Saturday, November 26, 2011

भय के आगे जीत है

रविवासरीय हिन्दुस्तान के एडिट पेज (27/11/2011) पर मेरा कॉलम


भय के आगे जीत है / आंग सान सू की
----------------------------------------------------------------------------------------------
देश, समयकाल और नेता ज़रूर अलग हैं लेकिन हालात वैसे ही होते जा रहे हैं जैसे म्यांमार में थे. आंग सान सु ची का यह भाषण इस सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार के खिलाफ भारत में भी व्यापक आन्दोलन चल रहा है और लोगों के मन में आक्रोश भी उसी तरह बढ़ रहा है.
------------------------------------------------------------------------------------------------
जेल और नजरबंदी में पूरे 15 साल गुजारने वाली म्यांमार की आंग सान सू की ने भय के हर रूप का मुकाबला किया है। उन्हें उनके परिवार से अलग किया गया। उन पर बर्बर हमले हुए। एक वक्त वह भी था, जब अपने घर में नजरबंद थीं और म्यांमार में आए तूफान में उनके घर की छत उड़ गई, बिजली की सप्लाई कट गई। उन्होंने कई हफ्ते बिना छत के इस घर में सिर्फ जलती-बुझती मोमबत्तियों के सहारे गुजारे। उनका एक मशहूर भाषण ‘भय से मुक्ति’ बताता है कि डर को अपने मन से कैसे निकाला जाए और यह क्यों जरूरी है।
सू की का कहना है, ‘कुछ लोगों की निडरता कुदरत की देन हो सकती है, लेकिन सबसे बेशकीमती है वह साहस, जिसे हम अपनी कोशिशों से हासिल करते हैं। यह साहस अपने भीतर उस आदत को रोपने से आता है, जिसका संकल्प होता है कि डर हमारे जीवन का रास्ता तय नहीं करेगा। इस साहस की व्याख्या कुछ इस तरह की जा सकती है- दबाव में भी अडिग बने रहना। कठिन और निरंतर दबाव के बीच अडिग बने रहने की कोशिशों को लगातार बढ़ाते रहना पड़ता है।’
डर और साहस
‘एक ऐसी व्यवस्था में, जो आपको मूलभूत मानवाधिकार देने से भी इनकार करती हो, वहां भय दिनचर्या का हिस्सा बन जाते हैं। बंदी बनाए जाने का डर, प्रताड़ना का डर, मृत्यु का डर। अपने दोस्तों, परिजनों, अपनी संपत्ति, अपने रोजगार को खो देने का डर। गरीबी का डर, अलग कर दिए जाने का डर, नाकामी का डर। सबसे बड़ा धोखेबाज होता है वह डर, जो एक आमफहम सोच या बुद्धिमानी का नकाब ओढ़कर आता है और जो साहस की किसी भी कोशिश को बेकार, व्यर्थ करार देता है। लेकिन साहस इंसान के आत्मसम्मान और उसके भीतर की मानवता की रक्षा करता है। बहरहाल, सत्ता-व्यवस्था चाहे जितनी भी अत्याचारी क्यों न हो, साहस बार-बार उठ खड़ा होता है, क्योंकि डर मानव सभ्यता की फितरत नहीं है।’
भ्रष्टाचार की जड़
भय के इस फलसफे में सू की इस भय को ही म्यांमार में फैले भ्रष्टाचार का कारण मानती हैं। वह कहती हैं, ‘हमें सत्ता भ्रष्ट नहीं करती, बल्कि हमें भ्रष्ट करता है भय। सत्ता खोने का भय उन्हें भ्रष्ट करता है, जो सत्ता छोड़ना नहीं चाहते। हमारे देश में चार तरह के भ्रष्टाचार हैं। निजी आर्थिक लाभ के लिए किया जाने वाला गलत आचरण, अपने चहेते लोगों को फायदा दिलाने के लिए किया गया भ्रष्टाचार, कार्य के प्रति लापरवाही से उपजा अनुचित व्यवहार और इन सबसे बुरा होता है, भय के कारण सही और गलत की पहचान ही खो देना। यह भ्रष्टाचार दूसरी तमाम बुराइयों की जड़ में होता है। ..डर और भ्रष्टाचार में जब इतना गहरा रिश्ता है, तो कोई हैरत की बात नहीं कि जहां डर का राज हो, वहां हर तरह का भ्रष्टाचार बहुत गहराई तक अपनी जड़ें जमा ले।’
हर कोई नायक बने
म्यांमार की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की महासचिव सू की ने साहस का यह जज्बा अपने पिता आंग सान से हासिल किया है। वह आधुनिक म्यांमार के संस्थापक कहे जाते हैं, जो म्यामांर (तब बर्मा) को आजादी की दहलीज तक ले आए थे। लेकिन उनकी हत्या कर दी गई। आंग सान का यह कथन सू की के लिए हमेशा प्रेरणादायक रहा, ‘दूसरों के साहस और कोशिशों पर कभी निर्भर नहीं रहो। हर किसी को बलिदान करना पड़ेगा और नायक बनना होगा। हर किसी को साहस दिखाना होगा और कोशिश करनी होगी। तभी हम सब सच्ची आजादी का आनंद ले सकेंगे।’ अपने पिता के अलावा सू की महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से भी प्रेरणा लेती हैं। नेहरू का यह कथन उन्हें काफी प्रभावित करता है, ‘किसी देश या व्यक्ति के लिए सबसे बड़ा वरदान है उसका अभय होना, सिर्फ शारीरिक साहस के मामले में ही नहीं, बल्कि मन के भयमुक्त होने के मामले में भी।’
कहां से आता है साहस
लेकिन यह साहस आता कहां से है? सू की मानती हैं कि यह बहादुरी हमारे जज्बे से आती है, ‘किसी दुष्ट सत्ता के सामने साहस और अडिग रहने की ताकत आमतौर पर नैतिक सिद्धांतों में आस्था से आती है, इसके साथ ही इस इतिहास बोध से भी कि सारी मुश्किलों के बावजूद इंसान का आध्यात्मिक और भौतिक विकास भय से मुक्ति की ओर ही हो रहा है। खुद को सुधारने और आत्म-अवलोकन करने की इंसान की क्षमता ही उसे बर्बर बनने से रोकती है। इंसानी जिम्मेदारी के मूल में आदर्श बनने की अवधारणा है, इसे हासिल करने का आग्रह है, इसकी राह खोजने की बुद्धिमानी है, इसकी राह पर चलने की इच्छाशक्ति है। इस राह का अंत भले ही कितनी भी दूर क्यों न हो, लेकिन मनुष्य अपनी सीमाओं और वातावरण की बाधाओं से ऊपर उठकर इसकी ओर बढ़ता है। एक आदर्श और सभ्य मानवता कायम करने की यह सोच ही है, जो हमें ऐसा समाज बनाने का साहस देती है, जो भय से मुक्त हो। सत्य, न्याय और दया की अवधारणाओं को आप घिसा-पिटा कहकर खारिज नहीं कर सकते। खासतौर पर तब, जब सत्ता-व्यवस्था की निरंकुशता इनका रास्ता रोककर खड़ी होती हो।’ निडरता के इस फलसफे को आप आंग सान सू की के जीवन में हर कदम पर देख सकते हैं।

प्रकाश हिन्दुस्तानी

( दैनिक हिन्दुस्तान में 27/11/2011 को प्रकाशित )

No comments: