Friday, February 07, 2014


ताकि सनद रहे


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2014 के खट्टे अंगूर (2)


 2 डिज़िट की कांग्रेस और मोदी के 'मत'वाले 

मोदी  के 'मत'वाले दावा कर रहे हैं कि इस  बार कांग्रेस की सीटें दो अंकों  सिमट जाएगी।  सम्भव है।  कितने पर सिमटेगी कांग्रेस? दो का आंकड़ा यानी  99 से ज्य़ादा नहीं। कुछ का  दावा है कि कांग्रेस शायद 50 के भीतर सिमट जाए। यह भी असम्भव नहीं।  जिस भाजपा की 1984 में केवल 2 सीटें थीं,  12  साल बाद 1996 में वही  भाजपा 161  सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी. दसवें प्रधानमंत्री के रूप में 13 दिन के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने किया फिर बहुमत साबित न कर पाने पर चुनाव हुए और फिर भाजपा ने 183 सीटें जीत कर सरकार बनाई।  यह सरकार  13 महीने चली और फिर जयललिता मैडम ने टंगड़ी मार दी। सरकार गिर गई। 1999 में फिर चुनाव हुए और भाजपा की सीटें फिर बढ़कर 183 हो गई। इस तरह अटलजी 3 मर्तबा लगातार प्रधानमंत्री रहे, लेकिन फील गुड फैक्टर के तहत वक़्त के कुछ पहले चुनाव कराये गए और भाजपा 2004 में 183 से 138 पर आ गई।  यूपीए की सरकार बनी और उमा भारती तथा सुषमा स्वराज  के स्यापे के बाद सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की पहल की. 

मोदी के 'मत'वालों के मुगालते

राजेन्द्र माथुर साहब ने लिखा है कि कांग्रेस को केवल एक चीज़ जोड़कर रख सकती है। वह है सत्ता।  अगर कांग्रेसियों को लगे कि सत्ता जा सकती है तो वे एक हो जाते हैं और अगर फिर भी सत्ता खो जाए तो वे किसी न किसी बहाने एक होकर, जोड़-तोड़ से सत्ता पर काबिज होने में जुट जाते हैं।  मोदी अकसर कांग्रेसविहीन भारत की बात करते हैं, जो लगभग नामुमकिन है। कांग्रेस या तो राज करने में यकीन रखती है या राज पाने के लिए संघर्ष करने में। अगर आप अतीत पर नज़र डालें तो इमर्जेंसी (1975-1977) के बाद हुए चुनाव कांग्रेस के लिए सबसे बुरे थे। इमर्जेंसी में लाखों लोग जेल में डेढ़ साल तक बंद रहे थे, जबरन  नसबंदी का ख़ौफ़ गाँव गाँव में था।  अनुशासन के डंडे से कर्मचारी नाराज़ थे। लोकशाही के सारे नागरिक अधिकार रद्द रहे थे और चुनाव की घोषणा होते ही वोटरों ने फैसला कर लिया था कि उन्हें क्या करना है। तब लोग प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से नाखुश नहीं, बेहद नाराज़ थे। तब भारतीय जनता पार्टी नहीं बनी थी और आरएसएस के आनुषंगिक संगठन के रूप में भारतीय जन संघ जनता मोर्चे का हिस्सा थी। उस चुनाव में इंदिरा गांधी और उनका बेटा संजय गांधी दोनों हार गए थे (बाद में इंदिरा गांधी चिक मंगलूर से उपचुनाव  लड़ीं और विजयी  रहीं ) लेकिन फिर भी कांग्रेस को 153 सीटें मिलीं थीं। (चुनाव के पहले  उसके पास 350 सीटें थीं). ज़रा गौर करिए प्रीवि पर्स ख़त्म करनेवाली, बैंकों का सरकारीकरण करनेवाली, 1971 में पकिस्तान का बंटवारा करने और भारत को सम्मान दिलानेवाली इंदिरा गांधी को लोगों ने धूल चटा  दी थी, लेकिन  कांग्रेस को 153 सीटें मिल गई थीं.  

