आदि प्रमुख है। अच्छे कवि, अच्छे पीआरओ, बेहतरीन वक्ता और मधुरभाषी नंदनजी अपने दोस्त जल्दी बना लेते हैं और दोस्ती की कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं।
मेरे संपादक :
गणेश मंत्री : संपादक और विचारक


मूलतः कोटा, राजस्थान के निवासी श्री गणेश मंत्री समाजवादी चिन्तक और समाजवादी कार्यकर्ता थे। टाइम्स ऑफ इण्डिया समूह में उन्होंने प्रशिक्षु पत्रकार के रूप में कार्य शुरू करने वाले श्री गणेश मंत्री धर्मयुग के प्रधान सम्पादक तक पहुँचे। हर दायित्व उन्होंने इस खूबी के साथ निभाया कि न तो पत्रकारिता में समझौता किया न ही कभी अपनी सिद्धांतों को परे किया।

श्री गणेश मंत्री ने 'समता अध्ययन न्यास' गठित किया और देशभर में समाजवादी आन्दोलन की गतिविधियों को आगे बढाया। उनकी खूबी यह थी कि उन्होंने जो और जैसा सोचा, वैसा ही कहा, वैसा ही लिखा और वैसा ही किया भी। अपने सिद्धांतों से कभी भी परे नहीं हुए। जब सिद्धान्तों की समस्या आई तब उन्होंने कभी भी समझौता नहीं किया। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि श्री गणेश मंत्री ने रविवार और चौथी दुनिया में गजानन चिटणिस के नाम से भी लेखन किया है। गजानन यानी गणेश और मराठी में मंत्री को चिटणिस कहते हैं।
डॉ धर्मवीर भारती : हिन्दी पत्रकारिता के शिखर पुरूष
--प्रकाश हिन्दुस्तानी


डॉ। धर्मवीर भारती भारतीय पत्रकारिता के शिखर पुरूषों में से हैं। इससे बढकर वे साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं। हिन्दी पत्रकारिता में उन्होंने 'धर्मयुग' जैसी सांस्कृतिक पत्रिका को स्थापित किया और ढाई दशक से भी ज्यादा समय तक शीर्ष पर बनाए रखा।

मुझे याद है 1981-82 के वे साल, जब विज्ञापन दाता धर्मयुग में विज्ञापन बुक करने के लिए लम्बी लाइन में लगते थे। हाल यह था कि दीपावली विशेषांक में तो साल भर पहले ही विज्ञापन बुक हो जाते थे। 'धर्मयुग' के लिए उन्होंने अपना सबकुछ न्यौछावर कर रखा था। यहाँ तक कि अपनी साहित्य सेवा भी। वे 'धर्मयुग' ही ओढते, बिछाते, खाते, पहनते थे। उनका हर पल 'धर्मयुगमय' था।

साहित्यकार और सम्पादक होने के बावजूद डॉ। धर्मवीर भारती की छवि एक सैडिस्ट (डअऊखडढ) की ही रही। उन्होंने अपने किसी भी जूनियर को कभी आगे नहीं आने दिया। वे ऐसे हालात पैदा कर देते थे कि सम्पादकीय सहयोगी तो क्या, क्लेरिकल स्टॉफ तक उनसे खौंप खाता था। पत्रकारिता की प्रतिष्ठा से ज्यादा उन्हें बैनेट, कोलमैन एण्ड कम्पनी के पैसों की चिन्ता होती थी। श्री योगेन्द्रकुमार लल्ला, श्री सुरेन्द्रप्रताप सिंह, श्री उदयन शर्मा, श्री कन्हैयालाल नंदन, श्री रवीन्द्र कालिया, श्री मनमोहनसरल, श्री गणेश मंत्री, श्री विश्वनाथ सचदेव, श्री सतीश वर्मा... आदि दर्जनों नाम है, जो बेहद कामयाब सम्पादक साबित हुए, लेकिन इन सभी को प्रताडित करने का कोई मौका शायद ही श्री भारतीजी ने छोडा हो। श्री रवीन्द्र कालिया ने तो धर्मयुग छोडने के बाद 'काला रजिस्टर' नामक उपन्यास भी लिखा था, जिसमें 'हाजिरी रजिस्टर' पर लेट आने वालों के दस्तखत को लेकर प्रताडित किए जाते थे।डॉ. धर्मवीर भारती की पहली पत्नी सुश्री कांता भारती ने तलाक के बाद वैवाहिक जीवन की मुश्किलों पर एक उपन्यास 'रेत की मछली' भी लिखा है। माना जाता है कि यह उनकी पीडाओं और अनुभूतियों की प्रस्तुति है।

