Saturday, November 30, 2013

वीकेंड पोस्ट के 30  नवम्बर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम




सोशल मीडिया या अनसोशल मीडिया ?

जिसे सोशल मीडिया कहा जाता है उसमें ज़्यादातर सामग्री  या तो पर्सनल   है अथवा एंटी सोशल। सोशल तो दो-चार फीसद भी नहीं।  पर सोशल मीडिया का   जिक्र ऐसे होता है मानो ज्ञान की गंगोत्री वहीँ से हो रही हो। लोग-लुगाइयां लिखते हैं  ''फीलिंग स्लीपी, फीलिंग हंग्री, फीलिंग वावो !'' या फिर ''आज पोहे का आनंद लिया, आज पित्ज़ा खाया, आज बियर पी ''. तुम्हें कुछ महसूस हो रहा है वह समाज के लिए, दूसरों के लिए नहीं है.  मुझे क्या फर्क पड़ता है अगर किसी ने पोहे खाये, लड्डू बाफले सूते या फिर वह 2 नंबर जाने  के लिए तड़प रहा है। सोशल साइट्स चोट्टों का अंतर्राष्ट्रीय अड्डा बन चुका; जहाँ आप दुष्यंत कुमार से लेकर त्रिलोचन शास्त्री तक की पंक्तियाँ किसी के भी नाम से देख सकते हैं।  कई लोग तो इसी आस में रहते हैं कि कब कोई शानदार पोस्ट दिखे और वे उसे कट पेस्ट कर  के अपने नाम से चेंपें। एक ही 'अनमोल वचन ' (या कुविचार) के अनेकानेक जनक वहाँ मिल जाते हैं। जैसे जंगल में सांप-बिच्छू और लोमड़ी-सियार ही नहीं, खरगोश-हिरन भी होते हैं, वैसे ही सोशल  साइट्स पर भले और बुद्धिमानों के साथ  कम्युनल, जातिवादी, धर्मांध, मर्दवादी , औरतवादी, गालीबाज़ भी  मिल जाते हैं। यहाँ नकली विचारोत्तेजना है, छद्म ज्ञान का संसार और  कच्चे विचारों का जमावड़ा है।   यहाँ के कई पुरुषों को मुगालता है कि वे दुनिया के सबसे हैंडसम मर्द हैं और कई लुगाइयों को लगता है कि उन्होंने  इस धरती पर आकर सम्पूर्ण सृष्टि पर महान एहसान कर डाला है। 

नयी शोधों में यह बात खुलकर सामने आई हैं कि ये साइट्स नार्सिसिज़म, यौनाचार, अहंकारी भाव औररोतलेपन  को तो बढ़ा ही रही हैं , लोगों को वास्तव में घुलने-मिलने  से भी रोक रही हैं।  ये सोशल साइट्स वास्तव में सोशल नहीं, असत्य घटनाओं के प्रचार का भी मुख्य जरिया है. इस साइट्स का अत्यधिक उपयोग करनेवाले लोगों के सामने मनसियक परेशानियां बढ़ जाती हैं. कई लोगों को इस बात का अंदाज़ ही नहीं है कि सोशल साइट्स पर आपका कुछ भी निजी नहीं होता, सारी  जानकारियां सार्वजनिक होती हैं और कोई भी पोस्ट हटा देने मात्र से जानकारियां गायब नहीं हो जातीं। यूएसए में  ऐसी साइट्स  अभियान चलते रहते हैं।  31 मई को बाकायदा  'फेसबुक छोड़ो दिवस' मनाया गया और  करीब 40 हज़ार से भी ज्यादा  लोगों ने इसकी शुरुआत भी कर दी . पाश्चात्य देशों में लोगों के जीवन में खुलापन अवश्य है,  लेकिन अपनी निजता की रक्षा करना वे हमसे बेहतर समझते हैं .


अब भारत में सोशल वेबसाइट्स में दी गयी जानकारियों का कानूनी पहलू देखने में आने लगा है।  विवाहेतर सम्बन्धों के मामले में यहाँ दी गयी जानकारियों को कोर्ट में सबूतों के रूप में रखा जा चुका  है. फेसबुक पर दी गई जानकारियों की मदद से धोखाधड़ी के मामले भी आ चुके हैं और आत्महत्या तक हो चुकी है।  सोचकर अपनी निजी जानकारियों को सोशल साइट्स पर प्रकाशित करने का प्रशिक्षण भारत में दिया जाना ज़रूरी है, क्योंकि कई लोग बगैर नियम पढ़े ही अपनी जानकारी वहाँ दे देते हैं और बाद में  दुखी होते हैं। फेसबुक के करीब 25 प्रतिशत यूजर्स उसको प्राइवेसी सेटिंग्स को नहीं मानते और बड़ी संख्या में ऐसे यूजर्स हैं जिन्हें फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर अपनी प्राइवेसी को छुपाने की तकनीक नहीं आती। 85 प्रतिशत महिला यूजर्स फेसबुक के पुरुष मित्रों से परेशान हैं। पोर्नोग्राफी को बढ़ावा देने में भी फेसबुक का अहम् योगदान है क्योंकि यहाँ सेक्स से  की संख्या अन्य साइट्स से 90 प्रतिशत ज़यादा है। सोशल मीडिया के दुरूपयोग का भुक्तभोगी पूरा जम्मू और कश्मीर है, जहाँ आतंकवादी इनका उपयोग हिंसा  के लिए कर रहे हैं।  मुज़फ्फ़रनगर में भड़की हिंसा की  आग में घी डालने का काम भी इसी सोशल मीडिया ने किया था।  इस माध्यम से हिंसा को बढ़ावा देनेवालों को क्या दंड मिला? अगर दंड मिल भी गया तो क्या दंगे में मरनेवाले वापस आ जायेंगे?  
--प्रकाश हिन्दुस्तानी 
(वीकेंड पोस्ट के 30  नवम्बर  2013 के अंक में  मेरा कॉलम)

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