चुनावी इतिहास में यू टर्न 

1977 का चुनाव एकलौता चुनाव था, जब किसी एक पार्टी को साफ़ साफ़ बहुमत मिला था। जनता मोर्चे को साफ़ साफ़ 345 सीटें मिल गयी थी, जिसमें से 295 सीटें चुनाव के लिए बनी जनता पार्टी को मिली थी, जिसमें मुख्य रूप से जनसंघ था। जनता मोर्चे की दूसरी 8 पार्टियों ने 47 सीटें जीती जिनमें से 22 वामपंथी थे। उसके बाद किसी भी गैर कांग्रेसी सरकार में एक ही पार्टी को साफ़ साफ़ बहुमत नहीं मिला। 

अगर आप इतिहास में देखें तो पाएंगे कि इमर्जेंसी के जुल्मों के बाद बने जनता मोर्चे को जितनी सीटें (345) मिलीं थीं उससे भी कहीं अधिक सीटें कांग्रेस ने 1984 में पाई।  जिन  इंदिरा गांधी ने इमर्जेंसी लादी थी और लोकतंत्र की सरेआम हत्या कर दी थी, उन्हीं इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस ने 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस  को 404  और भाजपा को 2 सीटों पर लाकर पटक दिया था।  यह चुनाव का सीधा और बहुत बड़ा यू  टर्न  था। 

बिना मनोबल की कांग्रेस 

इस चुनाव में कांग्रेस को शिकस्त देना आसान इसलिए है कि कांग्रेस कभी भी मनोबल के स्तर  पर इतने  नीचे नहीं रही। 1977 में भी नहीं। राहुल गांधी ने उन मठाधीशों को हाशिये पर लाकर पटक दिया है, जिनकी तिकड़मों  के बल पर वे कई सीटें जीत जाया करते थे। हाल ही प्रमुख  चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में हार से भी कांग्रेसियों का मनोबल गिरा हुआ है। महंगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आम वोटर बेहद नाराज़ है और यही मौका है विपक्ष के लिए। कांग्रेस इस चुनाव में वॉक ओवर दे चुकी लगाती है लेकिन कांग्रेस की कमज़ोरी ही भाजपा की ताकत है और भाजपा की कमज़ोरी क्षेत्रीय पार्टियों का अमृत। 

इन हालात में क्षेत्रीय छत्रपों को लग रहा है कि यह सही मौका है महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कोशिश करने का। उन्हें लगता है कि भाजपा में मोदी और राजनाथ के अलावा कोई प्रमुख नेता ऐसा नहीं है जो भीड़ को खींच सके। आडवाणीजी 86 वर्ष के बूढ़े हो चुके हैं और एक बार पीएम इन वेटिंग रह चुके हैं, उनके नाम से लोग वोट देनेवाले नहीं। वे चार बार राज्य सभा  और 5 बार लोक सभा सदस्य चुने जा चुके हैं।  पिछली बार वे मोदी की ही कृपा से गांधीनगर से लोकसभा में गए थे .   उनकी अपनी खुद की कोई ऐसी सीट नहीं, जहां वे कभी भी बेख़ौफ़ खड़े हों और जीत जाएँ। सुषमा स्वराज का भी कोई जनाधार नहीं है, वे पिछली बार शिवराज सिंह चौहान की कृपा से विदिशा से खड़ी  हुई और जीतीं, इस बार वे यहाँ से भी डर  रही हैं क्योंकि राघवजी भाई के होते उन्हें शक  है। नितिन गडकरी, मुरली मनोहर जोशी, बंगारू लक्ष्मण, शाहनवाज़ हुसैन, अरुण जेटली, वैंकेया नायडू, अनंत कुमार, थावरचंद  गेहलोत, यशवंत  सिन्हा, राजीव प्रताप रूढी, उमा भारती, राम लाल, मुख्तार अब्बास नक़वी ऐसे कई बड़े नेता भाजपा में हैं ज़रूर, पर वे प्रधान मंत्री के रूप में वोट नहीं ला सकते। शिवराज सिंह, रमन सिंह, महारानी वसुंधरा, मनोहर पर्रिकर अपने सूबों में ही व्यस्त हैं और कोई राष्ट्रीय नेता की छवि नहीं रखते। 

लीडर वर्सेस कॉडर 

दिलचस्प बात है कि जो कांग्रेस लीडर बेस्ड पार्टी कही जाती है वह अब कॉडर बेस्ड पार्टी होना चाहती है और जो भाजपा कॉडर बेस्ड पार्टी होने का भ्रम देती है वह एक नेता (मोदी) के पीछे भाग रही है।  कांग्रेस को नया खून देने की कोशिश में राहुल गांधी ने उसे आई सी यूं में डाल  रखा है और राजनैतिक सर्जरी जारी है। इस बार गणित राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस के पक्ष में नज़र नहीं आ रहे हैं और अब उनके सामने केवल यही लक्ष्य है कि डैमेज कम से कम हो। 

© प्रकाश हिन्दुस्तानी 
07. 02. 2014
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