25 दिसम्बर 1926 को जन्मे डॉ. धर्मवीर भारती ने कवि, लेखक, नाटककार और सामाजिक चिंतक के रूप में ख्याति पाई। 'गुनाहों का देवता' उनका क्लासिक उपन्यास है। उन्हीं की रचना 'सूरज का सातवाँ घोडा' पर श्याम बेनेगल ने फिल्म बनाई थी, जिसे 1992 में राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। महाभारत युद्ध के बाद की घटनाओं पर उनका नाटक 'अंधा युग' दुनियाभर में मंचित हो चुका है।

20 साल की उम्र में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. हिन्दी में सबसे अधिक नम्बर लाने वाले धर्मवीर भारती को 'चिन्तामणि घोष' अवार्ड मिला था। उन्हें पद्मश्री, भारत भारती सम्मान, संगीत नाटक अकादमी के अलावा केडिया न्यास का एक लाख रुपए का पुरस्कार भी मिला था। केडिया न्यास के संयोजकों पर लोगों ने शंकर गुहा नियोगी की हत्या में षडयंत्रकारी होने का आरोप भी लगाया था, लेकिन भारतीजी ने उसे नकार दिया और पुरस्कार ग्रहण किया। डॉ. धर्मवीर भारती की उल्लेखनीय कृतियों में देशान्तर, ठण्डा लोहा, सपना अभी भी, कनुप्रिया, टूटा पहिया, उपलब्धि, उत्तर नहीं हक्तँ, उदास तुम, तुम्हारे चरण, प्रार्थना की कडी... आदि प्रमुख है।श्री जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के दिनों में उनकी कविता 'मुनादी' ने धूम मचाई थी। 1971 के भारत-पाक युद्ध में वे खुद मोर्चे पर रिपोर्टिंग के लिए गए थे.

धर्मयुग में प्रधान सम्पादक रहने वाले डॉ. भारती धर्मयुग से रिटायर होने के बाद कलानगर स्थित 'साहित्य रहवास' नामक भवन में ही रहते थे। दैनिक भास्कर में आने के बाद मैं उनसे मिलेन उनके घर गया था, तब उनका बेटा किंशुक अमेरिका में नौकरी कर रहा था। उनकी बिटिया प्रत्रा ने कुछ समय इलेस्ट्रेडेड वीकली ऑफ इण्डिया में सब एडिटर का काम किया था और विवाह के बाद बांद्रा में ही रह रही थीं। इतने बरस बाद भी डॉ. भारती ने मुझे याद रखा था और घर पर ही सस्नेह भोजन कराया था।दिल के धोखा देने से सितम्बर 1997 में लम्बी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। एक अज्ञात सी मौत थी वह। जनाने में बामुश्किल 20-25 लोग थे, लेकिन शमशान घाट पर हजारों लोग वहाँ आए थे- और उनमें से ज्यादातर वे थे जो जनाने में शामिल अमिताभ बच्चन को देखना चाहते थे। 1960 में धर्मयुग में आने के बाद 1997 तक वे कभी भी इलाहाबाद नहीं गए। 37 साल बाद अंततः 1997 में उनकी अस्थियाँ ही इलाहाबाद संगम में विसर्जित की गई।
मेरे संपादक :


श्रवण गर्ग : डबल रोल में संपादक




श्री श्रवण गर्ग ने पत्रकारिता जगत में दो योगदान दिए हैं। पहला तो उन्होंने सम्पादक नामक प्रजाति को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और दूसरा इस प्रजाति की कार्यशैली में आमूलचुल परिवर्तन की व्यवस्था की। अखबार के सम्पादक को उन्होंने लायब्रेरी से बाहर निकालकर न्यू।ज डस्क की मेनस्ट्रीम में पहुँचाया और उसका दायरा अग्रलेख और सम्पादकीय पेज से बाहर फैलाया।

आज यदि हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार मध्यप्रदेश से बाहर पूरे देश में हो रहा है, तो इसके पीछे श्री गर्ग की मेहनत भी छुपी है।श्री गर्ग के सम्पादक बनने से एक अच्छे रिपोर्टर कीजगह खाली हो गई थी, जो अभी तक खाली हीहै। श्री गर्ग की मूल प्रवृत्ति रिपोर्टर की ही है और वे रिपोर्टिंग से ही पत्रकारिता शुरू करके शिखर तक पहुँचनेवाले पत्रकार है। इस लम्बे सफर में उन्होंने कई पडाव हासिल किए, लेकिन अपनी मंजिल उन्होंने खुद तय की। खांटी किस्म के, मेहनती, पढने-समझने-जूझने वाले, सर्वोदयी किस्म के श्री गर्ग के व्यवहार से कई लोग उनके दुश्मन बन गए हैं, इनमें वे लोग भी हैं, जिन्होंने भी गर्ग की तरह ऊँचाइयों को नहीं छुआ है और वे उनसे जलन रखते हैं, लेकिन श्री गर्ग को किसी से कोई बैर नहीं। श्री गर्ग ने हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी और अब फिर हिन्दी पत्रकारिता में झंडे गाडे हैं। कई बार तो वे चुपचाप अपने संस्थान के लिए इस तरह कार्य में जुटे मिलते हैं जैसे कोई परमाणु बिजलीघर संचालित होता है। अग्रलेख, संपादकीय पेज और खबरों में भी वे न.जर आते हैं। बहुत कम लोग हैं जो अखबार देखकर ही भाँप जाते हैं कि इसके पीछे किसका दिमाग होगा।श्री गर्ग एक प्रोफेशनल हैं और सच्चे प्रोफेशनल की तरह अपने काम में जुटे रहते हैं। उनके सहयोगी उनमें एक कुशल प्रबंधक और निष्पक्ष अधिकारी पाते हैं। ऐसे बिरले ही सम्पादक हैं, जो बेहद प्रभावी और परिणाम देने वाले प्रबंधक भी हों। वे एक सम्पादक और प्रबंधक की भूमिका में विरोधाभास पाते हैं और इसीलिए उनके मतभेद लोगों से होते हैं। खबरों के चयन को लेकर उनकी प्राथमिकताएँ स्पष्ट हैं- वे लोगों की तरफ होते हैं। उन्हें 'विज्ञापनदाता की खबरों से ज्यादा चिन्ता पाठकों की खबरों' की होती है, लेकिन विज्ञापनदाता भी न.जरअंदाज नहीं होता।शौकिया फोटोग्राफर और कवि किस्म के लोग अगर पत्रकार बनें तो कामयाबी की आशा कम ही होती है। लेकिन इसका अपवाद हैं श्री गर्ग। श्री गर्ग की खूबी रही है कि जब भी कोई प्रोफेशनल इश्यू सामने आता है, वे सच्चाई की ओर होते हैं। वे ऐसे मौके पर अपने सारे पूर्वाग्रह एक तरफ रखकर पत्रकारिता के लिए सामने आ जाते हैं।

पुराने 'सम्पादक' की मौत! नये 'सम्पादक' का जन्म

- प्रकाश हिन्दुस्तानी

'सम्पादक' की मौत हो गई है!
साफ कर दूँ- 'सम्पादक' नामक संस्था की मौत हो चुकी है। उस सम्पादक की, जिसके बारे में पं. माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा था- 'सम्पादक बनकर हम अपने गाँव, समाज, प्रदेश और देश की सेवा का व्रत लेते हैं' उस सम्पादक की भी, जिसके बारे में पं. विष्णु दत्त शुक्ल ने कहा था -'सम्पादक का कार्य प्रधान सेनापति के जैसा है, जो अपनी सेनायानी रिपोर्टर, उपसंपादक आदि सिपाहियों का नेतृत्व करता है और उनकी सुख-सुविधा और हथियारों का ध्यान भी रखता है।'

कौन हैं आज सम्पादक कौन होता है आज सम्पादक क्या काम होता है उसका म.जाक में कहें तो सम्पादक का काम यह देखना होता है कि कहीं कुछ प्रकाशन योग्य छप तो नहीं रहा! गोया सम्पादक का काम है प्रकाशन योग्य खबरों को हटाना! इस म.जाक के पीछे निश्चित ही यह भावना है कि एक सम्पादक को केवल वही प्रकाश्य सामग्री नहीं छाप देना है, जो उसके हाथ में आ गई है। उसे आजकल अपना, अपने प्रकाशन का और उससे भी बढकर अपने प्रकाशन समूह के अन्य उपक्रमों के हितों का ध्यान रखना होता है। भले ही इसमें प्रकाशन योग्य समाचारों का 'कत्ल' ही क्यों न करना पडे!

असली मालिक पाठक हैं÷समाचार पत्रों और मीडिया हाउस के मालिक भले ही व्यापारी, फर्म, कम्पनी या संगठन हों, उसका असली मालिक तो उसका पाठक/दर्शक/यू.जर ही है। पाठक ही है, जो अखबार को जिन्दा या मुर्दा रखता है। वही कई अखबारों को अर्श से फर्श पर ला पटकता है और वही पाठक है, जो एक छोटे से अखबार को बडा मीडिया साम्राज्य बना देता है। वही पाठक अखबार पढता और खरीदता है, जो विज्ञापन कम्पनियाँ इश्तहार देती हैं, बडे-छोटे उत्पादों का प्रचार होता है। पाठक वर्ग ही वर्गीकृत विज्ञापनों में खरीदना/बेचना से लेकर मैट्रिमोनियल्स तक के बारे में जानकारी लेता है और देता है। पाठक ही है, जो विज्ञापनों का रिस्पांस देता है और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूरी इकॉनॉमी को संचालित करता है।'मालिकी' का संशययह सब जानते हैं कि किसी भी मीडिया हाउस का असली मालिक उसका पाठक/दर्शक/यू.जर है, लेकिन फिर भी कई संस्थानों में प्रबंधकों/मालिकों को यह गलतफहमी है कि उनके असली मालिक पाठक नहीं, बल्कि विज्ञापनदाता हैं। यहीं से गलतफहमियों की शुरूआत होती है। विज्ञापनदाता की दी हुई विज्ञापनी जानकारी 'खबर' के रूप में न केवल छपती है, बल्कि असली खबर का कत्ल भी कर देती है। मालिकों को यह पागलपन सवार हो जाता है कि विज्ञापन बडा है और खबर छोटी। विज्ञापन लानेवाला रूपया ला रहा है और पत्रकार रूपया खर्च कर रहा है। एड एज्युक्यूटिव महत्वपूर्ण है और रिपोर्टर उसकी तुलना में कम महत्वपूर्ण!अगर वास्तव में ऐसा है, तो सभी अखबारों में आठों कॉलम में, सभी पेज पर विज्ञापन ही क्यों नहीं छापते÷ अगर विज्ञापन कम हो तो पेज भी 4, 6, 8, 10 या 12 कर दो।

क्या आपने कभी देखा है कि विमान उडाने वाले पायलट से बुकिंग क्लर्क की तनख्वाह ज्यादा हो÷ क्या आपने किसी बैंक के मैनेजर की तनख्वाह कम और केशियर की तनख्वाह ज्यादा होने की बात सुनी है÷ दरअसल हमारे मीडिया मुगल अभी कई भ्रमजालों में फँसे हैं। वर्तमान मीडिया पर दो दबाववर्तमान में मीडिया जगत पर दो भारी दबाव है। (1) टेक्नॉलाजी का दबाव और (2) मीडिया के ही दूसरे माध्यम का दबाव।पहले टेक्नॉलाजी की बात! एक दौर था जब 15-20 हजार प्रतियाँ छपना और बिकना बडी बात थी। अखबार 8 पेज का हो गया तो समझो बहुत हो गया। पाठकों की प्रतिबद्धता थी और सरकार का समर्थन! न्यूजप्रिंट भी सस्ता था। लगभग हर जगह सरकारी सहायता थी- जमीन, बिजली, ट्रांसपोर्टेशन, डाक व्यवस्था- पत्रकार या प्रेस यानी रियायत का दौर! पत्रकार भी सेवाभावी थे, कम वेतन पर मिलते थे।नतीजा था, कुल मिलाकर कास्ट कम थी। आज रियायतों का दौर खत्म हो चुका है। न्यू.जप्रिंट इम्पोर्ट करना पड रहा है। टेक्नॉलॉजी महँगी है, न्यू.ज गैदरिंग का खर्चा अनापशनाप है। इस पर भी बा.जार की माँग है गति और क्वालिटी। ब्लैक एण्ड व्हाइट पेपर के दिन लद गए। अखबारों में ग्राफिक्स, फोटोग्राफ्स और डि.जाइन के विशेषज्ञ भी शामिल हुए और अखबार एक प्रॉडक्ट में तब्दील हो गया, जिसका लक्ष्य ज्यादा पाठक तैयार करने से बढकर ज्यादा टर्नओवर करना हो गया।दूसरा दबाव एक मीडिया का दूसरे मीडिया पर प्रभाव को लेकर कहा जा सकता है।

आज सारे अखबार टी.वी. चैनल की तरह और तमाम टीवी चैनल अखबार की तरह होना चाहते हैं। टीवी की न्यू.ज के कारण अखबारों के पाठकों के मन में खबरों की प्याज बढी है और अखबारों की सुर्खियों ने टीवी चैनल को लोकप्रिय बनाया है। इसी का असर है कि कुल विज्ञापन व्यय का एक बडा हिस्सा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जाने के बावजूद दोनों ही माध्यम खूब फल फूल रहे हैं, क्योंकि टोटल वाल्यूम में इजाफा हो गया है।नये नेतृत्व का उदयबदले हालात में सम्पूर्ण मीडिया जगत में नये नेतृत्व का उदय हुआ है। यह नया नेतृत्व प्रबंधन, संपादन, टेक्नॉलॉजी, फाइनेंस, कोआर्डिनेशन का जानकार है। इसे वैसे ही लोग अब चाहिए जो सभी विधाओं में तालमेल बैठाकर बेहतर परिणाम दे सकें। जिस लीडर में अब ये सभी गुण समाहित नहीं होंगे वह लीडर अब उतना प्रभावशाली नहीं रह सकेगा। यहाँ शायद सम्पादक की तुलना सेनापति से सही लगती है, क्योंकि सैनिकों की शक्ति, हथियार, युद्धनीति, टेक्नॉलॉजी, सपोर्टिंग टीम सभी जगह बदलाव हो रहा है। इन तमाम बदलावों को अंगीकार करते हुए जो लीडर दस रुपए का अखबार एक-दो रुपए में लाखों लोगों को दिला सकता है, वही असली सम्पादक साबित होगा। यहाँ फिर दोहराना चाहक्तँगा कि अखबार का असली मालिक उसका पाठक और सिर्फ पाठक ही होता है।